शिक्षाशास्त्र / Education

प्राचीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य | प्राचीन भारत में शिक्षा के प्रमुख आदर्श

प्राचीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य | प्राचीन भारत में शिक्षा के प्रमुख आदर्श

प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों एवं आर्द्शों के संदर्भ में डा० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है कि (प्राचीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य ) –

“ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता का समावेश, चारित्रिक निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिकता एवं सामाजिक कर्त्तव्यपालन की भावना का समावेश, सामाजिक कुशलता की उन्नति एवं राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार आदि प्राचीन भारत की शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य व आदर्श कहे जा सकते हैं।”

प्राचीन भारतीय शिक्षा (वैदिककालीन शिक्षा) के उद्देश्य एवं आदर्श Aims and Ideals of Ancient Indian Education (Vedic Period Education)

प्राचीन भारतीय शिक्षा अथवा वैदिक कालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य अग्रलिखित थे-

(1) संस्कारों का विकास करना

वैदिककालीन युग में शिक्षा का सेर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों में अच्छे संस्कारों का विकास करना था। शिक्षा के द्वारा वैदिक आदर्शों के अनुरूप संस्कारों को छात्रों में विकसित किया जाता था। ब्रह्मचर्य, सदाचार, परमाथ, जनहित भावना, परोपकार, सामाजिक भावना, गुरू व बडों का आदर, कर्त्तव्य पालन, सत्य व्रत, धर्म के प्राति निष्ठा, श्रम के प्रति आदर, उच्च विचार आदि संस्कारों को विकसित करके छात्रों को संस्कार युक्त बनाया जाता था।

(2) ज्ञान एवं अनुभव का समन्वय

प्राचीन शिक्षा पद्धति के अन्तर्गत ज्ञान एवं अनुभव का समन्वय करके शिक्षा प्रदान की जाती थी, जिसके फलस्वरूप शिक्षार्थी ज्ञान को आत्मसात् करने में सफल हो जाते थे। इस शिक्षा पद्धति में चितन, मनन, स्वाध्याय इत्यादि के द्वारा शिक्षार्थियों को यथासंभव योग्य एवं कुशल बनाने का प्रयास गुरूजनों द्वारा किया जाता था इस उद्देश्य के संदर्भ में डॉ० आर० के० मुखर्जी ने लिखा है कि- “शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था, वरन् ज्ञान एव अनुभव को आत्मसात् करना था।”

(3) आत्मा की पवित्रता का विकास करना

वैदिक युग में शिक्षा का दूसरा प्रमुख उद्देश्य मानव का आत्मिक विकास करना था। उस काल में मानव जीवन को अत्यधिक सरल, स्वाभाविक तथा पवित्र बनाने का प्रयास किया जाता था जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति था। मनुष्य की ईश्वर में पूर्ण आस्था थी तथा धर्म के द्वारा सत्य तक पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास किया जाता था।

(4) चित्तवृत्तियों का निरोध

वैदिक कालीन शिक्षा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण, छात्रों की चित्तवृत्तियों का निरोध करना था। प्राचीन भारतीय शिक्षाविद् जीवन को सफल बनाने हेतु आत्मज्ञान एवं आत्मसंयम का समान महत्त्व मानते थे इसी कारणवश वैदिक काल में शिक्षार्थियों को न केवल मौखिक या सैद्धांतिक रूप से सत्य का ज्ञान कराया जाता था, अपितु सत्य के मार्ग पर चलने के लिए उन्हें आत्मसंयम की दिशा में प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाता था। इसी उद्देश्य से शिक्षार्थियों को भिन्न-भिन्न प्रकार की कठोर परीक्षाओं में अपने को खरा सिद्ध करना आवश्यक था। शिक्षार्थियों को दिनचर्या का कठोरता से पालन करना पड़ता था। डॉ० आर० के० मुखर्जी के अनुसार- “मन के उन कार्यों का निषेध था, जिनके कारण यह भौतिक जगत में उलझ जाता है।”

(5) चरित्र का निर्माण

वैदिक काल में शिक्षार्थियों के चरित्र-निर्माण तथा विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था। इसी को ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य समझा जाता था वैदिक काल में ज्ञान सम्पन्न, परन्तु चरित्रहीन व्यक्ति को अत्यन्त निम्न दृष्टि से देखा जाता था। शिक्षार्थियों के चारित्रिक निर्माण हेतु, उनमें आरंभ से ही विभिन्न नैतिक प्रवृत्तियों का विकास करना नितांत आवश्यक माना जाता था। गुरूजन शिक्षार्थियों को सदाचरण के उपदेश देते थे एवं स्वयं अपने उन्नत चरित्र को उदाहरण स्वरूप शिक्षार्थियों के सामने प्रस्तुत करते थे। डॉ० वेदमित्र के अनुसार- “छात्रों के चरित्र का निर्माण करना, शिक्षा का एक अनिवार्य उद्देश्य माना जाता था।”

(6) भारतीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार

हमेशा से शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रखना रहा है। वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था भी इसका अपवाद नहीं थी। शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय एवं सामाजिक संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना, वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था का एक आवश्यक अंग था। शिक्षार्थियों को संस्कृति का ज्ञान प्रदान करके सांस्कृतिक विरासत को एक पीढ़ी से दूसरा पाढ़ा तक हस्तांतरित किया जाता था इसके साथ सांस्कृतिक गौरव को एक स्थान से अन्य स्थानों तक फैलाने व प्रचारित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी शिक्षालयों से निकलने वाले शिक्षार्थी ही किया करते थे।

