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भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं |भारतीय संविधान की विशेषताएं | Salient Features of the Indian Constitution in Hindi | Features of the Indian Constitution in Hindi

Table of Contents

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं

भारतीय संविधान बहुत विस्तृत तथा व्यापक है। हमारे लिखित भारतीय संविधान की निम्नलिखित 19 विशेषताएँ हैं –

1. लिखित एवं निर्मित संविधान

संविधान सभा ने नवनिर्मित संविधान 26 नवंबर 1949 को अधिनियमित, आत्मार्पित तथा अंगीकृत किया। नागरिकता, निर्वाचन और अंतरिम संसद से सम्बंधित उपबंधों तथा अस्थायी और संक्रमणकारी अपबंधों को तुरंत 26 नवम्बर 1950 को लागू हुआ तथा इसी तिथि को संविधान को लागू होने की तिथि माना गया। इसी दिन भारत को गणतंत्र घोषित किया गया।

भारतीय संविधान का निर्माण एक विशेष संविधान सभा के द्वारा किया गया है। भारतीय संविधान अमेरिका संविधान के समतुल्य है। जबकि ब्रिटेन और इजरायल का संविधान अलिखित है। लिखित संविधान स्पष्ट तथा निश्चित होता है। जिससे संविधान की व्याख्या अत्यंत सरलतापूर्वक से की का सकती है।

2. विश्व का सबसे बड़ा संविधान

भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक व्यापक संविधान है। इस संविधान में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, प्रशासनिक सेवाएं, निर्वाचन आयोग आदि प्रशासन से संबंधित सभी विषयों पर विस्तार से लिखा गया है। प्रारम्भ में मूल संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 8 अनुसूचियां थी। संविधान में निरंतर संशोधन होते रहते हैं जिससे संविधान का आकार और भी विस्तृत होता जाता है। हमारे संविधान में यह जब से निर्मित हुआ है तब से बहुत से उपबंध इस में जोड़े गए हैं तथा कुछ कुछ निष्कासित भी किए गए हैं। 1976 में हुए दो वे संविधान संशोधन के दौरान हमारे संविधान में विशेष रूप से वृद्धि हुई है। इस संशोधन के दौरान इसमें भाग 4 ए तथा भाग 14 ए जोड़े गए हैं तथा अनेक अनुच्छेदों का विस्तार किया गया है। बाद में और भी कई सारी चीजों को संविधान में जोड़ा गया है या संशोधित किया गया है जैसे कि ग्राम पंचायत एवं नगरपालिका विषयक इत्यादि। भारतीय संविधान का विस्तृत आकार ऐसे ही नहीं है बल्कि इसका मूल संविधान में संशोधन तथा परिवर्तन करते हुए हुआ है। अब तक लगभग 100 संशोधन होना इसका प्रमाण है।

वर्तमान समय में मूल रूप से भारतीय संविधान में एक प्रस्तावना, 25 भागों में विभाजित 465 से अधिक अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। विश्व के किसी भी संविधान में इतने अनुच्छेद तथा अनुसूचियां नहीं हैं। संशोधन द्वारा भारतीय संविधान का स्थूल रूप निरंतर बढ़ रहा है। इससे संविधान का विकास तो हुए है परन्तु श्रेष्ठ परंपराओं का मार्ग अवरूद्ध हुआ है।

3. संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान में एक प्रभावशाली एवं प्रेरणा स्रोत प्रस्तावना है। यह प्रस्तावना संविधान के उद्देश्य तथा लक्ष्यों को निर्धारित करती है। प्रारंभ में प्रस्तावना को संविधान का अंग नहीं माना जाता था तथा ना ही इस में परिवर्तन के लिए कोई प्रावधान था। प्रस्तावना का प्रयोग मुख्यत: वहां वहां किया जाता था जहां पर संविधान की भाषा को समझने में कठिनाई का अनुभव होता था। प्रस्तावना को न्यायालय में भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता था। प्रस्तावना को लेकर सदैव से प्रश्न विवादास्पद बना रहा था की प्रस्तावना को संशोधित किया जा सकता है या नहीं तथा यह संविधान का अंग है या नहीं? 1973 में इस विवाद का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य में किया। इस निर्णय के बाद प्रस्तावना को संविधान का माना जाने लगा तथा इस प्रस्तावना में परिवर्तन कर पाता भी संभव हुआ।

