शिक्षक शिक्षण / Teacher Education

शैक्षिक दर्शन का अर्थ एवं परिभाषा | दर्शन एवं शिक्षा के संबंध | दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव

शैक्षिक दर्शन का अर्थ
शैक्षिक दर्शन का अर्थ

शैक्षिक दर्शन का अर्थ एवं परिभाषा | दर्शन एवं शिक्षा के संबंध | दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव

शैक्षिक दर्शन का अर्थ

दर्शन शास्त्र हमें ब्रह्माण्ड का ज्ञान कराता है। ब्रह्माण्ड के ज्ञान के आधार पर मनुष्य जीवन के परम उदद्देश्य निर्धारित करता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति शिक्षा के माध्यम से की जा सकती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि दर्शन शिक्षा के उद्देश्यों पर अपना प्रभाव डालता है। हमारे जीवन के उद्देश्य को दर्शन निर्धारित करता है इसलिए शिक्षा के उद्देश्य भी वहीं होंगे जो दर्शन निर्धारित करेगा। एक शिक्षाशास्त्री शिक्षा की समस्याओं को हल करने का प्रयास करता है। उसे उस कार्य में दर्शन सहायता करता है। इस प्रकार ‘शैक्षिक दर्शन’ की उत्पत्ति होती है। अतः हम कह सकते हैं शैक्षिक दर्शन में शिक्षा की समस्याओं की विवचना करके उनका हल प्रस्तुत किया जाता है। दर्शन के विभिन्न सम्प्रदाय शिक्षा के विभिन्न अंगों को अपने दृष्टिकोण के अनुसार प्रभावित करते हैं। शिक्षा दर्शन में इन सबके सम्बन्ध में विचार किया जाता है। अतः शिक्षा-दर्शन-शिक्षा की समस्याओं का हल दर्शन की सहायता से प्रस्तुत करता है। अतः दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री दोनों ही शैक्षिक दर्शन का निर्माण करते हैं।

शैक्षिक दर्शन की परिभाषायें

(1) हेन्डर्सन के अनुसार– “शिक्षा दर्शन, शिक्षा की समस्याओं के अध्ययन में दर्शन का प्रयोग करता है।”

(2) कनिंघम के अनुसार– “शिक्षा दर्शन शिक्षा की समस्याओं को अपने मुख्य पक्षों में देखता है। दर्शन सभी वस्तुओं को अन्तिम तकों एवं कारणों के माध्यम से जानने का विज्ञान है।”

(3) टी. ई. शील्ड के अनुसार-“शिक्षा दर्शन का कार्य शुद्ध दर्शन द्वारा प्रतिपादित सत्यों एवं सिद्धान्तों को शैक्षिक प्रक्रिया के संचालन में प्रयुक्त करता है।”

दर्शन एवं शिक्षा के संबंध का ऊल्लेख करते हुए दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव का वर्णन

दर्शन व शिक्षा के संबंध को अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढग से समझाया है। दर्शन की तीनों शाखाओं (तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा व मूल्य मीमांसा) का शिक्षा से घनिष्ट संबंध है।

  1. तत्त्व मीमांसा व शिक्षा (Metaphysics and Education)- तत्व मीमांसा का विषय-क्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है। इसके अन्तर्गत आत्मा परमात्मा, विज्ञान, जगत्, मनुष्य इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। सत्य अथवा यथार्थ के ज्ञान का ही दूसरा नाम तत्त्वज्ञान है।

शिक्षा का उद्देश्य भी वास्तविकता अथवा यथार्थ का ज्ञान कराना होता है। तत्त्व ज्ञान ही व्यक्ति को जीवन की वास्तविकता से परिचित कराता है।

  1. ज्ञान मीमांसा व शिक्षा (Epistemology and Education)- दर्शन के विषय-क्षेत्र ज्ञानशास्त्र के अन्तर्गत ज्ञान से सम्बन्धित पक्षों एव समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। शिक्षा में ज्ञान मीमांसा का विशेष उपयोग होता है। पांठ्यक्रम का निर्मण करना व उसमें किस ज्ञान को सम्मिलित करना एवं ज्ञान के तत्त्वों को किस क्रम में व्यवस्थित करना है, इन समस्याओं को ज्ञान मीमांसा द्वारा हल करने में सहायता मिलती है। शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों के चयन करने में भी ज्ञान मीमासा द्वारा सहायता मिलती है।
  2. मूल्य मीमांसा व शिक्षा (Axiology and Education)- दर्शन में जीवन के प्रति दृष्टिकोण को मूल्य कहा जाता है। मूल्यों को मानव-जीवन का चरम लक्ष्य, मोक्ष या मुक्ति मानते हैं। मूल्यों के विकास में शिक्षा प्रक्रिया का विशेष महत्व होता है। प्रमुख चार मूल्य हैं-नैतिक, सौन्दर्यानुभूति, सामाजिक तथा धार्मिक।

