इतिहास / History

अशोक का प्रारम्भिक जीवन | अशोक का सिंहासनारोहण | अशोक एक विजेता के रूप में | अशोक एक कुशल शासक के रूप में | अशोक एक मानव और सुधारक के रूप में | धर्म विजेता के रूप में अशोक

अशोक का प्रारम्भिक जीवन | अशोक का सिंहासनारोहण | अशोक एक विजेता के रूप में | अशोक एक कुशल शासक के रूप में | अशोक एक मानव और सुधारक के रूप में | धर्म विजेता के रूप में अशोक

अशोक का प्रारम्भिक जीवन

प्रस्तावना- चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार मगध के सिंहासन पर बैठा। बिन्दुसार भी एक योग्य शासक था और उसने अपने पिता के साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा, किन्तु बिन्दुसार भारतीय इतिहास में अधिक प्रसिद्ध नहीं हो पाया। बिन्दुसार के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र अशोक मगध की राजगद्दी पर बैठा, जिसने भारतीय इतिहास में विशेष स्थान बना लिया। बिन्दुसार तो चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक जैसे दो महान शासकों में केवल एक कड़ी के रूप में ही रहा। अशोक का शासनकाल मौर्य साम्राज्य का एक स्वर्णिम युग था।

जीवन-

अशोक मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र एवं बिन्दुसार का पुत्र था। अशोक की माता एक ब्राह्मण कन्या थी। कुछ ग्रन्थों में अशोक की माता का नाम ‘धम्मा’ लिखा है तथा कुछ अन्य ग्रन्थों में उसका नाम “सुभद्रांगी” लिखा है। अशोक की माता अत्यन्त रूपवती थी, जिसको कि इसका ब्राह्मण पिता बिन्दुसार को उपहार के रूप में दे गया था। इसके असीम सौन्दर्य को देखकर अन्तःपुर की अन्य रानियों ने इसको एक नाइन के रूप में रनिवास में रखा। सम्राट् को जब इस बात का पता लगा तो उसे उसने अपनी पटरानी बना लिया। अशोक की माता के दो नामों के बारे में ऐसा लगता है कि अशोक की माता का बचपन का नाम ‘धम्मा’ था और अपने असीम सौन्दर्य के कारण उसका नाम ‘सुभद्रांगी’ पड़ गया। सुभद्रांगी से बिन्दुसार को दो पुत्र हुए अशोक और विगतशोक। अशोक ने बाल्यकाल से ही पढ़ना-लिखना सीख लिया था तथा अस्त्र-शस्त्र चलाने में कुशलता प्राप्त कर ली थी। अपने पिता के जीवनकाल में ही अशोक ने शासन का काफी अनुभव प्राप्त कर लिया था। वह अपने पिता के शासन काल में अवन्ति तथा तक्षशिला का प्रान्तपति था और तक्षशिला के विद्रोह को दबाकर वह अपनी प्रशासनिक एवं सैनिक योग्यता का प्रदर्शन कर चुका था। बिन्दुसार की एक अन्य रानी से ‘सुसीम” नामक पुत्र था। वह भी शासन के योग्य था तथा अशोक से बड़ा था। सुसीम इस प्रकार अशोक का सौतेला भाई था।

अशोक का सिंहासनारोहण-

अशोक को मगध का सिंहासन आसानी से नहीं मिल गया था। बिन्दुसार की ई०पूर्व 273 में मृत्यु हो जाने पर अशोक और सुसीम के दलों में संघर्ष हुआ। यद्यपि यह कहा जाता है कि अशोक ने अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या करके मगध का सिंहासन प्राप्त किया था लेकिन यह कथन सत्य प्रतीत नहीं होता। अशोक के अभिलेखों से प्रतीत होता है कि अशोक के राज्याभिषेक के बाद भी उसके कई भाई जीवित थे, परन्तु उसके सौतेले भाई सुसीम के साथ उसका संघर्ष अवश्य हुआ था। कहा जाता है कि बिन्दुसार अपने पुत्र सुसीम को अधिक चाहता था और उसी को अपने साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। सुसीम के साथ संघर्ष में अशोक विजयी हुआ और मगध के सिंहासन पर बैठा। डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी का मत है कि ”उत्तराधिकार का यह संघर्ष सचमुच हुआ, यह इससे सिद्ध हो जाता है कि अशोक के राज्यारोहण और राज्याभिषेक के बीच प्रायः 3-4 वर्षों का अन्तर है। अतः राज्याभिषेक की तिथि 269 अथवा 269 ई० पूर्व के लगभग रखी जा सकती है।”

  1. अशोक एक विजेता के रूप में

सिहासन पर बैठने के बाद ही अशोक ने अपने दादा चन्द्रगुप्त मौर्य तथा पिता बिन्दुसार की साम्राज्यवादी नीति को अपनाया। अपने साम्राज्य का प्रसार करने के लिए उसने मित्रता की नीति को भी अपनाया। अपने साम्राज्य के प्रसार के लिए अपने पड़ोसी देशों पर उसने आक्रमण किया। डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि “अपने शासन के प्रारम्भ में अशोक ने भारत के प्राचीन राजाओं के राजनीतिक आदर्श दिग्विजय को ही अपने सामने रखा और भारत के प्रान्त जो अभी मौर्य-साम्राज्य में सम्मिलित नहीं थे, उन पर आक्रमण किया।”