42वे संविधान संशोधन के द्वारा 1976 में प्रस्तावना में संशोधन करते हुए ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ तथा ‘अखंडता’ जैसे शब्द जोड़े गए।

4. भारतीय संविधान में विभिन्न संविधानों का समावेश

संविधान के स्रोत भारतीय संविधान निर्मित करने से पूर्व संविधान सभा ने विभिन्न देशों के संविधान का विस्तार पूर्वक अध्ययन किया तथा साथ ही साथ भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व बने अधिनियमों, राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रस्तावों का भी अध्ययन किया गया। संपूर्ण चीजों के अध्ययन के पश्चात जहां से भी जो उपबंध अच्छा तथा उपयुक्त प्रतीत हुआ, उसे ले लिया गया तथा भारतीय संविधान में उसे सम्मिलित कर लिया गया। संविधान के विभिन्न प्रमुख उपबंधों के अग्रलिखित स्रोत हैं-

  • ब्रिटेन – संसदीय प्रणाली, एकल नागरिकता, विधि निर्माण निर्माण प्रक्रिया, मंत्रिमंडल का लोकसभा के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व, विदाई राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति, विधि का शासन, संसदीय विशेषाधिकार, लोक सेवकों की पदावधि, संसद और विधानमंडल प्रक्रिया।
  • कनाडा – संघात्मक व्यवस्था, अपशिष्ट शक्ति, सबल केंद्रीकरण की व्यवस्था, केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति।
  • अमेरिका – मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनर्विलोकन, उच्चतम न्यायालय, संविधान की सर्वोच्चता, राष्ट्रपति पर महाभियोग प्रक्रिया, उपराष्ट्रपति का पद, स्वतंत्र निष्पक्ष न्यायपालिका, वित्तीय आपातकाल, उपराष्ट्रपति एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की विधि।
  • पूर्व सोवियत संघ – मौलिक कर्तव्य, प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का आदर्श।
  • आयरलैंड – राज्य के नीति निर्देशक तत्व, राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति, राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत होना।
  • जापान – अनुच्छेद का प्रस्तावना।
  • ऑस्ट्रेलिया – प्रस्तावना समवर्ती सूची, शक्ति विभाजन, संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक, प्रस्तावना की भाषा।
  • दक्षिण अफ्रीका – संविधान संशोधन प्रक्रिया, राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन।
  • फ्रांस – गणतंत्रतात्मक ढांचा, स्वतंत्रता, समानता बंधुता के आदर्श।
  • जर्मनी – आपातकालीन उपबंध।

इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान का पूरा मॉडल ब्रिटेन राज्य व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाया गया है। यद्यपि ब्रिटेन में अलिखित संविधान है। भारत ने वहां स्थापित परंपराओं को अपने अनुरूप संविधान में लिपिबद्ध किया है।

5. कठोर एवं लचीलापन का संविधान में समन्वय

संविधान में संशोधन प्रणाली के आधार पर संविधान दो प्रकार का होता है कठोर या दुष परिवर्तनशील संविधान लचीला या सुपरिवर्तनशील संविधान

कठोर संविधान वह होता है जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया या प्रणाली जटिल होती है। ये वे संविधान होते हैं। जिनमें संवैधानिक व साधारण कानून में मौलिक भेद समझा जाता है तथा इनमें संवैधानिक कानूनों में संशोधन परिवर्तन के लिए साधारण कानूनों के निर्माण से भिन्न प्रक्रिया अपनाई जाती है, जो साधारण कानूनों के निर्माण की प्रणाली से कठिन होती है। उदाहरण अमेरिकी संविधान।

लचीला संविधान वह होता है जिसमें संविधान की प्रक्रिया सरल होती है। यदि संवैधानिक कानूनों और सामान्य कानूनों के बीच कोई अंतर न हो और संविधानिक कानून में सामान्य कानूनों की प्रक्रिया से ही संशोधन एवं परिवर्तन क्या का सके, तो संविधान को लचीला या सुपरिवर्तनशील कहा जाता है। उदाहरण इंग्लैंड का संविधान।

