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अनुकरण सिद्धान्त | अरस्तु के काव्य और कला-सम्बन्धी विचार | अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त | कलाओं में अनुकरण का महत्त्व | अनुकरण सिद्धान्त की समीक्षा

अनुकरण सिद्धान्त | अरस्तु के काव्य और कला-सम्बन्धी विचार | अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त | कलाओं में अनुकरण का महत्त्व | अनुकरण सिद्धान्त की समीक्षा

अनुकरण सिद्धान्त

पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में यूनानी दार्शनिक अरस्तू का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका कार्यकाल 374 ई0 पू0 से 322 ई० पू० माना जाता है। अरस्तू प्रसिद्ध ग्रीक विद्वान् प्लेटो का प्रिय शिष्य था। प्लेटो अरस्तू को अपने विद्यापीठ का मस्तिष्क कहा करता था। अरस्तू को सिकन्दर महान् के गुरु होने का भी गौरव प्राप्त था। ज्ञान-विज्ञान के लगभग प्रत्येक क्षेत्र पर उसका अधिकार था। उसे पाश्चात्य विधाओं का ‘आदि आचार्य’ कहा जाता है। उसने लगभग 400 विविध विषयक ग्रन्थों की रचना की। साहित्यशास्त्र पर अरस्तू के दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं—(i) भाषणशास्त्र (Rhetoric) और (i) काव्यशास्त्र (Poetics),

अरस्तु के काव्य और कला-सम्बन्धी विचार

अरस्तू यद्यपि प्लेटो का शिष्य था, तथापि उसने अपनी चिन्तन पद्धति का विकास स्वतन्त्र एवं मौलिक ढंग से किया। अरस्तू के अनुसार कविता दो सहज एवं स्वाभाविक कारणों से उद्भूत होती है। पहला कारण है— अनुकरण की सहज वृत्ति तथा दूसरा कारण है-सामंजस्य और लय की वृत्ति। कौन नहीं जानता कि अनुकरण की वृत्ति मानव में जन्मजात होती है। मनुष्य सब कुछ अनुकरण से ही सीखता है। सामंजस्य और लय की वृत्ति से सम्पन्न मनुष्य धीरे-धीरे विशिष्ट प्रवृत्तियों का विकास करता है। इस प्रकार अरस्तू ने जीवन के साथ कविता का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया है। अरस्तू ने कवि को ‘स्रष्टा’ कहा है। जीवन के अनेक पक्ष और क्षेत्र होने के कारण काव्य में विशिष्टता और विस्तार की सम्भावनाएं रहती हैं। कविता में जीवन का जो रूप अंकित होता है, वह अनिवार्यतः सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। उसमें कल्पना के योग का अवकाश रहता है। यही कारण है कि कवि के कथानक की सृष्टि कभी-कभी कल्पित भी होती है।

काव्य-सिद्धान्त- अरस्तू ने काव्य-कला के क्षेत्र में दो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है-(i) अनुकृति सिद्धान्त एवं (i) विरेचन सिद्धान्त।

अरस्तू का कहना है कि काव्य भी चित्रकला की भाँति अनुकृति पर आधारित है। जिस प्रकार चित्रकार जीवन को इन तीन दृष्टियों से प्रस्तुत करता है-एक, वह जैसा देखता है उसी रूप में, दूसरे, उससे उत्तम रूप में, तीसरे, निकृष्ट रूप में उसी प्रकार कवि भी अपनी कृति में जीवन को प्रस्तुत करते समय इन्हीं दृष्टियों को अपनाता है। इस प्रकार अरस्तू का कहना है कि काव्य प्रकृति का एक ऐसा अनुकरण है, जिसका. माध्यम भाषा है। अपने ‘बिरेचन सिद्धान्त’ में अरस्तू ने यह  प्रतिपादित किया है कि ट्रेजडी के पठन एवं प्रेक्षण से करुणा एवं भय का जो संचार होता है, उससे व्यावहारिक जीवन में करुणा एवं भय के प्रचण्ड आवेगों को झेलने की शक्ति आ जाती है।

अरस्तू पूर्व-अनुकरण सिद्धान्त- अनुकरण सिद्धान्त का बीजारोपण प्लेटो ने कर दिया। था, परन्तु प्लेटो ने इसकी चर्चा तो अवश्य की थी, पर अरस्तू ने उसे परिष्कृत रूप में ग्रहण किया है। प्लेटो नै अनुकरण शब्द का कई अर्थों, में प्रयोग किया है।

