इतिहास / History

हुमायूँ का बहादुरशाह के साथ संबंध | हुमायूँ का शेरशाह के साथ संबंध

हुमायूँ का बहादुरशाह के साथ संबंध | हुमायूँ का शेरशाह के साथ संबंध

बहादुरशाह और हुमायूँ- (हुमायूँ के बहादुरशाह के साथ संबंध)

हुमायूँ का एक अन्य प्रबल शत्रु गुजरात का शासक बहादुरशाह था। वह एक योग्य और महत्वाकांक्षी शासक था। वह लगातार अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था। उसने मालवा, बिदर, खानदेश और रणथंभौर पर विजय प्राप्त कर ली थी। राजपूताना को जीतकर वह दिल्ली-आगरा पर अधिकार करने की योजना बना रहा था। इसके अतिरिक्त उसने अफगानों और हुमायूँ के दुश्मनों को भी अपने यहाँ शरण दे रखी थी। आलम खां और मुहम्मद जमा मिर्जा उसके ही संरक्षण में थे। उसने शेर खाँ को भी अपने पक्ष में मिलाकर पूर्व एवं पश्चिम से एक ही साथ हुमायूँ पर आक्रमण करने की योजना बनाई, जिससे कि हुमायूँ किसी भी तरफ पूरा ध्यान नहीं दे सका, लेकिन शेर खाँ अभी हुमायूं से संघर्ष के लिए तैयार नहीं था। अतः उसने बहादुरशाह का प्रस्ताव ठुकरा दिया। बहादुरशाह अकेले ही चित्तौड़ की तरफ बढ़ा एवं उसके दुर्ग को घेर लिया।

हुमायू बहादुरशाह की गतिविधियाँ देखकर भी शीघ्र ही कोई कार्रवाई नहीं कर सका था। बिहार से लौटकर वह करीब डेढ़ वर्ष तक दिल्ली और आगरा में व्यर्थ पड़ा रहा। इस अवधि में उसने दिल्ली के निकट ‘दीनपनाह’ नामक नगर बनवाया। इस नगर का निर्माण संभवतः इस उद्देश्य से किया गया था कि आगरा पर संकट की स्थिति में इस नए, नगर का उपयोग राजधानी के रूप में किया जा सके। यहाँ तक तो बात ठीक थी, परंतु हुमायूँ इस अवधि में न तो शेर खाँ और न ही वहादुरशाह की तरफ पूरा ध्यान दे सका। उसने भोजों और मेलों के आयोजनों में बहुमूल्य समय एवं धन बरबाद कर दिया। उसने बहादुरशाह से लंबे समय तक पत्र-व्यवहार भी किया एवं जमा मिर्जा को वापस लौटाने को कहा। बहादुरशाह के इंकार करने पर वह उसे दंडित करने के लिए आगे बढ़ा।

जिस समय हुमायूँ बहादुरशाह की तरफ बढ़ा, वहादुरशाह चित्तौड़ का घेरा डाले हुए था। अत: 1535 ई० में हुमायू आगरा से ग्वालियर पहुंचा। ग्वालियर पहुँचकर भी उसने तत्काल कार्रवाई नहीं की, बल्कि वहाँ दो महीनों तक आराम करता रहा। कहा जाता है कि जिस समय बहादुरशाह ने पहली बार 1535 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, चित्तौड़ की रानी कर्णवती ने हुमायूँ से सहायता की माँग की थी, परंतु उसने उसकी मांग को ठुकरा दिया था। इसका लाभ उठाकर बहादुरशाह ने संपूर्ण मालवा पर अधिकार कर लिया था। इसके बाद उसने नागौर और अजमेर पर भी अधिकार कर लिया। उसने आलम खाँ के पुत्र तातार खाँ के नेतृत्व में एक सेना आगरा पर अधिकार करने के लिए और आलम खाँ तथा बुरहान-उल-मुल्क के अधीन दूसरी सेना दिल्ली की तरफ भेजी थी। बहादुरशाह के विरुद्ध राजपूतों की सहायता नहीं कर हुमायूँ ने एक बड़ी राजनीतिक भूल की। वह राजपूतों की मैत्री खो बैठा, इसका उपयोग वह नहीं कर सका। संभवतः हुमायूँ ने मेवाड़ की सहायता इसलिए नहीं की थी, क्योंकि उस समय मेवाड़ आंतरिक कठिनाइयों से ग्रस्त था और हुमायूँ को वहाँ से पर्याप्त सैनिक सहायता मिलने की आशा नहीं थी। कुछ सम्प्रदायवादी इतिहासकारों ने हुमायूँ पर यह आरोप भी लगाया है कि धर्माधता के कारण ही हुमायूँ ने रानी कर्णवती की सहायता नहीं की, परंतु यह एक निराधार आरोप है। हुमायूँ ने सबसे पहले तातार खाँ और आलम खां को पराजित किया एवं चित्तौड़ की तरफ बढ़ा।