भारत का संविधान ना तो कठोर है और न ही लचीला। भारतीय संविधान में संविधान संशोधन के लिए तीन प्रक्रिया अपनाई जाती है।

(i) संसद के प्रत्येक सदन में साधारण बहुमत द्वारा साधारण विधेयक (गैर वित्तीय) को पारित करने की प्रक्रिया अर्थात दोनों सदनों द्वारा उपस्थित तथा मतदाता सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा पारित हो ने पश्चात् राष्ट्रपति की अनुमति से पारित हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा निम्नलिखित प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है।

  • अनुच्छेद 2, 3 तथा 4 – नए राज्यों का निर्माण, राज्यों की सीमा परिवर्तन, राज्यों के नाम में परिवर्तन इत्यादि।
  • अनुच्छेद 169 – किसी राज्य की व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन विधानपरिषद की रचना तथा उसका समाप्त किया जाना।
  • संविधान की द्वितीय अनुसूची।
  • अनुच्छेद 100 (3) – संसद मे गणपूर्ति।
  • अनुच्छेद 106 – संसद सदस्यों के वेतन भत्ते आदि।
  • अनुच्छेद 105 – संसद सदस्यों के विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तिया।
  • अनुच्छेद 118 – संसद में प्रक्रिया संबंधी नियम।
  • अनुच्छेद 120 (2) – अंग्रेजी को संसद के कार्यों की भाषा संबंधी नियम।
  • अनुच्छेद 124 (1) – सर्वोच्च न्यायालय का संगठन तथा न्यायाधीशों की संख्या से संबंधित।
  • अनुच्छेद 135 – सर्वोच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र विस्तार से संबंधित।
  • अनुच्छेद 348 – भारत में आधिकारिक भाषा के प्रयोग से संबधित।
  • अनुच्छेद 5 से 11 – भारत की नागरिकता संबंधी।
  • अनुच्छेद 327 – देश में चुनावों से संबंधित मामले।
  • 5वी तथा 6ठी अनुसूची – अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनातियों के प्रशासन से संबंधित।
  • अनुच्छेद 81 – चुनावी क्षेत्रों को असीमित तथा सीमित करना।
  • अनुच्छेद 240 – केंद्रशासित क्षेत्र।

(ii) ससद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत द्वारा – संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक सदन में यह सदन कोई कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना चाहिए तथा इसके पश्चात् राष्ट्रपति का अनुमोदन मिलने के बाद यह संशोधन हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रावधानों का संशोधन किया जाता है।

  • संविधान का भाग 3 – मौलिक अधिकारों से संबंधित मामले।
  • संविधान का भाग 4 – राज्यों के नीति निर्देशक तत्व।

(iii) सघ तथा राज्यों की सहमति से इस प्रक्रिया के अंतर्गत संविधान संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक सदन द्वारा कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए। इसके पश्चात् यह पारित संविधान संशोधन विधेयक राज्यों के विधानमंडलों के पास भेजा जाता है। भारत के काम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा साधारण बहुमत से पारित किया गया विधेयक पारित माना जाता है। राज्यों से अनुमोदित विधेयक राष्ट्रपति कोई सहमति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति की अनुमति मिल जाने के पश्चात यह संशोधन मान्य होता है। इस प्रक्रिया के द्वारा निम्नलिखित प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है।

  • अनुच्छेद 54 तथा 55 – राष्ट्रपति का निर्वाचन तथा निर्वाचन प्रक्रिया से संबंधित।
  • अनुच्छेद 75 तथा 162 – क्रमशः संघ तथा राज्य की कार्यपालिका शक्ति से संबंधित।
  • भाग 5 का अध्याय 4 – सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित।
  • भाग 5 का अध्याय 5 – राज्यों के उच्च न्यायालय से संबंधित।
  • संविधान की सातवीं अनुसूची – राज्य तथा संघ में व्यवस्थापिका शक्ति का वितरण।
  • चौथी अनुसूची – संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व से संबंधित।
  • अनुच्छेद 368 – संविधान में संशोधन की प्रक्रिया से संबंधित।

6. संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य

संप्रभुता शब्द का अर्थ है यहां पर भारतीय संविधान के अंतर्गत सर्वोच्च या स्वतंत्र होना। भारत किसी भी विदेशी और आंतरिक शक्ति के नियंत्रण से पूर्णत मुक्त संप्रभुता संपन्न राष्ट्र है अर्थात भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि भारत एवं भारतीय लोग किसी भी बाहरी या विदेशी सत्ता के अधीन अथवा दबाव में कार्य नहीं करेंगे। भारत किसी भी बाहरी शक्ति द्वारा शासन में नहीं आएगा बल्कि यह सीधे जनता (भारतीय लोगों) द्वारा चुने गए एक मुक्त सरकार के द्वारा ही शासित होगा। इसलिए भारत की संप्रभुता को बनाए रखने के लिए ही गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति को अपनाया गया है। एवं संप्रभुता की रक्षा करने के लिए हर संभव उपाय किए गए हैं।

7. लोकतंत्रात्मक गणराज्य

भारत में ब्रिटेन के लोकतंत्र के अनुरूप ही लोकतंत्र की स्थापना की गई है। संविधान द्वारा ही भारत में एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है। लोकतंत्रात्मक शब्द का अभिप्राय है कि जनता की शासन प्रशासन में अधिक से अधिक सहभागिता को सुनिश्चित करना। लोकतंत्रात्मक सरकार की शक्ति का स्रोत जनता में ही निहित है, क्योंकि यहां जनता की, जनता के लिए, जनता द्वारा स्थापित सरकार होती है। भारतीय संविधान में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना ना करके अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना की गई है। संविधान के निर्माताओं ने केवल राजनीतिक लोकतंत्र की ही स्थापना नहीं की, अपितु सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की भी संकल्पना किया है। भारत में ऐसे लोकतंत्र की कल्पना की गई है जिसमें कि किसी विशेष या किसी विशेष वर्ग के हाथों में सत्ता न हो।

8. सरकार का संसदीय रूप

भारत सरकार का स्वरूप संसदीय है, यहां दो सदनों लोकसभा और राज्यसभा वाली विधायिका है। संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत संसद को अधिक महत्व प्रदान है। कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदाई होती है। इस व्यवस्था के अंतर्गत दोहरी कार्यपालिका होती है एक नाम मात्र की तथा दूसरी वास्तविक ककार्यपालिक। भारत में नाम मात्र की कार्यपालिका राष्ट्रपति है तथा वास्तविक कार्यपालिका प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडल है। संविधान केवल केंद्र में ही नहीं, बल्कि राज्य में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है।

भारत में संसदीय प्रणाली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • वास्तविक व नाम मात्र के कार्य पालकों की उपस्थिति
  • बहुमत वाले दल की सत्ता
  • विधायिका के समक्ष कार्यपालिका की संयुक्त जवाबदेही
  • विधायिका में मंत्रियों की सदस्यता
  • प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व
  • निचले सदन का विघटन (लोकसभा तथा विधानसभा)

हालांकि भारतीय संसदीय प्रणाली बड़े पैमाने पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है फिर भी दोनों में कुछ मूलभूत अंतर है। उदाहरण के लिए ब्रिटिश संसद की तरह भारतीय संसद संप्रभु नहीं है। इसके अलावा भारत का प्रधान निर्वाचित व्यक्ति होता है (गणतंत्र), जबकि ब्रिटेन में उत्तराधिकारी व्यवस्था है।

9. सार्वभौम वयस्क मताधिकार

भारतीय संविधान द्वारा राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव के आधार स्वरूप सार्वभौम वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है। हर वह व्यक्ति जिसकी उम्र कम से कम 18 वर्ष, उसे धर्म, जाती, लिंग, साक्षरता अथवा सम्पदा आदि के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना मतदान करने का अधिकार है। वर्ष 1989 में 61वे संविधान संशोधन अधिनियम, 1988 के द्वारा मतदान करने की उम्र को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया था।

देश के वृहद आकार, जनसंख्या, उच्च गरीबी, सामाजिक असमानता, अशिक्षा आदि को देखते हुए संविधान निर्माताओं द्वारा सार्वभौम वयस्क मताधिकार को संविधान में शामिल करना एक साहसिक व सराहनीय प्रयोग था।

