शक जाति की उत्पत्ति | भारत पर शकों का आक्रमण | शक कौन थे? | शक क्षत्रपीय वंश
शक जाति की उत्पत्ति | भारत पर शकों का आक्रमण | शक कौन थे? | शक क्षत्रपीय वंश
शक जाति की उत्पत्ति
ईसा पूर्व की पहली शताब्दी में यूनानियों का भारत में राज्य समाप्त हो गया। भारतीय साहित्य में शक, पल्लव और यूनानी आक्रमणकारियों का नाम सामूहिक रूप से शक- पहलव-यवन दिया गया है। इन तीनों जातियों के भारत पर आक्रमण को बर्बर आक्रमण कहा गया है। इतिहास में शकों की तीन शाखाओं का उल्लेख मिलता है। शकों की दो शारवायें तो पास-पास के प्रदेश में रहती थीं। उनका प्रदेश ड्रगियानासीस्तान था। शकों की तीसरी शाखा काला सागर के उत्तर में रूसी मरुभूमि में थी जिनको यूरोपीय शक कहा जाता था। शक लोगों के मूल निवास स्थान के बारे में कहा जाता है कि शक मध्य एशिया में सीर नदी के उत्तर में ‘जेजर्टिज” के निकट रहने वाली एक घुमक्कड़ जाति थी। इन्हीं के समीप पश्चिमी चीन में ‘यूहबी” नाम की एक और जाति रहती थी जिस पर हूण जाति के लोगों ने आक्रमण करके खदेड़ दिया। परिणामस्वरूप यहूचियों को अपना मूल स्थान छोड़ना पड़ा और फिर उन्होंने शकों पर आक्रमण करके लगभग 175 से 165 ई० पूर्व में शकों को उनके मूल निवास स्थान से खदेड़ दिया। यहूचियों से हारकर शक दो समूहों में बँट गए। एक समूह पूर्वी ईरान और पार्थिया होता हुआ आगे बढ़ा और वहाँ उसने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिये। उनमें से शकों की एक बस्ती को शकिस्तान या सीस्तान कहा जाता है। कुछ समय पश्चात् शकों के इसी समूह के काफी लोग कन्दतार और बलूचिस्तान होते हुए सिन्धु नदी की निचली घाटी में आकर बस गये। दूसरा समूह सीधा भारत की ओर बढ़ा तथा काबुल, काश्मीर और पंजाब में आकर बस गया। बाद में इन्हीं स्थानों से शकों ने ई०पू० की पहली शताब्दी में भारत पर आक्रमण कर दिया और भारत के एक बड़े भू-भाग पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। भारत में अपना आधिपत्य जमाने के बाद कभी शक्तिशाली और कभी कमजोर होते हुए शकों ने ईसवी सन् की तीसरी शताब्दी तक यहाँ शासन किया।
डॉ०बनर्जी ने शकों का भारत में आगमन खैबर के दर्रे में होकर आना नहीं बतलाया है। सिक्कों से ज्ञात होता है कि शकों की मुख्य शाखा ने भारत आने के लिए मुख्य मार्ग का प्रयोग नहीं किया था वरन् वे किसी अन्य स्थान से होकर ही भारत में आये।
भारतीय शक राज्य और उसके शासक-
जॉन मार्शल के अनुसार भारत में शकों का सबसे पहला राजा ‘माओज’ था। उसने उत्तर-पश्चिमी भारत के एक बड़े भाग पर अपना आधिपत्य कर लिया और “राजाओं के महाराजा’ की उपाधि धारण की। एक अभिलेख से पता चलता है कि माओज ने गान्धार पर भी अधिकार कर लिया था। उसने अपने राज्य की सीमायें मथुरा तक बढ़ा ली थीं। माओज एक शक्तिशाली शासक था और अपने राज्य के अलग-अलग भागों पर शासन करने के लिए उसने गवर्नर नियुक्त कर रखे थे।