इस बीच मार्च, 1535 में बादुरशाह चित्तौड़ पर अधिकार कर चुका था। अत: हुमायूँ ग्वालियर से मंदसौर पहुंचा। हुमायूं के आगमन को खबर पाकुर बहादुरशाह भागकर मांडू के किला में छिप गया। हुमायूँ उसका पीछा करता हुआ मांडू पहुंचा और दुर्ग को घेर लिया। मांडू से बहादुरशाह चंपानेर, अहमदाबाद होता हुआ पुर्तगालियों के शरण में ड्यू चला गया। हुमायू ने चम्पानेर तक उसका पीछा किया। बहादुरशाह के भाग जाने से हुमायूँ का कार्य सरल हो गया। मालवा और गुजरात के समृद्ध प्रांत एवं मांडू और चम्पानेर के सुदृढ़ किले तथा उनमें एकत्रित खजाना हुमायूं के हाथ लगा; परंतु, बहादुरशाह को भागने देना हुमायूँ की भूल थी जिसका फल उसे भोगना पड़ा।

अस्करी का विद्रोह- दुर्भाग्यवश गुजरात और मालवा की विजय क्षणिक सिद्ध हुई। मुगल इस पर स्थायी अधिकार बनाए नहीं रख सके। विजय के बाद हुमायूँ ने गुजरात का प्रबंध अपने भाई अस्करी को सौंपा। चम्पानेर का किला तार्दबिग को दिया गया। हुमायूँ स्वयं मांडू आकर राग-रंग में समय व्यतीत करने लगा। इसी बीच गुजरात में मुगलों की सत्ता कमजोर पड़ने लगी। अस्करी की राजकाज में दिलचस्पी नहीं थी। उसका सारा समय भोग-विलास में व्यतीत हुआ। इससे प्रशासनिक व्यवस्था बिगड़ गई। गुजरात की जनता ने बहादुरशाह को वापस आने का निमंत्रण भेजा। इससे अस्करी घबड़ा गया। तार्दीबेग ने उसे स्वतंत्र शासक बन जाने का सुझाव दिया; परंतु, वह इसके लिए तेयार नहीं हुआ और चम्पानेर चला गया। चम्पानेर में तादी बेग ने उसे कोई सहायता नहीं दी। अत: निरश होकर वह आगरा की तरफ चल पड़ा। अस्करी के कार्यों से हुमायूं के दिल में यह भय पैदा हुआ कि अस्करी कहीं उसे अपदस्थ न कर दे। इसलिए, मड़ि छोड़कर वह अस्करी की तरफ बढ़ा। रास्ते में दोनों भाइयों की भेंट हुई। हुमायूँ ने अस्करी को क्षमा प्रदान की एवं उसके साथ आगरा लौट गया। इस बीच गुजरात और मालवा दोनों हुमायूँ के हाथों से निकल गए।

