भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का परिचय | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रमुख रचनाएँ | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की निबंध शैली
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का परिचय | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रमुख रचनाएँ | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की निबंध शैली
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का परिचय-
युग प्रवर्तक भारतेन्दु आधुनिक हिन्दी साहित्य की ऐसी महान विभूति है जिन्होंने रीति के पंक में फंसी हिन्दी सरिता को आधुनिकता की नवीन भूमि पर प्रवाहित कर नव युग का प्रारम्भ किया। आधुनिक साहित्य की सभी विधाओं को भारतेन्दु ने समृद्ध किया और अपने युग के लेखकों, कवियों एंव नाकटकारों को लेखन कार्य में प्रोत्साहित किया। आपका जन्म सन् 1850 ई. में काशी में हुआ था। आपके पिता बाबू गोपाल चन्द्र गिरधर दास के उपनाम से काव्य रचना करने वाले एक श्रेष्ठ कवि के रूप में प्रतिष्ठित थे। भारतेन्दु ने पाँच वर्ष की अल्पायु में काव्य का सृजन करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया। इस तेजस्वी सारस्वत सपूत को पाँच वर्ष की आयु में अपनी माता तथा दस वर्ष की आयु में पिता की वात्सल्यमयी छाया में वंचित होना पड़ा। इस कारण शिक्षा न चल सकी और स्वाध्याय से ही हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, मराठी तथा गुजराती में विद्वता प्राप्त की।
आगे चलकर सौ से अधिक रचनाओं, अनेक स्वसम्पादित पत्रिकाएँ, खोली गयी संस्थाओं आदि के द्वारा साहित्य और समाज की भारतेन्दु ने अथक् सेवा की और इसी साहित्यिक सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। सन् 1884 ई. में पैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही माँ सरस्वती का पुत्र स्वर्गवासी हो गया।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रमुख रचनाएँ-
भारतेन्दु की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
- काव्य संग्रह- ‘भक्त – सर्वस्व’, ‘प्रेम सरोवरो’, ‘प्रेम तरंग’ ‘प्रेममालिका’, ‘वर्षा विनोद’, ‘प्रेम फुलवारी’ , ‘विनय प्रेम पचासा’ , ‘गीत गोविन्दानन्द’ , ‘वेणुगीति’ आदि प्रमुख हैं।
- नाटक- भारतेन्दु जी ने अनूदित और मौलिक मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की जिनकी सूची इस प्रकार है- 1. विद्या सुन्दर, 2. रत्नावली, 3. पाखण्ड विडम्बन, 4. धनंजय विजय, 5. कर्पूर मंजरी, 6. भारत जननी, 7. मुद्रा राक्षस, 8. दुर्लभ-बन्धु, 9. वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति, 10. सत्य हरिश्चन्द्र 11. श्री चन्द्रावली, 12. विषस्य विषमौषधम् 13. भारत दुर्दशा, 14. नील देवी, 15. अन्धेर नगरी, 16. सती प्रथा, 17. प्रेम जोगिनी।
- कथा साहित्य- मदालसो पाख्यान, शीलमती, हमीरहठ।
- पत्र पत्रिकाएँ- कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका आदि।
- निबन्ध-
(1) ऐतिहासिक निबन्ध- काश्मीर कुसुम, उदय पुरोदय, बादशाह दर्पण, महाराष्ट्र का इतिहास, बूंदी का राजवंश, कालचक्र आदि।
(2) गवेषणात्मक निबन्ध- रामायण का समय, अकबर और औरंगजेब, मणिकर्णिका तथा काशी आदि।
