शिक्षाशास्त्र / Education

वैदिक साहित्य में शिक्षा का अर्थ | प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ

वैदिक साहित्य में शिक्षा का अर्थ | प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ

वैदिक साहित्य में शिक्षा का अर्थ

(Meaning of Education in Vedic Literature)

वैदिक साहित्य में ‘शिक्षा’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है; जैसे- ‘विद्या’, ‘ज्ञान’, ‘बोध’ और ‘विनय’। ‘शिक्षा’ शब्द का प्रयोग ‘व्यापक’ और ‘सीमित’-दोनों अर्थों में निम्न प्रकार किया गया है-

(1) व्यापक अर्थ (Wide Meaning)- व्यापक अर्थ में, शिक्षा का तात्पर्य हैं-व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना। इस दृष्टि से शिक्षा, आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।

(2) सीमित अर्थ (Narrow Meaning)- सीमित अर्थ में, शिक्षा का अभिप्राय उस औपचारिक शिक्षा से है जो व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व छात्र के रूप में गुरू से प्राप्त होती है।

प्राचीन युग में ‘शिक्षा’ को पुस्तकीय ज्ञान का पर्यायवाची या जीविकोपार्जन का साधन न मानकर वह प्रकाश माना गया, जो व्यक्ति को अपना बहुमुखी विकास करने, उत्तम जीवन व्यतीत करने और मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देती थी। डा० ए० एस० अल्तेकर (A.S. Altekar) के अनुसार, “वैदिक युग से आज तक शिक्षा के संबंध में भारतीयों की मुख्य धारणा यह रही है कि शिक्षा, प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करता है।”

प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ

(CHaracteristics of Ancient Indian Education)

प्राचीन भारतीय सभ्यताओं में वैदिक सभ्यता को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। इस सभ्यता के निर्माता आर्य थे। आयों के द्वारा जिस शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया, उसके सम्बन्ध में वेदों से पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन भारतीय शिक्षा मूल रूप से आध्यात्मिक तत्वों पर ही आधारित है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक ऐसे पक्ष हैं जो इस शिक्षा प्रणालो को अद्वितीय बनाने में सहायक हुए हैं। डॉ० अल्तेकर के अनुसार-

“वैदिक युग से लेकर अब तक शिक्षा का प्रकाश के स्त्रोत से अभिप्राय रहा है और यह जीवन के विविध क्षेत्रों में हमारा मार्ग आलोकित करता है।”

शिक्षा के क्षेत्र में आयों ने जिन शैक्षिक उद्देश्यों और आदर्शों को निर्धारित किया है, जिस शिक्षा प्रणाली की खोज की वह हजारों वर्षों के उपरान्त भी आज के युग में अपने किसी न किसी रूप में विद्यमान है। आर्यों द्वारा विकसित इस उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली की और भी अनेक विशेषतायें हैं। इन समस्त विशेषताओं का उल्लेख अग्र प्रकार है-

(1) उपनयन संस्कार

वैदिक कालीन शिक्षा की सर्वप्रथम विशेषता थी उपनयन संस्कार। यह वैदिक शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्कार था। वैदिक काल में बालक के विद्याध्ययन का औपचारिक प्रारम्भ इस संस्कार के द्वारा होता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है पास ले जाना। अत: बालक को शिक्षा के लिये गुरु के पास ले जाना ही उपनयन संस्कार कहलाता था। इस संस्कार के अन्तर्गत बालक सर्वप्रथम गुरु के दर्शन करता था एवं तात्कालिक गुरुजन बालक की योग्यताओं और सद्गुणों को परखते थे और अपना निर्णय देते थे। उनके द्वारा बालक को शिक्षा का अधिकारी घोषित किये जाने पर ही दीक्षा का आयोजन होता था वास्तव में उपनयन संस्कार के उपरान्त ही बालक बहाचर्य आश्रम में प्रवेश करता था तथा बह्मचारी कहलाता था। उपनयन बालक का दूसरा जन्म माना जाता था। उस समय माना जाता था कि माता-पिता बालक के शरीर को जन्म देते हैं जिसे मात्र शारीरिक जन्म स्वीकार किया जा सकता है-

