शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा की अवधारणा | भारतीय शिक्षा की अवधारणा | Concept of education in Hindi | Concept of Indian education in Hindi

शिक्षा की अवधारणा
शिक्षा की अवधारणा

शिक्षा की अवधारणा | भारतीय शिक्षा की अवधारणा | Concept of education in Hindi | Concept of Indian education in Hindi

अति प्राचीन काल से शिक्षा की अवधारणा विचारकों तथा दार्शनिकों के मस्तिष्कों को आन्दोलित करती आ रही है। ‘शिक्षा’ (Education) शब्द एक व्यापक गुणार्थ है। इस कारण इसको सार रूप में परिभाषित करना कठिन है। जीवशास्त्री, धर्मप्रवर्त्तक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, कूटनीतिज्ञ, शिक्षक, अभिभावक, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री आदि सभी इसको विभिन्न अर्थों में परिभाषित करते हैं। इस कारण शिक्षा बहुअर्थी है । प्रत्येक व्यक्ति जो इस शब्द (शिक्षा) के विषय में पढ़ता है या सुनता है वह इसको अपने हित की दृष्टि से विवेचित या परिभाषित करता है। ये सभी व्यक्ति जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण से इसकी विवेचना करते हैं। उदाहरणार्थ, अभिभावक इसको एक सकारात्मक शक्ति के रूप में देखता है जो उसके बालक को समाज में समृद्धि, प्रतिष्ठा तथा नाम प्रदान करने के योग्य बनाती है। शिक्षक इस शब्द की व्याख्या इस प्रकार करता है-यह बालक को नवीन मानव बनाने में सहायता प्रदान करती है। साथ ही यह समाज तथा राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाती है। छात्र इसको दूसरे रूप में देखता है-शिक्षा जान, अभिषृत्तियाँ तथा कौशल प्रदान करने वाला साधन है । साथ ही यह डिग्री व प्रमाण-पत्र प्रदान करती है। धर्मप्रवेर्तक ईस शब्द की व्याख्या इस प्रकार करता है-इसके द्वारा भौतिक बर्बरता को समापत करके आध्यात्मिक मूल्यों को ग्रहण किया जा सकता है। इस प्रकार सभी व्यक्ति’ शिक्षा’ शब्द की विवेचना अपने-अपने दृष्टिकोण से करते हैं।

शिक्षा की विभिन्न अवधारणाएँ

  1. शिक्षा : मानव के विकास का प्रयास (Education: An Attempt to Develop Man)

शिक्षा भावी सन्तति के विकास के लिए एक प्रयास है जो समाज के प्रौढ़ सदस्यों द्वारा किया जाता है। यह सभी व्यक्तियों के लिए वैयक्तिक पूर्णता हेतु सुविधा प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस सम्बन्ध में जॉन ड्यूवी (John Dewey) ने लिखा है– “शिक्षा, व्यक्ति की उन सब शक्तियों या क्षमताओं का विकास है, जिनसे बह अपने वातावरण पर अधिकार प्राप्त कर सके और अपनी भावी आशाओं को पूरा कर सके।”

जिस व्यक्ति में सोचने-समझने की शक्ति होती है, उसी को विकसित कहा जा सकता है। जो व्यक्ति अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं की आलोचना कर सकता है, वही व्यक्ति समाज को कुछ योगदान दे सकता है। ऐसे व्यक्ति को सदैव बदलने वाले समाज से अपना सामंजस्य करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। उसे इस स्थिति में शिक्षा द्वारा ही पहुँचाया जाता है। दूसरे शब्दों में, शिक्षा द्वारा ही उसका विकास किया जाता है।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने इस बात पर बल दिया है कि ‘शिक्षा’ व्यक्ति को विकसित करने का प्रयत्न है। प्लेटो (Plato) ने लिखा है- “शिक्षा छात्र के शरीर और आत्मा में उस सब सौन्दर्य और पूर्णाता का विकास करती है, जिसके योग्य वह है।”

अरस्तू (Aristotle) ने भी करीब-करीब इसी विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है- “शिक्षा मनुष्य की शक्ति का, विशेष रूप से मानसिक शक्ति का विकास करती है, जिससे कि वह परम सत्य, शिव और सुन्दरम् का चिन्तन करने के योग्य बन सके।”