तर्क मीमांसा को भी मूल्य मीमांसा के अन्तर्गत सम्मिलित करके अध्ययन किया जा सकता है। शिक्षा की प्रक्रिया में तर्क मीमांसा का विशेष महत्त्व है, क्योंकि शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन है और उसका संचालन तारकिक चिन्तन के द्वारा ही सम्भव होता है।

इस प्रकार शिक्षा और दर्शन में घनिष्ठ सम्बन्ध है। दर्शन शिक्षा को प्रभावित करता है। और शिक्षा दार्शनिक दृष्टिकोण पर नियन्त्रण रखती है। विश्व के सभी महान दार्शनिक महान शिक्षाशास्त्री भी हुए हैं। रॉस के शब्दों में – “दश्शन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं। एक में दूसरा निहित है। दर्शन-जीवन का विचारात्मक पक्ष है और शिक्षा-क्रियात्मक पक्ष।”

शैक्षिक दृष्टिकोण से दर्शन का अध्ययन परमावश्यक है, क्योंकि इसके द्वारा शिक्षा का पथ-प्रदर्शन किया जाता है। दर्शन द्वारा शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, अनुशासन, विद्यालय संगठन आदि को निश्चित रूप प्रदान किया जाता है।

  1. दर्शन व शिक्षा के उद्देश्य (Philosophy and Aims of Education)- जॉन डीवी का कथन है-“दर्शन का सम्बन्ध शिक्षा के लक्ष्यों को निर्धारित करने से है।”

“Philosophy is concerned with determining the ends of education.”

दर्शन के द्वारा जीवन के मूल्यों का ज्ञान प्राप्त होता है और शिक्षा के द्वारा इन मूल्यो की प्राप्ति होती है। जीवन के उद्देश्य व्यक्ति के आदर्शानुरूप भिन्न-भिन्न होते हैं, अत: शिक्षा के उद्देश्य भी भिन्न हो जाते हैं। समयानुसार जीवन के उददेश्य परिवर्तित होते रहते हैं। व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है, जीवन के उद्देश्यों का निर्धारण दार्शनिकों द्वारा होता है।

जीवन के उद्देश्यो को सामने रखकर ही शिक्षा अपने कार्य में अग्रसर होती है। इस प्रकार दार्शनिक जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हैं और शिक्षक बालकों को उस लक्ष्य की प्राप्ति की क्षमता प्रदान करते हैं। राजनीतिक दर्शन का भी प्रभाव उद्देश्य निर्धारण पर पड़ता है। जिस देश में जिस समय जो राजनीतिक दर्शन होता है, उसी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण होते हैं। विभिन्न युगों में दर्शन द्वारा ही शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण होता रहा है।

  1. दर्शन और पाठ्यक्रम (Philosophy and Curriculum)- शिक्षा के उद्देश्यों के समान ही पाठ्यक्रम निर्धारण में भी दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जिस देश में जिस युग में जिस प्रकार की विचारधाराएँ और आदर्श होते हैं उसी के अनुकूल पाठ्यक्रम का नि्धारण किया जाता है। प्राचीन समय में आध्यात्मिक तथ्यों को महत्त्व दिया जाता था, अत: पाठ्यक्रम में वेद, उपनिषदों और अन्य धार्मिक मान्यताओं को स्थान दिया गया था वर्तमान समय में विज्ञान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। अत: पाठ्यक्रम में भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र जीवविज्ञान आदि विज्ञान से सम्बन्धित विषयों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। दर्शन द्वारा पाठ्य-विषयो के समन्वय द्वारा अध्ययन किया जा सकता है।

3.दर्शन और शिक्षण-विधियाँ (Philosophy and Method of Teaching)- जीवन के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए किस शिक्षण-विधि का प्रयोग किया जाये, यह दर्शन-शास्त्र ही बतलाता है। शिक्षण-विधियों का स्वरूप मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों से प्रभावित होता है। शिक्षण-विधियों का मूल्यांकन दर्शन करता है। व्यक्ति के दूष्टिकोण के अनुरूप ही शिक्षण-विधियों का निर्धारण हो पाता है। अतः भिन्न-भिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियों का निर्माण किया है, जो निम्न प्रकार हैं-