(1) अशोक की कश्मीर पर विजय- कल्हण की राजतरंगिणी नामक पुस्तक से ज्ञात होता है कि अशोक ने सबसे पहले कश्मीर पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिलाया। उसने वहाँ अनेक स्तूपों और चैत्यों का निर्माण करवाया। उसने श्रीनगर को बसाया। पुराने घेरों को तोड़कर पत्थर का एक नया घेरा वहाँ बनवाया। उसने उसके समीप ही दो मन्दिरों का निर्माण भी करवाया। इन मन्दिरों को अशोकेश्वर कहा जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य और बिन्दुसार के समय में कश्मीर मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित नहीं था।

(2) कलिंग पर विजय- मगध के सिंहासन पर बैठने के लगभग आठ वर्ष पश्चात् अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया और उस पर विजय प्राप्त की। कलिंग प्रदेश की उस समय समृद्धि और शक्ति बढ़ती जा रही थी। मौर्य सम्राट अशोक इसको मौर्य साम्राज्य के लिए घातक समझता था। डॉ० भण्डारकर का मत है कि अशोक ने अपने पिता बिन्दुसार की हार का बदला लेने के लिए कलिंग पर आक्रमण किया था। बिन्दुसार ने दक्षिण भारत के चोल तथा पाण्ड्य राज्यों पर आक्रमण किया, परन्तु कलिंग के राजा ने पीछे से बिन्दुसार पा आक्रमण कर दिया, जिससे बिन्दुसार की हार हो गई थी। इसके अतिरिक्त अशोक कलिंग पर अधिकार करके अपने साम्राज्य के एकीकरण को पूरा करना चाहता था। डॉ० भण्डारकर का कथन है कि “ऐसा प्रतीत होता है कि कलिंग अशोक के साम्राज्य रूपी शरीर में एक काँटा था। राज्य की सुरक्षा, दृढ़ता और एकीकरण के लिए कलिंग पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक था और ऐसा ही उसने किया। अशोक ने ई०पूर्व 261 में एक विशाल सेना लेकर कलिंग पर आक्रमण कर दिया। कलिंग की सेना बड़ी वीरता और साहस के साथ लड़ी, परन्तु अशोक की विशाल सेना के सामने नहीं ठहर सकी और हार कर भाग खड़ी हुई। सम्राट अशोक ने अपने एक प्रतिनिधि को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया। इस प्रकार कलिंग मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।”

कलिंग युद्ध का परिणाम- कलिंग भी एक शक्तिसम्पन्न राज्य था। अतः दोनों राज्यों में घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में कलिंग की हार हुई ही, परन्तु जनहानि की दृष्टि से यह दिल को हिलाने वाला युद्ध था। इस युद्ध में लगभग एक लाख सैनिक मारे गये और करीब डेढ़ लाख बन्दी बनाये गये। इस युद्ध में इतने निरीह व्यक्तियों की हत्या हुई तथा इतना रक्तपात हुआ कि अशोक का दिल स्वयं हिल गया। हाँ, इस युद्ध से मगध साम्राज्य की सीमाओं में अवश्य विस्तार हो गया। परन्तु युद्ध के दुष्परिणामों ने अशोक के हृदय को बदल दिया। इस भीषण नरसंहार में साधारण जनता के व्यक्ति भी बहुत बड़ी संख्या में मारे गये थे तथा इस भीषण रक्तपात के बाद ही कलिंग में भयानक महामारी फैल गई, जिसने असंख्य प्राणियों की जानें ले लीं। तभी अशोक ने दृढ़ निश्चय किया कि वह अब युद्ध नहीं करेगा। वह युद्ध के स्थान पर धर्म यात्रायें करेगा। उसने घोषणा की कि अब युद्धघोष के स्थान पर धर्म-घोष हुआ करेगा। वह सभी के प्रति मैत्री और सद्भावना के भाव रखेगा। उसने अपने पुत्र व पौत्रों को भी युद्ध न करने के आदेश दे दिये।

कलिंग के युद्ध का महत्त्व- कलिंग के युद्ध से भारतीय इतिहास में एक नया युग प्रारम्भ हुआ। इसने राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को ही बदल दिया। अब से शान्ति का, सद्भाव का, सामाजिक सुधार का, नैतिक उत्थान का, धार्मिक प्रसार एवं प्रचार का, आर्थिक समृद्धि का युग प्रारम्भ हुआ। युद्ध साम्राज्य विस्तार के लिए किए जाते थे। युद्धों के समाप्त हो जाने से साम्राज्य विस्तार रुक गया और युद्धों के लिए सैनिकों की आवश्यकता नहीं रह जाने से सैनिक शक्ति का ह्रास होना शुरू हो गया। अशोक ने पहली बार भारत में राजनीति में अहिंसा की नीति का अनुसरण किया। सम्राट अशोक ने , अपनी सारी शक्ति अपनी प्रजा की आर्थिक और आध्यात्मिक उन्नति में लगा दी। अशोक अपने युग का ही नहीं, सभी युगों का महान् सम्राट बन गया। अपने कार्यों से उसने केवल अपने व्यक्तित्व को ही ऊँचा नहीं उठाया बल्कि आने वाले युग का दृष्टिकोण ही बदल दिया। अशोक भारतीय नरेशों का शिरोमणि बन गया। डॉ० हेमचन्द्र राय चौधरी के शब्दों में, “कलिंग युद्ध ने अशोक के जीवन को एक नया मोड़ दिया और इसने भारत तथा सम्पूर्ण विश्व के इतिहास पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।” डॉ० एन० एन० घोष के लेखानुसार “अशोक ने अपनी तलवार को म्यान में रख लिया और धर्म चक्र ग्रहण कर लिया। इस क्रम में डा० हेमचन्द्र राय चौधरी ने आगे लिखा है कि कलिंग युद्ध के बाद ‘भेरि-घोष के स्थान को धर्म-घोष ग्रहण करेगा।”

