संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

सांगठनिक परिवर्तन की विधि | संगठनात्मक परिवर्तनों को कम करना

सांगठनिक परिवर्तन की विधि | संगठनात्मक परिवर्तनों को कम करना | Method of Organizational Change in Hindi | undermining organizational changes in Hindi

सांगठनिक परिवर्तन की विधि

किसी भी संगठन में अस्त-व्यस्त रूप से, योजना- विहीन परिवर्तन नहीं किये जाने चाहिये। प्रभावपूर्ण संगठन-परिवर्तन के लिये निम्नांकित कार्य निम्नलिखित क्रमानुसार किये जाने चाहिये-

(1) उद्देश्यों एवं योजनाओं का विकास करना (Develop objectives and other Plans) – कोई भी संस्थ, जड़ (Static) नहीं होती। उसके उद्देश्य अनेक कारणवश परिवर्तित होते रहते हैं। उद्देश्यों में परिवर्तन हो जाने पर संगठन-व्यवस्था में संशोधन या समायोजन करना अनिवार्य हो जाता है। संस्था की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि उनके विभिन्न भागों, विभागों या उपविभागों में किया जाने वाला प्रत्येक कार्य निर्धारित योजनाओं, नीतियों एवं कार्यक्रमों की पूर्ति में योगदान करने वाला होना चाहिये। अन्य सभी प्रकार के कार्य अनावश्यक समझ कर बन्द कर दिये जाने चाहिये। संस्था के लिये आवश्यक है परिवर्तन कार्यों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिये उसके उद्देश्यों एवं अन्य योजनाओं का पूर्ण विकास किया जाना परम आवश्यक है।

(2) वर्तमान संगठन का विश्लेषण करना (Analyse Existing Organisation)- संस्था के उद्देश्य एवं अन्य योजनायें निश्चित हो जाने के बाद, उनकी पूर्ति-हेतु अपनाये जाने वाले वर्तमान संगठन का विश्लेषण करना चाहिये। विश्लेषण करने में निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये-(i) किये जाने वाले कार्यों का अध्ययन व सूचीयन, (ii) अधिकार-हस्तांतरण की मात्रा, (iii) संगठन सम्बन्धों की रूपरेखा। वर्तमान संगठन के विश्लेषण के संगठन- समबन्धी दोषों व दुर्बलताओं का ज्ञान प्राप्त हो जाता है तथा आदर्श-संगठन योजना से उसकी तुलना करके संशोधनीय स्थलों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। विश्लेषण द्वारा यह पता चल कौन-सा कार्य दो-दो बार किया जा रहा है, कौन से कार्य पर नियन्त्रण की कमी है, कौन से कार्य का उत्तरदायित्व अनिश्चित है, कौन से कारण अधिकारियों में मनमुटाव उत्पन्न कर रहे हैं तथा किन प्रशासनिक क्रियाओं में सुधार की आवश्यकता है।

(3) आदर्श योजना बनाना (Prepare and Ideal Plan)- संस्था के वर्तमान संगठन का विश्लेषण करने के बाद, उसके उद्देश्यों एवं अन्य योजनओं की दृष्टि में रखते हुये आदर्श संगठन-योजना बनायी जानी चाहिये ताकि सांगठनिक परिवर्तन की दिशा एवं मात्रा का ठीक-ठीक निश्चय किया जा सके। आदर्श योजना बनाते समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिये- (i) संस्था के उद्देश्यों एवं अन्य योजनओं की पूर्ति हेतु कौन से कार्य करने आवश्यक हैं, (ii) संस्था की दीर्घकालीन आवश्यकताओं को देखते हुये उसके कार्यों का सर्वश्रेष्ठ वर्गीकरण किस प्रकार किया जा सकता है, अर्थात् कार्यानुसार, उत्पादन अनुसार या क्षेत्रानुसार वर्गीकरण में से कौन-सा सर्वोत्तम होगा, (iii) कौन से कार्य मूल अधिकारियों से पृथक् करके सहायक इकाइयों के रूप में संगठित किये जायें ताकि संस्था की समस्त इकाइयों की विशिष्ट सलाह या सेवा न्यूनतम लागत में व अधिकतम कुशलापूर्वक उपलब्ध हो सके, (iv) संस्था में संगठन, नियोजन, नियुक्तियाँ, निर्देशन व नियन्त्रण कार्यों को कुशलतापूर्वक करने के लिये किन-किन प्रबन्ध पदों की स्थापना की जाये।

