शिक्षा में महात्मा गाँधी का योगदान

शिक्षा में महात्मा गाँधी का योगदान या शैक्षिक विचार | गाँधीजी के शिक्षा दर्शन से आप क्या समझते हैं?

शिक्षा में महात्मा गाँधी का योगदान

शिक्षा में महात्मा गाँधी का योगदान या शैक्षिक विचार | गाँधीजी के शिक्षा दर्शन से आप क्या समझते हैं?

शिक्षा में महात्मा गाँधी का योगदान या शैक्षिक विचार

गाँधीजी केवल राजनीतिज्ञ ही नहीं थे बल्कि एक महान समाज सुधारक एवं सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री थे। उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचार अपने लेखों तथा भाषण द्वारा स्पष्ट किये। वे शिक्षा को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक प्रगति का आधार मानते थे। उनका शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त बेसिक शिक्षा का व्यवहारिक रूप था। गाँधीजी की इच्छा थी कि हर नागरिक शिक्षित हो जाये। लेकिन वे साक्षरता मात्र को शिक्षा नहीं मानते थे। गाँधीजी के ही शब्दों में- “साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न शिक्षा का प्रारम्भ। यह केवल एक साधना है। जिसके द्वारा पुरुष और स्त्री को शिक्षित किया जा सकता है।“ गाँधीजी शिक्षा को विकास की प्रक्रिया मानते हैं।

गाँधीजी के सैद्धान्तिक विचार

(1) 6 से 14 वर्ष तक के बालकों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा दी जायेगी।

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी न कि अंग्रेजी।

(3) शिक्षा शिल्प केन्द्रित होगी।

(4) हस्तकला, करघा उद्योग की शिक्षा दी जाएगी। जैसे-कृषि, कताई, बुनाई, लकड़ी का काम, मछली पालन, मिट्टी का काम, उद्यान कार्य, चरखा आदि।

गांधी जी का शिक्षा दर्शन – आदर्शवाद, प्रयोजनवाद और प्रकृतिवाद का समन्वय है।

शिक्षा का उद्देश्य

शिक्षा और उसके उद्देश्य के सम्बन्ध में गाँधीजी ने जो विचार व्यक्त किये, उन्हें हम निम्नलिखित क्रम में व्यक्त कर सकते हैं-(1) तात्कालिक उद्देश्य, (2) शिंक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य ।

तात्कालिक उद्देश्य में गाँधीजी का कहना था कि सात वर्ष का कोर्स समाप्त करने के बाद 14 वर्ष की आयु में बालक को कमाने वाले व्यक्ति के रूप में विद्यालय से बाहर भेज देना चाहिए। यह गाँधीजी का प्रथम उद्देश्य है। गाँधीजी का दूसरा उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना है। उनका विश्वास है कि “जब तक मस्तिष्क और शरीर का विकास आत्मा की जागृति के साथ-साथ न होगा तब पहले प्रकार का विकास एकागी सिद्ध होगा। पूर्ण मनुष्य का निर्माण करने के लिए इन तीनों का उचित एवं सामंजस्यपूर्ण सम्मिश्रण आवश्यक है।” इसी प्रकार तीसरा उद्देश्य सांस्कृतिक और चौथा उद्देश्य चारित्रिक और पाँचवां उद्देश्य आध्यात्मिक विकास आदि है।

पाठ्यक्रम निर्माण

गाँधीजी ने बेसिक शिक्षा प्रणाली को जन्म दिया है और इस शिक्षा प्रणाली का पाठ्यक्रम छात्रों को आत्मनिर्भर बनाने वाला और उसके सर्वांगीण उन्नति में योगदान देने वाला हैं। इसके लिए उन्हें किसी हस्तकार्य या दस्तकारी के माध्यम से शिक्षा देनी चाहिए। गाँधीजी ने अपने द्वारा निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित पाठ्यचर्या प्रस्तुत की-

(1) हस्तकला एवं उद्योग (कताई, बुनाई, बागवानी, कृषि, काष्ठ-कला, चर्म-कार्य, पुस्तक कला, मिट्टी का काम, मछली पालन, गृह विज्ञान आदि)

(2) मातृभाषा

(3) हिन्दुस्तानी (आजकल राष्ट्रभाषा, हिन्दी, उनके लिए जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है)