1536 ई० से हुमायूँ के जीवन में एक मोड़ स्पष्ट नजर आने लगा। अभी तक वह अपने कार्यों में सफल रहा था। उसने अफगानों की शक्ति पर अंकुश लगाए रखा, बहादुरशाह को पराजित किया, विद्रोहों का सफलतापूर्वक दमन किया; परंतु इसके बाद उसे लगातार विफलताओं का सामना करना पड़ा। उसका पतन आरंभ हो गया। इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी था।

हुमायूँ और शेर खाँ (Humayun and Sher Khan)

हुमायूं का प्रबलतम शत्रु शेर खाँ था। वह एक योग्य और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। अफगानों की दुर्बल स्थिति को देखकर उसने अपनी शक्ति बढ़ानी आरम्भ कर दी। इसके लिए उसने युद्ध एवं कूटनीति दोनों का सहारा लिया। बिहार के अल्पायु शासक जलाल खाँ के संरक्षक के रूप में वह बिहार का वास्तविक शासक बन बैठा। शेर खाँ की बढ़ती शक्ति से भयभीत होकर एवं अफगानों के दमन के उद्देश्य से हुमायूँ ने गद्दी पर बैठने के पश्चात् शेर खाँ पर आक्रमण कर चुनार का घेरा डाल दिया। हुमायूँ को बहलाकर शेर खाँ ने उसकी अधीनता स्वीकार करने का ढोंग किया। फलतः हुमायूँ चुनार उसी को सुपुर्द कर वापस लौट गया। 1533-36 के मध्य जब हुमायूँ आंतरिक विद्रोहों को दबाने मालवा एवं गुजरात की विजय में व्यस्त था, तब शेर खाँ ने अपनी शक्ति बढ़ा ली। उसने बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ कर ली तथा एक विशाल और मजबूत सेना इकट्ठी को। उसकी शक्ति से प्रभावित होकर अफगान उसे ही अपना नेता मानने लगे। शेर खाँ ने ‘हजरत-ए-आला की उपाधि भी धारण की । वस्तुतः वह विहार का स्वतंत्र शासक बन बैठा। उसने अपने नाम के तांबे और चांदी के सिक्के भी ढलवाए। यद्यपि उसने अभी तक मुगलों के विरुद्ध खुला विद्रोह नहीं किया था; तथापि अंदर-ही-अंदर वह इसकी तैयारी कर रहा था। उसने हुमायूं को कर नहीं दिया। उसका पुत्र कुतुब खाँ भी अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ आगरा से भागकर अपने पिता के पास पहुंच चुका था। शेर खाँ गुप्त रूप से बहादुरशाह की सहायता भी कर रहा था। उसने बंगाल पर चढ़ाई कर तेलियागढ़ी पर अधिकार कर लिया। बंगाल के नए सुलतान महमूद शाह ने पुर्तगालियों की सहायता से अपने बचाव का प्रयास किया; परंतु, विफल रहा। महमूदशाह ने शेर खाँ को धन देकर अपनी रक्षा की।

इन घटनाओं की खबर सुनकर हुमायूँ ने हिंदू वेग को शेर खाँ को सवक देने के लिए भेजा। हिंदू बेग अपनी सेना के साथ बिहार की तरफ बढ़ा; परंतु, हिंदू बेग को अपने पक्ष में मिलाकर शेर खां ने हुमायूँ के पास इस आशय की सूचना भिजवा दी कि वह मुगलों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर रहा है। उसने हुमायूँ को अपनी वफादारी की भी याद दिलाई। फलतः हुमायूँ शीघ्र ही कोई कदम नहीं उठा सका। इससे शेर खाँ और अधिक शक्तिशाली बन गया। उसने दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण कर दिया । महमूदशाह ने हुमायूँ से सहायता मांगी। अब हुमायूँ की आखें खुलीं। वह शेर खाँ से युद्ध करने को तत्पर हो निकल पड़ा।