अशोक का साम्राज्य विस्तार- डॉ. मिश्र के अनुसार, ”अशोक एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था, जिसकी सीमा उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान प्रदेश तक और पूर्व में बंगाल तक फैली हुई थी। सौराष्ट्र, कलिंग, कश्मीर और नेपाल तथा सुदूर दक्षिण को छोड़कर सम्पूर्ण दक्षिणी भारत उसके साम्राज्य में सम्मिलित था।” डॉ० राजबली पाण्डेय के अनुसार, “मौर्य साम्राज्य बिना किसी अन्तराल के हिन्दूकुश से बंगाल की खाड़ी तक और हिमालय से लेकर मैसूर तक फैल गया। सुदूर दक्षिण के राज्यों चोल, पाण्ड्य , केरल, सतियपुत्र, ताम्रपर्णी को अशोक ने अभयदान दे दिया था, किन्तु इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि वे अशोक के राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र के भीतर थे।” डॉ० आर० एस० त्रिपाठी का कथन है कि “अशोक का साम्राज्य उत्तर पश्चिम में हिन्दूकुश से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में चित्तलदुर्ग तक फैला हुआ था। इसमें पूर्व और पश्चिम के अन्तिम- समुद्रतटीय भूखण्ड-कलिंग और सौराष्ट्र भी शामिल थे।”

  1. अशोक एक कुशल शासक के रूप में

अशोक ने अपने पिता बिन्दुसार से ही काफी बड़ा साम्राज्य प्राप्त किया था और फिर वह स्वयं साम्राज्यवादी था एवं अपने साम्राज्य का अधिक विस्तार करना चाहता था। इतने बड़े साम्राज्य को एक कुशल प्रशासक एवं योग्य शासक ही सम्भाल सकता था। अशोक एक कुशल प्रशासक था। उसने कश्मीर को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था और कलिंग पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् उसे भी अपने साम्राज्य में मिला लिया, परन्तु कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को ही देखकर उसने युद्ध घोष के स्थान पर धर्म घोष की घोषणा की। सभी प्राजीन शासकों की तुलना में अशोक का साम्राज्य सबसे अधिक विस्तृत था। अशोक की प्रशासनिक योग्यता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