गुरु के यहाँ उपनयन के द्वारा दीक्षित होने पर उसका आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ होता था तथा इस काल में बालक की आत्मा तथा मस्तिष्क विकसित होता था। इसलिये उपनयन के संस्कार को दूसरा जन्म अथवा आध्यात्मिक जन्म भी कहा जाता था। ब्राह्मण, क्षत्रिये तथा वैश्य वर्णों के बालकों के लिये उपनयन संस्कार आवश्यक था। इन तीनों वर्णों को द्विज कहते थे। द्विज का अर्थ है- दो बार जन्म लेने वाला। उपनयन संस्कार न कराने वाले बालकों की हीन दृष्टि से देखा जाता था तथा उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। अत: सकता है। स्पष्ट है कि वैदिक युग में शिक्षा अनिवार्य तथा सार्वभौमिक थी।

(2) विद्यारम्भ संस्कार-

बालक का उपनयन संस्कार हो जाने पर, गुरुकुल में प्रवेश प्राप्त करता था। प्रवेश के उपरान्त जिस दिन बालक की शिक्षा का आरम्भ होता था उस दिन उसका विद्यारम्भ संस्कार किया जाता था। वैदिक शास्त्रों में इस संस्कार के लिये “अक्षर स्वीकर्णय” शब्द प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ अक्षर ज्ञान का प्रारम्भ अर्थात् उस दिन उसे अक्षर का ज्ञान कराया जाता था। बालक गुरु के साथ सरस्वती तथा कुल के देवताओं की उपांसना के साथ अक्षर ज्ञान का प्रारम्भ करते थे। इस संस्कार के विषय में डॉ० वेद मित्र ने लिखा है-

“यह संस्कार, पाँच वर्ष की आयु में होता था और साधारणतः सब जातियों के बालकों के लिये था।”

(3) समावर्तन संस्कार-

शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरान्त बालकों का समावर्तन संस्कार किया जाता था, तदोपरान्त ही वे पुन: अपने घर जाते थे। समावर्तन संस्कार गुरुओं के द्वारा सम्पन्न कराया जाता था इस संस्कार के सम्बन्ध में डॉ० एम० एन० वर्मा लिखते हैं-

“यह संस्कार 25 वर्ष की आयु में किया जाता था। ‘समावर्तन’ का शाब्दिक अर्थ ‘घर लौटना’ है। जब छात्र अपनी वैदिक शिक्षा पूर्ण करके ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था तब यह संस्कार, गुरु द्वारा सम्पन्न किया जाता था संस्कार के समय, छात्र, स्नानादि के पश्चात् नये वस्त्र धारण करता था। सर्वप्रथम गुरु उसे मधुपर्क देता था तथा समावर्तन उपदेश देता था। यह उपदेश निम्न वाक्याशों में दिया जाता था– “हे शिष्य ! सदा सत्य बोलना, स्वाध्याय में प्रमाद मत करना, श्रद्धा से दान देना। तुम्हें हमारा यही आदेश है, यही उपदेश है।” आधुनिक शिक्षा प्रणाली में ‘दीक्षान्त समारोह’ समावर्तन संस्कार का ही रूप है।

(4) गुरुकुल पद्धति-

जिस प्रकार वर्तमान युग में छात्र विद्यालयों में स्थित छात्रावासों में रहकर शिक्षा प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार गुरुकुलों में रहकर ही छात्र अध्ययन किया करते थे। गुरुकुल ग्राम एवं नगर के कोलाहलपूर्ण वातावरण से दूर शान्त वातावरण में होते थे। प्रो० वी० कुमार ने इस सम्बन्ध में लिखा है-

“वर्तमान युग में आवासीय विद्यालयों की भाँति प्राचीन काल में शिष्य गुरु के आश्रम अथवा गुरु के कुल (गुरु-गृह) में स्थायी रूप से रहकर ही शिक्षा प्राप्त करते थे। ग्राम अथवा नगर के निकट स्थित गुरुओं के आश्रम, प्राकृतिक छटा से आच्छादित रहते थे। कोलाहल से सर्वथा दूर, वृक्षों की शीतल छाया में अध्ययन करते हुए छात्र मानसिक रूप से एकाग्र और शारीरिक दृष्टि से पुष्ट थे। समय-समय पर गुरुकुलों से कुछ दूर स्थित ग्रामों अथवा नगरों में भिक्षाटन के लिये भी छात्र आया करते थे। गुरुकुल में गुरुओं की सेवा करते हुए, छात्र शिक्षा तो प्राप्त करते ही थे, साथ ही गुरु के गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों में हाथ बँटाकर गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना भी सीखते थे। भव्य मन्दिरों के विशाल प्राँगणों में शिक्षण कार्य का उल्लेखमिलता है तथापि मुख्यतया गुरुकुल अथवा गुरु आश्रम ही शिक्षा के मुख्य केन्द्र थे।”