आदर्श संगठन- योजना संस्था के अगले पाँच या अधिक वर्षों में होने वाली प्रगति का अनुमान करके निश्चित की जाती है। यह संस्था के सांगठनिक लक्ष्य (Organization target) का कार्य करती है। पूर्वानुमानित न की गयी सम्माव्यताओं, वैयक्तिक कठिनाइयों तथा अन्य कारणों के फलस्वरूप किये जाने वाले समस्त सांगठनिक परिवर्तन इस आदर्श योजना को दृष्टि में रखते हुये ही किये जाने चाहियें।

आदर्श संगठन योजना का सबसे बड़ा दोष यह है कि भावी परिस्थितियों का ठीक-ठीक पूर्वानुमान करना सम्भव न होने से, इस योजना में समय-समय पर महत्वपूर्ण परिवर्तन करना आवश्यक हो सकता है जिस कारण व्यवहार में यह योजना अनुपयुक्त सिद्ध हो सकती है। दूसरा दोष यह है कि पूर्वनिर्धारित व लिखित आदर्श योजना संगठन की लोचशीलता (Flexiblity) और आरम्भिकता (Initiative) को कुछ सीमा तक कम कर देती है।

(4) योजना की पूर्वपरीक्षा करना (Try Out the Plan) – आदर्श योजना को व्यावहारिक रूप देने के पूर्व उसकी उपादेयता की परीक्षा करना आवश्यक होता है। इसके लिये योजना किसी एक अंश को कार्यान्वित करके उसके परिणाम का निरीक्षण करना चाहिये। उदाहरणर्थ यदि कार्यानुसार विभागीकरण के स्थान पर उत्पादनानुसार या क्षेत्रानुसार विभागीकरण अपनाना अभीष्ट हो तो सर्वप्रथम ऐसे एक विभाग की स्थापना करके उससे उदय होने वाली प्रशासनिक अन्य कठिनाइयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। तत्पश्चात् उनके निवारण की समुचित व्यवस्था करके समस्त योजना को कार्यान्वित करने में प्रयत्नशील होना चाहिये।

(5) योजना को कार्य रूप देने हेतु आंशिक योजनायें बनाना (Prepare Phase Plans) – आर्दश योजना की परीक्षास्वरूप उत्पन्न कठिनाइयों के निराकरण की व्यवस्था करने के बाद वर्तमान संगठन व आदर्श संगठन के अन्तरालों (Gaps) को समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यह कार्य शनैः शनैः आंशिक योजनाये (Phase Plans) बनाकर तथा उन्हें पूरा करके किया जा सकता है। वर्तमान संगठन के दोषों को दूर करते समय संगठन के अन्दर कार्य करने वाले कर्मचारियों के हितों पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहियें। जहाँ तक हो सके, वर्तमान व्यक्तियों के प्रशिक्षण, विकास, पदोन्नति व वेतनमान में वृद्धि करते हुये ही सांगठनिक परिवर्तन किये जाने चाहिये। निष्ठावान कर्मचारियों के हितों की अवहेलना करते हुये किया जाने वाला सांगठनिक परिवर्तन कभी सफल नहीं हो सकता। कुछ विद्वानों के मतानुसार सांगठनिक परिवर्तन का सर्वोत्तम अवसर तब होता है जबकि कर्मचारियों के स्थानान्तरण, पदोन्नति या पदावकाश की व्यवस्था की जा रही हो। किन्हीं-किन्हीं दशाओं में तो सांगठनिक परिवर्तनों को कुछ व्यक्तियों के सेवामुक्त होने के समय तक स्थगित करना पड़ सकता है।

(6) एक-सी नामावली अपनाना (Establish Uniform Nomenclature ) – जहाँ तक हो सके, संस्था के अन्दर विभिन्न स्तरीय प्रबन्ध-पदों को नामांकित करने के लिये सुव्यवस्थित तथा एकरूप नामावली का प्रयोग करना चाहिये। उदाहरणार्थ, एक जिले में विक्रय प्रबन्धक को ‘सुपरवाइजर’ का नाम देना, दूसरे जिले में ‘प्रबन्धक’ का नाम देना और तीसरे जिले में ‘डायरेक्टर’ का नाम देना किसी भी दशा में तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक पद (Designation) एक निश्चित अर्थ, मर्यादा, प्रबन्ध-स्तर एवं वरिष्ठता का बोधक होता है। उदाहरणार्थ, ‘फोरमैन’ का अर्थ सदैव ‘सुपरिन्टेडेन्ट’ से नीचे का अधिकारी समझा जायेगा, ‘डायरेक्टर’ शब्द से सहायक कार्यों के निदेशक का और ‘मैनेजर’ शब्द से मूल अधिकारी का बोध किया जायेगा।

