सतत्- आन्तरिक मूल्यांकन | Continuous-Internal Evaluation in Hindi
सतत्- आन्तरिक मूल्यांकन | Continuous-Internal Evaluation in Hindi
सतत्- आन्तरिक मूल्यांकन
विगत कुछ वर्षों से परीक्षा सुधार कार्यक्रम के रूप में सतत्-आन्तरिक मूल्याकन का विचार शैक्षिक जगत में चर्चा का विषय रहा है। सतत्-आन्तरिक मूल्याकन का प्रत्यय वस्तुतः पराक्षा-सुधार के दो सिद्धान्तों पर आधारित है। प्रथम, जो व्यक्ति अध्यापन कार्य करें वही व्यक्ति मूल्याकन का कार्य भी करे तथा द्वितीय, मूल्यांकन कार्य सत्रान्त में न होकर सम्पूर्ण सत्र के दौरान लगातार होता रहे। सतत्-आन्तरिक मूल्यांकन प्रणाली के अन्तर्गत छात्रों की शैक्षिक प्रगति का मूल्यांकन शिक्षण कार्य कर रहे अध्यापकों के द्वारा सत्र के बीच में लगातार थोड़े-थोड़े अन्तराल पर किया जाता रहता है तथा छात्रों को उनकी कमियों व सफलताओं की जानकारी दी जाती हैं। इससे छात्रों को पृष्ठ पोषण (Feedback) मिलता है तथा वे अपनी क्षमताओं के अनुरूप सर्वोत्तम शैक्षिक प्रगति करने के लिए प्रयासरत रहते है। सतत्-आन्तरिक मूल्यांकन में अध्यापकों के द्वारा छात्रों की शैक्षिक प्रगति का मूल्यांकन करने के लिए लिखित परीक्षाओं के अतिरिक्त मापन व मूल्यांकन की विभिन्न प्रविधियों व उपकरणों का प्रयोग किया जा सकता है। सतत्-आन्तरिक मूल्यांकन छात्रों के साथ-साथ अध्यापकों को भी अपनी शिक्षण योजना में सुधार करने के अवसर प्रदान करता है। छात्रों द्वारा अजित ज्ञान व कौशल की जानकारी के आधार पर अध्यापकगण भी अपनी शिक्षण व्यूह रचना (Teaching Strategy) को यथा-आवश्यक परिवर्तित कर सकता है। निःसंदेह सतत्-आन्तरित मूल्यांकन का यह प्रत्यय न केवल परीक्षा सुधार की दृष्टि से वरन् संपूर्ण शिक्षा प्रणाली में वांछित सुधार लाने की दिशा में एक सार्थक कदम है। अनेक कार्यशालाओं व विचार-गोष्ठियों में इसके विभिन्न पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श किया जा चुका है तथा विद्वानों के द्वारा इसे स्वीकार किया जा चुका है। अनेक शैक्षिक संगठनों तथा परीक्षा सनितियों ने इस विचार को सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया है तथा कहीं-कहीं पर तो इसका कार्यान्वयन भी किया जाने लगा है।
सतत्-आन्तरिक मूल्यांकन वास्तव में वर्तमान समय में प्रचलित परम्परागत सत्रान्त-बाह्य मूल्यांकन प्रणाली के दोषों का निवारण करके शिक्षा प्रणाली को शिक्षण-अधिगम की ओर उन्मुख करने का एक प्रयास है। सतत-आन्तरिक मूल्यांकन प्रणाली उस प्राचीन परम्परा का ही एक अधिक व्यवस्थित व औपचारिक रूप है जिसमें अध्यापकगण दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक तथा वार्षिक परीक्षाओं के द्वारा अपने छात्रों के ज्ञान, बोध व कौशल का मापन करते थे तथा उन्हें सुधार हेतु आवश्यक पृष्ठ-पोषण प्रदान करते थे। अध्यापकों की निष्ठा, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता एवं विकास के आधार पर एक लम्बे समय तक इन परीक्षाओं को सामाजिक