फ्रांस की राज्यक्रंति के बौद्धिक कारण | Intellectual Causes of the Revolution in Hindi
फ्रांस की राज्यक्रंति के बौद्धिक कारण | Intellectual Causes of the Revolution in Hindi
फ्रांस की राज्यक्रंति के बौद्धिक कारण
(Intellectual Causes of the Revolution)
राइकर ने कहा है कि फ्रांसीसी दार्शनिकों के लेखों के माध्यम से तत्कालीन फ्रांस की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बुराइयों का अवलोकन किया जा सकता था। असल में फ्रांसीसी दार्शनिकों ने फ्रांसीसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त बुराइयों को अपने लेखों में उजागर किया जिससे फ्रांसीसी जनता जागरूक हुई और विद्रोह के लिए तैयार हुई। केटलबी का कथन है कि सभी प्रकार के लेखकों ने फ्रांस की क्रांति तैयार की। लेकिन, वास्तव में जब हम इन लेखकों के लेखों का अध्ययन करते हैं, तो पाते हैं कि इन लेखकों ने कभी क्रांति की बात नहीं की और इनका योगदान क्रांति कराने में नगण्य था। हाँ, यह सही है कि क्रांति हो जाने के बाद संविधान बनाते समय इनके दर्शनों का उपयोग किया गया।
मांटेस्क्यू (Montesquieu)-
फ्रांस के प्रमुख दार्शनिक मांटेस्क्यू, वाल्टेयर, रूसो और दिदये थे। मांटैक्यू कुलीन परिवार में जन्मा था और इंगलैंड में उसने कुछ वर्ष बिताए थे, जिसके कारण वह वहाँ की शासन-पद्धति से काफी प्रभावित था। उसने अपनी पुस्तक दि स्पिरिट ऑफ लॉ (The Spirit of Lav) में राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धांत का बड़े जोर से खंडन किया है और फ्रांसीसी राजनीतिक संस्थाओं की कड़ी आलोचना की है। वह वैधानिक शासन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक था। उसका विश्वास था कि जब तक शासन के क्षेत्र में शक्तियों का पृथक्करण नहीं हो जाता, तब तक निरंकुश शासन का अंत नहीं होगा। इसी संदर्भ में उसने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार शासन के तीन प्रमुख अंग कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका को अलग-अलग हाथों में रहने की उसने सलाह दी। उसका विचार था कि फ्रांस में ये तीनों शक्तियाँ एक ही व्यक्ति, अर्थात् राजा के हाथों में केंद्रित हैं, इसलिए फ्रांस की जनता को स्वतंत्रता नहीं है।
वाल्टेयर (Voltaire)-
वाल्टेयर एक दक्ष पत्रकार तथा व्यंग्यका था। वह जनतंत्र में विश्वास नहीं करता था और चर्च से काफी चिढ़ा हुआ था। राजनीति के क्षेत्र में वाल्टेयर के विचारों को उदार या प्रजातांत्रिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसे प्रजा के सुधार की शक्ति में कतई विश्वास नहीं था। आवश्यक सुधार के लिए वह राजा को ही उपयुक्त मानता था। वह प्रशा के राजा फ्रेडरिक के प्रबुद्ध निरंकुश शासन को एक आदर्श शासन मानता था। फिर भी उसने तत्कालीन अव्यवस्था के विरुद्ध रचनायें की।
रूसो (Rousseau)-
रूसो का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। उसकी शिक्षा-दीक्षा भी बहुत साधारण थी। वह लापरवाह एवं घुमक्कड़ किस्म का व्यक्ति था। उसने तर्क के आधार पर फ्रांस की पुरातन व्यवस्था की धज्जी-धज्जी उड़ा दी और सर्वसाधारण के मन में क्रांति की भावना भर दी। इसीलिए रूसो को क्रांति का अग्रदूत कहा जाता है। उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सामाजिक सुमझौता (Social Contract) में बताया कि मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में अच्छा होता है और बाद में सभ्यता और संस्थाएँ उसे दूषित करती है। उसने बताया कि जनता ही सर्वोपरि है और सार्वभौम सत्ता जनता की इच्छा में ही निहित है, जिसे ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) कहा जाता है। उसका कहना था कि राज्य के कानून को इसी सामान्य इच्छा (General Will) की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। लेकिन, कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया है, बल्कि यह शासक की इच्छा पर निर्भर रहने लगा है।
अन्य दार्शनिक-
इसके अलावा भी कुछ लेखक थे, जिन्होंने फ्रांस की कुरीतियों की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया। दिदरों ने ‘ज्ञानकोष’ का संपादन किया जिसमें अपने समय के योग्यतम व्यक्तियों की रचनाएँ संकलित थीं। इस पुस्तक में लोगों के समक्ष ज्ञान के विभिन्न पहलुओं को तर्क के आधार पर रखने की कोशिश की गई थी। इसमें धर्म और राजनीति से संबद्ध बड़े ही आलोचनात्मक लेख छपे थे। इसके अलावा राजतंत्र की निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता, चर्च की भ्रष्टता, सामंत-पद्धति तथा सामाजिक असमानता, शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कानून् इत्यादि पर कई लेख लिखे गए थे। इन लेखों ने जनता को नए दृष्टिकोण से सोचने को मजबूर किया, जिससे फ्रांसीसी सरकार घबड़ा गई और दिदरो को परेशान करने लगी !