वयस्क मताधिकार लोकतंत्र को बड़ा आधार देने के साथ-साथ आम जनता के स्वाभिमान में वृद्धि करता है, समानता के सिद्धांत को लागू करता है, अल्पसंख्यकों को अपने हितों की रक्षा करने का अवसर देता है तथा कमजोर वर्ग के लिए नई आशाएं और प्रत्याशा जगाता है।

10. एकीकृत न्याय व्यवस्था

भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायपालिका की स्थापना करता है, जो अपने आप में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र है। केंद्र में सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। भारत में न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय है। राज्यों में उच्च न्यायालय के नीचे क्रमवार अधीनस्थ न्यायालय हैं, जैसे की जिला अदालत व अन्य निचली अदालत। राज्य में उच्च न्यायालय राज्य के शासन का तीसरा अंग है, लेकिन राज्य को उच्च न्यायालय से संबंध में अधिकार नहीं मिलते, क्योंकि उच्च न्यायालय का संगठन, न्यायाधीशों की नियुक्ति क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के अंतर उच्च न्यायालय स्थानांतरण, न्यायाधीशों को पद मुक्त करना उनके वेतन भत्ते आदि का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है। उच्च न्यायालय राज्य शासन का तीसरा अंग ना होकर सर्वोच्च न्यायालय है। सर्वोच्च न्यायालय में सर्वोच्च न्यायालय से न्यायाधीश उच्च न्यायालय में नियुक्त किए जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि न्यायपालिका को एकीकृत न्यायपालिका के रूप में संगठित किया गया है तथा संपूर्ण देश के लिए सर्वोच्च न्यायालय सर्वोपरि है तथा उच्च न्यायालय उसके अनुसार निर्णय देने को बाध्य है।

11. मौलिक अधिकार

संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। यह अधिकार निम्नलिखित हैं-

  • समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
  • संस्कृति व शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

मौलिक अधिकार का उद्देश्य वस्तुतः राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह काम करते हैं। उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है, जो अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है।

मौलिक अधिकार कुछ सीमाओं के दायरे में आते हैं तथा यह परिवर्तनीय भी हैं। अनुच्छेद 20-21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है।

12. मौलिक कर्तव्य

मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया है। इन्हें स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 1976 के 42 वें संविधान संशोधन के माध्यम से आंतरिक आपातकाल (1975 से 77) के दौरान शामिल किया गया था। 2002 के 86 वें संविधान संशोधन ने एक और मौलिक कर्तव्य को जोड़ा। संविधान 4a भाग में मौलिक कर्तव्यों का जिक्र किया गया है (जिसमें केवल एक अनुच्छेद 51a का है) इसके तहत प्रत्येक भारतीय का एक कर्तव्य होगा कि वह संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें, राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें, हमारी मिश्रित संस्कृति की समृद्ध धरोहर का अनुरक्षण करें, सभी लोगों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास करें, इत्यादि।

मौलिक कर्तव्य नागरिकों को यह याद दिलाते हैं कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते समय उन्हें याद रखना चाहिए कि उन्हें अपने समाज, देश व अन्य नागरिकों के प्रति कुछ जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करना है। नीति निर्देशक तत्व की तरह कर्त्तव्यों को भी कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता है।

13. धर्मनिरपेक्ष राज्य

विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों का भारत में जन्म हुआ तथा यहां विदेशी शासकों के आवागमन के कारण उनके साथ विभिन्न धर्मों का आवागमन हुआ। इन धर्मों एवं संप्रदायों के अंतर क्रिया से विभिन्न धार्मिक समुदायों का अभ्युदय हुआ। इन धार्मिक समुदायों में परस्पर प्रतिस्पर्धा एवं वैमनस्यता को समाप्त करके सहिष्णुता एवं सामंजस्य स्थापित करने के लिए भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता को स्थान दिया गया। 42वे संविधान संशोधन द्वारा धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान की प्रस्तावना में स्थान दिया गया। भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। इसलिए यह किसी धर्म विशेष को भारत के धर्म के तौर पर मान्यता नहीं देता।

यहां धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने का अभिप्राय है कि –

