संगम युग की आर्थिक दशा | संगम युग की व्यापारिक प्रणाली | संगम युग का धर्म
संगम युग की आर्थिक दशा | संगम युग की व्यापारिक प्रणाली | संगम युग का धर्म
संगम युग की आर्थिक दशा-
संगम साहित्य से तत्कालीन आर्थिक दशा के विषय में अपेक्षाकृत अधिक जानकारी होती है। इस युग का तमिल देश आर्तिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था। इसकी समृद्धि के प्रमुख आधार कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य थे।
संगम साहित्य से विविद होता है कि दक्षिण भारत की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी जिसमें अनाज की बड़ी अच्छी पैदावार होती थी। कावेरी नदी का डेल्टा वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिये इतना अधिक प्रसिद्ध था कि इसके विषय में एक कहावत प्रचलित थी कि ‘जितनी भूमि एक हाथी बैठने पर घेरता है उतने में सात व्यक्तियों के खाने के लिये अनाज उत्पन्न किया जा सकता है।’ संगम साहित्य में धान, रागी तथा गन्ने की पैदावार का वर्णन मिलता है जिनकी इस प्रदेश में प्रचुरता थी। इसके अतिरिक्त कटहल, गोलमिर्च, हल्दी सहित विविध प्रकार के फलों का भी खूब उत्पादन होता था। साहित्य में फसल काटने, अनाजों को गन्ने से शक्कर तैयार करने आदि का रोचक वर्णन किया गया था। किसानों को ‘वेल्लार’ तथा उनके प्रमुखों को ‘वेलिर’ कहा जाता था। काले तथा लाल मिट्टी के बर्तनों एवं लोहे के आविष्कार का श्रेय वेलिर लोगों को ही दिया जाता है। वेल्लार दो वर्गों में विभाजित थे। पहले वर्ग में भू-सम्पन्न किसान तथा दूसरे में निर्धन कृषि मजदूर आते थे। सम्पन्न लोग मजदूरों की सहायता से कृषि करते थे। संगम साहित्य से पता चलता है कि समाज के निम्न वर्ग की महिलायें ही मुख्यतः खेती का कार्य किया करती थीं। इन्हें ‘कडेसिवर’ कहा गया है। इनकी स्थिति दासों के समान रही होगी। कृषि के लिये सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। उस काल के राजाओं ने कुओं, तालाबों तथा नहरों का निर्माण करवाया था। सिंचाई तथा लौह उपकरणों के प्रयोग के कारण उत्पादन के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो गया था। कृषि से राज्य को प्रभूत आय प्राप्त होती थी। इसी के द्वारा प्रशासनिक एवं सैनिक व्यय की पूर्ति की जाती थी। इस प्रकार कृषि, संगमयुगीन आर्थिक जीवन का आधार-स्तम्भ थी।
कृषि के साथ-साथ इस युग में उद्योग-धन्धों का भी विकास हुआ। वस्त्र उद्योग इस काल का एक मुख्य उद्यम था। सूत, रेशम आदि से वस्त्रों का निर्माण होता था। चोल राज्य की राजधानी उरैयूर सूती वस्त्रों के लिये प्रसिद्ध था। सूत कातने का काम स्त्रियाँ करती थी। संगम साहित्य से विदित होता है कि इस समय बेलबूटेदार रेशमी कमड़ों का निर्माण किया जाता था। वस्तुतः चोलों की समृद्धि का मुख्य कारण उनका सुविकसित वस्त्रोद्योग ही था।
संगमकाल व्यापार-वाणिज्य की उन्नति के लिए अत्यधिक विख्यात है। बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही व्यापार इस समय खूब प्रगति पर थे।। इस समय तमिल देश का व्यापार पश्चिम में मिस्र तथा अरब के यूनानी राज्य से तथा पूर्व में मलय द्वीप-समूह तथा चीन के साथ होता था। तमिल राज्य में कई प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। कालीमिर्च, हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशम आदि की तमिल प्रदेश में प्रचुरता थी और इन वस्तुओं की पश्चिमी देशों में बड़ी माँग थी। प्रथम शती में मिस्त्र, रोम का एक प्रान्त बन गया। इसी समय मिस्त्र के एक नाविक हिप्पोलस ने मानसूनी हवाओं के सहारे बड़े जहाजों से सीधे समुद्र पार कर सकने की विधि खोज निकाली। यह एक महत्त्वपूर्ण खोज थी जिससे दक्षिणी भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार प्रारम्भ हो गया जो ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य तक चलता रहा। फलस्वरूप भारत का व्यापार रोम के साथ अत्यधिक विकसित हो गया। विदेशी व्यापार के माध्यम से तमिल लोगों को भारी मात्रा में सोना प्राप्त होता था जो उनकी अप्रत्याशित समृद्धि का कारण बना । पुहार (कावेरीपत्तनम्) इस काल का एक समृद्ध बन्दरगाह था जहाँ से बड़े-बड़े जहाज माल लाद कर विदेशों से आते-जाते थे। व्यापार के द्वारा प्राप्त धन से यहाँ के निवासियों का जीवन अत्यन्त विलासपूर्ण हो