गुप्तकालीन आर्थिक दशा का वर्णन | the economic conditions of Gupta Age in Hindi

गुप्तकालीन आर्थिक दशा का वर्णन | the economic conditions of Gupta Age in Hindi

आर्थिक दशा (गुप्तकालीन आर्थिक दशा का वर्णन)

गुप्तकालीन साम्राज्यवादी एवं प्रतापी सम्राटों ने अपने प्रताप तथा महत्वाकांक्षा के अनुरूप विशाल साम्राज्य का निर्माण करके राष्ट्रीय चेतना तथा सुरक्षा को जन्म दिया। इस चेतना तथा सुरक्षा द्वारा उन परिस्थितियों का जन्म होना स्वाभाविक था जो देश की आर्थिक प्रगति में सहायक हो सकती थी। गुप्तकाल को आर्थिक दशा का वर्णन निम्नलिखित है-

(1) कृषि

भारत आज की भाँति अपने आदिकाल से कृषिप्रधान देश रहा है। अनेक भौगोलिक प्रकरणों द्वारा इस देश की धरती शस्य-श्यामला रही है। यह बात और है कि आधुनिक भारत में जनसंख्या तथा अन्य विशेष कारणों के कारण से हमारी अत्रपूर्ति नहीं हो पा रही है तथापि मध्यकाल या उससे पूर्व यह देश अपनी आवश्यकता से भी अधिक अन्न उत्पन्न करता था। गुप्तकाल में कृषि बहुत उन्नतावस्था में थी। कृषि के लिए अनेक वैज्ञानिक विधियाँ प्रयोग की जाती थीं। सिंचाई के लिए नहरों, तालाबों, कुओं तथा झीलों का निर्माण कराया जाता था। जूनागढ़ अभिलेख से विदित होता है कि विपुल धनराशि व्यय करके सुदर्शन झील का पुनः निर्माण कराया गया था। कृषि योग्य भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार का नियम था तथापि अधिक बड़ी भूमि राजा की भूमि ही होती थी। दैविक विपत्तियों का सामना करने के लिए अन्न संचय किया जाता था। कृषि भूमि नापने की प्रथा थी तथा इसका सही-सही माप रखा जाता था। महाक्षटलिक तथा करणिक नामक पदाधिकारी कृषि सम्बन्धित ब्यौरों से सम्बन्धित कार्य करते थे। कृषकों को राजकीय सहायता प्रदान की जाती थी। कृषिकर वसूलने के लिए ध्रुवाधिकरण नामक पदाधिकारी कार्य करता था। कृषिकर की वसूली अन्न रूप में की जाती थी। कालिदास ने ईख तथा धान की खेती का उल्लेख किया है। ‘अमरकोष’ के एक पूरे अध्याय में वनों, पौधों, वृक्षों तथा उद्यानों का वर्णन किया गया है। इस काल में सिंचाई, बीज, कृषि रोगों की चिकित्सा आदि की नवीन प्रणालियों की भी खोज हुई। नाना प्रकार के अन्नों, फलों, शाक- सब्जियों आदि की पैदावार होने के कारण देश धन-धान्य से पूर्ण था।

(2) व्यापार

व्यापार स्वतन्त्र तथा मुक्त था। राज्य की ओर से व्यापार पर नियन्त्रण न किये जाने के फलस्वरूप व्यापारिक संस्थानों में उत्पादन के लिए प्रतिस्पर्धा रहती थी; फलतः उत्पादन अधिक तथा उत्तम होता था। राज्य की ओर से व्यापारिक श्रेणियों को मान्यता प्राप्त थी। देश भर में व्यापारिक संगठनों की स्थापना हो चुकी थी। बैंक-प्रणाली प्रचलित थी तथा व्यापारिक शिक्षा का भी प्रचलन था। व्यापारिक संस्थाएँ स्वयं ही विवादों का निपटारा कर लेती थीं। गुप्तकालीन लेखों में व्यापारिक श्रेणियों के अनेक उल्लेख मिलते हैं।