अर्थशास्त्री-
इसके अलावा कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी जनता को सजग किया। क्वेंसने मुक्त व्यापार का जोरदार समर्थक था। उसका विश्वास था कि आर्थिक क्रियाकलाप में जब तक सरकारी हस्तक्षेप रहेगा, तब तक देश का आर्थिक विकास असंभव है। वह व्यापारियों पर चुंगी लगाने का घोर विरोधी था और यह ज्ञातव्य है कि तत्कालीन फ्रांस में व्यापार पर अधिक चुंगी लगाई जाती थी। फ्रांसीसी व्यापारियों ने क्वेंसने के विचारों का काफी स्वागत किया तुर्जां मध्यमवर्ग द्वारा आर्थिक क्षेत्र में राजकीय नियंत्रण के अभाववाले इस सिद्धांत का समर्थक था। इसके अलावा भी अनेक लेखक और पत्रकार थे, जिन्होंने अपने लेखों द्वारा फ्रांस की कुरीतियों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कराया। डेविड टॉमसन ने सच ही लिखा है, “What mattered in 1789 and what made men revolutionary almost in spite of themselves-was the whole revolutionary situation and in producing that situation the work of the philosophers played a very important role.”
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि क्रांतिकारी परिस्थिति पैदा करने में दार्शनिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
यूरोप के सभी देशों में थोड़ी-बहुत बौद्धिक क्रांति हुई. परंतु फ्रांस इससे विशेष रूप से प्रभावित हुआ। तत्कालीन समाज की दार्शनिक आलोचना में 18वीं शताब्दी के फ्रांस ने यूरोप का नेतृत्व किया। मांटेस्क्यू, वाल्लेयर, रूसो और दिदरो आदि प्रभावशाली लेखकों ने फ्रांस को ही नहीं, अपितु समस्त यूरोप को प्रभावित किया। इन दार्शनिकों ने तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं की आलोचना की जिससे लोगों के मन में उपर्युक्त संस्थाओं के प्रति संदेह की भावना का जन्म हुआ। नए विचारों और आलोचनाओं ने पुरातन व्यवस्था के आधारभूत सिद्धांत को निर्बल बनाने में ऐसा ही काम किया, जैसे आग किसी धातु को गला देती है।
फ्रांसीसी लेखकों का प्रभाव क्रांतिकाल और 19वीं शताब्दी में स्पष्ट दिखाई देता है। रूसो द्वारा प्रतिपादित स्वतंत्रता और जन-सत्ता संबंधी विचारों ने क्रांतिकारियों के हाथ में पुरातन व्यवस्था का अंत करने के लिए एक अत्यंत शक्तिशाली अस्त्र का काम किया। क्रांति के प्रथम चरण में मांटेस्क्यू के शक्ति विभाजन का सिद्धांत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कार्यान्वित किया गया। इसी समय क्रांतिकारियों ने धार्मिक क्षेत्र में जो सुधार किए, उस पर दार्शनिको के विचारों को स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।
फ्रांस की क्रांति के लिए फ्रांसीसी सामाजिक कुव्यवस्था ही मूल रूप से जिम्मेवार थी। केटलबी के अनुसार, फ्रांस की सभ्यता गोबर के ढेर पर कमल के खिले फूल के समान थी। सच पूछा जाए तो अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में फ्रांस उन्नत था और वहां के लोगों का जीवन सुखमय था। मध्य और पूर्वी यूरोप में अभी अर्द्धदास-प्रथा का प्रचलन था, जबकि फ्रांस में इस प्रथा का अंत हो चुका था। उन देशों में किसानों को अनेक तरह के सामंती अत्याचार सहने पड़ते थे। फिर क्रांति फ्रांस में हुई, क्योंकि यहाँ के किसान अधिक सुखी थे और समझते थे कि यदि इन सामंती करों तथा अव्यवस्थित सरकारी तंत्र के सुनियोजि होने पर उन्हें और लाभ प्राप्त होंगे। उन्हें इन बातों से अवगत कराने के लिए जागरूक एवं महत्वाकांक्षी मध्यमवर्ग दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित होकर तैयार बैठा था। क्रांति के लिए कष्टों की तीवता ही पर्याप्त नहीं होती, बल्कि उस तीव्रता का पर्याप्त ज्ञान भी अत्यावश्यक है। वस्तुतः फ्रांस के दार्शनिकों ने वहाँ की जनता में चेतना लाकर क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।
