शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा | शिक्षण की प्रकृति | Meaning and definition of teaching in Hindi | Nature of teaching in Hindi
शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा | शिक्षण की प्रकृति | Meaning and definition of teaching in Hindi | Nature of teaching in Hindi
शिक्षण का सामान्य तात्पर्य है बच्चों को विभिन्न विषयों का ज्ञान प्रदान करना। लेकिन शिक्षण की यह धारणा शिक्षण के सभी पक्षों पर प्रकाश नहीं डालती। अतः शिक्षण की इस धारणा को पूर्ण नहीं माना जा सकता। डॉ. माथुर ने शिक्षण के अर्थ को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से समझाया है उनके अनुसार “वर्तमान समय में शिक्षण से यह तात्पर्य नहीं है कि बालक के मस्तिष्क को थोथे अव्यवहारिक ज्ञान से भर दिया जाये-…। अब तो शिक्षण का अर्थ है बालक को ऐसे अवसर प्रदान किये जाएं जिससे बालक अपनी अवस्था एवं प्रकृति के अनुरूप समस्याओं को हल करने की क्षमता प्राप्त कर ले। वह अपने आप योजना बना सके, प्रदत्त सामग्री एकत्र कर सके, उसे सुसंगठित कर सके तथा फल को प्राप्त कर सके, जिसे वह फिर प्रयोग में ला सके।”
व्यापक अर्थ में शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने परिवार, विद्यालय, मित्रता, व्यवसाय तथा वातावरण से अनुकूलन के लिए आजीवन शिक्षण प्राप्त करता है। बालक को अपने परिवार, विद्यालय, खेल के मैदान, समाज और पड़ोस से शिक्षा मिलती है और उसकी यह शिक्षा जीवन पर्यन्त चलती रहती है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे को शिक्षित करता रहता है। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे को शिक्षण प्रदान करता है। सीमित अर्थों में शिक्षण केवल औपचारिक साधनों के द्वारा दिया जाता है और यह एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिसमें विषय, बालक और अध्यापक आपस में सम्बन्धित रहते हैं। जब तक यह तीनों आपस में नहीं मिलते तब तक शिक्षण प्रक्रिया सम्भव नहीं होती। आज के शिक्षण का स्वरूप परम्परागत शिक्षण के स्वरूप से बिल्कुल बदल चुका है। शिक्षा शास्त्रियों ने नवीन शिक्षा के सिद्धान्तों और शिक्षण पद्धतियों का प्रतिपादन एवं आविष्कार किया है। आज शिक्षण को पूर्ण रूप से बाल केन्द्रित बनाया गया है। शिक्षण में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही साधनों को प्रयोग में लाया जा रहा है। शिक्षण की कुछ निम्न परिभाषाओं से शिक्षण की धारणा और अधिक स्पष्ट हो जाएगी।
रायबर्न के अनुसार, “शिक्षण एक सम्बन्ध है जो विद्यार्थी को उसकी शक्तियों के विकास में सहायता देता है।“
योकुम तथा सिम्पसन के मतानुसार, “शिक्षण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा समूह के लोग अपने अपरिपक्व सदस्यों को जीवन से सामंजस्य स्थापित करना बताते है।”
बैन के अनुसार, “शिक्षण कथन नहीं प्रशिक्षण है।”
बर्टन के अनुसार, “शिक्षण अधिगम हेतु उद्दीपन, मार्गदर्शन, निर्देशन और प्रोत्साहन है।”
बी. ओ. स्मिथ के अनुसार, “शिक्षण क्रियाओं की एक विधि है जो सीखने की उत्सुकता जागृत करती है।”
एन. एल. गेज़ के मतानुसार, “शिक्षण एक निजी प्रभाव है जिसका उद्देश्य अन्य व्यक्ति के व्यवहार में प्रभावी परिवर्तन लाना है।”
एडमण्ड एमीडोन के अनुसार, “शिक्षण एक अंतःक्रियात्मक प्रक्रिया है जिसमें प्रमुख रूप से कक्षागत वार्ता अंतर्निहित होती है जो शिक्षक और छात्र के बीच संचालित होती है तथा कुछ निश्चित क्रियाओं के दौरान ही घटित होती है।”
मोरिसन के शब्दों में, “शिक्षण अधिक परिपक्व व्यक्तित्व एवं कम परिपक्व व्यक्तित्व के मध्य घनिष्ठ सम्पर्क है जिसकी संरचना कम परिपक्व व्यक्तित्व वाले की शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए की जाती है।“