(3) चारित्रिक निबन्ध- सूरदास जी का जीवन चरित्र, महाकवि श्रीदेव का जीवन चरित्र, श्री राजाराम शास्त्री का जीवन चरित्र, लार्ड मेयो साहब का जीवन चरित्र, एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जग बीती, आदि।
(4) यात्रा सम्बन्धी निबन्ध- उदयपुर की यात्रा, सरयूपार की यात्रा, जनकपुर की यात्रा तथा वैद्धनाथ की यात्रा आदि।
(5) धार्मिक निबन्ध- वैष्णवता और भारतवर्ष, ईशष्ट तथा हिन्दी कुरान शरीफ आदि।
(6) साहित्यिक निबन्ध- दिल्ली दरबार दर्पण, भारतर्षोन्नति कैसे हो सकती है? संगीतकार, बलिया का व्याख्यान आदि।
(7) व्यंग्य तथा हास्य प्रधान निबन्ध- कंकड़ स्तोत्र, अंग्रेज स्तोत्र मदिरास्तवराज, स्त्री सेवा पद्धति, पाँचवे पैगम्बर, स्वर्ग में विचारसबा का अधिवेशन, लेवी प्राण लेवी, जाति विवेकनी सभा, सबै जात गोपाल की।
(8) आलोचना- ‘नाटक’ पुस्तक।
भारतेन्दु के निबन्धों की भाषा एवं शैली सम्बन्धी विशिष्टता
भाषा- भारतेन्दु ने भाषा के परिष्कार पर बल देते हुए उसके व्यावहारिक स्वरूप को प्रस्तुत किया। भारतेन्दु के समय दो प्रधान शैलियाँ उपस्थित थीं जिसके प्रवर्तक राजा शिव प्रसाद जी थे और दूसरी विशुद्ध हिन्दी की शैली थी जिसके समर्थक राजा लक्ष्मण सिंह और प्रवर्तक ईसाई गण थे। अभी तक यह निश्चय नहीं हो सका था कि किस शैली का अनुकरण कर उसका परिष्कार करना चाहिए। इस उलझन को सुलझाने का भार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर पड़ा। भारतेन्दु हिन्दु-मुस्लिम एकता के इतने भक्त नहीं थे। वे नहीं चाहते थे कि एकता की सीमा यहाँ तक बढ़ा दी जाय की हम अपनी हिन्दी भाषा का अस्तित्व ही मिटा दें। वे राजा शिव प्रसाद की उर्दूमय शैली को देखकर बड़े दुःखी रहते थे, अस्तु उनका विचार था कि ऐसी परिमार्जित और व्यवस्थित भाषा का निर्माण हो जो पठित समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। इस विचार से प्रेरित होकर भारतेन्दु जी इस कार्य के सम्पादन में आगे बढ़े और अंततोगत्वा उन्होंने भाषा को व्यवस्थित रूप दिया।
तत्कालीन भाषा का अध्ययन करके उन्होंने समझ लिया कि ऐसे मार्ग का अवलम्बन करना समीचीन होगा जो सब प्रकार के लेखकों के अनुकूल हो सके। उन्होंने समझा कि न तो उर्दु के तत्सम शब्दों से भरी उर्दू वाक्य रचना प्रणाली से पूर्ण शैली ही हो सकती है और न संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी पूरी प्रणाली ही सर्वत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। अतः इन दोनों प्रणालियों का मध्यम रूप ही इस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त होगा। अतः उन्होंने इन दोनों शैलियों का सम्यक् संस्कार एक अभूत रचना प्रणाली का स्वरूप स्थिर किया जिसमें दोनों का सामंजस्य हो सके। इन माध्यम मार्ग के सिद्धान्त का व्यावहारिक प्रयोग उन्होंने अपनी सभी रचनाओं में रखा है। इस मध्यम मार्ग के अवलम्बन का फल यह हुआ कि भारतेन्दु की साधारणतः सभी रचनाओं में अरबी फारसी के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। पर वे ही जो व्यवहार में निरन्तर प्रवेश कर चुके थे। ऐसे शब्द व्यवहार के क्षेत्र में जहाँ कुछ विकृत रूप में पाये गये वहाँ उसी रूप में स्वीकार किये गये। राजा शिव प्रसाद की भांति तत्सम शब्द रूप में नहीं। ‘कफन’, ‘कलेजा’, ‘जाफत’, ‘खजाना’, ‘जवाब’, इत्यादि के नीचे नुकते का न लगाना ही इस कथन का प्रमाण है। ‘जंगल’, ‘मुर्दा’, ‘मालूम’, ‘हाल’ ऐसे चलते शब्दों का उन्होंने बराबर प्रयोग किया। दूसरी ओर संस्कृत के तद्भव रूपों का भी बड़ी सुन्दरता से व्यवहार किया गया है। उनके प्रयुक्त शब्द इतने चलते हैं कि आज भी हम लोग अपनी नित्य की भाषा में उनका प्रयोग करते