फिर भी दर्शनिकों की भूमिका को ही क्रांति का कारण बताना उचित नहीं। 18वीं शताब्दी में यूरोप में जिस क्रांतिकारी भावना का विकास हुआ, उसके लिए मांटेस्क्यू, वाल्टेयर और रूसो जैसे विचारक ही जिम्मेवार थे, लेकिन उन्हें क्रांति के विस्फोट का प्रत्यक्ष कारण बताना भूल होगी। दार्शनिकों की विचारधारा तथा क्रांति के विस्फोट में बहुत ही दूर का तथा अप्रत्यक्ष संबंध था। इन दार्शनिकों में किसी ने क्रांति का आह्वान नहीं किया। उन्हें अधिक-से-अधिक सुधारवादी कहा जा सकता क्योंकि वे वैसे किसी निरंकुश राजा का समर्थन करने को तैयार थे, जो उनके विचारों को कार्यान्वित करने को तैयार होता । दार्शनिकों का प्रभाव क्रांति पर बाद में पड़ा । प्रोफेसर हेजेन ने लिखा है, “क्रांति का स्रोत तो उस समय के राष्ट्रीय जीवन के दोषों में तथा सरकार को भूलों में था। फ्रांस में क्रांति का होना अवश्यम्भावी था। फ्रांस के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन में व्याप्त अत्याचार और शोषण की ओर इन दार्शिनिकों ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और चूंकि जनता उन चीजों को देख रही थी, फलतः उनके लेखों से आम जनता में जागरूकता बढ़ी।
यह सच ही कहा जाता है कि फ्रांस के दार्शनिक क्रांति के कारण नहीं, बल्कि क्रांति के कारणों के परिणाम थे। अगर फ्रांस के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में गड़बड़ी नहीं रहती तो ये दार्शनिक इन विषयों पर लेख नहीं लिखते । इसलिए वास्तव में ये दार्शनिक क्रांति के कारणों के परिणाम थे। इस विचार को माननेवालों ने अप्रलिखित तर्क दिए हैं-
दार्शनिकों को समझनेवालों की संख्या नगण्य-
इन दार्शनिकों के लेखों का अध्ययन करनेवाले और समझनेवाले फ्रांसीसियों की संख्या नगण्य थी। केवल पाँच प्रतिशत तत्कालीन जनता इन दार्शिनकों के लेखों को पढ़ और समझ सकती थी। यह कहा जा सकता है कि इन्हीं पाँच प्रतिशत प्रबुद्ध जनता ने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। लेकिन, यह तो सत्य ही है कि पूरी फ्रांसीसी जनता इनके विचारों को नहीं समझती थी।
दार्शनिक क्रांति के बहुत पहले दिवंगत-
फ्रांस के सभी दार्शनिक क्रांति होने के बहुत पहले ही दिवंगत हो चुके थे। यदि इनके लेखों का प्रभाव फांसीसी जनता पर था तो क्रांति का श्रीगणेश् 1770 ई० के दशक में हो जाना चाहिए था, लेकिन क्रांति उस समय न होकर 1789 ई० में हुई जो इंगित करता है कि कुछ अन्य सशक्त कारण थे, जिनके कारण 18वीं शताब्दी के आठवीं दशक के अंत में क्रांति हुई।
दार्शनिक क्रांति के पक्षधर नहीं-