  • भारत किसी भी धर्म को राष्ट्रीय धर्म घोषित नहीं करेगा।
  • भारत सरकार सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करेगी तथा उन्हें पल्लवित एवं विकसित होने में बाधा उत्पन्न नहीं करेगी।
  • सरकार सभी व्यक्तियों के धार्मिक अधिकारों को सुनिश्चित एवं सुरक्षित करने का प्रयास करेगी।
  • भारतीय सरकार धार्मिक विषयों के संबंध में विवेकपूर्ण निर्णय लेगी।

धर्मनिरपेक्ष की पश्चिमी अवधारणा धर्म (चर्च) और राज्य (राजनीति) के बीच पूर्ण अलगाव रखती है। धर्मनिरपेक्षता की यह नकारात्मक अवधारणा भारतीय परिवेश में लागू नहीं हो सकती क्योंकि यहां का समाज बहुत धर्मवादी है। इसलिए भारतीय संविधान में सभी धर्मों को समान आदर अथवा सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक पहलुओं को शामिल किया गया है। इसके अलावा संविधान ने विधायिका में धर्म के आधार पर कुर्सी का आरक्षण देने वाले पुराने धर्म आधारित प्रतिनिधित्व को भी समाप्त कर दिया है। हालांकि संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए अस्थाई आरक्षण प्रदान करता है।

14. एकल नागरिकता

यद्यपि भारतीय संविधान फेडरल (संघीय) है और 2 लक्षणों (एकल व संघीय) का प्रतिनिधित्व करता है मगर इसमें केवल एकल नागरिकता का प्रावधान है अर्थात भारतीय नागरिकता। दूसरी और, अमेरिका जैसे देशों में प्रत्येक व्यक्ति के पास न केवल देश की नागरिकता होती है बल्कि वह जिस राज्य में है वहां की भी नागरिकता होती है। भारत में सभी नागरिकों को चाहे वह किसी भी राज्य में पैदा हुए हो या रहते हो, संपूर्ण देश में नागरिकता के सामान राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं और उनमें कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। सभी नागरिकों के लिए एक नागरिकता और समान अधिकारों के सर्वोच्च संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भारत में सांप्रदायिक दंगे, वर्ग संघर्ष, जातिगत युद्ध, भाषायी विवाद और नृजातीय विवाद होते रहे हैं। इसका अर्थ है कि संविधान निर्माताओं ने एकीकृत और भारत राष्ट्र के निर्माण का जो सपना देखा था को पूरी तरह से पूरा नहीं हो पाया है।

15. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत

डॉक्टर अंबेडकर के अनुसार राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता है। इसका उल्लेख संविधान के 4 भाग में किया गया है। नीति निर्देशक तत्वों का कार्य संविधान व आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। मुख्य उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। नीति निर्देशक सिद्धांत यद्यपि न्यायालयों द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता तथापि वे देश के प्रशासन का मूल आधार हैं और सरकार का यह कर्तव्य है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों का पालन करें।

16. त्रिस्तरीय सरकार

मूल रूप से अन्य संघीय संविधान की तरह भारतीय संविधान में दो स्तरीय राज्य व्यवस्था (केंद्र व राज्य) और संगठन के संबंध में प्रावधान तथा केंद्र एवं राज्यों की शक्तियां अंतर्दृष्टि थीं। वर्ष 1993 में 73 वें एवं 74 वें संविधान संशोधन ने तीन स्तरीय सरकार का प्रावधान किया गया। ऐसी व्यवस्था विश्व के किसी और संविधान में नहीं मिलती है। यह भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता है। संविधान में एक नया भाग (9वा) और एक नई अनुसूची (11 वीं) जोड़कर वर्ष 1992 के 73 वे संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसी प्रकार से 74 वें संविधान संशोधन विधेयक 1992 एक भाग 9 क तथा नई अनुसूचियां 12वीं को जोड़कर नगर पालिकाओं (शहरी स्थानीय सरकार) को संवैधानिक मान्यता प्रदान की।