चुनार पर आक्रमण- जुलाई, 1537 में हुमायूँ ने शेर खाँ के विरुद्ध अपना अभियान आरंभ किया। मार्ग में उसने चुनार के दुर्ग का घेरा डाला। यह दुर्ग शेर खाँ के अधीन था। चुनार का सामरिक महत्व बहुत अधिक था। यहाँ शेर खाँ का पुत्र कुतुब खाँ दुर्ग की रक्षा के लिए तैनात था। मुगल सेना के आगमन की खबर प्राप्त कर हुमायूँ को धोखा देने के लिए उसने अपनी सेना की एक टुकड़ी पहाड़ियों पर नियुक्त कर दी। इससे हुमायूँ धोखे में पड़ गया। वस्तुत: शेर खाँ पहले ही चुनार से रसद एवं सैनिक साजो-सामान हटा चुका था। हुमायूँ ने लगभग छः महीनों तक दुर्ग का घेरा डाले रखा। मार्च, 1538 में वह रूमी खाँ की चालाकी से दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हो सका, परंतु इससे हुमायूं को कोई विशेष लाभ नहीं हो सका। चुनार पर अधिकार कर वह बनारस गया और उस पर अधिकार कर बंगाल विजय की योजना बनाने लगा।

बंगाल पर अधिकार- जिस समय हुमायूँ चुनार का घेरा डाले हुए था, उसी समय शेर खाँ रोहतास गढ़ के शक्तिशाली दुर्ग पर अधिकार कर बंगाल की राजधानी गौड़ की तरफ बढ़ रहा था। गौड़ पहुंचकर शेर खाँ ने वहाँ विजय प्राप्त की। गौड़ में उसे अथाह संपत्ति हाथ लगी। सुलतान महमूद बंगाल से भाग खड़ा हुआ। उसने हुमायूँ से भेंटकर सहायता की याचना की।

हुमायू शेर खाँ से खुला युद्ध करना नहीं चाहता था। वह पहले बंगाल पर अधिकार कर तब शेर खाँ से युद्ध करना चाहता था। इसलिए बनारस से उसने शेर खाँ को प्रस्ताव भेजा कि रोहतास का दुर्ग वह हुमायूं के हवाले कर दे, इसके बदले में हुमायूँ शेर खां को चुनार का दुर्ग अथवा जौनपुर या अन्य कोई इलाका देने को तैयार था, परंतु शेर खाँ की दूसरी ही योजना थी। वह भी हुमायूँ से खुला युद्ध नहीं कर गुरिल्ला पद्धति द्वारा काम लेना चाहता था। वह हुमायूँ को आगे बढ़ने का मौका देकर उसका मार्ग काटना चाहता था और अंततः संपूर्ण बंगाल और बिहार पर अधिकार स्थापित कर लेना चाहता था। इसलिए उसने बंगाल में हुमायूँ को घेरने का प्रयास नहीं किया। हुमायूँ के प्रस्ताव के जवाब में उसने अलग से अपनी शर्ते पेश कीं। वह विहार छोड़ने को तैयार हो गया तथा दस लाख टका सालाना कर भी देने पर सहमत हुआ, परंतु वह चाहता था कि बंगाल पर उसे मुगलों के प्रतिनिधि के रूप में शासन करने दिया जाए। वह खुतवा’ एवं सिक्कों पर अपना नाम बनाए रखना चाहता था। हुमायूँ को उसने सूचना भिजवाई कि अगर उसे शेर खाँ की शर्ते मंजूर हों तो वह शीघ्र बनारस छोड़कर आगरा चला जाए।

