इतिहास / History

संगम कालीन समाज | संगम काल की सामाजिक स्थिति

संगम कालीन समाज | संगम काल की सामाजिक स्थिति

संगम कालीन समाज-

दक्षिण में संगम काल के समय एक दीर्घकालीन साहित्यिक परम्पर थी। विभिन्न स्थानों अवसरों को समाविष्ट करने वाली संगमयुगीन इस साहित्य में प्रायद्वीपीय भारत के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा अन्य सांस्कृतिक परम्पराओं को यथासम्भव आत्मसात् किया है जिसके आधार पर तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का ज्ञान होता है।

इस युग की विशेषता है उत्तरी और दक्षिणी भारत के संस्कृति तत्त्वों का समन्वय सामाजिक संस्थाओं के विकासक्रम में भारत के आर्याकरण में अन्तर्निहित प्राण तत्त्व तत्कालीन जनजीवन को स्पन्दित करता है। आर्यों के जीवन पद्धति को अपनाने के लिए प्रेरित किया। इतना होते हुए भी आर्य वर्ण व्यवस्था की भाँति संगम युग में चर्तुवर्ण व्यवस्था के. स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिलते यद्यपि विभिन्न वर्गों में विभाजित समाज अस्तित्व में आ चुका था। जिनमें प्रमुख ब्राह्मण, अरसर (शासक) वविक (बेनिगर) तथा वेल्लाल (कृषक) कृषकों में वल्लाल बड़े कृषक तथा शासक वर्ग थे जो कि ब्लालर मजदूर कृषक वर्ग थे। संगम युग में वैदिक यज्ञों का प्रचलन हो चुका था जिसके कारण ब्राह्मणों को समाज में सर्वाधिक समादर मिला हुआ था। वस्तुतः तमिल प्रदेश में ब्राह्मणों का उदय सर्वप्रथम संगम काल में ही हुआ। ब्राह्मण वर्ग के लोगों का अधिकांश समय अध्ययन अध्यापन, यज्ञों के अनुष्ठान, अतिथि सेवा में व्यतीत होता था राजा उन्हें संरक्षण एवं सम्मान देते थे। ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान देना, उन्हें प्रसन्न रखना सभी शासकों का उद्देश्य होता था ब्राह्मणों की हत्या को सबसे बड़ा अपराध माना जाता था। यज्ञ सम्पादन के अतिरिक्त ब्राह्मण राजा के दरबार में सलाकार एवं कवि के रूप में रहते थे। राज्य में स्वर्ण मुद्राएं, हाथी, घोड़े, रथ और भूमि भी दान में देता था। शासकीय निर्णयों में उसके सुझाव का विशेष आदर किया जाता था। संगम साहित्य में परम्परागत आदर्शों से च्युत ऐसे साधारण ब्राह्मणों के भी उल्लेख मिलते हैं जो मांस-भक्षण, ताड़ी सेवन एवं सुरापान भी करते थे। इन सबसे ध्वनित होता है कि दक्षिण प्रायद्वीप के सामाजिक पुनर्गठन में कई शताब्दियों के अन्तराल के बावजूद प्रारम्भ वैदिक परम्पराओं को विशेष महत्त्व दिया गया।

शासक वर्ग का लोगों के समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। राजा सर्वशक्ति सम्पन्न होता था। उसे समाज का भी प्रधानतम पुरुष माना जाता था शासकों तथा सेनानायकों के पास पर्याप्त धनसम्पत्ति होती थी जिससे वे भोग-विलासों में लिप्त रहते थे।

ब्राह्मणों के पश्चात् समाज में वेल्लारों का प्रमुख स्थान था इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा शासकों के समान थी, वेल्लारों का राजकीय परिवार में सम्बन्ध स्थापित करने तथा अन्तर्जातीय विवाह करने का अधिकार था। ये कृषक तथा सैनिक दोनों रूपों में कार्य करते थे इनका मुख्य उद्यम कृषि था तथापि सैनिक के रूप में इनका अधिक महत्त्व था ये राज्य के उच्च पदों पर रखे जाते थे। संगमकालीन सामाजिक, आर्थिक संरचना में ब्राह्मणों का एक उल्लेखनीय प्रयास यह भी था कि उन्होंने वल्लालों को उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया। सम्पन्न कृषक वल्लाल (जमींदार वर्ग) के लोग सेना तथा शासकीय पदों पर नियुक्त थे। अपनी प्रचुर कृषि भूमि पर मजदूरों से खेती कराते थे, राज़ परिवारों तथा शासकों के साथ उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। फलस्वरूप समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। वल्लालों का दूसरा वर्ग खेती तो करता था लेकिन उनके पास निजी जोत की भूमि कम थी या नहीं थी। ऐसे मजदूर वल्लार कृषक निर्धन होते थे तथा उनकी संख्या भी समाज में अधिक थी फलतः इस प्रकार के सर्वहारा भूमिहीन मजदूरों का एक पृथक् वर्ग बन गया था।