(5) व्यावसायिक शिक्षा-

वैदिक काल में छात्रों को भिन्न-भिन्न प्रकार के कौशलों में दक्ष बनाने के साथ ही जीविका का निर्वाह करने के लिये भी तैयार किया जाता था जीविकोर्पाजन के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये बालकों को व्यावसायिक शिक्षा में कृषि एवं वाणिज्य की शिक्षा, औषधि शास्त्र की शिक्षा, सैनिक शिक्षा आदि का विकास हुआ। उपयोगी हस्त कलाओं में पीतल व मिट्टी की वस्तुयें बनाना, लकड़ी का सामान बनाना, कपड़ा बुनना एवं सोने और चाँदी के आभूषण बनाना आदि की शिक्षा दी जाती थी।

(6) कक्षा नाटकीय विधि-

इस काल में कक्षा नाटकीय विधि भी प्रचलित थी। इस पद्धति में गुरु कक्षा के सबसे योग्य छात्र को नायक बना देता था। यह छात्र निम्न कक्षाओं को पढ़ाते थे। इस पद्धति में छात्रों का सहयोग मिलने के कारण गुरुओं पर अध्यापन कार्य का भार कम हो जाता था। इस सम्बन्ध में डॉ० वेद मित्र लिखते हैं-

“कक्षा नाटकीय विधि, विवेकशील विद्यार्थियों को भिक्षा – कला सीखने का अवसर देती थी तथा इस तरह अपराध रूप से उसी कार्य को करती थी, जिसे वर्तमान शिक्षक-प्रशिक्षण महाविद्यालय सम्पन्न करते हैं ।”

(7) विद्यार्थियों के जीवन सम्बन्धी नियमों में कठोरता-

वैदिक कालीन शिक्षा में विद्यार्थियों को कठोरता के साथ कुछ नियमों का पालन करना पड़ता था। जैसे-सूर्योदय के पूर्व उठना, स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर हवन करना आदि।

इन नियमों का उल्लेख करते हुए डॉ० एम० एन० वर्मा ने लिखा है-

वैदिक शिक्षा को प्राप्त करते समय छात्रों को अनेक नियमों का पालन करना पड़ता था, जैसे-

(अ) दिनचर्या- छात्र प्रात:काल उठकर, शौचादि से निवृत्त होकर, हवन आदि करते थे। हवन के पश्चात् वे अपने पढ़े हुए पाठों को दोहराते थे तथा नये पाठों को तैयारी करते थे। मध्यान्ह में भोजन करते थे। सूर्य-अस्त के समय वे संध्या-भजन करते थे तथा उसके पश्चात् रात्रि को भोजन ग्रहण करते थे।

(ब) आदतें- छात्रों में कोई भेदभाव नहीं देखा जा सकता था। सभी वर्ग के व्यक्ति, चाहे वे निर्धन हों अथवा धनी, सभी को सरल जीवन व्यतीत करना पड़ता था।

(स) वेशभूषा- इस काल में विभिन्न जातियों के छात्रों की वेशभूषा भी भिन्न थी। प्रत्येक छात्र के लिये यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य था। प्रत्येक छात्र को मेखला धारण करनी पड़ती थी। छात्र अपने शरीर को मृग तथा बकरे की खाल से ढक कर रखते थे।

(द) आचार एवं व्यवहार- वैदिक शिक्षा में व्यवहार को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। छात्रों में शिष्टाचार युक्त आदतों तथा संयम का विकास किया जाता था। उन्हें जुआ, नृत्य, संगीत आदि से दूर रखा जाता था खान -पान में मॉस, मदिरा आदि का सेवन नहीं करते थे। काम, क्रोध, लोभ से रहित होकर वे पवित्रता का जीवन व्यतीत करते थे।