लोकोक्तियों एंव मुहावरों का प्रयोग- लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में शक्ति और दीप्ति उत्पन्न होती है। इसका ध्यान भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने निबन्धों में बराबर रखा है क्योंकि इनकी उपयोगिता उनसे छिपी न थी। इतना प्रयोग इतनी मात्रा में हुआ है कि कथन शैली में चमत्कार और बल आ गया है। ‘गूंगे का गुड़’ ‘मुंह देखकर जीना’ ‘वैसी की छाती ठण्डी होना, ‘अन्धे की लकड़ी’, ‘कान न दिया जाना’, ‘झख मारना’ इत्यादि अनेक मुहावरों का प्रयोग स्थान-स्थान पर बड़ी सरलता से किया गया। यही कारण है कि उनकी भाषा भावाभिव्यंजन में इतनी समर्थ और सजीव दिखायी देती है कि मुहावरे के प्रयोग में कहीं भी वैसी अभद्रता नहीं आने पायी है जैसा कि उस समय पण्डित प्रतापनारायण मिश्र की भाषा में कभी-कभी मिलती थी। इमें जहाँ लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग हुआ है वहाँ शिष्ट और परिमार्जित रूप में। इस प्रकार भारतेन्दु की भाषा शैली में नागरिकता का झलक सर्वत्र दिखायी पड़ती है।
शैली के विविध रूप – (1) विचारात्मक शैली- भारतेन्दु जी की मुख्यतः विवेचनात्मक और व्यंग्यात्मक शैली है किन्तु उन्होंने विचारत्मक शैली का प्रयोग किया है। भाव गाम्भीर्य के साथ- साथ भाषा गाम्भीर्य का आ जाना नितान्त स्वाभाविक है। जब किसी मननशील विषय पर उन्हें लिखने की आवश्यकता पड़ी जिसमें सम्यक् विवेचना अपेक्षित था तब उनकी भाषा भी गंभीर हो गयी। ऐसी अवस्था में यदि भाषा की सरसता जाती रहे और उसमें शब्द निरूपण की नीरसता आ जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इस प्रकार की शैली का प्रमाण हमें उनके लेख से मिलता है जो उन्होंने ‘नाटक रचना-प्रणाली’ में लिखा है। उसका थोड़ा सा अंश इस प्रकार है-
“प्राचीन समय में संस्कृत भाषा में महाभारत आदि का कोई प्रख्यात वृतान्त अथवा कवि- प्रौढोक्ति। संभूत, किंवालोकाचार संघटित, कोई कल्पित आख्यायिका अवलम्बन करके नाटक, प्रभूति दर्शावधि रूपक और नाटिका प्रभूति अष्टादश प्रकार उपरूपक लिपिबद्ध होकर सहृदय सभासद लोगों को तात्कालिक रुचि के अनुसार , उक्त नाटक-नाटिका प्रभूति दृश्यकाव्य किसी राजा की अथवा राजकीय उच्चपदाभिषिक्त लोगों की नाट्यशाला में अभिनीत होते थे।”
प्राचीन काल के अभिनयादि के सम्बन्ध में तात्कालिक कवि लोगों की ओर दर्शक मण्डली की जिस प्रकार रुचि थी, वे लोग तद्नुसार ही नाटकादि काव्य रचना करके सामाजिक लोगों का चित्तविनोदन कर गये हैं। किन्तु वर्तमान समय में इस काल के कवि तथा सामाजिक लोगों की रुचि उस काल की अपेक्षा अनेकांश में विलक्षण है। इससे सम्पत्ति प्राचीन मत अवलम्बन करके नाटक आदि दृश्यकाव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं बोध होता। (इण्डियन प्रेस द्वारा प्रकाशित भारतेन्दु नाटकावली का प्रथम संस्करण पृ. 797-798)