17. स्वतंत्र निकाय

भारतीय संविधान न केवल विधायिका, कार्यपालिका व सरकार (केंद्र और राज्य) तथा न्यायिक अंग भी उपलब्ध कराता है बल्कि यह कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है। इन्हें संविधान ने भारत सरकार के लोकतांत्रिक तंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में परिकल्पित किया है। कुछ स्वतंत्र निकाय निम्नलिखित हैं-l

  • संसद तथा राज्य विधायक विधानसभाओ भारत के राष्ट्रपति और भारत के उपराष्ट्रपति के लिए स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन आयोग।
  • राज्य और केंद्र सरकार के खातों के अंकेक्षण के लिए भारत का नियंत्रक एवं महालेखाकार। यह जनता के पैसों के संरक्षक होते हैं तथा सरकार द्वारा किए गए कार्यों की वैधानिकता और उनके उचित होने पर टिप्पणी करते हैं।
  • संघ लोक सेवा आयोग, अखिल भारतीय सेवा एवं उच्च स्तरीय सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करता है तथा अनुशासनात्मक मामलों पर राष्ट्रपति को सलाह देता है।
  • राज्य लोक सेवा आयोग, जिसका काम हर राज्य में राज्य सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करना अनुशासनात्मक मामलों पर राज्यपाल को सलाह देना है।

18. संघात्मक व्यवस्था तथा एकात्मक व्यवस्था का समन्वय

संविधान द्वारा संघात्मक ढांचे को स्वीकार किया गया है अर्थात केंद्र तथा राज्यों में पृथक पृथक सरकारें स्थापित की गई तथा राज्यों एवं केंद्र में शक्तियों का विभाजन किया गया, लेकिन व्यवहार में राज्यों पर केंद्र का वर्चस्व स्थापित किया गया है। कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित है जो एकात्मक व्यवस्था का अधिक समर्थन करते हैं-

  • एकहरी नागरिकता।
  • शक्तियों के बंटवारे के बावजूद केंद्रीय सरकार का राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार।
  • आपात उपबंध।
  • एकीकृत न्याय व्यवस्था।
  • अखिल भारतीय लोक सेवाएं।
  • राज्य के राज्यपालों की केंद्र द्वारा नियुक्ति।
  • निर्वाचन के लिए एक ही केंद्रीय निर्वाचन आयोग।
  • राज्यों के बीच मतभेदों का केंद्र द्वारा निवारण।
  • राज्यों का राज्यसभा में समान प्रतिनिधित्व।
  • केंद्र सरकार द्वारा राज्य की सीमाओं का नाम में परिवर्तन।
  • परिवर्तनशील संविधान।
  • योजना आयोग द्वारा नियोजित विकास।
  • राष्ट्रीय विकास परिषद का स्वरूप।
  • अवशिष्ट शक्तियां केंद्र के अधिकार क्षेत्र में होना।

संघात्मक व्यवस्था के लक्षण निम्नलिखित हैं –

  • संविधान की सर्वोच्चता
  • शक्तियों का विभाजन
  • स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायालय
  • उच्च सदन का राज्य साधन होना।

भारतीय व्यवस्था व्यवहार में एकात्मक संघवाद की व्यवस्था है अर्थात इसका ढाचा संघात्मक है तथा इसकी आत्मा एकात्मक है।

19. आपातकालीन प्रावधान

आपातकालीन स्थिति में प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के लिए वृहद आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था है। इन प्रावधानों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य है देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करना।

संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की विवेचना की गई है –

  1. राष्ट्रीय आपातकाल युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से पैदा हुए राष्ट्रीय आपातकाल की व्यवस्था (अनुच्छेद 352)।
  2. राज्यों में आपातकाल राज्यों में संवैधानिक तंत्र की असफलता (अनुच्छेद 356) या केंद्र के निर्देशों का अनुपालन करने में असफलता (अनुच्छेद 365)।
  3. वित्तीय आपातकाल – भारत की वित्तीय स्थिरता गया प्रत्यक्ष संकट में हो (अनुच्छेद 360)।

आपातकाल के दौरान देश की पूरी सत्ता केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है और राज्य केंद्र के नियंत्रण में चले जाते हैं। इससे संविधान में संशोधन किए बगैर देश का ढांचा संघीय से एकात्मक हो जाता है। भारतीय संविधान की एक अद्वितीय विशेषता है।

राजनीतिक शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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