संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

संगठनात्मक व्यवहार की परिभाषा | संगठनात्मक व्यवहार के मूल तत्व

संगठनात्मक व्यवहार की परिभाषा | संगठनात्मक व्यवहार के मूल तत्व | Definition of Organizational Behavior in Hindi | Fundamentals of Organizational Behavior in Hindi

संगठनात्मक व्यवहार की परिभाषा

(Definition of Organisational Behaviour)

(1) जॉन न्यूस्ट्रॉम एवं कीथ डेविस (John New Strom and Kecith Davis) – के अनुसार, “संगठनात्मक व्यवहार संगठन में व्यक्ति, मानव एवं समूह के रूप में कैसे कार्य करते हैं, के सम्बन्ध में अध्ययन एवं ज्ञान की प्रयुक्ति है। यह ऐसे तरीकों के निर्धारण का प्रयास करता है जिससे व्यक्ति अधिक प्रभावशाली ढंग से कार्य कर सके।”

(2) फ्रेड लुथांस (Fred Luthans) – के शब्दों में, “संगठनात्मक व्यवहार संगठनों में मानवीय व्यवहार की समझ, पूर्वानुमान एवं नियन्त्रण से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित है।”

(3) चंग एवं मैगिनसन (Chung and Megginson)- के अनुसार, “संगठनात्मक व्यवहार संगठनात्मक घटकों तथा मानवीय व्यवहार संगठन निष्पादन पर उनके प्रभावों का अध्ययन है। ऐसा अध्ययन कई व्यवहारात्मक एवं सामाजिक विज्ञानों से लाभान्वित होता हैं।”

(4) रेन्डोल्फ बॉबिट (Randolf Bobbit) – के अनुसार, “संगठनात्क व्यवहार से तात्पर्य संगठनों में व्यक्तियों व समूहों के व्यवहार तथा स्वयं संगठनों के व्यवहार के अध्ययन से है, क्योंकि वे वांछित परिणामों की प्राप्ति के लिये क्रिया एवं अन्तर्क्रिया करते है।

(5) डरबिन (Durbin)- के अनुसार, “संगठनात्मक व्यवहार का अध्ययन उस संगठन के लोगों के व्यवहार को समझने का व्यवस्थित प्रयास है जिसके वे अभिन्न अंग हैं।”

संगठनात्मक व्यवहार के मूल तत्व-

इसके मूल तत्व निम्नलिखित हैं-

(1) व्यक्ति की प्रकृति (Nature of Man) – संगठनात्मक व्यवहार मूलतः व्यक्ति की प्रकृति के ईद-गिर्द घूमता है जिसमें निम्न तत्व महत्वपूर्ण हैं-

(अ) मनोविज्ञान का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष बातें होती हैं जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से भिन्न बनाती हैं। व्यक्तिगत भिन्नता इस बात पर बल देती है कि प्रबन्धक विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार से अभिप्रेरित करके ही उनका अधिकतम सहयोग प्राप्त कर सकता है। यह इस तथ्य को भी स्पष्ट करती है कि ‘न्याय एवं सही’ होने को व्यक्ति सन्दर्भ में देखा जाना चाहिये, न कि सांख्यिकी के रूप में। व्यक्तिगत भिन्नता के कारण ही संगठनात्मक व्यवहार का दर्शन ‘व्यक्ति’ से शुरू होता है, जो यह बतलाता है कि एक व्यक्ति ही उत्तरदायित्व ले सकता है एवं निर्णय कर सकता है। अतः एक समूह को इस अर्थ में परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

(ब) व्यक्ति में ‘सम्पूर्ण व्यक्ति’ सम्मिलित होता है। दूसरे शब्दों में, शरीर का एक भाग या चातुर्य या अन्य विशेषतायें व्यक्ति नहीं हैं। व्यक्ति समप्र रूप से कार्य करता है। चूँकि एक कर्मचारी संगठन के भीतर विभिन्न प्रकार की भूमिकायें निभाता है, अतः प्रबन्धक जब समप्न व्यक्ति में सुधार कर पाता है, तभी समाज एवं संगठन को आशा से ज्यादा लाभ करा सकता है।

(स) व्यक्ति के व्यवहार का एक निश्चित कारण (Caused Behaviour) होता है जिससे प्रेरित होकर वह कार्य करता है। डेविस का मत है कि, “व्यक्ति इस बात से अभिप्रेरित नहीं होता है कि हम क्या सोचते हैं, अपितु इससे अभिप्रेरित होता है कि वह स्वयं क्या चाहता है।” यह विशेषता प्रबन्ध को अभिप्रेरित करने के दो तरीके बतलाती है- प्रथम, कुछ निश्चित कार्यवाही व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति में किस प्रकर वृद्धि करेगी। द्वितीय, कुछ निश्चित कार्यवाही व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति में किस प्रकार कमी करेगी।