  1. अशोक का प्रशासन-व्यवस्था पर पूरा-पूरा ध्यान- यद्यपि कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने नैतिकता एवं धर्म प्रचार करना तथा अपनी प्रजा की नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करना अपना मुख्य कार्य बना लिया था, परन्तु अपने साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया।
  2. अशोक के राजनीतिक आदर्शों में आध्यात्मिक भावना एवं मानवता का दृष्टिकोण- अशोक की प्रशासनिक व्यवस्था चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था के अनुरूप थी परन्तु कलिंग युद्ध में हुए भीषण नरसंहार के पश्चात् अशोक के राजनीतिक आदर्शों में परिवर्तन आ गया था। उसने राजनीति में आध्यात्मिक भावना एवं मानवीय दृष्टिकोण को प्रधानता दी। प्रेम और सहानुभूति उसके प्रशासन का आधार हो गये।
  3. अशोक के सभी प्रशासनिक कार्य नियोजित- कलिंग के युद्ध के पश्चात् अशोक ने युद्ध विराम नीति को अपनाया। इससे साम्राज्य प्रशासन से उसका ध्यान हटकर प्रशासनिक नियोजन पर लग गया। सिंहासन पर बैठने से पहले ही सम्राट अशोक को प्रशासनिक अनुभव प्राप्त हो गया था। अवन्ति तथा तक्षशिला के प्रान्तपति के रूप में वह पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव प्राप्त कर चुका था। अतः उसे अपने साम्राज्य का प्रशासन सम्भालने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
  4. अशोक के प्रशासन में प्रजा हित-चिन्तन- अशोक ही नहीं, सभी मौर्य सम्राट् प्रजा हित को प्रमुखता देते थे। कलिंग युद्ध के पश्चात् तो अशोक ने प्रजा की सुख-समृद्धि पर पूरा ध्यान लगा दिया। प्रजा के हितों के बारे में सोचना तथा प्रजा के हितों के कार्यों को ही अशोक ने अपने शासन का आधार बनाया। अशोक अपनी प्रजा को अपने पुत्र के समान समझता था। कलिंग के द्वितीय शिलालेख में अशोक कहता है-”सभी मनुष्य मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार मैं चाहता हूँ कि मेरी सन्तान इस लोक तथा परलोक में सब प्रकार की सुख-समृद्धि भोगे, ठीक उसी प्रकार मैं अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ।” एक और शिलालेख में अशोक की इसी प्रकार की भावना व्यक्त होती है। जिस प्रकार मनुष्य अपनी सन्तान को अपनी चतुर धाय के हाथ में सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि वह उस बालक को शक्ति व सुख देने की चेष्टा करेगी, उसी प्रकार अपनी प्रजा के सुख तथा हित-चिन्तन के लिए मैंने ‘‘राजुक’ नामक कर्मचारी नियुक्त किये हैं।” उसने अपने राज्य के अधिकारियों को आदेश दे रखे थे कि वे प्रजा के लिए किसी कार्य की सूचना उसको तुरन्त दें, चाहे वह कहीं भी हो। अशोक ने अपने चौथे स्तम्भ लेख में कहा है, “मैने यह प्रबन्ध किया है कि हर समय और हर स्थान पर मुझे जनता की आवाज सुनने के लिए बुलाया जा सकता है। चाहे मैं भोजन कर रहा हूँ, चाहे अन्तःपुर में होऊँ, चाहे शयनागार में होऊँ, चाहे उद्यान में होऊँ, सर्वत्र मेरे प्रतिवेदक प्रजा के कार्यों की मुझे सूचना दें। जनता की सेवा के लिए मैं हर समय तैयार हूँ।”
  5. केन्द्रीय शासन- अशोक ने शासन सुविधा की दृष्टि से अपना शासन केन्द्रीय शासन, प्रान्तीय शासन और स्थानीय शासन में बाँट रखा था। अशोक के शासन का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था और सम्राट राज्य के सभी विभागों का सर्वोच्च अधिकारी था। अशोक स्वेच्छाचारी व निरंकुश न होकर जनहितकारी शासक था। उसको प्रशासन में सहायता देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् थी। उसकी मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को सभी मामलों में अपनी सलाह देने की स्वतन्त्रता थी, परन्तु उसकी मन्त्रिपरिषद् में दृढ़ चरित्र एवं उच्च नैतिक आदर्शों वाला व्यक्ति ही सदस्य बन सकता था। (तृतीय और षष्ठ शिलालेख)
  6. प्रान्तीय शासन- प्रान्तीय शासन का रूप भी अशोक ने पूर्ववत् रखा। अभिलेखों से विदित होता है कि अशोक का साम्राज्य चार भागों में विभक्त था।-(i) उत्तरापथ, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी, (ii) अवन्तिपथ, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, (iii) दक्षिणापथ, जिसकी राजधानी स्वर्णगिरि थी तथा (iv) कलिंग, जिसकी राजधानी तोषाली थी, (v) मध्य प्रदेश, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। प्रान्त के अध्यक्ष प्रान्तपति होते थे, जो सीधे सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे। साम्राज्य के इन प्रान्तों में राजकुमारों को ही प्रान्तपति नियुक्त किया जाता था। जब तक प्रमुख सामन्त भी प्रान्तीय शासक नियुक्त किये जाते थे, जैसा कि सौराष्ट्र की राजधानी गिरनार के लिए नियुक्त राजा तुषास्य यवन के प्रान्त से सिद्ध है। साधारणतया छोटे प्रांतों के शासक राजुक कहलाते थे, जिनका उल्लेख अभिलेखों में हुआ है और बड़े तथा विस्तृत भूखण्डों के शासक प्रादेशिक कहलाते थे।
  7. अशोक के प्रशासनिक अधिकारी- अशोक के अधिकांश प्रशासनिक अधिकारी वे ही थे, जिनका वर्णन कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। अशोक के प्रमुख अधिकारियों में अमात्य (सम्राट् का प्रमुख सहायक), महापात्र या ‘मुख’ (विभिन्न विभागों का अध्यक्ष), राजुक (प्रान्तीय स्तर के उच्च अधिकार प्राप्त उच्च अधिकारी), युक्त (राज्य की आय-व्यय देखने वाला अधिकारी), प्रादेशिक (जिलों के प्रमुख अधिकारी) आदि थे। अपने साम्राज्य में प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा रखने के लिए अशोक ने ‘धर्म महापात्र’ नाम के विशेष अधिकारी की नियुक्ति की थी। सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य में आन्तरिक शान्ति बनाये रखने के लिए पुलिस की ठीक व्यवस्था कर रखी थी। गुप्तचर उसको राज्य में प्रत्येक क्षण होने वाली घटना की जानकारी दिया करते थे।

3. अशोक एक मानव और सुधारक के रूप में

सम्राट अशोक एक विजेता एवं प्रशासक होने के साथ-साथ एक मानव का हृदय रखता था। वह हृदय से जनता का हित चाहता था। अशोक केवल आदर्शवादी ही नहीं था; वह अपने आदर्शों को व्यवहार में भी अपनाता था। अपनी प्रजा के जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा की समुचित व्यवस्था के साथ-साथ उसने अपनी प्रजा के नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए समुचित वातावरण उपस्थित किया। उसने स्वयं धर्म यात्राएँ की और अपनी प्रजा को धर्म यात्राओं के लिए प्रोत्साहन दिया। उसने अपनी प्रजा को सदैव अपनी सन्तान के रूप में ही देखा। कलिंग युद्ध के पश्चात् तो अशोक प्रेम, शान्ति, सहनशीलता तथा अहिंसा की प्रतिमूर्ति हो गया था। मानव एवं पशुओं तथा पक्षियों के दुःखों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठता था।