(8) गुरु-शिष्य सम्बन्ध-

वैदिक काल में शिष्य गुरु की तन-मन-धन से सेवा करते थे। शिष्य गुरु के लिये समस्त श्रद्धा तथा विनय रखते थे। इस काल में गुरु को विशेष सम्मानप्रद स्थान प्राप्त था। गुरु की सेवा करना उनका धर्म था। गुरु को छात्रों को बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पिता माना जाता था गुरु के भी छात्रों के प्रति कुछ कर्त्तव्य थे। गुरु अपने छात्रों का विकास करने हेतु पूर्णतया सचेत रहते थे। छात्र तथा गुरु के सम्बन्ध इस प्रकार थे-

छात्र के कर्त्तव्य- गुरु की आज्ञा का पालन करना, अध्ययन करना, पशु चराना, शिक्षा मांगना, लकड़ा चुनना, पानी भरना आदि।

गुरु के कर्त्तव्य- अध्यापन, छात्रों को भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था करना, चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराना आदि।

गुरु-शिष्य सम्बन्धों को विकसित करने में गुरुकुल प्रणाली का विशेष योगदान रहा है। गुरु एवं शिष्य एक ही परिसर में रहते थे। गुरु छात्रों की प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रखते थे। दोनों में पारस्परिक स्नेह, श्रद्धा के भावों का पूर्ण विकास, इस काल में देखने को मिलता है। डॉ० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार-

“शिक्षक एवं छात्र के सम्बन्ध स्नेहपूर्ण तथा घनिष्ठ थे और उनके भावी जीवन में भी ऐसे ही बने रहते थे।”

छात्र एवं गुरुओं के प्रत्यक्ष सम्बन्ध के बारे में डॉ० अल्तेकर ने लिखा है कि इस प्रकार के सम्बन्धों के लिये किसी संस्था की एक माध्यम से रूप में आवश्यकता नहीं होती थी। इन्होंने अपने शब्दों में लिखा है-

“छात्र तथा अध्यापक के मध्य सम्बन्ध किसी संस्था के माध्यम से नहीं, अपित सीधे उन्हीं के बीच था। छात्र विद्याध्ययन के लिये उन्हीं लब्ध प्रतिष्ठित गुरुओं के पास जाते थे, विद्वता के कारण जिनकी ख्याति थी।”

(9) व्यावहारिकता का समावेश-

प्राचीन कालीन शिक्षा कोरे सैद्धान्तिक आधारों पर ही अवस्थित नहीं थी। शिक्षा में व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण ध्यान रखा गया था। विभिन्न प्रकार की क्रियात्मक शैक्षिक गतिविधियाँ जैसे-गौ-पालन, कृषि की शिक्षा के साथ-साथ चिकित्सा आदि की शिक्षा इस तथ्य का स्पष्ट संकेत करती है। डॉ० अल्तेकर ने इस सम्बन्ध में लिखा है-

“शिक्षा का उद्देश्य अनेक विषयों का साधारण ज्ञान मात्र करा देना नहीं था, अपितु उसका आदर्श विभिन्न क्षेत्रों में उच्च कोटि के विशेषज्ञ बनाना था। इसी कारण व्यावसायिक शिक्षा में प्रायोगिक शिक्षण पर बल़ दिया जाता था।”

(10) अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा-

प्रचीन कालीन शिक्षा की एक अन्य प्रमुख विशेषता थी-शिक्षा कर अनिवार्य एवं नि:शुल्क होना। प्राचीन काल में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी और शिक्षा सर्वसुलभ थी, परन्तु विद्वानों के अनुसार शिक्षा अनिवार्य थी। ब्राह्मण का कर्त्तव्य ही शिक्षा प्रदान करना समझा जाता था। छात्र अपनी शिक्षा समाप्ति पर ही गुरु को दक्षिणा के रूप में पशु, अन्न, भूमि आदि देता था । डॉ० वेदमित्र के अमुसार- उनका यह विचार मनु के इस कथन पर आधारित है-

“मनु का कथन है कि राज्य और समाज 5 या 8 वर्ष की आयु के पश्चात् बालकों और बालिकाओं के लिये, शिक्षा को अनिवार्य बना देना चाहिये और जो व्यक्ति अपने बच्चे की इस आयु के पश्चात् घर पर रखे, उसको दण्ड दिया जाना चाहिये।”

