शैक्षिक समाजशास्त्र का अर्थ | शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य एवं क्षेत्र | शिक्षा के समाजशास्त्र की प्रकृति

शैक्षिक समाजशास्त्र का अर्थ | शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य एवं क्षेत्र | शिक्षा के समाजशास्त्र की प्रकृति
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सामान्य अर्थों में कहा जाये तो शैक्षिक समाजशास्त्र शिक्षा तथा समाजशास्त्र का समन्वित रूप है। शैक्षिक समाजशास्त्र का एक महत्वपूर्ण अंग तथा नवीन शाखा है। शैक्षिक समाजशास्त्र का जन्मदाता ‘जार्ज पेनी (George Payne)को माना जाता है। जार्ज पेनी ने न्यूयार्क विश्वविद्यालय के शिक्षा-विभाग में कार्य करते समय सन् 1928 में ‘दि प्रिन्सिपल्स ऑफ एजूकेशन सोशियोलॉजी’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसने इस पुस्तक में शिक्षा के सामूहिक जीवन पर और सामूहिक जीवन का शिक्षा पर प्रभाव का वर्णन किया है। जार्ज पेनी ने शैक्षिक प्रक्रिया की व्याख्या समाजशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार की। मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने के लिए यह आवश्यक हैं कि उस पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभावों का अंध्ययन किया जाये। शिक्षा में मनुष्य का सम्पूर्ण अनुभव आ जाता है और शिक्षा का मुख्य कार्य समाज के दोषों को दूर करना तथा समाज पर नियन्त्रण रखना है।
वस्तुतः शैक्षिक समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो समाजशास्त्र के उद्देश्यों को शैक्षिक क्रिया द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता है। अतएव यह विज्ञान समाज की सम्पूर्ण संस्थाओं जैसे परिवार, स्कूल, समुदाय, धर्म, राज्य, समाचार-पत्र एवं रेडियो आदि का अध्ययन करके व्यक्ति को श्रेष्ठ एवं सामाजिक प्राणी बनाने के लिए शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रमों, शिक्षण-पद्धतियों तथा अन्य सभी अंगों को निर्धारित करता है।
शैक्षिक समाजशास्त्र सामाजिक उन्नति एवं विकास के लिये सामाजिक प्रतिक्रियाओं एवं सामाजिक अन्तःक्रियाओं का अध्ययन करता है, क्योंकि इनके विषय में ज्ञान के आधार पर ही हम शिक्षा का स्वरूप निश्चित कर सकते हैं तथा शिक्षा की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। सार रूप से शैक्षिक समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पुर्ति करने वाली प्रक्रियाओं, जनसमूहों संस्थाओं तथा समितियों का अध्ययन करता है।
शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य
शैक्षिक समाजशास्त्र के अनेक उद्देश्य भी हैं। हेरिंगटन (Herington) के अनुसार, शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षा के पाठ्यक्रम का सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को शिक्षा के साधन के रूप में समझते हुए सामाजिक दृष्टि से नियोजन करना।
(2) शिक्षक के कार्य को समाज के सन्दर्भ में ज्ञान प्राप्त करना और सामाजिक प्रगति के दृष्टिकोण से विद्यालय के कार्य का ज्ञान प्राप्त करना। इसके साथ ही विद्यालय को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्वों का अध्ययन करना।
(3) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये अनुसन्धान की विधियों का उपयोग करना।
(4) शैक्षिक प्रजातान्त्रिक विचारधाराओं को समझना।
(5) उपरोक्त के अतिरिक्त सामाजिक तत्वों का अध्ययन करना और व्यक्ति पर पड़ने वाले उनके प्रभावों को समझना।