(4) व्यावहारिक गणित (अकगणित, बीजगणित, रेखागणित, नाप-जोख आदि)

(5) सामाजिक विज्ञान (इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र एवं समाज का अध्ययन),

(6) सामान्य विज्ञान, (बागवानी, वनस्पतिशास्त्र, रसायनशास्त्र तथा भौतिक विज्ञान और गृहविज्ञान)।

(7) संगीत,

(8) चित्रकला

(9) आचरण शिक्षा (नैतिक शिक्षा, समाज सेवा एवं अन्य कार्य)

(10) स्वास्थ्य विज्ञान (सफाई, व्यायाम एवं खेलकूद आदि)।

शिक्षण विधियाँ

(1) करके सीखना और स्वयं के अनुभव से सीखना गाँधीजी शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक बल क्रिया (Activity) पर देते थे। उनके अनुसार स्वयं करके सीखना ही उत्तम सीखना होता है। गाँधीजी कथन, व्याख्यान और प्रश्नोत्तर विधि के महत्व को भी स्वीकार करते थे। वे पुस्तकीय शिक्षा के विरुद्ध थे। क्राफ्ट/शिल्प शिक्षा को अधिक महत्त्व देते थे।

(2) नवीन शिक्षण पद्धति का प्रतिपादन (शारीरिक अंग का विवेकपूर्ण प्रयोग) गाँधीजी ने नवीन शिक्षा पद्धति के अनुसार बालक और शिक्षक के बीच खाई को समाप्त करने तथा बालकों को सक्रिय कार्यकर्त्ता, निरीक्षणकर्त्ता तथा प्रयोगकर्ता बनाने का प्रयास किया। मस्तिष्क का विकास शरीर के विभिन्न अंगों (हाथ, पैर, आँख, कान आदि) के अभ्यास एवं प्रशिक्षण से ही सम्भव है। इसलिए उन्होंने कार्य द्वारा शिक्षा देने की पद्धति को अपनाया। स्पष्ट है कि उनकी शिक्षण क्रिया प्रधान है।

(3) सह-सम्बन्ध विधिगाँधीजी ने सीखने की प्रक्रिया में विभिन्न विषयों में समन्वय स्थापित करने पर विशेष बल दिया। उनके अनुसार एक तो किसी महत्त्वपूर्ण “हस्तकला” के इदं-गिर्द अन्य विषयों को रखकर उसका अध्यापन करना चाहिए और दूसरे विभिन्न विषयों में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करते हुए उसका अध्यापन करना चाहिए।

“जाकिर हुसैन समिति” के अनुसार गाँधीजी ने अपनी शिक्षा पद्धति में सहयोगी क्रिया पहल-कदमी (Initiative) तथा व्यक्तिगत उत्तरदायित्व पर काफी जोर दिया है।

शिक्षा और अनुशासन

गाँधीजी अनुशासन को बहुत आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार यह अनुशासन आत्मप्रेरित होना चाहिए। इसे प्राप्त करने के लिए वे दमनात्मक विधि का विरोध करते थे। वह बच्चों को अपने आत्मबल से प्रभावित करने पर बल देते थे। गलत रास्ते पर चलने वालों को सही रास्ते पर लाने के लिए अध्यापकों को स्वयं ब्रह्मचर्य एवं संयमी जीवन का पालन करना आवश्यक है। यदि बच्चों के सामने उच्च आचरण और उच्च विचारों के आदर्श रखे जाएंगे, तो वे उन्हें अनुकरण के द्वारा स्वयं ग्रहण कर लेंगे।

शिक्षा और शिक्षक, शिक्षार्थी व विद्यालय

शिक्षक के सम्बन्ध में गाँधीजी का दृष्टिकोण आदर्शवादी है। वह शिक्षक को सत्य, अहिंसा, प्रेम, न्याय, सहिष्णुता और परिश्रम आदि गुणों से विभूषित देखना चाहते थे। उसे बालकों पर जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए बल्कि अपने व्यक्तित्व से उन्हें प्रभावित करना चाहिए। विद्यालय के बारे में गाँधीजी का कथन है कि विद्यालय प्रकृति की गोद में, किसी सुरम्य और सुन्दर स्थान पर होने चाहिए।

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