गया था। उनके भवन भव्य, अलंकृत एवं बहुमंजिले बन गये थे। हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ यहाँ बौद्ध तथा जैन समारक भी स्थित थे। उत्खनन में यहाँ तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक आवासीय स्थल होने के साक्ष्य मिलते हैं। पाण्ड्य राज्य में ‘कोकेई’ भी प्रसिद्ध बन्दरगाह था। पाण्ड्य तथा अन्य राज्यों में विदेशों से घोड़ों का आयात किया जाता था। संगम साहित्य से पता चलता है कि पाण्ड्य राज्य में ‘शालियूर’ तथा चेर राज्य में ‘बन्दर’ नामक प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। बन्दरगाहों में कई देशों के व्यापारी बस गये थे। मुशीरी, पुहार तथा तोण्डी में यवन व्यापारियों की बस्तियाँ थीं। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि यवन व्यापारी अपने जहाजों में सोना भरकर मुशिरी बन्दरगाह पर उतरते थे। तथा उसके बदले में काली मिर्च तथा समुद्री रत्न ले जाते थे।
संगम साहित्य में तमिल प्रदेश की व्यापारिक समृद्धि का जो चित्रण मिलता है उसकी पुष्टि क्लासिकल विवरणों एवं उत्खनन में प्राप्त सामग्रियों से भी हो जाती है। ‘पेरीप्लस’ का अज्ञातनामा लेखक (प्रथम शताब्दी ईस्वी) भारत तथा रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों का विवरण प्रस्तुत करता है। वह नौरा, मुशिरी, तोण्डी, नेल्सिन्डा जैसे पश्चिमी तट के समृद्ध बन्दरगाहों का उल्लेख करता है। यहाँ से कालीमिर्च, हाथीदाँत, रेशम, मोती, मलमल, कीमती रत्न, नीलम, शंख आदि जहाजों में भरकर पश्चिमी देशों को भेजे जाते थे। सुदूर दक्षिण के कई स्थानों से रोम सम्राटों-आगस्ट्स, नीरो, टायवेरियस आदि के स्वर्ण सिक्के मिलते हैं जो ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत तथा रोम के मध्य व्यापारिक सम्बन्धों की सूचना प्रदान करते हैं। चेरों की प्राचीन राजधानी करूर से रोमन सुराहियों के टुकड़े तथा सिक्के मिलते हैं। अरिकमेडू (पाण्डिचेरी) की खुदाई से रोमन दीप के टुकड़े, काँच के कटोरे, रत्न, मनके तथा बर्तन प्राप्त किये गये हैं। एक मनके के ऊपर रोमन सम्राट आगस्टस का चित्र बना हुआ है। इनसे पता चलता है कि ईसा की प्रथम दो शताब्दियों में भारत तथा रोम के बीच गहरा व्यापारिक सम्बन्ध था। अरिकमेड एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था जहाँ देश के विभिन्न भागों से व्यापारिक वस्तुएं एकत्र की जाती तथा फिर यहाँ से रोम को जाती थीं। रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्धों में भारत को ही लाभ होता था। रोम के साथ जब तक व्यापारिक सम्बन्ध चलता रहा दक्षिण के तमिल राज्य समृद्धिशाली बने रहे, किन्तु जब व्यापार का पतन हुआ तो इन राज्यों का भी पतन प्रारम्भ हो गया।
बाह्य व्यापार के साथ-साथ संगम युग में आन्तरिक व्यापार भी प्रगति पर था। दक्षिण भारत के कई स्थानों से व्यापारी उत्तर भारत के बाजारों में माल लेकर आते-जाते थे। संगम साहित्य में नमक के व्यापारियों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। आन्तरिक व्यापार वस्तु-विनिमय (Barter-system) द्वारा होता था। विविध प्रकार की जड़ी-बूटियों, पशुओं, गन्ना, ताड़ी, मछली का तेल, मांस आदि का उल्लेख साहित्य में प्राप्त होता है जिनकी अदला- बदली की जाती थी। देश के विभिन्न भागों में बड़े-बड़े बाजार लगते थे। संगम साहित्य से पता चलता है कि इस समय के व्यापारी सदाचारी तथा ईमानदार हुआ करते थे। वे कभी भी अनुचित रूप से ग्राहकों का उत्पीड़न नहीं करते थे। व्यापारियों को माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए चुंगी अदा करनी होती थी। भार ढोने के लिये गाड़ियों तथा टट्टुओं का उपयोग होता था। इस प्रकार संगमकालीन तमिल देश आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न था।
धर्म तथा धार्मिक विश्वास-
संगमकालीन दक्षिण भारत में ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म का प्रचलन दिखाई देता है। दक्षिण में वैदिक संस्कृति को ले जाने का श्रेय अनुश्रुतियों में अगस्त्य ऋषि को दिया गया है। आज भी सुदूर दक्षिण में अगस्त्य पूजा का व्यापक रूप से प्रचलन है।