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षण का अर्थ छात्रों को कक्षा में बिठा कर किसी पाठ या तथ्य को समझा देना मात्र नहीं है बल्कि यह राष्ट्र व्यापी उद्देश्य की पूर्ति हेतु वैयक्तिक विकास के लिए विद्यालय तथा कक्षागत परिस्थितियों में सम्पन्न होने वाली एक प्रक्रिया है। शिक्षण के दो प्रमुख अंग हैं- सीखने वाला और सिखाने वाला। आधुनिक शैक्षिक प्रक्रिया में बालक समस्त शैक्षिक गतिविधियों का केन्द्र बन चुका है। आज के शिक्षक को छात्रों की रुचि के अनुकूल ही छात्रों को पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु का चुनाव करना होता है। बालक क्योंकि शिक्षण की प्रक्रिया का केन्द्र है. अतः उसकी अपनी योग्यता, क्षमता और आवश्यकता को भी ध्यान में रखते हुए शिक्षा का संचालन करना पड़ता है। प्रत्येक छात्र भिन्न-भिन्न योग्यताओं व क्षमताओं को लिए होते हैं। अतः शिक्षण की क्रिया छात्रों की वैयक्तिक भिन्नताओं के आधार पर उनमें अन्तरर्निहित गुणों का विकास करती है।
शिक्षण का स्वरूप / शिक्षण की प्रकृति
उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से शिक्षण के स्वरूप की निम्न बातें स्पष्ट होती हैं-
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शिक्षण का अर्थ मार्ग दर्शन है (To Guide the Children is the Meaning of Teaching)
शिक्षण का कार्य पाठ्यवस्तु सम्बन्धित सूचनाओं को ही छात्रों तक पहुंचाना मात्र नहीं है बल्कि शिक्षण के द्वारा बच्चों की रुचियों, आदतों, कार्यों और प्रवृत्तियों को उचित दिशा में निर्देशित किया जाना शिक्षण का अर्थ है। रायबर्न और रिस्क महोदय ने कहा है। कि “शिक्षण को एक प्रदर्शक के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए।” “Teaching is defined as guidance in Learning” मार्गदर्शन के दृष्टिकोण से शिक्षण की दो प्रमुख क्रियायें शिक्षा की सामग्री प्रस्तुत करना और बालकों की मानसिक क्रियाशीलता का पथ प्रदर्शन करना है।
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सीखने का संगठन करना शिक्षण का अर्थ है (Meaning of Teaching is to Organise the Learning)
सीखने के संगठन से आशय शिक्षक तथा छात्र की क्रियाओं का एक हो जाना है .तथा इन सभी क्रियाओं में सभी प्रकार के कार्यों, शिक्षण विधियों तथा दशाओं का समावेश होना है। इस प्रकार सीखने के संगठन का अर्थ शिक्षण की परिस्थितियों के समस्त उपकरणों के एक हो जाने से है। मार्शल का मानना है कि “शिक्षण सीखने का पथ प्रदर्शन नहीं बल्कि सीखने का संगठन है।”
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शिक्षण एक त्रिमुखी प्रक्रिया है (Teaching is a Three Cornered Process)
शिक्षण प्रक्रिया के तीन प्रमुख बिन्दु-शिक्षक, छात्र और विषयवस्तु हैं। इन तीनों में पारस्परिक आदान-प्रदान से ही शिक्षण की प्रक्रिया सम्भव होती है। शिक्षक तथा छात्र शिक्षण प्रक्रिया के सजीव अंग है और पाठ्यवस्तु इसका निर्जीव अंग है। रायबर्न का मानना है कि शिक्षक और छात्र के बीच सम्बन्ध जितना अधिक घनिष्ठ होगा शिक्षण उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा। शिक्षक को शिक्षण के समय निम्न तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए-1. शिक्षकशिक्षक को छात्र की प्रकृति एवं स्वभाव का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, 2. शिक्षक को स्वयं का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए और 3. उसे पाठ्यवस्तु की भी सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। इन तीनों बातों को ध्यान में रखकर ही शिक्षक, छात्र और पाठ्यवस्तु के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं।
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सूचना देना शिक्षण का अर्थ है (The Meaning of Teaching is to Inform)