(i) अशोक के लोक-कल्याणकारी कार्य- अशोक ने जनहित के अनेक निर्माण कार्य किये। इस प्रकार के कार्य करने के लिए उसने प्रजा की सामान्य सुख-सुविधाओं का सदैव ध्यान रखा । यातायात और आवागमन को सुविधाजनक बनाने के लिए अशोक ने सड़कों का निर्माण करवाया तथा सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये। यात्रियों के ठहरने व विश्राम करने के लिए धर्मशालायें बनवाईं और पानी का प्रबन्ध करने के लिए कुएँ खुदवाए। पशुओं और मनुष्यों को निरोग रखने के लिए चिकित्सालय खुलवाये, जहाँ औषधियों का मुफ्त वितरण किया जाता था। कृषि की सिंचाई सुविधा के लिए तालाबों एवं नहरों का निर्माण करवाया। यही नहीं, अशोक ने हजारों स्तूपों, अनेक पाषाण स्तम्भों एवं भवनों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त चट्टानों, शिलाखण्डों एवं गुफाओं पर नैतिकतापूर्ण उपदेशों को खुदवाया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार राजा प्रजा का कर्जदार होता है, जिसको वह प्रजाहित के कार्य करके चुका सकता है।

(ii) पंचवर्षीय अथवा त्रिवर्षीय दौरों के विधान- तृतीय शिलालेख और प्रथम कलिंग शिलालेख के अनुसार, अशोक ने राजुकों और प्रादेशिकों से लेकर युक्तों तक के लिए पंचवर्षीय या त्रिवर्षीय दौरों के विधान किये जिससे ये अधिकारी अपने प्रदेश की प्रजा के सम्पर्क में आएँ और उनके दुःख दूर करें।

(iii) सार्वजनिक विषयों की जानकारी प्राप्त करना- छठवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने प्रतिवेदकों (सूचकों) को आज्ञा दी कि सारे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक विषय उसे सूचित करें। उसने यह विधान किया कि वे उसकी हर समय और हर स्थान पर, चाहे वह भोजन कर रहा हो; अथवा अन्तःपुर में हो; अथवा गर्भागार में हो; अथवा राजकीय पशुशाला या घोड़े की पीठ पर हो, चाहे वह उद्यान में ही क्यों न हो; उसे बराबर सूचना देते रहें।

(iv) दण्ड विधान में सुधार अशोक ने न्याय-विभाग में अनेक सुधार किये। उसने प्रचलित दण्ड-विधान की कठोरता को भी कम करने का प्रयास किया। चतुर्थ स्तम्भ लेख में आया है कि मृत्यु-दण्ड प्राप्त व्यक्तियों को मृत्यु-दण्ड से पहले तीन दिन का समय दिया जाता था ताकि वे अपने पापों के लिए प्रायश्चित कर सकें और अपने आगामी जीवन को सुधारने का प्रयत्न कर सकें। इसके अतिरिक्त पंचम स्तम्भ लेख में स्पष्ट लिखा है कि सम्राट् प्रतिवर्ष अपने राज्याभिषेक दिवस पर बन्दियों को मुक्त कर देता था। चतुर्थ स्तम्भ लेख के अनुसार, अशोक ने अपने राजुकों को पुरस्कार और दण्ड के प्रदान करने में स्वतंत्र कर दिया जिससे वे अपने कर्त्तव्य व कार्य विश्वास और निर्भीकतापूर्वक पूरा कर सकें। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे दण्ड और कानून में समता स्थापित रखें।

(4) अशोक एक सुधारक- अशोक ने अपने साम्राज्य से कुरीतियों को समाप्त करने के लिए, अनेक कार्य किये। अशोक ने एक आदेश निकाल कर मांस, मदिरा आदि के सेवन एवं बुरे कार्य करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अहिंसा का तो वह एक अवतार बन गया था। उसने यज्ञ में दी जाने वाली पशुबलि को भी बन्द करवा दिया। उसने अपने कर्मचारियों को आदेश दे रखे थे कि किसी निर्दोष को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचने दिया जाये। इस प्रकार उसके राज्य से अत्याचारी अधिकारियों का लोप हो गया। अशोक ने अपने प्रशासन तथा न्याय-व्यवस्था में सुधार तो किया ही, साथ ही जो भी सामाजिक कुरीति उसकी निगाह में आई, उसको समाप्त करने के आदेश भी तुरन्त दे दिये, अशोक ने मनोरंजन यात्रायें बन्द करवा दी और इनके स्थान पर धार्मिक उत्सवों को प्रचलित किया। उसने धार्मिक तथा सामाजिक आडम्बरों को समाप्त करके धर्म के वास्तविक रूप को जनता के सामने रखा। अशोक ने जन्म-मृत्यु, विवाह आदि अवसरों पर होने वाले निरर्थक अनुष्ठानों को बन्द कराने का आदेश दिया।