(द) उत्पादन के अन्य साधनों की अपेक्षा ‘मनुष्य’ के साथ पृथक् तरीके से व्यवहार किया जाना चाहिये, क्योंकि ब्रह्माण्ड में इसका सबसे अधिक मूल्य है। अतः मनुष्य के साथ आदर एवं सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिये।

(2) संगठन की प्रकृति (Nature of Organisation)- संगठन की प्रकृति के सम्बन्ध में निम्न दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं-

(अ) संगठन एक सामाजिक प्रणाली है जिसमें विभिन्न भूमिकाओं को व्यापक सामाजिक प्रणाली के अनुरूप एक-दूसरे से सम्बन्धित किया जाता है। विभिन्न भूमिकायें ऐसी संरचनात्मक व्यवस्था होती हैं जो सामाजिक प्रणाली की पूर्वापक्षाओं की पूर्ति हेतु कार्य करती है। प्रत्येक संगठन में दो प्रकार की सामाजिक प्रणाली विद्यमान रहती हैं- औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक प्रणाली। यह विशेषता इस बात को स्पष्ट करती है कि संगठनात्मक वातावरण सतत परिवर्तन होता रहता है। सामाजिक प्रणाली का मतों भाग भी वातावरण को प्रभावित करता है। यह अवधारणा संगठनात्मक व्यवहार के विश्लेषण हेतु एक ऐसा ढाँचा प्रदान करती है जो समस्याओं को समझने में प्रबन्ध की सहायता करती है।

(ब) पारस्परिक हित के आधार पर संगठन का निर्माण होता है व्यक्ति संगठन को अपने लक्ष्य की प्राप्ति का ऐसा साधन समझता है, तो दूसरी ओर संगठन को भी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। दोनों में पारस्परिक हित के अभाव में सहयोग एवं समन्वय की सम्भावायें क्षीण हो जाती हैं तथा लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं। पारस्परिक हित एक व्यापक लक्ष्य उपलब्ध करता है जो व्यक्तिगत एवं संगठनात्मक आवश्यकताओं में एकीकरण का कार्य करता है।

(3) मानवीय व्यवहार के सिद्धान्तों का अनुसरण (Follows the Principles of Human Behaviour) – संगठनात्मक व्यवहार मानवीय व्यवहार के सिद्धान्तों का अनुसरण करता है। संगठन में व्यक्ति कार्य के समय तथा बाद में शारीरिक तन्त्र द्वारा नियन्त्रित होता है। आन्तरिक तन्त्र व्यक्ति को दबाव के समय अतिरिक्त समर्थन प्रदान करता है, चाहे वह कार्य से सम्बन्धित हो या न हो। इसी प्रकार, संगठनात्मक जीवन में कार्यरत व्यक्ति उन्हीं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों द्वारा नियन्त्रित होता है। संगठनात्मक व्यवहार एक विशिष्ट व्यवस्था में मानवीय व्यवहार ही है।

(4) संगठनात्मक व्यवहार परिस्थितिजन्य है (Organizational Behaviour is Situational) – व्यवहारवादी वैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्तिगत व्यवहार व्यक्ति की निजी विशेषताओं तथा वातावरणीय चलों के मध्य अन्तर्क्रिया का कार्य होता है। अतः दी हुयी परिस्थितियों में एक व्यक्ति के व्यवहार को समझने हेतु उस पर डाले गये दबाव को समझना आवश्यक है। उदाहरण के लिये, आक्रामक व्यवहार तब होता है जब सामान्य रूप से शान्त एक व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों के साथ सतत रूप से निकट पर्यवेक्षण में रहने हेतु बाध्य किया जाता है। इसी प्रकार, परिस्थितिजन्य विचारधारा संगठन की प्ररचना के औचित्य में भी सहायता करती है तथा यह बतलाती है कि किन परिस्थितयों में संगठन का कौन-सा प्रारूप सर्वोत्तम रूप से प्रभावी हो सकता है। इस प्रश्न के उत्तर के लिये प्रबन्ध को परिस्थिति के उन घटकों को जानना आवश्यक होता है जो एक रचना विशेष की सापेक्ष प्रभावशीलता को प्रभावित करते हैं। यद्यपि समग्र वातावरणीय घटकों को समझना एक जटिल कार्य है, फिर भी मोटे रूप में इन्हें संगठनात्मक संरचना प्रौद्योगिकी प्रभाव, पीयर दबाव समूह, अधिकारी विशेष की नेतृत्व शैली, संगठनात्मक जलवायु तथा सांस्कृतिक प्रभावों के रूप में विभक्त किया जा सकता है। संगठनात्मक व्यवहार इन सब घटकों की विशेषताओं एवं सभी वातावरणीय चलों के मध्य अन्तर्क्रिया का कार्य करता है।