(7) स्वास्थ्य संरक्षण एवं वृद्धि (Health Preservation and Enhancement)

वैदिककालीन ऋषि और गुरूओं की यह मान्यता थी कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है। इस ठद्देश्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए पहली आवश्यकता स्वस्थ शरीर और निर्मल मन की है। यहीं कारण है कि ऋषि आश्रमों और गुरूकुलों में शिष्यों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण और संवर्द्धन पर विशेष बल दिया जाता था। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए शिष्यों को प्रमुखतया निम्न कार्य करने होते थे-

(i) उन्हें प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठना होता था,

(ii) तत्पश्चात् दाँतून एवं स्नान करना होता था,

(iii) तदुपरांत व्यायाम करना होता था,

(iv) उन्हें सादा भोजन करना होता था,

(v) उन्हें नियमित दिनचर्या का पालन करना होता था,

(vi) उन्हे व्यसनों से दूर रहना होता था।

इसके अतिरिक्त निम्न कार्य भी किये जाते थे-

(i) शिष्यों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जाती थी और उनके शारीरिक श्रम पर विशेष बल दिया जाता था,

(ii) उनके रोगग्रस्त होने पर उनका तुरंत उपचार किया जाता था,

(iii) शिष्यों को उचित आचार-विचार की ओर उन्मुख किया जाता था,

(iv) उन्हें सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के पालन करने और काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद से दूर रहने की शिक्षा दी जाती थी।

(8) सामाजिक कुशलता की उन्नति

वैदिक काल में शिक्षार्थियों को सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार का ज्ञान साथ-साथ प्रदान किया जाता था, जिससे कि शिक्षार्थी शुद्ध आचार-विचार एवं व्यवहार के माध्यम से अपने जीवन को सफल बना सकें। व्यावहारिक कुशलता के माध्यम से ही शिक्षार्थी समाज में अपना अस्तित्व सुरक्षित रख पाते थे या समाज में सामंजस्य स्थापित कर पाते थे शिक्षार्थी भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यवसायों के माध्यम से समाज की उन्नति करते थे। डॉ० आर० के० मुखर्जी के अनुसार – “शिक्षा पूर्णतया सैद्धांतिक और साहित्यिक नहीं थी, अपितु किसी न किसी शिल्प से सम्बन्धित थी।”

(9) व्यावसायिक कुशलता का विकास

शैक्षिक ज्ञान के साथ शिक्षार्थियों को व्यावसायिक योग्यता प्रदान करना, प्राचीन भारतीय शिक्षा का अन्य महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। भिन्न-भिन्न वर्णों को भिन्न-भिन्न व्यवसायों की शिक्षा प्रदान की जाती थी, जैसे-ब्राह्मणों को अध्ययन-अध्यापन, की क्षत्रियों को सैनिक एवं राजकार्य की शिक्षा।

(10) ईश्वर की भक्ति एवं धार्मिकता का समोवश

प्राचीन काल की शिक्षा ‘सा विद्या या विमुक्तये’ की उक्ति को सार्थकता प्रदान करने वाली थी। प्राचीन काल में लोगों की धारणा थी कि शिक्षा के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। वही शिक्षा सार्थक है जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सके। मोक्ष की प्राप्ति ईश्वर की भक्ति के द्वारा ही हो सकती है। प्राचीन युग में शिक्षार्थियों में आध्यात्मिकता का विकास करने के लिए दैनिक जीवन में यज्ञ, व्रत, उपवास, सन्ध्या, प्रार्थना आदि का प्रावधान था। शिक्षा संस्थाओं में ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय था। शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों ही धर्म का पालन करना अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझते थे।

(11) सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करना

वैदिक काल की शिक्षा का एक उद्देश्य शिक्षार्थियों को सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करना सिखाना था। इस युग में शिक्षार्थी विद्या अध्ययन के साथ-साथ समाज के अन्य व्यक्तियों की सहायता कर, अपने सामाजिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करते थे, जैसे-दीन- दुखियों की सहायता करना, नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करना आदि। इन सामाजिक कार्यों को उन्हें नि:स्वार्थ भाव से करना होता था। शिक्षार्थी इन कार्यों को करके तीन प्रकार के ऋणों (पितृ, गुरू एवं देव) से ऋण-मुक्त हो जाते थे।

(12) जीविकोपार्जन के लिए तैयार करना

शिक्षार्थियों को जीविका के लिए तैयार करना भी हमेशा से शिक्षा संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता रहा है। वैदिक काल में भी शिक्षार्थियों को इस प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया जाता था कि वे अपने जीविकोपार्जन के लिये समर्थ हो सकें। जीवनोपयोगी उद्यम जैसे-कृषि, डेरीफार्म, चिकित्सा, युद्ध, कला, व्यवसाय, पशु-पालन आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार के प्रशिक्षण से शिक्षार्थियों की सामाजिक कुशलता में वृद्धि होती थी तथा वे गृहस्थ आश्रम के दौरान अपने परिवारजनों का भरण-भोषण करने में सक्षम सिद्ध होते थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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