शक शासकों में माओज के बाद एजेज राजा बना कुछ समय पश्चात् उसे हटाकर एजेज का अधीनस्थ सामन्त एजिला सेस शासक बना। तक्षशिला पर शासन करने वालों में इसके बाद एजेज द्वितीय राजा बना, जिसका शासन लगभग 43 ई०पू० चला। बाद में पल्लवों ने तथा फिर पल्लवों को हटाकर कुषाणों के नेता गोण्डोफर्नीज ने तक्षशिला पर शासन किया।
शक क्षत्रपीय वंश-
शक शासकों ने भारत में एक विशाल राज्य स्थापित कर लिया था जिसके सुसंचालन के लिए उन्होंने अपने राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त किया था। अनेक प्रान्तों की देखभाल के लिए शक शासकों ने भारतीय गवर्नर, जिन्हें क्षत्रप कहा जाता था, नियुक्त किये थे। सामान्यतया शक शासकों के प्रत्येक प्रान्त में दो क्षत्रप होते थे-(i) क्षत्रप और (ii) महाक्षत्रप। पहले तो ये सभी क्षत्रप शकों की केन्द्रीय शक्ति के अधीन थे, परन्तु इस केन्द्रीय शक्ति के समाप्त हो जाने के पश्चात् काफी लम्बे समय तक ये शक क्षत्रप की अपने- अपने प्रान्तों पर शासन करते रहे।
भारत में शक क्षत्रपों के मुख्य केन्द्रों को चार भागों में विभाजित किया गया है-
(1) उत्तरी भारत के क्षत्रप, (2) पश्चिमी भारत के शक क्षहरात,
(3) मथुरा के क्षत्रप और (4) उज्जयिनी के क्षत्रप ।
तक्षशिला के उत्तरी क्षत्रप-
उत्तरी भारत में शकों के मुख्यतः कपिस पुष्पपुर, अभिसार, प्रस्थ, कुशुलुक, मनीगुल, जिहोणिक तथा इन्द्रवर्मन शक क्षत्रप वंशों ने शासन किया। इनमें से कपिस, पुष्पपुर तथा अभिसारप्रस्थ वंशों ने तक्षशिला के उत्तर में स्थित प्रदेशों में राज्य किया और कुशलक, मनिगुल, जिहोणिक तथा इन्द्रवर्मन वंशों के क्षत्रपों ने पंजाब के भागों में शासन किया।
मथुरा के उत्तरी क्षत्रप- मथुरा के क्षत्रपों के बहुत-से सिक्के और अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इनसे क्षत्रपों के इतिहास पर काफी असर पड़ता है। इस बारे में कोई निश्चित राय नहीं है कि मथुरा के शक वहाँ कब और कैसे पहुँचे। कुछ विद्वान कहते हैं कि मथुरा के शक मालवा से आये थे। मथुरा के सबसे पहले क्षत्रप हगान और हगमाश थे और इन दोनों ने वहाँ मिलकर शासन किया। ‘रज्जुबल” मथुरा के क्षत्रपों में सबसे अधिक प्रतापी था। रज्जुबल ने पहले क्षत्रप के रूप में कार्य किया फिर महाक्षत्रप के रूप में शासन किया। रज्जुबल के पश्चात् उसका पुत्र सोडास मथुरा का क्षत्रप बना, परन्तु उसके बाद मथुरा के क्षत्रपों की शक्ति क्षीण होती चली गई और मथुरा के क्षत्रप अन्य शासकों के अधीन कार्य करने लगे।
पश्चिमी शक क्षत्रप- पश्चिमी क्षत्रप-कुल का इतिहास जितना महत्त्वपूर्ण है उतना महत्त्व शक राजकुल की किसी भी शाखा का नहीं है। पश्चिमी क्षत्रप कुल की दो शाखाएँ थीं-(1) महाराष्ट्र के क्षहरात कुलीन क्षत्रपों की और (2) उज्जैन के शक क्षत्रपों की। यथा-