हुमायूँ बंगाल जैसे समृद्ध प्रदेश को शेर खाँ के पास छोड़ना नहीं चाहता था। सुलतान महमूद भी हुमायूँ को बंगाल पर आक्रमण करने को प्रोत्साहित कर रहा था। उसे वंगाल के सुलतान से सहायता की भी उम्मीद थी। अतः वह बंगाल की तरफ बढ़ा। दुर्भाग्यवश मार्ग में ही सुलतान महमूद की मृत्यु हो गई। हुमायूं अकेला ही आगे बढ़ा। अगस्त 1538 में हुमायूँ निर्विरोध (सिर्फ तेलियागढ़ी के निकट छोड़कर) गौड़ पहुँच गया। बंगाल पर अधिकार कर उसने वहाँ प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की। गौड़ का नाम उसने ‘जन्नताबाद’ रखा। बंगाल को विभिन्न जागीरों में बाँटकर विभिन्न मुगल पदाधिकारियों को दिया गया। इस समय तक बरसात आरंभ हो चुकी थी। अत: वह वहीं आराम करने के लिए रुक गया।

हुमायूँ को बंगाल विजय निरुद्देश्य थी। इससे उसे कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि बंगाल की विजय से ही उसके की प्रक्रिया आरंभ हुई। बंगाल में आवश्यकता से अधिक समय तक रुके रहने के परिणाम हुमायूं के लिए घातक सिद्ध हुए। हुमायूं को बंगाल में आराम करते देखकर शेर खाँ ने क्रमशः चुनार, बनारस, जौनपुर, कन्नौज, पटना, इत्यादि पर अधिकार कर लिया। वह कन्नौज से बहराइच तथा मुंगेर से संभल तक के क्षेत्र का स्वामी बन गया। हुमायू हाथ मलता रह गया। हुमायू के दुर्भाग्य का यहीं अंत नहीं हुआ। गौड़ जाने के पूर्व ही हुमायूँ ने हिंदाल को, जो उत्तरी बिहार में था, आगरा जाकर सेना इकट्ठा करने एवं शेर खां पर आक्रमण करने का निर्देश दिया था। अत: वह आगरा चला गया था, परंतु उसने वहाँ जाकर विद्रोह कर दिया। उसने बादशाह की पदवी धारण कर ली और हुमायूँ के विश्वस्त पदाधिकारी बहलोल की हत्या कर दी। इसी समय कामरान भी काबुल से दिल्ली आ धमका। उसने दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया परंतु विफल होकर वह आगरा की तरफ बढ़ गया। इन घटनाओं ने हुमायूँ को विचलित कर दिया। वर्षाऋतु के कारण मलेरिया का प्रकोप भी बढ़ गया। इसका बुरा प्रभाव उसकी सेना पर पड़ा। उसके सैनिकों एवं सरदारों में असंतोष फैलने लगा। फलतः हुमायूँ ने शीप आगरा लौटने का निश्चय किया। वह जहाँगीर बेग को बंगाल की सुरक्षा का भार सौपकर एवं सेना की एक छोटी सी टुकड़ी छोड़कर मार्च, 1539 में आगरा के लिए कूच कर गया।

चौसा का युद्ध- हुमायूँ के वापस लौटने की सूचना पाकर शेर खाँ ने मार्ग में ही हुमायूँ को घेरने का निश्चय किया। हुमायूँ ने वापसी में अनेक गलतियां की। सबसे पहले उसने अपनी सेना को दो भागों में बांट दिया था। सेना की एक टुकड़ी दिलावर खाँ के अधीन मुंगेर पर आक्रमण करने को भेजी गई थी। सेना की दूसरी टुकड़ी के साथ हुमायूँ स्वयं आगे बढ़ा। हुमायूँ के सैन्य सलाहकारों ने उसे सुझाव दिया था कि वह गंगा के उत्तरी किनारे से चलता हुआ जौनपुर पहुंचे एवं गंगा पार कर शेर खाँ पर आक्रमण करे, परंतु उसने उनकी बात नहीं मानी। वह गंगा पार कर दक्षिणी मार्ग से मैंड ट्रंक रोड से चला। यह मार्ग शेर खां के नियंत्रण में था। कर्मनासा नदी के किनारे चौसा नामक स्थान पर उसे शेर खाँ की उपस्थिति का पता चला। अतः वह नदी पार कर शेर खाँ पर आक्रमण करने को उतारू हो उठा, लेकिन यहाँ भी उसने लापरवाही बरती। उसने तत्काल शेर खाँ पर आक्रमण नहीं किया। वह तीन महीनों तक गंगा नदी किनारे समय बरबाद करता रहा। शेर खाँ ने इस बीच उसे धोखे से शान्ति वार्ता में उलझाए रखा और अपनी तैयारी करता रहा। वस्तुत: वह बरसात की प्रतीक्षा कर रहा था।