इस निबन्ध की भाषा में समासान्त पदावली के साथ तत्सम शब्द प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं। काव्य रचना की जटिलता से आपूरित है।
(2) आवेग शैली- भारतेन्दु ने आवेग शैली को अपने निबन्धों में अपनाया है। ये आवेग या भावावेश दो प्रकार से उनके निबन्धों में दृष्टिगोचर होते हैं। एक में भावावेश की मात्रा कुछ अधिक तथा द्वीतीय में अपेक्षाकृत कम रहती है। भावाभिव्यंजना की पद्धति बड़ी परिष्कृत, प्रवाहयुक्त एवं व्यावहारिक है। सर्वत्र वाक्य विन्यास सीधा, सरल और स्पष्ट दिखलायी देती है। उर्दुपन कहीं खोजने को भी नहीं मिलेगा। संस्कृत तत्समता के साथ व्यावहारिक एवं तद्भव शब्दों का सुन्दर उपयोग सर्वत्र मिलेगा। प्रथम प्रकार की आवेग शैली में वाक्यों का विस्तार अत्यन्त लघु रहता है। एक के उपरान्त दूसरा और दूसरे के बाद तीसरे वाक्य का प्रवृत्त तथा सुसम्बद्ध संघटन रहता है। क्रोध इत्यादि के आवेग में जैसे मनुष्य एक साथ ही एक झोंक में सब बातें कह डालना चाहता है और बिना सम्पूर्ण बातें कहे बिना रुकना नहीं चाहता वही रूप इस पद्धति में भी दिखायी देता है। एक ही बात और एक ही भाव को अनेक शब्दों में और वाक्यों अनेक प्रकार से कहना चाहता है, फिर भी उसे संतोष प्राप्त नहीं होता। अत्यन्त आवेश में कहते समय एक प्रकार का उद्वेग होता है जिसका प्रभाव शब्दों एवं वाक्यों के विस्तार और रचनाक्रम पर अवश्य पड़ता है। ऐसे अवसरों पर विस्तृत भाव को घनीभूत करके थोड़े से थोडे शब्दों में कहने की प्रवृत्ति के कारण मुहावरों और कहावतों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। जैसे – “मैं अपने इन मनोरथों को किसकों सुनाऊँ और अपनी उमंगें कैसे निकालूँ। प्यारे रात छोटी है और स्वांग बहुत है। जीना थोड़ा और उत्साह बड़ा। हाय! मुझ सी मोह में डूबी को कहीं ठिकाना नहीं। रात-दिन रोते बीतते हैं। कोई बात पूछने वाला नहीं, क्योंकि संसार में जो कोई नहीं देखता सब ऊपर की बात देखते हैं। हाय, मैं तो अपने पराये सबसे बुरी बनकर वकाम हो गयी …..तुमने विश्वासघात किया। प्यारे! तुम्हारे निर्दयीपन की कहानी चलेगी?”
“आज बड़ा दिन है। क्रिस्तान लोगों का इससे बढ़कर कोई आनन्द का दिन नहीं है। लेकिन मुझकों आज और दुःख है। इसका कारण मनुष्य-स्वभाव-सुलभ ईर्ष्या भाव है। मैं कोई सिद्ध नहीं कि राग द्वेष से विहीन हूँ। जब मुझे रमणी लोग भेद सिंचित केश-राशि, कृत्रिम कुन्तलजूट, मिथ्यारत्नाभरण और विविध वर्ण वसन से भूषित, क्षीण, कटिवेश करो निज-निज पतिगण के साथ प्रसन्न वदन इधर से उधर फिर कर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखायी पड़ती है तब इस देश की सीधी सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होती है। इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांग युवती समूह की भाँति हमारी कुल-लक्ष्मीगण भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमे किन्तु और बातों में जिस भाँति अंग्रेज स्त्रियाँ सावधान होती हैं, पढ़ी लिखी होती हैं, ‘घर का कामकाज संभालती हैं’ अपने सन्तानगण को शिक्षा देती हैं और इतने समुन्नत मनुष्य जीवन को व्यर्थ गृहदास्य और कलह ही में नहीं खोतीं, उसी भाँति हमारी गृह देवियाँ भी वर्तमान हीनावस्था का उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें यही लालसा है।” – भारतेन्दु नाटकावली प्रथम संस्करण पृ. 67