शिक्षण का एक महत्वपूर्ण कार्य छात्रों को सूचना देना है। शिक्षण प्रक्रिया के दौरान छात्रों को शिक्षक पाठ्यवस्तु सम्बन्धी सूचनाएं देने के साथ-साथ अन्य व्यवहारिक भी देता है। जो शिक्षक कहानी कला में निपुण होते हैं वे बहुत प्रभावशाली ढंग से इन सूचनाओं को छात्रों तक पहुंचा पाते हैं। यदि इन सूचनाओं को अध्यापकों द्वारा पूर्व अर्जित सूचनाओं के साथ स्थापित कर छात्रों तक पहुंचाया जाता है तो छात्र इन सूचनाओं को बहुत आसानी से ग्रहण कर लेते हैं।
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शिक्षण का अर्थ सिखाना है (To Teach is the Meaning of Teaching)
शिक्षण का कार्य बिना सिखाये सम्भव नहीं हो सकता। बालकों को तब तक ज्ञान नहीं दिया जा सकता जब तक वे सीखने के लिए तैयार न हों। शिक्षक का उत्तरदायित्व सूचनायें मात्र देने पर ही समाप्त नहीं हो जाता बल्कि उसका दायित् बच्चों को सीखने के लिए तैयार करना है। शिक्षण की सफलता तभी मानी जाएगी जब शिक्षक द्वारा दिये हुए ज्ञान को छात्र ग्रहण कर लें । यही कारण है कि समस्त शिक्षण कार्य को चलाने के लिए कुछ निश्चित शिक्षण विधियों का निर्माण व प्रचलन सम्भव हुआ है। बर्डन के मतानुसार, “शिक्षण सीखने में उत्तेजना, पथ प्रदर्शन और प्रोत्साहन देना है।”
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वातावरण से सामंजस्य स्थापित कराना (To Adjust with the Environment)
समाज परिवर्तनशील है। समाज की भौतिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियां बदलती रहती हैं और इस वातावरण में ही छात्र को अपना जीवनयापन करना होता है। अतः शिक्षण का उद्देश्य कक्षा में छात्र को शिक्षित करना मात्र नहीं है बल्कि उसे इस योग्य बनाना है कि वह समाज की इन परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता रखता हो। इस सम्बन्ध में सिमसन का मानना है कि “शिक्षण वह साधन है जिसके द्वारा समाज अपने बालकों को चुने हुए वातावरण से जिसमें कि उसको रहना है शीघ्र अति शीघ्र अनुकूल करने की प्रक्रिया में प्रशिक्षित करता है।”
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बालक को क्रियाशील बनाना (To Make the child Active)
क्रियाशीलता बालक की जन्मजात प्रवृत्ति व क्षमता है जिसे वह अपनी विभिन्न प्रवृत्तियों तथा प्रतिक्रियाओं के माध्यम से व्यक्त करता है। शिक्षक का कार्य उसकी इस जन्मजात प्रवृत्ति को क्रियाशील रहने के अवसर प्रदान करना है। शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों को इस प्रकार से शिक्षित करे कि वह अपनी इस क्रियाशीलता का पूर्ण लाभ उठा सकें। उचित पथ प्रदर्शन के द्वारा बालकों को इस प्रवृत्ति के अनुकूल उद्देश्यपूर्ण तथा लाभदायक कार्यों में लगाया जा सकता है। फ्रोबेल तथा मान्टसरी जैसे प्रमुख शिक्षाशासत्रियों ने शिक्षा में क्रियाशीलता पर विशेष बल दिया है।
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बालकों को प्रोत्साहित करना (To Motivate the child)
बालकों को प्रोत्साहित करना व उन्हें प्रेरणा देना शिक्षण का एक महत्वपूर्ण कार्य एवं अर्थ कहा जा सकता है। प्रेरणा और प्रोत्साहन कठिन से कठिन कार्य को सरल बना देते हैं। शिक्षक को बालकों की प्रमुख रुचियों तथा रुझानों का पता लगाकर उन्हें उचित मार्गदर्शन देना चाहिए जिससे बालकों के जीवन में सही धारणाओं का निर्माण सम्भव हो सके।
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बालक के संवेगों को प्रशिक्षित करना (To Train the Emotions of Child)
शिक्षण का अर्थ बच्चों के संवेगों को प्रशिक्षित करना भी है। मनोवैज्ञानिक इस वात से पूर्णतः सहमत हैं कि बालकों के अधिकांश व्यवहार उनके संवेगों से संचालित होते हैं। अतः शिक्षण प्रक्रिया में बच्चों के इन संवेगों को आवश्यकतानुसार परिवर्तित करने और संचालित करने की व्यवस्था होनी चाहिए। अनेक पाठ्य सम्बन्धी क्रियाओं से बालकों के संवेगों को नियंत्रित किया जा सकता है। अच्छी बातों की ओर बच्चों के संवेगों को मोड़ना शिक्षण के द्वारा ही सम्भव है।
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