जब हम मांटेस्क्य, वाल्टेयर, इसो की रचनाओं का आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि इनमें से कोई भी दार्शनिक क्रांति का पक्षधर नहीं था। मांटेस्क्यू फ्रांस में व्याप्त कुरीति का समाधान राजकीय शक्ति के पृथक्करण में दूढ़ता था। उसका कहना था कि कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के अधिकार यदि अलग-अलग हाथों में कर दिए जाएं तो फ्रांस की स्थिति संभल सकती थी। वाल्टेयर कहना था कि एक सिंह से शासित होना ज्यादा अच्छा है बुनिस्पत् कि सौ चूहों से। इस प्रकार वह निरंकुश शासन-तंत्र का पोषक था। रूसो एक गैरजिम्मेवार व्यक्ति था। उसने ‘जनरल विल’ की बात कही, लेकिन ‘जनरल विलु’ क्या था, इसे वह स्वयं स्पष्ट नहीं कर पाया। एक बार किसी ने उसे सुझाया कि फ्रांस में व्याप्त बुराइयों को क्रांति के द्वारा दूर किया जा सकता है। इस पर वह काफी भयभीत हो गया और उसने क्रांति की व्यर्थता पर जोर दिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ये दार्शनिक क्रांति के समर्थक नहीं थे, बल्कि क्रांति के कारणों को उजागर करनेवाले थे। ये क्रांति के कारणों को जनता द्वारा दूर करना नहीं चाहते थे, बल्कि प्रशासन द्वारा सुधार लाकर इन कुरीतियों को दूर करने के पक्षधर थे, अर्थात् ये सुधार नीचे से नहीं, बल्कि ऊपर से लागू करना चाहते थे और इनका विचार था कि इस तरह फ्रांस की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति ठीक हो सकती थी।
प्रोफेसर डेविड टॉमसन के अनुसार दार्शनिकों के विचार और 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रांति में दूर का एवं अप्रत्यक्ष संबंध था। ये दार्शनिक क्रांति के पक्ष में नहीं थे, बल्कि वे किसी ऐसे निरंकुश शासक को अपना समर्थन देने को तैयार थे जो उन्हें संरक्षण देने और उनकी बातों को अपनाने को तैयार हो। इन दार्शनिकों के पाठक भी क्रांति के लिए तैयार नहीं थे; क्योंकि वे स्वयं संपन्न व्यक्ति, वकील, व्यापारी या स्थानीय अधिकारी थे जो मौजूदा व्यवस्था से नाखुश थे, लेकिन क्रांति के पक्ष में नहीं थे। प्रोफेसर टॉमसन का विचार है कि दार्शनिकों के विचारों का उपयोग क्रांति के हो जाने के बाद क्रांतिकारियों के कार्यों के औचित्य को साबित करने के लिए होने लगा, जिसका संभवतः दार्शनिक जिंदा रहने पर विरोध करते। क्रांति के होने में दार्शनिकों की भूमिका तत्कालीन संस्थाओं के प्रति उनके आलोचनात्मक रुख तक सीमित थी। वास्तव में 1789 ई० की क्रांति में क्रांतिकारी स्थिति ज्यादा जिम्मेवार थी। क्रांति के कारणों में दार्शनिकों को भूमिका नगण्य थी।
मार्क्सवादी विचारधारा-
तब बात उठती है कि क्रांति के असल कारण क्या थे? इस संबंध में मार्क्सवादी इतिहासकारों का विचार है कि क्रांति के प्रमुख कारण दार्शनिक नहीं, बल्कि राज्य की विभिन्न आर्थिक अव्यवस्थाएँ थीं, जिन्होंने राजा को ‘इस्टेट्स जेनरल’ बुलाने के लिए बाध्य किया और इस्टेट्स जेनरल की बैठक के साथ ही क्रांति शुरू हो गई। लुई चौदहवें के अनेक युद्धों, लुई पंद्रहवें एवं सोलहवें की अकर्मण्यता, सुविधाप्राप्त वर्ग द्वारा राज्य को कर नहीं देना, अमेरिकी स्वातंत्र्य-युद्ध में फ्रांसीसी सहायता, 1786 ई. की इंगलैंड के साथ इडेन-संधि जिसके कारण फ्रांस में ब्रिटिश सामान को आने छूट मिली और फ्रांसीसी कारखाने बंद होने लगे जिससे मजदूर बेकार होने लगे एवं 1788-89 के अकाल और पाले के कारण फ्रांस का आर्थिक रूप से जर्जर हो जाना आदि समस्त ऐसे कारण थे जिनके फलस्वरूप राजा को राजकीय आयस्रोत को बढ़ाने के लिए विचारार्थ इस्टेट्स जनरल की बैठक बुलानी पड़ी और इसी के साथ क्रांति का श्रीगणेश हुआ।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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