  1. धर्म विजेता के रूप में अशोक

अशोक अपनी प्रजा के न केवल वर्तमान जीवन को सुखी बनाना चाहता था, अपितु उसका परलोक भी सुधारना चाहता था। अशोक अपने धार्मिक आदर्शों तथा नैतिक कार्यों द्वारा समस्त मानव जाति का कल्याण करना चाहता था। उसके धर्म के सिद्धान्त इस प्रकार थे- बड़ों का सम्मान करना, छोटों के प्रति प्यार, अहिंसा, सत्य, दान, आत्म-परीक्षण, धर्म- मंगल, धार्मिक सहनशीलता आदि। उसने साम्राज्यवादी नीति का परित्याग कर दिया और अपनी प्रजा की नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी। अशोक ने जिस प्रकार उच्च नैतिक आदर्शों पर बल दिया, इस प्रकार का अन्य कोई सम्राट भारत के इतिहास में नहीं हुआ। डॉ० राजबली पाण्डेय लिखते हैं कि “संसार के इतिहास में बहुत-से दिग्विजयी राजा हुए हैं, जिन्होंने युद्ध करके संसार के बहुत बड़े भाग पर अधिकार प्राप्त किया, परन्तु अकेला अशोक ही ऐसा राजा है जिसने धर्म अर्थात् उच्च नैतिक सिद्धान्तों और लोक सेवा के द्वारा संसार पर विजय प्राप्त की।”

बौद्ध धर्म के प्रचारक के रूप में अशोक- कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार में अपना तन-मन-धन लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए निम्नलिखित उपाय किये-

(i) धर्म यात्रा- अशोक के पूर्ववर्ती शासक प्रायः विहार यात्रायें करते थे जिनमें शिकार आदि मनोरंजन होते थे, परन्तु अशोक ने इन विहार यात्राओं को बन्द करवा दिया और उनके स्थान पर धर्म यात्रायें प्रारम्भ की। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने महात्मा बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण स्थानों की यात्रायें की थीं। अशोक ने बौद्ध गया, लुम्बिनी, कपिलवस्तु, सारनाथ आदि स्थानों की यात्रा की। इस प्रकार अशोक के द्वारा की गई धार्मिक यात्राओं से हजारों लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होंगे।

(ii) अहिंसा के पालन पर बल देना- अशोक ने अहिंसा के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया। उसने पशुओं की लड़ाइयों तथा पशुओं की हिंसा पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उसने अनेक पशु-पक्षियों के वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उसने हिंसात्मक यज्ञों को बन्द करवा दिया । अशोक की पाकशाला में हजारों पशु-पक्षियों की हत्या की जाती थी, परन्तु बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के साथ ही उसने केवल तीन पशु-पक्षियों (दो मोर एवं एक हिरन) की हत्या का आदेश दिया और कालांतर में इनकी हत्या पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया।

(iii) धर्म महापात्रों की नियुक्ति- पंचम शिलालेख के अनुसार, अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म महामात्रों की नियुक्ति की। ये धर्म महामात्र प्रजा की नैतिक तथा भौतिक उन्नति के लिए अथक प्रयास करते थे तथा लोगों को बौद्ध धर्म की ओर भी आकर्षित करते थे। धर्म महामात्रों ने बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनका पद सर्वथा नवीन था और इनका कत्तव्य था विविध सम्प्रदायों का अर्थ साधन करना और उनमें दान-वितरण का प्रबन्ध करना। इसके अतिरिक्त इनका यह भी कर्त्तव्य था कि वे आय के आधार पर बन्दियों को मुक्त कराएँ अथवा उनके दण्ड को कम कराकर न्याय की कठोरता को सरल करें।

(iv) धर्म लिपि- अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों और उपदेशों को शिलाओं, स्तम्भों तथा गुफाओं पर अंकित करवाया जिससे कि जनसाधारण को धार्मिक सिद्धान्तों की जानकारी हो सके। इन शिलालेखों में लोगों को अहिंसा, दानशीलता, परोपकार, सेवा आदि गुण ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है।

(v) दिव्य रूपों का प्रदर्शन- अशोक ने लोगों में धार्मिक रुचि उत्पन्न करने के लिए धार्मिक दृश्यों के आयोजन का सहारा लिया। धर्मात्मा लोगों को स्वर्ग की ओर जाते हुए दिखाया जाता था। इन दृश्यों के आयोजन से भी लोगों में बौद्ध धर्म के प्रति रुचि उत्पन्न हुई।

(vi) विहारों तथा स्तूपों का निर्माण- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए विहारों तथा स्तूपों का निर्माण करवाया। ये विहार तथा स्तूप बौद्ध धर्म की शिक्षा तथा प्रचार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। अतः विहारों तथा स्तूपों के निर्माण के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का पर्याप्त विकास हुआ।

(vii) धर्मानुशासन- अशोक ने अपने धर्म के अनुशासन की लोगों को जानकारी देने के लिए उसे प्रकाशित करवाया और उसके प्रचार के लिए पदाधिकारी नियुक्त किये। उसने राजुकों, प्रादेशिकों और युक्तों को आदेश दिया कि वे प्रति पाँचवें वर्ष राज्य में दौरा किया करें और अपने दैनिक कार्यों के अतिरिक्त लोगों को धर्मोपदेश दिया करें।