प्लेटो की धारणा अनुकरण के सम्बन्ध में यही है कि वस्तु और उसकी प्रतिकृति के बीच का क्रियात्मक सम्बन्ध है। वह इस सृष्टि को भी विचारों की प्रतिकृति मानता है। उसके अनुसार मूलादर्श जो कभी सृष्टिकर्ता के अन्तर में पनपता होगा, क्रियात्मक रूप धर एवं रखकर सृष्टि का रूप धारण कर सका होगा।

‘यदि परमात्मा है तो ब्रह्माण्ड उसकी अनुकृति है। यदि पदार्थ है तो उसकी प्रतिच्छायाएँ अनुकृतियाँ हैं। यदि मानवकृत शिल्प वस्तुएँ हैं तो उनके चित्र अनुकृतियाँ हैं।’

प्लेटो ने अनुकरण के आधार पर ही कलाओं के भेद भी बताये हैं-(1) दैवी कला (2) मानवीय कला। इन दोनों के भी उसने दो भेदं किये हैं-(i) प्राकृतिक पदार्थ, (ii) उनकी प्रतिकृति, जो जलादि के प्रतिबिम्ब के रूप में होती हैं।

मानवीय कला के भी उसने दो भेद बताये हैं-

(i) उपयोगी कला, जैसे काष्ठ कला आदि।

(ii) अनुकरणात्मक कला, जो प्राकृतिक वस्तुओं का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। उसने अनुकरण की अनुकूलता के आधार पर ही काव्य की उत्कष्टता को सिद्ध किया।

(a) सत्य की अनुकूलता अर्थात् मूल वस्तु का अनुकरण किस सीमा तक हो पाता है?

(b) वह वस्तु शुभ है अथवा अशुभ-जिसका अनुकरण हुआ है। प्लेटो के अनुसार यदि अनुकरण सत्यानुकूल और जन-मंगलकारी है, तभी ठीक है।

अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्लेटो कला में अनुकरण सिद्धान्त को स्वीकार करता है, पर वह सत्यनिष्ठ मूलादर्शयुक्त अनुकरण का पक्षधर है। वह ‘शुभ’ और ‘सत्य’ के अनुकरण को ही महत्त्व देता है।

अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त

अरस्तू ने अनुकरण को प्रतिकृति न मानकर पुनः सृजन अथवा पुनर्निर्माण माना है।

(i) प्रो0 गिलबर्ट के अनुसार, अरस्तू अनुकरण को रचनात्मक कार्य मानते हैं।

(ii) स्कॉट जोन्स-अरस्तू अनुकरण साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन (Objective Representation of Life) तथा जीवन का कल्पनात्मक पुनर्निर्माण (Imaginative Construction of Life) स्वीकार करते हैं।

(iii) बूचर (Butcher) की मान्यता है—’अरस्तू के ‘अनुकरण’ शब्द का अर्थ है- सादृश्य-विधान अथवा मूल का पुनरुत्पादन, सांकेतिक उल्लेख नहीं। कला या कविता को मानव- जीवन के सर्वव्यापक तत्त्व की अभिव्यक्ति मानता हुआ वह ‘अनुकरण’ को रचनात्मक प्रक्रिया (Creative Action) मानता है।”

अरस्तू ने अनुकरण शब्द का प्रयोग विभिन्न शास्त्रों में किया है-

  1. भौतिकशास्त्र- यहाँ उसने कला को प्रकृति की अनुकृति स्वीकार किया (Art imitates nature physics)।
  2. राजनीतिशास्त्र – इसमें कला को प्रकृति के सादृश्य की अनुकृति स्वीकार किया (Making a Likeness or images of nature)
  3. काव्यशास्त्र – इनमें मानवीय, आन्तरिक, भावानुभूतियों और प्रवृत्तियों की अनुकृति स्वीकार किया (Imitation of inner human action) |

संक्षेप में, अनुकरण का अर्थ अरस्तू हू-ब-हू नकल करना नहीं मानता था। वह एक सर्जनात्मक क्रिया है। उसकी धारणा है कि अनुकरण की प्रक्रिया प्रकृति के अनेक दोषों का निराकरण करके कला द्वारा उसकी अपूर्णता की पूर्ति की जाती है-‘Art finishes the job when nature fails or imitates the missing part.”