हरिद्वार के आसपास की प्राकृतिक सुषमा में भी इसी प्रकार भावावेश शैली का प्रयोग भारतेन्दु ने किया है- “हरिद्वार ने आसपास की प्राकृतिक सुषमा में इसी प्रकार भावावेश शैली का प्रयोग भारतेन्दु ने किया है, “मुझे हरिद्वार का शेष समाचार लिखने में बड़ा आनन्द होता है कि मैं उस पुण्य भूमि का वर्णन करता हूँ जहाँ प्रवेश करने से मन शुद्ध हो जाता है। यह भूमि तीन ओर सुन्दर हो हरे-भरे पर्वतों से घिरी है, जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की बल्ली हरी-भरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भांति फैलकर लहलहा रही है और बड़े-बड़े वृक्ष भी ऐसे खड़े हैं मानो एक पैर से खड़े तपस्या करते हैं और साधुओं की भाँति घास, ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं। – हरिद्वार निबन्ध से उद्धृत अंश
(3) वर्णनात्मक शैली- भारतेन्दु एंव उनके समकालीन निबन्धकारों ने अधिकतर अपने निबन्धों में वर्णनात्मक शैली का ही प्रयोग किया है। जब भारतेन्दु अपने यात्रा सम्बन्धी निबन्धों में प्रसंग, स्थान एवं घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन करते हैं तो इसी वर्णनात्मक शैली का आश्रय लेते हैं।
(4) व्यंग्यात्मक शैली- हास्य और व्यंग्य भारतेन्दु जी की निबन्ध शैली का एक अनिवार्य तत्व है। इनके ऐसे कई निबन्ध हैं जिनकी रचना मूलतः हास्य और व्यंग्य के उद्देश्य से की गयी है। इनमें अंग्रेज स्तोत्र, कंकड़ स्तोत्र, लेवी प्राण लेवी, सबै जात गोपाल की जाति विवेकनी सभा, एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न विशेष उल्लेखनीय है। उपर्युक्त निबन्धों के अध्ययन से यही ज्ञात होता है कि उनमें शुद्ध हास्य तो कम है और व्यंग्य का तीखापन अधिक है। कंकड़ स्तोत्र निबन्ध में विशुद्ध हास्य के दर्शन होते हैं। यथा- “कंकड़ देव को प्रणाम है। देव नहीं महादेव क्योकि काशी के कंकड़ शिवशंकर के समान हैं। हे कंकड़ समूह! आजकल आप नयी सड़क से दुर्गा जी तक बराबर छाये हो, इससे काशीखण्ड ‘तिले तिले’ सत्त हो गया, अतएव तुम्हें प्रणाम है। हे लीलाकारिन! आप केशी, शकट , वृषभ, खरादि के नायक हो, इससे मानो पूर्वार्द्ध की कथा हो अतएव प्यासो की जीविका हो। आप सिर समूह भञ्जन हो क्योंकि कीचड़ में लोग आप पर मुहँ के बल गिरते हैं।……….. हे प्रबल वेग अवरोधक? गरुड़ की गति आप रोक सकते हो और की कौन कहे, इससे आपको प्रणाम है।” – ककड़ स्तोत्र निबन्ध से
उपर्युक्त पंक्तियों में भारतेन्दु जी न काशी की म्युनिसपल्टि की दुर्व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वहाँ की सड़कों की बुरी स्थिति की ओर संकेत किया है।
इसी प्रकार एक अन्य स्थल पर भी इसी व्यंग्यात्मक शैली का स्वरूप देखा जा सकता है-“ये लुप्त लोचन ज्योतिषाभारण बड़े उदण्ड पंण्डित हैं। ज्योतिष विद्या में अतिकुशल हैं। कुछ नवीन तारे भी गगन में जाकर ढूंढ आये हैं और कितने ही नवीन ग्रन्थों की रचना कर डाली है। उनमें से ‘तामिस्रम करालय’ प्रसिद्ध और प्रंशसनीय है। यद्धपि इनकों विशेष दृष्टि नहीं आता, परन्तु तारे इनकी आंखों में भली-भाँति बैठ गये हैं।”
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