संगमकाल के धर्म में ब्राह्मणों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। कौण्डिन्य गोत्रीय ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को लोकप्रिय बनाया। वे पुरोहित का कार्य करते थे। राजा तथा कुलीन लोग वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करते थे और इनमें ब्राह्मणों की प्रमुख भूमिका होती थी। ब्राह्मण लोग अपना समय अध्ययन-अध्यापन में व्यतीत करते थे। संगम साहित्य से पता चलता है कि उनका अन्य धर्मों के अनुयायियों के साथ वाद-विवाद होता रहता था। ऐसे धर्मों से तात्पर्य बौद्ध तथा जैन धर्मों से है जिनका संगमकाल में सुदूर दक्षिण तक प्रचार हो चुका था। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक देवताओं जैसे विष्णु, शिव, बलराम, कृष्ण, इन्द्र आदि की उपासना दक्षिण भारत में की जाती थी।
तमिल देश का प्राचीन देवता मुरुगन था। कालान्तर में उसका नाम सुब्रह्मण्य हो गया और स्कन्द-कार्तिकेय के साथ उसका तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। हिन्दू धर्म में स्कन्द- कार्तिकेय को शिव-पार्वती का पुत्र माना गया है तथा उसके जन्म से सम्बन्धित कई कथायें मिलती हैं। विभिन्न कथाओं में उसे कृत्तिका, अग्नि, गङ्गा अथवा शिव के पुत्र के रूप में निरूपित किया गया है। दक्षिण के लोगों ने मुरुगन के पक्ष में इन सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया। स्कन्द का एक नाम ‘कुमार’ भी है और तमिल भाषा में मुरुगन शब्द का यही अर्थ होता है। मुरुगन का प्रतीक मुर्गा माना जाता था तथा उसके विषय में यह मान्यता थी कि उसे पर्वत पर क्रीड़ा करना अत्यधिक प्रिय है। उसका अस्त्र बर्छा था। कुरवस नामक एक पर्वतीय जनजाति की स्त्री को मुरुगन की पत्नियों में माना गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस देवता की उपासना दक्षिण में प्रागैतिहासिक काल से की जाती थी। देवताओं की पूजा विधियाँ उत्तर भारत के ही समान थीं। पत्रुिपत्तु से पता चलता है कि विष्णु की पूजा-उपासना में तुलसी-पत्र चढ़ाकर घण्टा बजाया जाता था। कावेरीपत्तन में इन्द्र की पूजा होती थी तथा इसके लिये एक विशेष प्रकार का समारोह आयोजित किया जाता था। ग्रामों में स्थानीय देवताओं की पूजा का प्रचलन था। देवता को प्रसन्न करने के लिये भेड़, भैंस आदि की बलि भी चढ़ाई जाती थी।
तमिल प्रदेश में महाभारत तथा पौराणिक आख्यानों का भी प्रचलन था। शिव द्वारा त्रिपुर राक्षस का वध, विष्णु द्वारा बलि दमन के लिए वामन अवतार धारण करने, परशुराम द्वारा माता का सिर काटने, गौतम ऋषि द्वारा इन्द्र को शाप देने जैसी पौराणिक कथाओं का दक्षिण में व्यापक रूप से प्रचलन था। कृष्ण की विविध रासलीलाओं से भी लोग परिचित थे। कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्तों तथा भाग्यवाद में लोगों की आस्था थी। सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि संगमकालीन दक्षिण भारत में हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रायः सभी प्रमुख आचार-विचारों को मान्यता प्रदान कर दी गयी थी।
ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ सुदूर दक्षिण में बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रचलन हुआ। तमिल प्रदेशों से इन दोनों धर्मों से सम्बन्धित कई मन्दिर तथा विहार प्राप्त हुए हैं। वस्तुतः सुदूर दक्षिण में बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रवेश संगम युग के बहुत पहले ही हो गया था। अशोक के लेखों से पता चलता है कि उसने तमिल देश में अपने धर्म प्रचारक भेजे थे। इसी प्रकार जैन परम्परा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व चौथी शती में ही जैन धर्म का प्रवेश दक्षिण भारत में हो चुका था।
इस प्रकार संगम साहित्य के अध्ययन से हम प्राचीन तमिल देश के समाज तथा संस्कृति की अच्छी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इसमें सामान्य मनुष्यों के दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या का जितना सूक्ष्म विवरण दिया गया है वह बहुत कम ग्रन्थों में प्राप्त होता है। नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार यह साहित्य तमिल देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों, जनता के विचारों और आदर्शों तथा उनको जीवित रखने वाली संस्थाओं और कार्यों का पूर्ण तथा वास्तविक विवरण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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