अरस्तू के अनुसार, अनुकरण मानव स्वभाव का एक अभिन्न अंग है। यह प्रवृत्ति बाल्यकाल से ही रहती है—Imitation is natural to man from childhood and it is also for all to delight in works of imitation.”

अरस्तू ने अनुकरण के सिद्धान्त में एक नया चिन्तन दिया और कला को प्रकृति का अनुकरण स्वीकार किया।

प्रकृति का अनुकरण- अरस्तू ने कला को प्रकृति की अनुकृति स्वीकार करते हुए काव्य को सौन्दर्य की दृष्टि से देखा, उसे भावात्मक आनन्द (Emotional Delight) बताया। उसके अनुसार– ‘कविता सामान्यतः मानवीय प्रकृति की दो सहज प्रवृत्तियों से उद्भूत हुई जान पड़ती है। इनमें से एक है, अनुकरण की प्रवृत्ति। कला प्रकृति का अनुकरण करती है।’

अरस्तू की मान्यता है कि प्रकति उस प्राकतिक तत्त्व जिसे आदर्श रूप माना जाता है को प्राप्त करने हेतु निरन्तर सक्रिय रहती है, पर कई व्यवधानों के कारण वह उसे प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाती। कलाकार उन व्यवधानों को हटाकर प्रकृति की (सक्रियता विकास प्रक्रिया : Process of Growth) का अनुकरण करके उसे पूर्णता प्रदान करता है। (Every art aims at feeling out what nature leaves undone.)

उसके अनुसार प्रत्येक वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है, उसे ही प्रतिकृति कहते हैं। प्रकृति जब यह आदर्श रूप प्राप्त करने में बाधा अनुभव करती है, तब कला यह कार्य पूरा करती है।

अनुकरण और सर्जन प्रक्रिया-कलाकार वस्तु को ऐसा रूप देता है जिससे उसके सर्वमान्य रूप और आदर्श रूप दोनों का स्पष्ट बोध होता है। यह कार्य अनुकरण और सर्जन प्रक्रिया के आधार पर ही होता है।

एयर क्राम्बी ने कहा है कि ‘अरस्तू ने कविता में अनुकरण का वही अर्थ ग्रहण किया, जो अर्थ आजकल हम तन्त्र या शिल्प का मानते हैं।’

अरस्तू ने कहा है कि सर्जन की प्रक्रिया तीन स्तरों पर सम्पन्न होती है-

(i) जो चीजें जैसी हों उन्हें वैसा ही दिखाया जाय।

(ii) जो चीजें जैसी लगती हों या कही जाती हों उन्हें वैसा दिखाया जाय।

(iii) जैसी वे होनी चाहिए उन्हें वैसा दिखाया जाय।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पहले स्तर का सम्बन्ध सीधा अनुकरण से है, पर दो स्तरों पर सर्जन का भाव विद्यमान है। अतः अरस्तू अनुकरण के सर्जनात्मक रूप के पक्षधर हैं, मात्र नकल के नहीं अर्थात् वस्तु-जगत् के द्वारा कवि की संवेदना और कल्पना में जो वस्तु रूप प्रस्तुत होता है,  कवि उसी को भाषा में प्रस्तुत करता है। यह पुनः प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है।

‘अतः अनुकरण वह तन्त्र है जिसके द्वारा कवि अपनी कल्पनात्मक अनुभूति की प्रक्षेपणीय अभिव्यक्ति को अन्तिम रूप प्रदान करता है।’ अनुकरण का अर्थ किसी भी चीज का हू-ब-हू नकल नहीं है अपितु संवेदना, अनुभूति, कल्पना आदि के प्रयोग द्वारा अपूर्ण को पूर्ण बनाना है। काव्य मानव के जीवन में सार्वभौम तत्त्व का अनुकरण करता है। व्यक्ति में जो सार्वभौम गुण है, उनका उद्घाटन करता है। अनुकरण के द्वारा कलाकार सार्वभौम की पहचान कर उसे सरल तथा ऐन्द्रिक रूप में पुनरुत्पादित करता है। कलाकृति कलाकार के मनोगत बिम्ब का प्रतिफल है।