संक्षेप में, हम कह संकते हैं कि शिक्षा, व्यक्ति का विकास करने में सहायता देती है। यह उसकी जन्मजात शक्तियों का शैशव से प्रौढ़ता तक इस प्रकार विकास करती है कि वह अपने वातावरण से अपना सामंजस्य स्थापित कर सके और उस पर अधिकार प्राप्त करके उसे उत्तम भी बना सके।

  1. शिक्षा : प्रशिक्षण कार्य है (Education is an Act of Training)

कुछ विचारकों का मत है कि शिक्षा प्रशिक्षण का कार्य है, जिसके द्वारा व्यक्ति को सामाजिक जीवन में अपना उचित स्थान ग्रहण करने के योग्य बनाया जाता है। मनुष्य मूलत: पशु होता है अर्थात् वह पशु-प्रवृत्ति रखता है। अत: उसे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, जिससे कि वह अपनी भावनाओं अभिलाषाओं और व्यवहारों पर अधिकार करना सीख जाये ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त करके ही वह समाज का उंत्तरदायी सदस्य बन सकता है। उसे यह प्रशिक्षण, शिक्षा द्वारा ही दिया जाता है। इस प्रशिक्षण के बिना नैतिक और व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने में कठिनाई का अनुभव कर सकता है।

  1. शिक्षा : मार्ग-प्रदर्शन है (Education is Direction)

बालकों को शिक्षा देने का अर्थ है- उनका मार्ग-प्रदर्शन करना । शिक्षा का मुख्य उद्देश्य वच्चों की अविकसित योग्यताओं, क्षमताओं, शक्तियों और रुचियों को इस प्रकार निर्देशित करना है कि वे अधिक-से-अधिक लाभप्रद बन सकें ऐसी दशा में ही बच्चे दूसरों को ठेस पहुँचाये बिना और स्वयं अपमानित हुए बिना अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं।

अत: यह आवश्यक है कि बच्चों का कुशलता से मार्ग-प्रदर्शन किया जाये इसके लिए निम्नांकित बातें आवश्यक हैं-

  1. निर्देशन, बालक के स्वभाव के विरुद्ध नहीं होना चाहिए।
  2. बालक के ऊपर कोई अनावश्यक विचार नहीं लादा जाना चाहिए।
  3. निर्देशन के समय भय, दण्ड और डाँट-डपट का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
  4. जिस लक्ष्य पर बालक पहुँचना चाहता है, उसका उसे ठीक ज्ञान होना चाहिए।
  5. निर्देशन करने वाले अर्थात् शिक्षक को साध्य और साधन का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
  6. शिक्षक को उस ढाँचे का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, जिसमें समाज बालक को ढालना चाहता है।
  7. निर्देशन से पहले बालक की आवश्यकताओं, योग्यताओं, क्षमताओं और रुचियों का अध्ययन कर लेना चाहिए।

4. शिक्षा : समग्र अभिवृद्धि है (Education is Integrated Growth)

अभिवृद्धि क्या है? अभिवृद्धि का अर्थ है-शारीरिक अंगों और मानसिक शक्तियों का विस्तार । अभिवृतद्धि के दो महत्वपूर्ण तत्व हैं- (1) प्रशिक्षण (Training) और (2) वातावरण (Environment)।

प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रशिक्षण और वातावरण के अनुसार क्रिया और प्रतिक्रिया करत है। फलत: वह अपने प्रारम्भिक रूप और स्वभाव से परिवर्तित होकर एक नई सूरत में आ जाता है। परिवर्तन की ये सब प्रक्रियाएँ, अभिवृद्धि की प्रक्रियाएँ हैं और इसलिए शिक्षा की प्रक्रियाएँ कहलाती हैं। अत: शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक ढाँचे की अभिवृद्धि शिक्षा है और शिक्षा प्राप्त करना अभिवृद्धि करना है।

अब प्रश्न उठता है-‘अभिवृद्धि कौन कर सकता है? ‘ इसका केवल एक ही उत्तर है-‘केवल वही व्यक्ति जो अपरिपक्व या अविकसित है।’ पर इसको जाना किस प्रकार जा सकता है? इसको जानने के लिए दो बातें हैं-(1) निर्भरता (Dependence) और (2) लचीलापन (Elasticity) I