(1) रूसो- निषेधात्मक शिक्षा पद्धति।

(2) फ्रॉबेल- क्रिया पद्धति।

(3) मॉण्टेसरी- इन्द्रिय प्रशिक्षण।

(4) आदर्शवादी- प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद।

(5) प्रकृतिवादी- इन्द्रियों द्वारा सीखना।

(6) प्रयोजनवादी- प्रोजेक्ट तथा इकाई पद्धति।

(7) यथार्थवादी- निरीक्षण और स्वानुभव पद्धति।

  1. दर्शन और अनुशासन (Philosophy and Discipline)- किसी भी देश अथवा समाज की दार्शनिक विचारधारा के अनुरूप अनुशासन के सिद्धान्त निरूपित होते हैं। राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा का विद्यालय की अनुशासन व्यवस्था पर अवश्य प्रभाव पड़ता है।

विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के अनुसार अनुशासन के तीन रूप हैं-

  1. दमनात्मक अनुशासन, 2. प्रभावात्मक अनुशासन, 3. मुक्त्यात्मक अनुशासन।

(1) दमनात्मक अनुशासन में विश्वास रखने वाले दार्शनिकों का मत है कि बालकों को दण्ड देना अनिवार्य है, नहीं तो बालक बिगड़ जायेगा। इसके अनुसार भय, दण्ड तथा दमन के द्वारा अनुशासन स्थापित किया जा सकता है।

(2) प्रभावात्मक अनुशासन का समर्थन आदर्शवादियों ने किया है। उनका मत है कि शिक्षक को अपना व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली और आकर्षक बनाना चाहिए कि विद्यार्थी उसकी ओर स्वयं आकर्षित हो सके।

(3) मुक्त्यात्मक अनुशासन का समर्थन प्रकृतिवादियों ने किया है। उनका मत है कि बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए, उनके प्राकृतिक विकास में किसी तरह का हस्तकक्षेप नहीं करना चाहिए।

  1. दर्शन और शिक्षक (Philosophy and Teacher)- प्रत्येक शिक्षक का अपना एक आदर्श अथवा दर्शन होता है। शिक्षा के उद्देश्य एवं शिक्षण विधि पर शिक्षक के दर्शन की छाप होती है। उच्चकोटि का दार्शनिक ही अच्छा शिक्षक होता है और अच्छा शिक्षाशास्त्री ही एक सच्चा दार्शनिक होता है। दर्शन के अध्ययन से एक शिक्षक को सभी प्रकार का ज्ञान हो जाता है। शिक्षक के व्यक्तित्व में परोपकार, व्यवहार-कुशलता, नैतिकता, आत्मविश्वास एवं प्रभावशीलता आदि गुणों का विकास होता है। उच्च व्यक्तित्व का प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व पर अवश्य ही पड़ता है।

शिक्षक अपने जीवन-दर्शन व विचारधाराओं के आधार पर नई विचारधाराओं व आदर्शों को जन्म देता है। इस प्रकार शिक्षक भावी दर्शन की पृष्टभूमि तैयार करता है।

  1. दर्शन और शिक्षण संस्थाएं (Philosophy and Educational Institutions)- परिवार, समुदायों व विद्यालयों पर भी दर्शन का प्रभाव पड़ता है। परिवार के सदस्य अपने अनुभव के आधार पर अपना दर्शन विकसित करते हैं, उसी के अनुरूप अपने बालकों को शिक्षा प्रदान करते हैं। प्राचीन समय में तत्कालीन दर्शन के अनुरूप गुरुकुल जैसी शिक्षण संस्थाएँ विकसित हुई। वर्तमान समय में भौतिकवादी दर्शन के कारण शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप भिन्न है। अत: शिक्षण संस्थाओं पर दर्शन का प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार दर्शन शिक्षा के विभिन्न अंगों को प्रभावित करता है। प्रसिद्ध विद्वान बटलर ने लिखा है-“दर्शन शिक्षा के प्रयोगों के लिए एक पथ-प्रदर्शक है, शिक्षा अनुसंधान के क्षेत्र के रूप में दार्शनिक निर्णय हेतु निश्चित सामग्री को आधार के रूप में प्रदान करती है।”
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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