संगम साहित्य में वेनिगर अर्थात् व्यापारी वर्ग के लोगों का उल्लेख मिलता है जो आंतरिक एवं बाह्य व्यापार में लगे थे इनके अलावा चेति वर्ग के व्यापारी वर्ग थे जिनका महत्त्व कम था क्योंकि वे साधारण कोटि के व्यापारी थे। इन वर्गों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति विशेष सम्मानजनक न थी उनको वैश्य वर्गों के समान सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी। समाज में अन्य वर्ग भी थे पुलैयन नामक जाति रस्सी की चारपाई बनाती थी। चरवाहों तथा शिकारियों का अलग वर्ग होता था। उत्तरी सीमा पर मलवर नाम के लोग रहते थे जिनका पेशा डाका डालना होता था। लड़ाकू जनजातियों में मरवा जनजाति विशेष उल्लेखनीय थी। मरवा नायकों को संगमकालीन राजाओं ने अपने सैन्य अभियानों में सम्मिलित किया था। सबसे निम्न वर्ग में मछुआरे तथा जमादार माने जाते थे। कुछ विदेशी जातियाँ भी बन्दरगाहों के समीप स्थिति नगरों में रहती थीं इनमें ग्रीको, रोमन तथा अरबों की बहुलता थी। अधिकांशतः ये लोग व्यापार वाणिज्य का कार्य करते थे। दास प्रथा के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। मेगस्थनीज का यह कथन समीचीन प्रतीत होता है कि सभी भारतवासी स्वतंत्र थे वहाँ कोई दासप्रथा नहीं थी। विभिन्न वर्गों के लोगों के जीवन में भारी आर्थिक विषमता के बावजूद समाज में सांस्कृतिक दृष्टि से सामञ्जस्य बनाया गया था। धनी वर्गों का जीवन सुख-सुविधापूर्ण थी वे ईंटों चूनों के बने भव्य मकानों में भोग विलास का जीवन व्यतीत करते थे। जबकि निर्धन लोग मिट्टी और घास-फूस की झोपड़ियों में रहते थे और उनका जीवन सादा था।

तोल्कपियम के अनुसार विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता प्रदान की गई थी। धर्म शास्त्रों में उल्लेखनीय आठ प्रकार के विवादों का अनुकरण तमिल प्रदेश के निवासी करते थे। विवाह का सरल एवं सहज ढंग था यद्यपि एक पली रखने की अनुमति विधि द्वारा प्राप्त थी परन्तु शासक तथा धनाढ्य वर्ग के लोग एक से अधिक विवाह करते थे।

प्रेम विवाह को पञ्चतिणै एकपक्षीय प्रेम तथा औचित्यहीन विप्रेम को पेरु दिणै कहते थे। विवाह के लिए स्वेच्छता प्राप्त थी तथा निकट रक्त सम्बन्धी से विवाह की अनुमति थी। समाज में स्त्रियों का समादर था और उनकी स्थिति अच्छी थी। सामाजिक गठन पितृ सत्तात्मक होते हुए भी स्त्रियों को विशेषाधिकार मिले हुए थे। सामान्य रूप से वे घर गृहस्वामी का कार्य भार सम्भालती थीं उनके शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी, उन्हें परिवार की रोशनी समझा जाता था, इस युग में प्रख्यात कवियत्रियों में ओवेर तथा नच्चेलियर का नाम उल्लेखनीय है। महिलाएं कविता भी करती थीं जो उस युग का अत्यधिक सुसंस्कृत मनोरंजन था। कुछ महिलाएं महलों के सशस्त्र रक्षिका के रूप में नियुक्त की जाती थीं। निम्न वर्ग की स्त्रियाँ खेतों में पुरुषों के साथ काम करती थीं तथा उनकी स्थिति सर्वहारा वर्ग से भिन्न नहीं थी सूत कातने का कार्य मुख्य रूप से स्त्रियाँ ही करती थीं मणिमेखले के अनुसार उच्च वर्ग तथा शासक के पलियों को नृत्य नायन कला चित्रकारी, वादन आदि की सिक्षा दी जाती थी। लेकिन विधवाओं की दशा विशेष दयनीय थी उनका जीवनयापन दुरूह हो जाता था उन्हें आभूषण पहनने, हरी सब्जी खाने, ठंडे जल से स्नान करने से वंचित कर दिया जाता था उनको बालों का मुण्डन भी करवाना पड़ता था तथा सादा भोजन करना पड़ता था। इसीलिए कुछ स्त्रियाँ अपने पति के साथ सती होना अधिक पसंद करती थीं जिससे समाज में सती प्रथा का प्रचलन हुआ लेकिन किसी विधवा को बलपूर्वक सती बनाना निन्दनीय कार्य माना जाता था तथा सती-प्रथा को आदर की दृष्टि से देखा जाता था। संगम युग में पत्तिनी अथवा कण्व जी पूजा को विशेष आदर दिया जाता था। यह इस युग में एक नई शुरुआत थीं जिसे चेर शासक सेन गुट्टवन ने शुरू किया था।