(i) महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षत्रप- पश्चिमी भारत में शासन करने वाला क्षत्रप वंश क्षहरात- वंश के नाम से प्रसिद्ध है। इस वंश के शासकों का केन्द्र नासिक था। इसीलिए इनको नासिक का क्षत्रप भी कहा जाता है। पश्चिम भारत के प्रथम क्षत्रप का नाम भूमक था। वह शक जाति के खखराट वंश का था। उसके सिक्के गुजरात तथा काठियावाड़ के समुद्रतटीय प्रदेशों में पाये गये हैं और उसकी कुछ मुद्राएँ राजपूताने के मालवा तथा अजमेर प्रदेशों में भी मिली हैं। भूमक के मुद्रा लेखों में खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियों के प्रयोग से इस तथ्य का पता चलता है कि क्षत्रपों के राज्यों में न केवल मालवा, गुजरात और काठियावाड़ के प्रदेश ही सम्मिलित थे, जहाँ पर ब्राह्मी लिपि प्रचलित थी, वरन् राजपूताना और सिंध के कुछ भाग भी इसके अन्तर्गत थे। इस वंश का दूसरा प्रसिद्ध शासक नहपान था। पश्चिमी भारत के क्षत्रपों में नहपान का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है और उसने अपने राज्य का काफी विस्तार किया था। उसकी मृत्यु के पश्चात् शक राज्य समाप्त हो गया।
नहपान- पश्चिमी भारत में शासन करने वाला सबसे अधिक योग्य एवं प्रसिद्ध क्षत्रप नहपान था। नहपान के विषय में उसके सिक्कों और अभिलेखों द्वारा प्रचुर सूचना प्राप्त होती है। अपने पूर्ववर्ती लेखों में उसे “नहपान क्षत्रप” कहा गया है जबकि 46वें वर्ष के अभिलेख में उसने ‘महाक्षत्रप’ की उपाधि धारण कर ली। वह सभी अभिलेखों में “राजन्” की उपाधि से भी विभूषित है जो यह स्पष्ट करती है कि नहपान की राजनीतिक स्थिति भूमक की राजनीतिक स्थिति से कहीं अधिक ऊँची थी। कदाचित् वह एक स्वतन्त्र शासक के रूप में भी शासन करता रहा, तथापि उसने कुषाण सत्ता का खुलकर विरोध नहीं किया। महाराष्ट्र में नहपान का शासन बहुत ही कम समय रहा, परन्तु इस कम समय में उसके राज्य में अनेक घटनायें घटीं। युद्ध अभियान, पुण्यार्थ, दान आदि अनेक महत्त्वपूर्ण एवं महान् कार्य उसके शासनकाल में हुए। अजमेर और पुष्कर से भी नहपान के सिक्के मिले हैं, जिससे पता चलता है कि अजमेर और पुष्कर तक उसका राज्य फैला हुआ था। नासिक के समीप जुगलयम्बी में नहपान के चाँदी के सिक्के बहुत संख्या में मिले हैं। गौतमीपुत्र ने इन्हीं सिक्कों को पुनः ढलवा कर काम में लिया था।
(ii) उज्जैन के पश्चिमी क्षत्रप- दक्षिणी भारत में उदित होने वाले शक क्षत्रप वंश का प्रमुख केन्द्र उज्जयिनी था। इसीलिए इन्हें उज्जयिनी के क्षत्रप भी कहा जाता है। इस क्षत्रप वंश का संस्थापक यशोमति था। इस क्षत्रप वंश का प्रथम स्वतन्त्र शासक ‘चष्टन” था। चष्टन एक वीर योद्धा था। इसी कारण उज्जयिनी का क्षत्रप वंश “चष्टक’ वंश भी कहलाता है। चष्टन का उत्तराधिकारी रुद्रदामन था, इसने अपने साम्राज्य का काफी विस्तार किया। रुद्रदामन ने अपने आस-पास के सभी प्रदेशों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। वह अपनी प्रजा के हितों का ध्यान रखने वाला, विद्या प्रेमी एवं एक अच्छा प्रशासक था। उसके शासनकाल में उज्जयिनी का बहुमुखी विकास हुआ। इस वंश के अन्तिम राजा रुद्रसिंह पर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने आक्रमण किया और उसे मार डाला। इस प्रकार चष्टन वंश के शासन का उज्जयिनी से अन्त हुआ। उज्जयिनी में शक क्षत्रपों का शासन लगभग 250 वर्ष तक चला।