स्वीकृति मिलती रही। कालान्तर में भौतिकवादी प्रवृत्तियों के छा जाने के कारण आन्तरिक परीक्षाओं की वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता तथा वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे तथा धीरे-धीरे बाह्य परीक्षाओं के परिणामों को ही सामाजिक स्वीकृति प्रदान की जाने लगी। वाह्य-परीक्षाओं की उपयोगिता, सार्थकता तथा महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। निःसंदेह वाह्य परीक्षाएँ विभिन्न शिक्षा संस्थाओं के परीक्षा परिणामों में एकरूपता (Uniformity) लाने की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु विचारणीय प्रश्न है कि क्या सत्र के अन्त में ली जाने वाली इन परीक्षाओं के द्वारा छात्रों के द्वारा सम्पूर्ण सत्र में अर्जित ज्ञान, बोध व कौशल की सही जानकारी सम्भव है? क्या मूल्यांकन का एकमात्र उद्देश्य छात्रो को अगली कक्षा में भेजने अथवा नहीं भेजने अथवा किसी रोजगार के लिए आवश्यक योग्यता प्रमाणपत्र देने तक ही सीमित है? क्या शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सुधार हेतु आवश्यक सुझाव/संकेत/दिशा निर्देश प्रदान करने का कार्य परीक्षा प्रणाली का नहीं है? क्या सत्रान्त में ली जाने वाली परीक्षा के द्वारा छात्रों के व्यक्तित्व की बहुआयामी जानकारी करना सम्भव है? इन प्रश्नों पर विचार करने पर उत्तर नकारात्मक ही मिलता है। वस्तुतः सत्रान्त में ली जाने वाली बाह्य परीक्षा न तो छात्रों की बहु-आयामी शैक्षिक प्रगति का मापन कर पाती हैं तथा न ही शिक्षण-अधिगम में सुधार के लिए मार्गदर्शन करती है। सतत् आन्तरिक मूल्यांकन ही छात्रों का व्यापक दृष्टि से मूल्यांकन करने में समर्थ हो सकती हैं। बुद्धि, रुचि, अभिवृत्ति, अभिरूचि, व्यक्तिगत व सामाजिक गुण, नैतिक चरित्र, पाठ्य-सहगामी क्रियाओं में सहभागिता जैसे व्यक्तित्व आयामों की जानकारी केवल आन्तरिक मूल्यांकन से ही सम्भव हो सकती है। सतत्-मूल्यांकन सम्पूर्ण सत्र के दौरान छात्रा को अध्ययन करने की ओर प्रेरित करता है। चयनित व सतही अध्ययन की प्रवृत्ति को सतत्-मूल्यांकन प्रणाली समाप्त कर सकती है। इसमें परीक्षार्थी के द्वारा परीक्षक को धोखा देने की सम्भावना नगण्य है। सतत-मूल्यांकन के द्वारा छात्रों को समय-समय पर उनकी शैक्षिक प्रगति से अवगत कराकर उन्हें आवश्यक पृष्ठ पोषण (feedback) देना सम्भव है। इसके विपरीत सत्रान्त में ली जाने वाली परीक्षाएँ छात्रों को उनकी कमियों से अवगत कराने में असमर्थ रहती हैं। परिणामतः छात्रों को सुधार का कोई संकेत तथा अवसर नहीं मिल पाता है। सतत्-आन्तरिक मूल्यांकन प्रणाली की सार्थकता अध्यापकों के ऊपर निर्भर करती है। यदि अध्यापकगण निष्पक्षता, कर्तव्यपरायणता, निष्ठा तथा विश्वास के साथ सतत् मूल्याकन के कार्य को सम्पादित करेंगे तब निःसंदेह यह प्रणाली शिक्षा प्रणाली में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकेगी।
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