(5) संगठनात्मक व्यवहार पद्धतियुक्त है (Organisational Behaviour is Systematic) – आधुनिक संगठनात्मक विचारधारा में पद्धति चिन्तन एक आवश्यक अंग बन चुका है। संगठन को जटिल पद्धति के रूप में देखा जाता है जिसमें विभिन्न अन्तर सम्बन्धित तथा अन्तर व्याप्त उप-पद्धतियाँ होती हैं पद्धति के एक अंग में परिवर्तन या संशोधन अन्य सभी अंगों को प्रभावित करता है। जब पद्धति में संशोधन का परिणाम सकारात्मक होता है तो यह ‘कार्य’ (Function) कहलाता है, जबकि नकरात्मक प्रभाव को ‘अपकार्य’ (Dysfuntion) कहा जाता है।

संगठनात्मक व्यवहार की उप-पद्धतियाँ एक-दूसरे के साथ अन्तर्क्रिया करती हैं तथा प्रभावित करती हैं। एक उप-पद्धति में परिवर्तन समग्र संगठनात्मक व्यवहार की पद्धति को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिये, टेलोलोजी में परिवर्तन व्यक्तिगत विशेषताओं में परिवर्तन लाता है, साथ ही वह संगठन, संरचना, संस्कृति तथा प्रबन्धकीय शैली को भी प्रभावित करता है।

(6) संरचना एवं प्रक्रिया चलों के मध्य अन्तर्क्रिया का प्रतिनिधित्व (Represent a Constant Interaction between Structure and Process Variables) – संगठनात्मक संरचना आकृति, परिभाषा तथा भूमिका से सम्बद्ध है। यह एक ढाँचा या शरीर रचना है जो संगठन को एक साथ रखती है। संगठन चार्ट में स्थितियों की व्यवस्था संगठनात्मक आकृति का उदाहरण है। सेविवर्गीय मैनुअल में दिया गया विवरण संगठनात्मक परिभाषा का उदाहरण है। प्रक्रिया किसी व्यवस्था में क्रियाओं की क्रमबद्धता से सम्बन्धित है। व्यापक रूप में, इसमें प्रशासकीय तथा तकनीकी क्रियायें सम्मिलित की जाती हैं जो अदाय को प्रदाय में परिवर्तित करने हेतु की जाती हैं। निर्णयन, सन्देशवाहन, नेतृत्व तथा संघर्ष अनेक प्रक्रियाओं के ऐसे चार उदाहरण हैं जो एक संगठन के भीतर निष्पादित किये जाते हैं।

‘संरचना’ तथा ‘प्रक्रिया की अन्तर्क्रिया को समिति द्वारा सरलता से समझा जा सकता है। समिति का कुछ सीमा तक औपचारिक ढाँचा होता है। इसी प्रकार, समिति के भीतर व्यक्तियों की अन्तर्क्रिया (प्रक्रिया चल) एक समिति विशेष की उत्पादकता के बारे में बेहतर अनुमान करने में सहायता करती है।

(7) वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method)- व्यवहारवादी विज्ञान के अन्य क्षेत्रों की तरह संगठनात्मक व्यवहार भी वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करता है। यह भी अनुभवाश्रित विज्ञान पर आधारित दृष्टिकोण के द्वारा समृद्ध ज्ञान को प्राप्त करता है तथा ‘व्यक्ति’ एवं ‘संगठन’ के व्यवहार को समझने में उसका प्रयोग करता है।

(8) पृथक् विधा (Separate Discipline) – संगठनात्मक व्यवहार ज्ञान की एक पृथक् विधा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है। यही कारण है कि परम्परागत प्रबन्ध कार्यों (नियोजन, संगठन, नियन्त्रण आदि) सेविवर्ग प्रबन्ध निर्णयन की परिमाणात्मक तकनीकें (पर्ट, निर्णय वृक्ष) आदि को संगठनात्मक व्यवहार की प्रत्यक्ष सीमा के बाहर माना जाता है। इसी प्रकार, संगठनात्क व्यवहार में आधारभूत मानवीय प्रक्रियाओं (जैसे- बुद्धि, वैभव, अवबोधन, भावना, अभिप्रेरणा, सीखाना आदि) के प्रत्यक्ष अध्ययन को सम्मिलित नहीं किया जाता है। शोध प्ररचना पद्धति को भी इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता है। यद्यपि दर्शन एवं विज्ञान की पद्धतियों ने इसमें व्यापक योगदान दिया है, फिर भी इन्हें संगठनात्मक व्यवहार के आधारभूत तत्वों में सम्मिलित नहीं किया जाता है। समंकों के संकलन एवं विश्लेषण को भी इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता है।

संगठनात्मक व्यवहार – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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