अनुकरणीय वस्तु- अरस्तू ने यह स्वीकार किया कि काव्य में तीन प्रकार की वस्तुओं में किसी का भी अनुकरण हो सकता है-(i) जैसी वे थीं, (ii) जैसी वे कही या समझी जाती हैं, (iii) जैसी वे होनी चाहिए।

इससे निष्कर्ष निकलता है कि काव्य का विषय प्रकृति के प्रतीयमान एवं सम्भाव्य और आदर्श रूप को मानता है। इस चित्रण में निश्चय ही कवि कल्पना या भावना और कल्पना का आश्रय लेगा तो आदर्श रूप में वह अपनी रुचि, इच्छा तथा आदर्शों के अनुरूप चित्र प्रस्तुत करेगा। इस प्रकार अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त भावात्मक तथा कल्पनात्मक अनुकरण को मानकर चलता है, शुद्ध प्रतिकृति को नहीं।

अरस्तू के अनुकरण विषय-

इन्होंने अनुकरण को तीन विषयों की ओर संकेत किया है- (1) प्रकृति, (2) इतिहास और (3) कार्यरत मनुष्य।

  1. प्रकृति का अनुकरण- संक्षेप में, इस विषय को पीछे स्पष्ट किया जा चुका है।

अरस्तू प्रकृति के अनुकरण को ही कला मानता है- (Art imitates nature ) – अरस्तू के अनुसार कलाकार प्रकृति की हू-ब-हू नकल नहीं करता। वह तो उस सर्जन प्रक्रिया को पकड़ना चाहता है, जो प्रकृति में विद्यमान है, किन्तु अपूर्ण है अर्थात् किन्हीं अवरोधों के कारण (विकास की प्रक्रिया का) पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है या प्रकति अपने को पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है, उस अभाव को कलाकार पूरा करता है। यहाँ मात्र अनुकरण नहीं, सर्जन भी होता है, क्योंकि कलाकार को उसमें कुछ अपनी ओर से भी जोड़ना होता है। अतः प्रकृति की विकासात्मक प्रक्रिया के अधूरेपन को कलाकार पूरा करता है। ‘Art finishes the job when nature fails, or imitates the missing parts.”

  1. इतिहास का अनुकरण- अरस्तू ने इतिहास और काव्य में अन्तर करते हुए कहा है- ‘कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि एक तो उसका वर्णन करता है जो घटित हो चुका है और दूसरा उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है…। काव्य सामान्य की अभिव्यक्ति है और इतिहास-विशेष की। अतः ‘मूर्त’ और ‘अमूर्त’ का तो भेद दोनों में है ही, ‘यथार्थ’ और ‘संभाव्य’ का भी अन्तर है।’ अतः इतिहासं जहाँ स्थूल की अभिव्यक्ति है, कला वहीं सूक्ष्म की अभिव्यक्ति है। अरस्तू ‘संभाव्य’ को तथा ‘सूक्ष्म’ को महत्त्व देता है-

‘The poet’s function is to describe, not the things that has happened but a.

Kind of thing that might happen i.e, what is possible as being probable or necessary.

उसके अनुसार सूक्ष्म, संभाव्य का चित्रण करना ही काव्य का लक्ष्य है, यथार्थ, स्थूल का अनुकरण करना नहीं। अतः वह सूक्ष्म भावपरक अनुकरण का पक्षधर था।

A likely impossibility is always preferable to an unconvincing possibility.’

  1. कार्यरत मनुष्य- त्रासदी के विवेचन में उसने स्पष्ट किया कि त्रासदी कार्यरत मनुष्यों का ही वर्णन करती है। कार्यरत से तात्पर्य जीवन व्यापार में सुख-दुःख की अनुभूति करनेवाला मनुष्य ही है। उसका कथन है- ‘सुख, दुःख और संघर्ष की सही स्थिति में ही व्यक्ति का स्वरूप, गुण और वैशिष्टय उभरकर सामने आता है, मात्र उसके गुण कथन में नहीं। अतः कलाकार को कार्यरत मनुष्य का ही चित्र उभारना अपेक्षित है, क्योंकि गुण-कथन के बिना तो त्रासदी का अस्तित्व संभव है, किन्तु कार्यरत मनुष्य के बिना सम्भव नहीं।

‘Besides this tragedy is impossible without action, but there may be one without character.’

