शिक्षाशास्त्र / Education

विद्यालय पाठ्यक्रम प्रबन्धन | अनुशासन प्रबन्ध

विद्यालय पाठ्यक्रम प्रबन्धन | अनुशासन प्रबन्ध

विद्यालय पाठ्यक्रम का प्रबन्धन (Management of School Curriculum) –

पाठ्यक्रम-शिक्षा का एक अभिन्न अंग है। पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षण कार्य उद्देश्यविहीन एवं अव्यवस्थित हो जायेगा। शिक्षक के समान छात्रों को भी पाठ्यक्रम से लाभ होता है। वे जान जाते हैं कि उन्हें किन विषयों का अध्ययन करना है तथा किन पाठों का अध्ययन किन पुस्तकों के प्रयोग द्वारा करना है। इस जानकारी के अभाव में उनके ज्ञान के अर्जन की गति का एक सा होना असम्भव है। पाठ्यक्रम को क्रिया के विविध रूपों में देखा जाना चाहिए, जो मानवीय आत्मा की विशाल अभिव्यक्तियाँ हैं। इन अभिव्यक्तियों का इस व्यापक जगत के लिए स्थायी महत्त्व है।

पाठ्यक्रम के प्रकार (Types of Curriculum)-

पाठ्यक्रम के मुख्यतः चार प्रकार हैं जो कि पाठ्यक्रम के विभिन्न आधारों पर केन्द्रित हैं। यह प्रकार निम्न हैं-

  1. विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम (Subject Centred Curriculum)- इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषय को आधार मानकर पाठ्यक्रम को नियाजित किया जाता है।
  2. बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम (Student Centred Curriculum)- आधुनिक युग में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि विषय केन्द्रित शिक्षा का स्थान बाल केन्द्रित शिक्षा ने ले लिया है। यह पाठ्यक्रम प्रयोगवादी विचारधारा पर आधारित है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक की रुचियों, परिवर्तित आवश्यकताओं, अभिप्रायों तथा संवेगों आदि को आधार बनाया जाता है।
  3. क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम (Activity Centred Curriculum) – इस पाठ्यक्रम में क्रिया अथवा कार्य को ही आधार बनाया जाता है तथा विभिन्न अनुभवों द्वारा सीखने का उत्तरदायित्व छात्रों पर ही डाला जाता है। अतः इसे अनुभव प्रधान पाठ्यक्रम भी कहा जाता है।
  4. कोर पाठ्यक्रम (Core Curriculum) – यह पाठ्यक्रम इस बात पर बल देता है कि विद्यालय अधिक सामाजिक दायित्वों को ग्रहण करें और सामाजिक रूप से कुशल व्यक्तियों का निर्माण करें। यह पाठ्यक्रम छात्रों के सामान्य विकास पर केन्द्रित है।

पाठ्यक्रम सम्बन्धी कार्यक्रमों का विद्यालय में विशेष महत्त्व होता है। इन कार्यक्रमों से शैक्षिक, मानसिक तथा ज्ञानात्मक पक्ष का अधिक से अधिक विकास होता हैं। अंतः इनका नियमित रूप से मूल्यांकन होना चाहिए तथा उचित एवं सुनियोजित प्रबन्धन भी अत्यन्त आवश्यक है।

पाठ्येत्तर सहगामी कार्यक्रमों का प्रबन्धन (Management of Co-Curricular Activities)-

पाठ्य-सहगामी कार्यक्रमों से बालकों का बहमुखी विकास होना चाहिए अर्थात् उनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक विकास होना चाहिए। भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों का विकास पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन से किया जाता है। विद्यालय में खेलकूद, एन.सी.सी., एन.एस.एस. स्काउटिंग तथा प्रतियोगिताओं के आयोजन से शारीरिक तथा क्रियात्मक पक्ष का विकास किया जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम, राष्ट्रीय पर्व तथा विद्यालय दिवस आदि के आयोजन से भावात्मक पक्ष का विकास होता है।

विद्यालय अनुशासन का प्रबन्धन (Management of School Discipline) –

विद्यालय एवं विद्यार्थी व्यवहार में अनुशासन सदैव शिक्षकों एवं प्रशासकों के बीच चिन्ता का विषय रहा है। आधुनिक युग में अनुशासन का अर्थ व्यवहार में नियमबद्धता से लिया जाता है। यह नियमबद्धता आत्म नियंत्रण व समुचित प्रशिक्षण से आती है, जिसमें समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों का अनुसरण भी सम्मिलित है। व्यापक दृष्टि से अनुशासन में व्यक्ति के व्यवहार का समाजीकरण, सहयोगपूर्ण ढंग से कार्य करने व रहने का ढंग तथा समूह के लिए वैयक्तिक हितों का त्याग भी सम्मिलित होता है।

विद्यालय अनुशासन का अर्थ (Meaning of School Discipline) –

विद्यालय अनुशासन से तात्पर्य विद्यालय के नियमों के अनुरूप आचरण से लिया जाता है। यह आचरण किसी भी समाज की सांस्कृतिक प्रणाली से सम्बद्ध होता है। इस प्रकार विद्यालय में विद्यार्थियों से अपेक्षित व्यवहार उस समाज की अपेक्षित व्यवहार प्रणाली से प्रभावित होते हैं।

विद्यालयी अनुशासन के दृष्टिकोण (Views of School Discipline) –

विद्यालयी अनुशासन को बनाए रखने के लिए दो दृष्टिकोण मुख्य है।

  1. नियमों द्वारा विद्यार्थी को विद्यालय के अनुशासन में रखना होता है।
  2. बालक को स्वयं नियंत्रण द्वारा अनुशासित जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करना।

विद्यालयी उत्तम अनुशासन (Best School Discipline) –

विद्यालयी श्रेष्ठ अनुशासन वह है जहाँ अनुशासनहीनता के कारण को दूर कर दिया गया है। इसमें मुख्य रूप से प्रधानाध्यापक का नेतृत्व व शिक्षकों का विद्यालयी कार्यकलापों व लक्ष्यों के प्रति समर्पित और सकारात्मक व्यवहार होता है। यहाँ दोनों सेवा और समर्पण की भावना से मिलकर कार्य करते हैं।

एक श्रेष्ठ विद्यालयी अनुशासन वह होता है जहाँ विद्यालय के लक्ष्य स्पष्ट हों तथा उन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नेतृत्व व समूह (शिक्षक व शिक्षार्थी) समर्पित भाव से लगे हैं। शिक्षक निष्ठा से पाठ तैयार करते हैं तथा प्रभावी पाठन विधियों का प्रयोग करते हैं। ये विधियाँ विद्यार्थियों को पाठ के विकास में सम्मिलित ही नहीं करतीं वरन् उसमें उनकी भागीदारी भी सम्मिलित करती हैं। यह आयाम छात्रों के लिए प्रेरक होते हैं जिनसे उन्हें आत्मसंतुष्टि मिलती है। शिक्षक विद्यार्थियों की समस्याओं को निकटता के कारण जानता है तथा उनकी समस्याओं को परस्पर विश्वास और सौहार्द से हल करता है।

शिक्षक परस्पर समूह भावना से कार्य करता है। इससे वे विद्यालय में श्रेष्ठ परम्पराओं का सृजन करते हैं। उक्त परिस्थितियों को उपलब्ध कराने के पश्चात् भी यदि अनुशासनहीनता की समस्या होती है, तब तर्कसंगत नीति व विद्यार्थियों को उनके दोषों की अनुभूति कराकर परस्पर सहमति से यह हल की जाती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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