वर्षा आरंभ होते ही शेर खाँ ने आक्रमण की योजना बनाई । हुमायूँ का शिविर गंगा और कर्मनासा नदी के बीच एक नीची जगह पर था। अतः, बरसात का पानी इसमें भर गया। मुगलों का तोपखाना नाकाम हो गया तथा सेना में अव्यवस्था व्याप्त हो गई। इसका लाभ उठा कर 26 जून, 1539 की रात्रि में शेर खाँ ने मुगल छावनी पर अचानक धोखे से आक्रमण कर दिया। मुगल खेमे में खलबली मच गई। सैनिक प्राण बचाने के लिए गंगा में कूदकर भाग खड़े हुए। उनमें कुछ डूब गए और अनेक अफगानों द्वारा मारे गए। हुमायूँ स्वयं एक भिश्ती की सहायता से जान बचाकर गंगा पार कर सका। उसका परिवार भी खेमे में ही रह गया। हुमायूं कुछ विश्वासी मुगलों की सहायता से आगरा पहुँच सका। हुमायूँ की पूरी सेना नष्ट हो गई।

चौसा के युद्ध ने हुमायूँ का पतन निश्चित कर दिया। उसकी सेना नष्ट हो चुकी थी। उसके परिवार के कुछ सदस्य भी युद्ध में मारे गए। अफगानों की शक्ति एवं महत्वाकांक्षाएँ पुन: बढ़ गई। अब वे मुगलों को भगाकर आगरा पर अधिकार करने की योजनाएं बनाने लगे। शेर खां ने अब शेरशाह की उपाधि धारण कर ली और पूर्णरूप से स्वतंत्र शासक बन बैठा (दिसंबर, 1539) । उसने अपने नाम का ‘खुतबा’ पढ़वाया, सिक्के ढलवाए एवं ‘फरमान’ जारी किए। उसने जलाल खां को भेजकर बंगाल पर अधिकार कर लिया तथा स्वयं बनारस, जौनपुर और लखनऊ होता हुआ कन्नौज जा पहुंचा।

कन्नौज अथवा बिलग्राम का युद्ध- हताश और परेशान हुमायूँ जब आगरा पहुंचा, तब वहाँ की स्थिति भी शोचनीय थी, तथापि हुमायूँ ने एक बार पुनः अपना भाग्य आजमाने कानिर्णय लिया। उसने अपने विद्रोही भाइयों-कामरान और हिंदाल को क्षमा कर दिया, परंतु इन भाइयों ने विपत्ति में भी उसकी सहायता नहीं की। आगरा में कामरान की सुसंगठित सेना मौजूद थी। परंतु, हुमायं पर विश्वास नहीं होने से वह अपनी सेना सहित लाहौर चला गया । उसने लाहौर से हुमायूँ को सहायता भेजने का वचन दिया, परंतु अपने वचन का पालन नहीं किया। अन्य पाइयों ने भी इस विकट परिस्थिति में अपने को तटस्थ रखा। हुमायूँ ने स्वयं ही साहस जुटाया, सेना इकट्ठी की और शेरशाह से अंतिम संघर्ष के लिए तैयार हुआ।