वयस्क की अपेक्षा बच्चे में लचीलापन अधिक होता है। लचीलापन ही उसे आदतों का निर्माण करने में सहायता देता है। आदतें ही उसकी कुशलता को बढ़ावा देकर, उसकी अभिवृद्धि में योग देती हैं। अत: बच्चे और वयस्क दोनों की अभिवृद्धि के लिए यह आवश्यक है। कि वे आदतों का निर्माण करें, पर ये आदते अच्छी होनी चाहिए। ये आदतें नैतिक, मानसिक और संवेगात्मक हो सकती हैं। नैतिक आदतों को मानसिक आदतों से बल प्राप्त होता है। बुद्धि का जितना ही अधिक प्रयोग किया जायेगा, कार्य-कुशलता उतनी ही अधिक होगी। परिणामतः उतनी ही अधिक अभिवृद्धि होगी। अतः हम कह सकते हैं कि अधिक-से-अधिक बुद्धि के प्रयोग से अधिक-से-अधिक अभिवृद्धि होती है।

अब प्रश्न उठता है-‘अभिवृद्धि किस प्रकार की होनी चाहिए?’ इसका उत्तर केवल यह है कि अभिवृद्धि उचित प्रकार की होनी चाहिए। बच्चों का निर्देशन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उसके व्यक्तिगत गुणों और सामाजिक सम्बन्धों का विकास हो। उनकी अभिवृद्धि, जीवन के उचित लक्ष्यों, उच्चतम मूल्यों, आकांक्षाओं और महानताओं की दिशा में होनी चाहिए। उन्हें श्रेष्ठतम मानव-चरित्र की दिशा में प्रशंसनीय अभिवृद्धि करनी चाहिए।

प्रशंसनीय अभिवृद्धि से कहीं अधिक आवश्यक सन्तुलित, सामंजस्यपूर्ण और सुसंगठित अभिवृद्धि है। ऐसी अभिवृद्धि तभी सम्भव है जब बालक के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं- शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक, सौन्दर्यात्मक और सामाजिक -का समान रूप से सम्पूर्ण विकास किया जाये।

अन्त में हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण विकास का अर्थ है-बालक के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का सामंजस्यपूर्ण विकास। इनमें उसकी शक्तियाँ-जन्मजात, प्रकट और  प्रकट-आ जाती है। उसे स्वयं यह अनुभव करना चाहिए कि वह अपने भाग्य का निर्माता है और वह जिस प्रकार का व्यक्ति बनना चाहे, बन सकता है।

  1. शिक्षा : व्यवहार का रूपान्तरण है (Education is Modification of Behavior)

शिक्षा मानव के मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार को मानवीय व्यवहार में रूपान्तरित करती है। मानव आवेगात्मक व्यवहार न करके विवेकयुक्त व्यवहार करता है। इस प्रकार शिक्षा मनुष्य को नवीन रूप प्रदान करती है। शिक्षा मनुष्य को नवीन आदतों एवं कौशलों को सिखाकर उसका रूपान्तरण करती है। यह वह साधन है जिसके द्वारा बालक अपने जातीय अनुभवों को प्राप्त करके अपने व्यवहार को परिवर्तित करता है। शिक्षा की विषय वस्तु, प्रकृति तथा विधियाँ मनुष्य को अच्छा या बुरा बनाती हैं।

  1. शिक्षा : मुक्ति है (Education is Emancipation)

शिक्षा अज्ञानता से मुक्ति दिलाती है। यह मनुष्य को स्वार्थपरता से छुटकारा दिलाती है और उसे परोपकारी तथा सामाजिक रूप से जागरूक बनाती है।

  1. शिक्षा : उत्पाद है (Education is a Product)

शिक्षा को एक उत्पाद के रूप में देखा जाता है। जो व्यक्ति ज्ञान अर्जित कर लेता है और विभिन्न कौशलों को सोख लेता है तथा अपनी अभिवृत्तियों को विकसित कर लेता है, उसे हम शिक्षित व्यक्ति कहते हैं। ज्ञान, विभिन्न कौशल तथा अभिवृत्तियाँ सामूहिक जीवन के उत्पाद हैं जिनको प्राप्त करने के लिए अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है तथा कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। शिक्षा तभी उत्पाद हो पाती है जब उसका प्रयोग किया जाता है।

  1. शिक्षा : प्रभाव है (Education is Influence)

शिक्षा व्यक्ति पर पर्यावरण का प्रभाव है। साथ ही यह परिपक्व व्यक्ति के अपरिपक्व व्यक्तित्व पर पड़ने वाला प्रभाव भी है। इन प्रभावों के फलस्वरूप व्यक्ति उन क्षमताओं का विकास करता है जिनसे वह अपने पर्यावरण पर नियन्त्रण कायम कर सके तथा स्वयं का अपने पर्यावरण से सामंजस्य स्थापित कर सके।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimersarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!