(6) शैक्षिक समाजशास्त्र, शिक्षा के द्वारा नैतिकता का विकास करना चाहता है। छात्रों में नैतिकता के गुण-सहनशीलता, सहिष्णुता आदि को विकसित करना है।
(7) शैक्षिक समाजशास्त्र का लक्ष्य है कि छात्रों को अपनी संस्कृति, परम्पराओं, लोककथाओं व रीति-रिवाजो की जानकारी हो और अपनी सभ्यता की जानकारी हो सके।
( 8) शिक्षा के द्वारा विद्यार्थियों में सभी के कल्याण की भावना होनी चाहिए।
(9) सामाजिक संस्थाओं एवं शिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थियों एवं समाज पर प्रभाव का अध्ययन भी शेक्षिक समाजशास्त्र में किया जाता है जो शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।
(10) प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा व पाठ्यक्रम का निर्माण करना भी शैक्षिक समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य है।
(11) शैक्षिक समाजशास्त्र इस प्रकार के समाज की रचना करता है जिसमें सभी को शिक्षा प्राप्त करने का हक हो।
(12) शैक्षिक समाजशास्त्र की सहायता से व्यक्ति ऐसे समाज की रचना करता है जिससे समाज में नागरिक गुणों का विकास हो सके।
(13) शैक्षिक समाजशास्त्र व्यक्ति के अन्दर समाजवादी मूल्यों का विकास करता है जिससे सबके साथ बराबर का व्यवहार हो सके।
(14) शैक्षिक समाजशास्त्र की सहायता से व्यक्ति अपनी संस्कृति का संरक्षण करना सीखता है। वह संस्कृति का संवर्धन करता है और उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करता है।
(15) शैक्षिक समाजशास्त्र की सहायता से व्यक्ति रूढ़िवादी परम्पराओं को छोड़कर एक नए समाज की स्थापना करने योग्य हो जाता है जिसमें सभी को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार प्राप्त हो सके।
शैक्षिक समाजशास्त्र का क्षेत्र
(1) शिक्षा और समाजीकरण
(2) शिक्षा और संस्कृति
(3) शिक्षा के माध्यम से समाज की अक्षुण्णता
(4) शिक्षा और संस्कृति का प्रसारण
(5) शिक्षा और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन
(6) शिक्षा के सामाजिक निर्धारक
(7) सामाजिक अंतःक्रिया और शिक्षा की औपचारिक तथा अनौपचारिक संस्थाएं
(৪) एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में पाठशाला
ये सभी विचार-बिन्दु इसी अवधारणा पर टिके थे कि ‘शेक्षिक समाजशास्त्र’ वस्तुतः मिश्रित या प्रयुक्त समाजशास्त्र (Applied Sociology) ही था, न कि समाजशास्त्र के शुद्ध विज्ञान का एक अंग।
यह तथ्य स्मरणीय है कि इस विषय के शिक्षकों व समर्थकों को प्रायः समाजशास्त्र के संप्रत्ययों (Concepts) व सिद्धान्तों (Theories) का कोई ठोस और गहरा ज्ञान नहीं था ।
शैक्षिक समाजशास्त्र (Educational Sociology)
(1) यह मूलतः शिक्षाशास्त्र का अंग था।
(2) यह एक मिश्रित या प्रयुक्त समाजशास्त्र (Applied Sociology) था, अर्थात् यह हर प्रकार से ‘शैक्षिक तकनीकी’ (Technology of Education) था।
(3) यह बहुत कुछ जोशीली भाषा का विषय था जो ठोस वस्तुनिष्ठता और विश्लिषण पर आधारित नहीं था।
(4) इस क्षेत्र का अधिकांश शिक्षण अव्यवस्थित था।
(5) अधिकतर तथाकथित शैक्षिक समाजशास्त्री उन सामग्रियों से सम्बन्धित रहते थे जो वस्तुतः समाजशास्त्रीय नहीं थी।
(6) शैक्षिक समाजशास्त्री अधिक व्यावहारिक था।
(7) शैक्षिक समाजशास्त्री अपना विश्लेषण पाठशाला से शुरू करता है और बाहर समाज की ओर जाता है।
(৪) शैक्षिक समाजशास्त्र सुझावों और प्रतिमानात्मक सिद्धान्त की स्थापना की दिशा में एक प्रयास था।
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