(viii) पालि भाषा का प्रयोग- अशोक ने भी महात्मा बुद्ध की भाँति बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए पालि भाषा का सहारा लिया। उसने अभिलेखों एवं बौद्ध ग्रन्थों की रचना पालि भाषा में करवाई। इससे जनसाधारण को बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को समझने और उनका अनुसरण करने में सहायता मिली।

(ix) लोकहित के कार्य- अशोक ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किए। उसने सड़कों, कुओं, जलाशयों, धर्मशालाओं आदि का निर्माण करवाया और सड़कों के दोनों ओर बरगद वृक्ष लगवाये। उसने मनुष्यों तथा पशुओं की चिकित्सा के लिए अस्पताल खुलवाए। अशोक के इन लोकहित के कार्यों ने अप्रत्यक्ष रूप से बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया।

(x) बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति का आयोजन- बौद्ध धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर करने तथा इस धर्म को संगठित रूप प्रदान करने के लिए अशोक ने पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति का आयोजन किया। इस सभा की अध्यक्षता बौद्व आचार्य मोगल्लिपुत्ततिस्स ने की थी। इस सभा में आपसी मतभेदों को दूर कर बौद्ध धर्म को प्रभावशाली बनाने का निश्चय किया गया। इस सभा में विभिन्न राज्यों में धर्म प्रचार के लिए धर्म प्रचारक भेजने का निश्चय किया गया।

(xi) धर्म श्रावण- अशोक स्वयं भी समय-समय पर जनता को धर्म सन्देश देता रहता था। ये धर्म-श्रावण नाम से पुकारे जाते थे और इनके प्रभाव से भी बहुत से लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए। अशोक के अतिरिक्त अन्य बौद्ध विद्वानों के व्याख्यान और प्रवचन भी होते रहते थे।

(xii) धर्म प्रचारकों का संगठन- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचारकों को विदेशों और भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भेजा। उसने कश्मीर, गान्धार, हिमालय, पश्चिमी भारत, महाराष्ट्र, पश्चिमोत्तर प्रदेश आदि में धर्म प्रचारक भेजे। उसने लंका में अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म प्रचार के लिए भेजा जिनके प्रयलों से लंका के राजा तिष्य और उसकी प्रजा ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। डॉ० वी० ए० स्मिथ का कथन है कि “अशोक से पूर्व लगभग 250 वर्ष तक बौद्ध धर्म गंगा की घाटी तक ही सीमित रहा। इस स्थानीय धर्म को विश्व धर्म में परिवर्तित करना अशोक का ही कार्य था।”

डॉ० भण्डारकर का कथन है कि “बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक का महत्त्व इतना अधिक है कि बुद्ध के बाद उसी का नाम आता है। सैन्ट पाल ही वास्तव में ऐसा व्यक्ति है जिसकी तुलना अशोक से की जा सकती है।”

  1. काल का महान् संरक्षक अशोक

अशोक कला का एक महान संरक्षक था। उसके समय के कला के नमूने न केवल भारत के इतिहास में अपितु संसार के इतिहास में महत्त्वपूर्यण स्थान रखते हैं। अशोक से पूर्व कलाकृतियों में प्रायः ईंट तथा लकड़ी का प्रयोग किया जाता था, परन्तु अशोक के समय से इस क्षेत्र में पत्थर का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।

(i) भवन निर्माण कला-डॉ० वी०ए० स्मिथ के अनुसार, “अशोक के शासनकाल में कलाकृतियाँ निःसन्देह उत्तम कोटि तक पहुँच गई थीं।” अशोक ने कई नगरों, स्तूपों, विहारों, स्तम्भों, गुफाओं एवं भवनों का निर्माण करवाया। उसने श्रीनगर (कश्मीर) तथा ललित पाटन (नेपाल) नामक दो नये नगर बसाये, उसने पाटलिपुत्र में एक भव्य राजप्रासाद (महल) का निर्माण करवाया। फाह्यान ने इस महल की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि “नगर (पाटलिपुत्र) में अभी तक अशोक का राजमहल तथा सभाभवन है। ये सब असुरों के बनाये हुए हैं। उन पर ऐसी सुन्दर खुदाई और पच्चीकारी है जो इस संसार के मनुष्यों के लिए करनी असम्भव है।”

(ii) स्तूप तथा गुफाएँ- बौद्ध साहित्य के अनुसार अशोक ने 84 हजार स्तूप बनवाये थे। उसके स्तूपों में सांची, सारनाथ तथा भरहुत के स्तूप अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें सांचो का स्तूप प्राचीन भारतीय कला का श्रेष्ठ नमूना है। इसके अतिरिक्त अशोक की बाराबर तथा नागार्जुन की पहाड़ियों की गुफायें भी काफी प्रसिद्ध हैं। इन गुफाओं की दीवारों पर की गई पालिश आज भी शीशे की भांति चिकनी व चमकदार है।