(11) शिक्षा का उद्देश्य-

प्राचीन कालीन शिक्षा का उद्देश्य चरित्र का निर्माण, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता आदि पर आधारित भावनाओं का विकास करना था। डॉ० अल्तेकर के अनुसार- “ईश्वर की भक्ति, धार्मिकता की भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिकता तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की अभिवृद्धि, राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य थे।”

(12) शिक्षा का स्वरूप-

प्राचीन कालीन शिक्षा का स्वरूप धर्म पर आधारित था। शिक्षा का सम्पूर्ण कार्य-कलाप धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में सम्पन्न होता था गुन्नार मिरडल के अनुसार –

“शिक्षा पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाले धार्मिक व्यक्तियों के निर्देशों का संकलन थी। मन्त्रों, वेदों, धर्म-ग्रन्थों का उस समय तक पाठ किया जाता था जब तक वे कण्ठस्थ नहीं हो जाते थे। “

(13) ब्रह्मचर्य-

प्राचीन काल में प्रत्येक छात्र को जीवन के विशिष्ट भाग में ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था आचरण की शुद्धता को प्रमुखता दी जाती थी। अविवाहित छात्रों को ही गुरुकुल में प्रवेश मिलता था।

(14) पाठ्यक्रम –

प्राचीन कालीन शिक्षा के पाठ्यक्रम में वेदों को सर्वप्रमुख स्थान दिया गया था। छात्रों को चारों वेदों का अध्ययन कराया जाता था। इसके अतिरिक्त छन्दशास्त्र, गणित, तर्क, दर्शन, व्याकरण आदि को भी पाठ्यक्रम में समुचित स्थान दिया गया था। परम्परागत अभिवृति, पाठ्यक्रम का प्रमुख आधार थी। यज्ञ तथा अन्य संस्कार विधियों का प्रायोगात्मक ज्ञान प्रदान किया जाता था। अपरा विद्या के अन्तर्गत इतिहास, ज्योतिष, गणित, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, भू-गर्भ विद्या, चिकित्सा आदि विषय पढ़ाये जाते थे शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। अत: संस्कृत का ज्ञान आवश्यक था। सम्पूर्ण वेदाँगों को समझने के लिये तर्कशास्त्र को विशेष महत्त्व प्राप्त था।

(15) दण्ड व्यवस्था-

प्राचीन काल की शिक्षा में दण्ड की आवश्यकता नहीं होती थी शारीरिक दण्ड तो निषिद्ध श। आवश्यकता होने पर गुरु छात्र की शुद्धि के लिये उद्दालक व्रत का पालन करने का दण्ड देते थे। उद्दालक व्रत में छात्र को लगभग तीन माह अत्यन्त अल्पाहार पर रहकर आत्मशुद्धि करनी पड़ती थी। दो महीने तक जौ के मॉड (Barley gruel), एक महीने तक दूध, आधे महीने तक छेन्ना , आठ दिन तक व्रत, छ: दिन तक बिन माँगी भिक्षा तथा तीन दिन तक केवल पानी का सेवन करना पड़ता था तथा एक दिन निराहार रहकर गुजारना पड़ता था।

(16) नारी शिक्षा-

वैदिक काल में नारी शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व दिया गया था वैदिक काल में महिलाओं करे विद्याध्ययन का पूर्ण अधिकार था। अधिकांशत: माता-पिता अथवा कुलपुरोहित लड़कियों को घर पर शिक्षा दिया करते थे। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश से पहले तक लड़कियाँ घर पर अध्ययन करती थीं।

(17) परीक्षा प्रणाली –

वैदिक काल में सामान्यत: औपचारिक परीक्षायें नहीं होती थीं अध्यापक प्रत्येक दिन छात्रों के ज्ञान का परीक्षण करके आगे का पाठ पढ़ाता था। अध्यापक छात्रों की कमियों अथवा त्रुटियों को इंगित करता था तथा छात्र अपनी इन कमियों को दूर करता था। अध्यापक जब तक सन्तुष्ट नहीं हो जाता था, वह आगे का पाठ प्रारम्भ नहीं करता था। प्रतिदिन का यह ज्ञान परीक्षण छात्रों को अध्ययन के प्रति सजग रखता था। जब अध्यापक यह समझता थी कि छात्रे ने आवश्यक ज्ञाने प्राप्त कर लिया है तब उस छात्र का अध्ययन समाप्त समझा जाता था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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