इस बीच शेरशाह हुमायूँ के पीछे लगा हुआ था। उसने ईसा खाँ को गुजरात और मांडू की तरफ भेजा एवं वहां के शासकों को आदेश दिया कि जब हुमायूँ कन्नौज की तरफ बढ़े तब वे दिल्ली और आगरा पर आक्रमण करें। हुमायूँ के कन्नौज की तरफ बढ़ने की खबर सुनकर शेरशाह ने अपने पुत्र कुतुब खाँ को माण्डू भेजा, जिससे कि वह वहाँ से मदद लेकर दिल्ली-आगरा पर आक्रमण आरंभ कर दे। हुमायू ने भी मिर्जा हिंदाल और अस्करी को कुतुब खाँ का मुकाबला करने को भेजा। चंदेरी के निकट कुतुब खाँ मारा गया। इससे हुमायूं का हौसला बढ़ गया। वह कन्नौज की तरफ बढ़ा।

अप्रैल, 1540 में हुमायूँ सेना सहित कन्नौज जा धमका। गंगा के दोनों किनारों पर मुगलों एवं अफगानों की सेनाओं ने पड़ाव डाल दिए। हुमायूँ ने यहाँ पुनः पहले वाली भूल दुहराई । उसने तत्काल शेरशाह पर आक्रमण नहीं किया, बल्कि उसके साथ वार्ता में संलग्न रहा। उसने शेरशाह की अनुमति से गंगा पार कर लिया एवं बिलग्राम के निकट एक नीची जगह में खेमा डाल दिया। इस बीच शेरशाह पर आक्रमण में विलम्ब देखकर मुगल भयभीत हो गए । उनका मनोबल गिर गया एवं मुगलों में हताशा फैल गई। मुगल सरदार और सैनिक हुमायूं का साथ छोड़ने लगे। सुलतान मिर्जा, उसके पुत्र और कामरान की सेना की टुकड़ी मैदान से भाग गई। भीषण वर्षा के कारण मुगल शिविर में पानी भर गया।

शेरशाह ने इस स्थिति का लाभ उठाकर 17 मई, 1540 को हुमायूँ पर अचानक आक्रमण कर दिया। यद्यपि हुमायूँ ने सैन्य-संचालन में निपुणता नहीं दिखाई। तथापि, अपने भाइयों हिंदाल और अस्करी के साथ वह वीरतापूर्वक लड़ा। तारीख-ए-शेरशाही का लेखक अब्बास खाँ युद्ध में हुमायूँ की वीरता का बखान करता है, परंतु सारी वीरता के बावजूद हुमायूँ को पराजित होना पड़ा।

बिलग्राम के युद्ध ने हुमायूँ के भाग्य का अंत कर दिया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में मुगलों को सत्ता समाप्ति के कगार पर पहुंच गई। इस युद्ध ने द्वितीय अफगान राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। युद्ध में परास्त होकर हुमायूँ आगरा पहुँचा। शेरशाह ने उसका पीछा जारी रखा। अफगानों के आगमन की खबर पाकर हुमायूँ आगरा से लाहौर गया। कामरान ने उसे कोई सहायता प्रदान नहीं की। वह स्वयं शेरशाह से गुप्त वार्ता कर रहा था। उसने हुमायूं की हत्या का षड्यन्त्र भी रचा। उसने उसके कश्मीर और बदख्शां जाने के मार्ग में भी रोड़े अटकाए। इस बीच पंजाब पर अफगानों का अधिकार हो जाने से कामरान, हिंदाल और अस्करी हुमायूँ का साथ छोड़कर काबुल कांधार चले गए। हुमायूँ ने 1543 ई० तक भारत में ही शरण लेकर पुनः सत्ता प्राप्त करने का प्रयास किया, परंतु विफल होकर ईरान चला गया। भारत में मुगल सत्ता, कश्मीर के अतिरिक्त सर्वत्र समाप्त हो गई।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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