(iii) पाषाण स्तम्भ- अशोक द्वारा निर्मित पाषाण-स्तम्भ भी मौर्यकालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इन पाषाण-स्तम्भों में सारनाथ का पाषाण स्तम्भ सबसे अधिक सुन्दर है। इस स्तम्भ के ऊपर शेर की मूर्तियाँ बनी हैं जो मूर्तिकला के श्रेष्ठ नमूने हैं। यह स्तम्भ विश्व की शिल्प कला के इतिहास में अद्वितीय माना जाता है। डॉ० वी०ए० स्मिथ का कथन है, “संसार के किसी भी देश में कला की इस सुन्दर कृति से बढ़कर अथवा इसके समान शिल्प कला का उदाहरण पाना कठिन होगा।’

  1. विश्व-शान्ति का अग्रदूत

अशोक ने मानव जाति को विश्व-शान्ति का सन्देश दिया। अशोक के विश्व-शान्ति के सन्देश को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

(i) युद्ध नीति का परित्याग- कलिंग की विजय के पश्चात् उसने युद्ध की नीति का परित्याग कर दिया और शान्ति की नीति को अपनाया। उसने धर्म-विजय के आदर्श को ग्रहण किया और सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के कार्य करना आरम्भ किया। यद्यपि अशोक अपने साम्राज्य की सीमा पर स्थित कुछ स्वतन्त्र राज्यों को सैन्य शक्ति के बल पर जीत सकता था, परन्तु उसने उन्हें अभयदान दे दिया। उसे मानवता का व्यर्थ में ही रक्त बहाने में तनिक भी आनन्द नहीं आता था।

(ii) वसुधैव कुटुम्बकम् की नीति का पालन- वह सम्पूर्ण विश्व को एक कुटुम्ब की भाँति समझता था और समस्त प्राणीमात्र की भलाई करना अपना परम कर्त्तव्य मानता था। अशोक ने लंका, बर्मा और यवन आदि राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इसके पश्चात् वहाँ धर्म के प्रचार के लिए भिक्षु भी भेजे। डॉ० आर० के० मुकर्जी का कथन है, “इस प्रकार अशोक के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित थे जिन्हें आज संसार को स्वीकार करने की आवश्यकता है। उसकी विश्वव्यापी भ्रातृत्व की भावना के मार्ग में वे बन्धन बाधा नहीं डाल सकते थे जो राष्ट्रों को एक-दूसरे से पृथक् कर देते हैं।”

अशोक का मूल्याँकन-

अशोक अपने समय तक के इतिहास में भारत में एक अद्वितीय साम्राय का शासक था। संसार के इतिहास में उसकी तुलना सिकन्दर, सीजर, नेपोलियन आदि से की जाती है। अशोक एक प्रबल विजेता, एक कुशल प्रशासक तथा एक सच्चा मानव व समाज-सुधारक ही नहीं वरन् वह एक महान धर्म प्रचारक भी था। बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद उसने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार केवल भारत में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी किया, यहाँ तक कि उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए विदेशों में भेजा। अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण उसकी धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित था। उसने बौद्ध धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों को भी सहानुभूति की दृष्टि से देखा। इस प्रकार अशोक एक बहुत ही उदार एवं मंगलकारी शासक, मानव हितैषी तथा समाज-सुधारक था।

स्मिथ महोदय ने अशोक को एक सफल शासक बताते हुए लिखा है, “यदि अशोक योग्य न होता, तो वह अपने विशाल साम्राज्य पर चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन न किये होता और ऐसा नाम न छोड़ गया होता, जो दो हजार वर्षों के व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी लोगों की स्मृति में अब भी ताजा बना है।” वस्तुतः अशोक एक धर्मपरायण, परोपकारी एवं लोक सेवी शासक था। मानवात के कल्याण के लिए उसने अपने तन, मन और धन को लगा दिया।

प्रसिद्ध इतिहासकार हरबर्ट जार्ज वेल्स ने उसके लिए ठीक ही लिखा है, “अशोक का नाम इतिहास के पृष्ठों में लिखे हुए हजारों सम्राटों तथा चक्रवर्ती राजाओं में अकेले तारे के समान चमकता है।”  डॉ० ओमप्रकाश लिखते हैं कि “एच० जी० वेल्स ने संसार के संक्षिप्त इतिहास में अशोक को संसार का सबसे बड़ा राजा कहा है। अशोक की महत्ता उन सिद्धान्तों के कारण है जिन पर उसने अपना शासन चलाया। उसकी महत्ता इस बात पर निर्भर है कि उसने महान् विजय के क्षण में युद्ध का मार्ग छोड़ कर शान्ति का मार्ग अपनाया। अशोक का उद्देश्य अपनी प्रजा की लौकिक और पारलौकिक उन्नति करना था, परन्तु उसके कल्याण कार्य भारत तक ही सीमित न थे, वे विभिन्न राष्ट्रों में फैले हुए थे। वह विश्व का कल्याण चाहता था। संसार के किसी अन्य देश में शायद ही ऐसा उच्च आदर्श वाला कोई राजा हुआ हो। कला के क्षेत्र में भी उसके समय में बहुत उन्नति हुई। इस प्रकार यह कहना अत्युक्ति न होगा कि अशोक संसार के चमकते हुए तारों में से एक सबसे चमकता हुआ तारा है जो आने वाली पीढ़ियों को सदा शान्ति का मार्ग दिखलाता रहेगा।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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