तमिल समाज गणिकाओं तथा नर्तकियों को अधिक प्रतिष्ठा दी गई थी वे राजाओं तथा समृद्धि लोगों का मनोरंजन किया करते थे। यद्यपि समाज में व्यभिचार को अपराध माना जाता था फिर भी कुछ स्त्रियाँ काम पिपासा की शांति की साधन भी थीं। राजा के संरक्षिका का उत्तरदायित्व निभाने का कार्य कुछ स्त्रियों को दिया जाता था यदा-कदा स्त्रियाँ रण क्षेत्र में जाती थीं।

मनोरंजन के लिए संगीत, नृत्य, वादन, कविता पाठ तथा विविध प्रकार के खेलों एवं उत्सवों का आयोजन होता था कविता के प्रति इस युग के राजाओं में विशेष लगाव था जिसे पुरुष एवं महिलाएं दोनों ही करते थे। कविता के साथ गायन और नृत्य भी चलते थे, संगत मंडलियों के साथ प्रायः नर्तकियाँ भी रहती थीं। संगम साहित्य में इन्हें पाडर तथा विडैयिरे कहा गया है ये मंडलियां अनेक दरबारों में भ्रमण करती रहती थीं संगम काल के लोग विविध प्रकार के संगीत और रागों से भी परिचित थे। चोल नरेश करिकाल स्वयं सात स्वरों का ज्ञाता था इसके अतिरिक्त धूसेबा जी कुश्ती, शिकारी, पासा खेलना तथा महिलाओं में जोलियाँ मोलिकावींस आदि मनोरंजन के साधन थे। समय समय पर विविध प्रकार के खेलों एवं उत्सवों का आयोजन हुआ करता था।

खानपान शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजनों का प्रयोग होता था। चावल उनका मुख्य खाद्यान्न था इसे दूध में मिलाकर, सांभर नामक मांसाहार का खूब प्रचलन था। समाज के सभी लोग भोजन के साथ-साथ पेय के भी शौकीन थे। साधारणजन दूध, नारियल, ताड़ के रस और गन्ने के रस को पीते थे जिसे मुनीर कहा जाता था। समृद्ध तथा विलासी व्यक्ति रोम तथा यूनान से आयातित विदेशी मदिरा पीते थे। भोजन के उपरान्त पान तथा सुपारी खाने की प्रथा भी प्रचलित थी, तमिल प्रदेश में अधिक शीत नहीं पड़ता था अतः यहाँ के सामान्य लोग सूती वस्त्रों तथा धनी वर्ग के लोग रेशमी वस्त्र धारण करते थे। धोती तथा पगड़ी मुख्य प्रकार के वस्त्र थे। सामाजिक स्तर जाति तथा वर्ग के अनुसार लोगों के वस्त्र विन्यास का नियोजन होता था। स्त्रियों की सबसे प्रिय आभूषण नाक की लौंग, चूड़ियाँ, हार तथा गुलबन्द थे। पुरुष प्रायः गले में हार पहनते थे जनता का भूत-प्रेत तथा जादू टोने में विश्वास था। विविध प्रकार के शकुन तथा अपशकुन का प्रचलन था, ज्योतिषयों का व्यवसाय समुन्नत दशा में था। अनिष्ट रोकने के लिए बच्चों को ताबीज पहनायी जाती थी, दुष्ट आत्माओं, दुःखों एवं बीमारियों से बचाव के लिए तथा अनिच्छित फल प्राप्ति हेतु विविध प्रकार के पूजा-पाठ और धार्मिक विधियाँ निष्पन्न होती थीं। पक्षियों में कौवा शुभ शकुन का वाहक माना जाता था। बरगद के पेड़ में देवताओं का निवास समझा जाता था। कुछ अन्धविश्वास भी थे जैसे ग्रहण के कारण सूर्य द्वारा चन्द्रमा का तथा सूर्य का निकट जाना मानते थे ।

सामाजिक रीति-रिवाजों में अतिथि सत्कारों का विशेष महत्त्व था उनको सुन्दर व्यञ्जन खिलाने तथा घर से कुछ दूर पहुँचाने की प्रथा प्रचलित थी। विभिन्न अवसरों पर प्रीतभोज दिया जाता जिसमें विविध व्यञ्जनों एव पेय पदार्थों की व्यवस्था की जाती थी। ब्राह्मण हत्या, गोवध, भ्रूण हत्या को जघन्य अपराध माना जाता था। परन्तु कृतघ्नता को इससे भी बढ़कर अपराध समझा जाता था। व्यभिचार को भी घृणित सामाजिक अपराध माना जाता था, अंतिम संस्कार की कोई सर्वमान्य पद्धति का विकास नहीं हुआ था, शवों को जलाने तथा कलश के साथ और बिना कलश के साथ दफनाने की कला प्रचलित थी। समाधियाँ बनाने का भी विवरण मिलता था, इनका आकार-प्रकार अलग-अलग होता था। जनजातियों में मृतकों के समाधि स्थल पर पत्थर गाड़ने की प्रथा भी विद्यमान थी। महापाषाणिक शवाधान का भी उल्लेख मिलता है जो आद्य तमिल संस्कृति की परिचायक है। स्त्रियाँ अपनी मृत पतियों की आत्मा व शान्ति के लिए चावल के पिन्ड का दान करते थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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