संगठन तथा मुक्त व्यापार की उपर्युक्त विशेषताओं के कारण व्यापार उगतावस्था में था। व्यापारिक उत्पादन के लाने-ले जाने के लिए सुरक्षित स्थल तथा जलमार्गों की व्यवस्था थी। सामुद्रिक व्यापार के लिए विशाल जलपोतों की व्यवस्था थी तथा वे देश में ही बनाये जाते थे। जावा, सुमात्रा तथा बोर्निओ आदि द्वीपों के साथ अति घनिष्ट व्यापारिक सम्बन्ध थे। ताम्रलिप्ति में एक प्रमुख बन्दरगाह था। अरब, फारस, रोम, मित, चीन तथा दक्षिण-पूर्वी एवं पूर्वी द्वीपसमूहों को मसाले, औषधियाँ, सुगन्धित पदार्थ, हीरे, मोती, मणियाँ, हाथीदाँत, ऊन तथा मलमल के महीन वस्त्र, मोरपंख आदि का निर्यात होता था तथा रेशम का धागा, मूंगा, कपूर, स्वर्ण, चाँदी, ताँबा, टिन तथा अश्व आदि आयात किये जाते थे। विदेशों में भारतीय वस्तुएँ बहुत ही लोकप्रिय थीं। पाटलिपुत्र  उज्जयिनी, भड़ौंच, वैशाली, दशपुर तथा ताम्रलिप्ति आदि व्यापार के प्रमुख केन्द्र थ तथा प्रयाग, काशी, गया तथा मथुरा अपने विशिष्ट उत्पादनों के लिए प्रसिद्ध थे।

(3) व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धे

समृद्धि तथा विलासिता के इस युग में जनता की आवश्यकताएँ अनेक थीं; अतः व्यवसायों तथा उद्योग-धन्धों की उन्नति का विशेष अवसर प्राप्त हुआ। वस्त्र-व्यवसाय बहुत विकसित था। विदेशों में भारतीय मलमल की बहुत माँग थी। अमरकोष’ से विदित होता है कि देश मे सूती, रेशमी वस्त्रों का बहुत प्रयोग होता था। बुनाई, रँगाई के लिए अनेक रसायनिकों का प्रयोग किया जाता था। मिट्टी के दैनिक उपकरण, मूर्तियों आदि के निर्माण तथा हाथीदाँत की बनी सामग्री का निर्माण चतुर कारीगरों द्वारा किया जाता था। हीरे काटने, पालिश करने, काष्ठ शिल्प, तेल सुगन्धि आदि से सम्बन्धित व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों की अधिकता थी। ग्रामों में अनेक गृह-उद्योग पनप रहे थे।

(4) मुद्रा

गुप्तकालीन आर्थिक दशा का ज्ञान तत्कालीन मुद्राओं द्वारा भी प्राप्त होता है। गुप्तों की अधिकांश मुद्राएँ स्वर्णधातु की हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि तत्कालीन आर्थिक दशा सुदृढ़ थी। स्वर्ण के अतिरिक्त कम मूल्य की चाँदी तथा ताम्रमुद्राएँ भी प्रचलित थीं। दैनिक व्यवहार तथा साधारण क्रय- विक्रय के लिए कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था। वह विशेष महत्व की बात है कि गुप्तकाल में मुद्राओं का प्रचलन भारी मात्रा में था।

(5) आय-व्यय के साधन

‘भूतोवात प्रत्याय’ नामक कर मादक वस्तुओं पर लगाया जाता था। अपराधियों पर आर्थिक दण्ड लगाया जाता था। गुप्तकालीन राजकीय पदाधिकारियों के शासकीय कार्यों से सम्बन्धित भ्रमणों के लिए भ्रमण-स्थान की जनता कर देती थी। पुत्रहीन व्यक्ति की सम्पत्ति राज्य की ही हो जाती थी। साम्राज्य की आय का प्रमुख साधन कृषिकर था जो सम्भवतः उपज का सोलह से पच्चीस प्रतिशत होता था। इसके अतिरिक्त व्यापार-वाणिज्य पर लगाये गये कर द्वारा प्रचुर धन प्राप्त किया जाता था। वन-सम्पदा राज्य की सम्पत्ति थी तथा इसके द्वारा भी राज्य को पर्याप्त आय होती थी। गुप्त सम्राट जनहितकारी कार्यों पर अधिकाधिक धन व्यय करते थे। इसके अतिरिक्त सेना तथा अन्य राजकीय कर्मचारियों के वेतन आदि पर भी प्रचुर धन व्यय किया जाता था। गुप्त नरेश दान के रूप में ब्राह्मणों, मन्दिरों तथा शिक्षा संस्थाओं को इच्छित धन देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय का निर्माण गुप्त नरेशों के दान से ही हुआ था।

निष्कर्ष

गुप्तकालीन आर्थिक दशा के उपर्युक्त वर्णन से हमें जिन विशेषताओं का पता चलता है, उनके आधार पर हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि गुप्त नरेशों ने अपने पराक्रम द्वारा देश के भौगोलिक अवरोधों पर विजय प्राप्त करके देश में शान्ति तथा सुरक्षा की स्थापना की एवं अपनी इस उपलब्धि द्वारा देश को आर्थिक विकास का सुअवसर प्रदान किया। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्त काल की आर्थिक दशा सुनियोजित, सुसंगठित तथा उन्नत थी।

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