पश्चिमी शक तथा सातवाहनों का संघर्ष
महाराष्ट्र में सातवाहनों के जो अभिलेख मिले हैं, उनसे यह विदित होता है कि इस प्रदेश पर उन्हीं का अधिकार था। किन्तु नहपान के भी सिक्कों और अभिलेखों का महाराष्ट्र प्रदेश में पाया जाना यह सिद्ध करता है कि उस पर नहपान ने भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस बात के भी पुष्ट प्रमाण हैं कि महाराष्ट्र पर शासन सत्ता जमाने वाला व्यक्ति नहपान ही था, भूमक नहीं।
नहपान के अभिलेखों में खुदी हुई तिथियों के विश्लेषण करने के बाद विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि नहपान संभवतः 119-125 ई० के समीप हुआ होगा। नोगलथम्बी के सिक्कों का ढेर यह बतलाता है कि गौतमीपुत्र शातकणि ने नहपान के सिक्कों को फिर से मुद्रित किया था। जिस क्षहरात राज्य के उन्मूलन का दावा मौतमीपुत्र शातकर्णि ने किया है, उस पर उस समय नहपान का ही अधिकार था। अतएव नहपान और गौतमीपुत्र शातकर्णि एक दूसरे के समकालीन थे।
नहपान और गौतमीपुत्र शातकर्णि के मध्य संघर्ष-
गौतमीपुत्र शतकर्णि ने क्षहरात वंशीय शक क्षत्रप नहपान को परास्त किया। दोनों के मध्य संघर्ष गौतमीपुत्र शातकर्णि के शासन भार संभालने के 18 वर्ष बाद हुआ। उसके 9वें वर्ष की सुप्रसिद्ध नासिक प्रशस्ति में उसकी विजयों का उल्लेख हुआ है।
शातकर्णि के साम्राज्य विस्तार का मुख्य उद्देश्य शकों के महाक्षत्रप नहपान सहित क्षहरातों का विनाश करना था क्योंकि इसके कारण सातवाहन सत्ता निर्बल हो गयी थी। उसने अपने शासन के 18वें वर्ष तक शकों को महाराष्ट्र से खदेड़ दिया।
18वें वर्ष बाद वह शकों के विरुद्ध रणयात्रा को निकला। नासिक प्रशस्ति के अनुसार इस अभियान के फलस्वरूप सौराष्ट्र (काठियावाड़), कुकूर (गुजरात का पारियात्र क्षेत्र), अनूप (नर्मदा नदी पर स्थित महेश्वर क्षेत्र), अपरान्त (उत्तरी कोंकण), आकर (पूर्वी मालवा) और अवन्ति (पश्चिमी मालवा) के प्रान्त शातकर्णि के अधिकार में आ गए। ये सारे प्रदेश क्षहरातों से जीते गए थे। एक युद्ध में महाक्षत्रप नहपान भी मारा गया। नहपान की मृत्यु के बाद पश्चिमी भारत और मालवा पर सातवाहनों का अधिकार हो गया। नहपान के सिक्कों में शातकर्णि के लेख इस विजय के प्रतीक हैं
निष्कर्ष-
शकों ने भारत पर एक बर्बर विदेशी जाति के रूप में आक्रमण किया, परन्तु भारत में अपना राज्य स्थापित करने के साथ ही वे भारतीयों में घुल-मिल गये तथा उन्होंने भारतीय आचार-विचार, धर्म और रहन-सहन को अपना लिया। उन्होंने भारत के निवासियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे। वे एक प्रकार से भारतीय समाज के ही अंग बन गये थे।
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