(7) परिवर्तन के विरोध को कम करना (Overcome Resistance to Change) – सांगठनिक परिवर्तनों को कार्य रूप देते समय परिवर्तन के विरोधों को न्यूनतम करने का प्रयत्ना करना चाहिये। कर्मचारीगण प्रायः निम्नलिखित कारणों से परिवर्तन का विरोध करते हैं- (i) परिवर्तन के फलस्वरूप उनके पद, प्रतिष्ठा व उन्नति के अवसरों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विपरीत प्रभाव पड़ने की सम्भावना; (ii) नयी उत्पादन-विधियों के अपनाये जाने के फलस्वरूप पुरानी व्यवस्था में कुशल (Skilled) वर्ग के कारीगरों को नवीन व्यवस्था में अकुशल वर्ग में डाल दिये जाने की सम्भावना, (iii) स्थायी सामाजिक समूह से बहिष्कृत होने, अर्थात् अनयत्र भेज दिये जाने या किन्हीं-किन्ही दशाओं में पदावनति, अथवा पदच्युत होने की भी सम्भावना आदि। परिवर्तन को कार्यान्वित करते समय इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि कर्मचारियों के मन में किसी प्रकार के भय, असन्तोष असुरक्षा एवं अनिश्चियता की भावना उत्पन्न न होने पाये, अन्यथा सांगठनिक परिवर्तन का सम्पूर्ण उद्देश्य नष्ट हो जायेगा और उत्पादन कार्यकुशलता बढ़ने के स्थान पर घटनी प्रारम्भ हो जायेगी।

संगठनात्मक परिवर्तनों को कम करना

परिवर्तन के विरोधों को कम या दूर करने के लिये निम्नाकिंत उपाय काम में लाये जा सकते हैं-

(अ) सहभागिता (Participation)- जहाँ तक हो सके, परिवर्तन की योजना बनाते समय अधिक से अधिक कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। किसी परिवर्तन- योजना में सक्रिय भाग लेने से कर्मचारियों के मन में यह भावना उत्पन्न नहीं हो पाती कि उन्हें हठपूर्वक किसी परिवर्तित परिस्थिति में डालने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसके विपरीत, उन्हें यह अनुभव होने लगता है कि संस्था उनके मत एवं विचारों का महत्व समझती है, कि बिना उनसे पूछे व उनकी सहमति प्राप्त किये किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना चाहती कि परिवर्तन उनके हित में किया जा रहा और कुछ सीमा तक वे अपना भाग्य स्वयं बना रहे हैं। किसी परिवर्तन-योजना की स्वीकृति प्राप्त करने में यदि प्रस्तावित परिवर्तनों में कुछ संशोधन भी करना पड़े तो वह अवांछनीय न होगा।

(ब) सूचना देना (Communication)- जहाँ तक हो सकें, परिवर्तन द्वारा प्रभावित होने वाले सभी वर्ग के व्यक्तियों, यथा-कर्मचारियों, ग्राहकों, अंशधारियों तथा सामान्य जनता को परिवर्तन सम्बन्धी समस्त सूचना यथाशीर्ष देने का प्रयत्न करना चाहिये। यह सूचना संस्था के अन्दर काम करने वाले व्यक्तियों को सभाओं, सम्मलेनों, गश्ती-पत्रों, बुलिटनों आदि के द्वारा ही जा सकती है, कम्पनी के अंशधारियों को विशेष पत्र व्यवहार, प्रतिवेदनों या त्रैमासिक अथवा वार्षिक रिपोर्ट में दी जा सकती है। ग्राहकों व दुकानदारों को गश्ती-पत्र या पुस्तिकायें भेजकर, तथा सामान्य जनता को समाचार पत्रों में प्रकाशन करके दी जा सकती है। सूचना का प्रसार जितना ही व्यापक तथा समयानुसार होता है, परिवर्तन-जनित असुविधायें उतनी ही कम हो जाती हैं।

(स) शिक्षित करना (Education)- परिवर्तित व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये सम्बन्धित व्यक्तियों का उचित प्रशिक्षण करना परम आवश्यक है। शिक्षा में निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये नये सम्बन्धों का ज्ञान करना, नवीन कुशलताओं में दक्ष करना, पुरानी धारणाओं में परिवर्तन करना, नवीन व्यवस्था में अनुकूल आचार-व्यवहार सिखाना तथा नवीन संगठन-व्यवस्था में उन्हें उनके स्थान, अधिकार, दायित्व व कर्तव्य आदि का ज्ञान करना। शिक्षा प्रशिक्षण-कक्षायें, सभाओं, सम्मेलनों या गोष्ठियों के माध्यम से दी जा सकती है, किन्तु इसकी सफलता बहुत कुछ उच्च अधिकारियों के आचरण पर निर्भर होती है, क्योंकि अधिकांश कर्मचारी अपने अधिकारियों का ही अनुकरण करने का प्रयत्न करते हैं।

संगठनात्मक व्यवहार – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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