अरस्तू ने कार्यरत मनुष्य की तीन श्रेणियाँ भी बतायीं-(i) सामान्य जैसे, (ii) सामान्य से अच्छे एवं (iii) सामान्य से बुरे इस सम्बन्ध में उनकी धारणा थी कि सामान्य से अच्छा चित्र प्रस्तुत करने के लिए कल्पना की आवश्यकता है। अतः वे अनुकरण को पदार्थ, वस्तु के उन्नत रूपान्तरण और कल्पनात्मक पुनः सृजन मानते थे। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कल्पनात्मक पुनः सृजन में यह आवश्यक है कि कुछ छोड़ा जायगा और कुछ जोड़ा जायगा और अनुकरण यथार्थ वस्तुपरक अनुकरण मात्र न होकर भावात्मक और कल्पनात्मक अनुकरण होता है।

अनुकरण और भारतीय चिन्तन-भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में कहा है कि-

‘त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानुकीर्तनम्।’

अर्थात् तीनों लोकों के भावों का अनुकीर्तन ही नाटक में है। इस श्लोक की व्याख्या अरस्तू के त्रासदी में वर्णित कार्यरत मनुष्य के अनुकरण की धारणा से मेल खाती है। इस श्लोक में आदर्श नाटक का महत्त्व समझाया गया है। धनंजय के अनुसार, ‘अवस्था विशेष की अनुकृति ही नाटक है।’ :

‘अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्।’

अवस्था का अर्थ आन्तरिक और बाह्य सभी अवस्थाओं से है।

अनुकरण सिद्धान्त की समीक्षा

अनुकरण से तात्पर्य यथार्थ का प्रत्यांकन नहीं, तत्त्व और भावों का अनुकरण ही हैं। ऐसा अनुकरण आदर्श तत्त्व से युक्त रहने के कारण सौन्दर्य और आनन्द से युक्त होकर यथार्थ (जिसका अनुकरण किया गया हो) की अनुभूति कराने में भी समर्थ होता है। डॉ० नगेन्द्र ने इस प्रकार स्वीकार किया है-

‘यह सिद्ध है कि अनुकरण का अर्थ यथार्थ प्रत्यांकन मात्र नहीं है—वह पुनः सृजन का पर्याय भी है – और उसमें भाव तथा कल्पनां का. यथेष्ट अन्तर्भाव है। उसमें सर्जना और सर्जना के आनन्द की अस्वीकृति । कदापि नहीं है।’

अनुकरण सिद्धान्त का मूल्यांकन भी हुआ और उसमें न्यूनताएँ भी खोजी गयीं।

डॉ० एस० एस० गुप्त के अनुसार-(अ) अनुकरण को नया अर्थ प्रदान कर अरस्तू ने ‘कला का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित किया, कला का सम्बन्ध अमूर्त से नहीं, संवेदन और बिम्ब- विधायिनी शक्ति से माना. सन्दर को शिव से अधिक व्यापक बताया, कला पर प्लेटो द्वारा लगाये पावित्र्य दूषकता के को वृथा बताया और कविता को दार्शनिक तथा नीतिज्ञ के चंगुल से छुटकारा दिलाया।

(आ) पर उसमें कमी भी पर्याप्त मात्रा में है-

(i) वह आत्म-तत्त्व तथा कल्पना-तत्त्व को स्वीकार करते हुए भी वस्तु-तत्त्व को प्रधानता देता. है। अतः व्यक्तिपरक भाव-तत्त्व से अधिक महत्त्व वस्तुपरक भाव-तत्त्व का है। वह कला को सम्पूर्ण समाज को आनन्द प्रदान करनेवाली मानता है, न कि वैयक्तिक अनुभूति की अभिव्यक्ति ( Expression of a Rare Individuality 🙂

(ii) इसकी परिधि भी संकुचित है, क्योंकि इसमें कवि की अन्तश्चेतना को कम महत्त्व दिया गया। कवि जीवन-जगत् के विभिन्न अनुभवों और नाना भावों के प्रभाव से एक अन्तश्चेतना का स्वरूप निर्धारित करता है। इसको यहाँ महत्त्व नहीं दिया गया, क्योंकि यह सिद्धान्त वस्तुपरक भाव- तत्त्व पर ही आधारित है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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