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भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण | भाषा का शब्द रचना की दृष्टि से वर्गीकरण

भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण | भाषा का शब्द रचना की दृष्टि से वर्गीकरण

भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण

भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण के अन्य नाम रूपात्मक, रचनात्मक, व्याकरणिक, वाक्यात्मक, वाक्यमूलक, रूपाश्रित, पदात्मक, पदाश्रित आदि भी हैं। इस वर्गीकरण का आधार सम्बन्ध तत्व या पद रचना की शैली है। पद-रचना तथा सम्बन्ध तत्व समानता का दिग्दर्शन करने के पश्चात् ही रूपात्मक वर्गीकरण का श्रीगणेश किया जाता है। अतः आकृतिमूलक वर्गीकरण के  प्राण ये दोनों तत्व हैं जिनमें आकृति या रूप को समता पर विशेष बल दिया जाता है। इस अर्थ तत्व और सम्बन्ध तत्व के साम्य पर ही इइस वर्गीकरण की भित्त आधारित है। शब्दों की रूप-रचना कालान्तर में परिवर्तित हो जाती है परन्तु उसमें पद (रूप) साम्य की झलक स्पष्ट दृष्टिगत हो जाती है। डॉक्टर मोलानाथ तिवारी के मतानुसार, “वाक्य-विज्ञान और रूप विज्ञान, या वाक्य रचना एवं (रूप या) पद रचना पर ही यह वर्गीकरण आधारित है।

आकृति या रूप को दृष्टि से संसार को प्रमुखतः दो वर्गों में विभाजित की जा सकती हैं-

(क) अयोगात्मक या निरवयव भाषाएँ (Isolating) (ख) योगात्मक या सावयव भाषाएँ (Agglutinating) ।

(क) अयोगात्मक भाषाएं

अयोगात्मक भाषाओं को निरवयव भाषाएँ भी कहते हैं। यहाँ ‘अयोग’ का अर्थ यह है कि शब्दों में उपसर्ग या प्रत्यय जोड़कर रूप-रचना नहीं की जाती है अपितु इस पद्धति में  प्रत्येक शब्द को अपनी स्वतन्त्र सत्ता वर्तमान रहती है, इसमें दूसरे शब्दों के कारण विकार या परिवर्तन नहीं होता है। शब्द की पृथक-पृथक शक्ति के द्वारा ही अर्थ में भी परिवर्तन हो जाता है। इसलिए इन भाषाओं को ‘स्थान प्रधान’ भी कहते हैं। इस वर्ग की सर्वप्रधान तथा प्रतिनिधि भाषा चीनी है। उद्देश्य और विधेय आदि का सम्बन्ध ज्ञान स्थान या स्वर परिवर्तन के द्वारा स्पष्ट किया जाता है। काल रचना या कारक रचना के सम्बन्ध कोई व्याकरण की तरह नियम नहीं है। एक ही शब्द स्थान, भेद तथा वाक्य के प्रयोग के आधार पर संज्ञा, विशेषण, क्रिया तथा क्रियाविशेषण आदि शब्द में बिना किसी परिवर्तन के हो सकता है। जैसे चीनी शब्द में-

(1) ‘ता लेन’ = बड़ा आदमी।

‘लेन ता’ = आदमी बड़ा (है)।

(2) नो त नि’ = में मारता हूँ तुम्हें ।

‘नि त गो’ = तुम मारते हो मुझे।

उपर्युक्त उदाहरण में स्थान भेद से अर्थ में परिवर्तन उपस्थित हो गया  है। स्वर भेद से एक हो अक्षर ‘ब’ का अर्थ ‘ब’ ब ब ब’ वाक्य में तीन महिलाओं ने राजा के कृपा पात्र के कान उमेठे हो गया है। चौनी के अतिरिक्त अफ्रीका की सूडानी, तिब्बती, बर्मी, अनामी, स्यामी तथा मलय आदि भाषाएँ अधिकांशतः इसी वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। डॉ० श्यामसुन्दर ने इसको व्यास प्रधान कहा है। इन भाषाओं के अन्य नाम एकाक्षर, एकाच, धातु प्रधान, निरिन्द्रिय, निरयोग तथा निरपात प्रधान भी हैं।

(ख) योगात्मक भाषाएँ

योगात्मक या सावयव (Organic) भाषाओं में अर्थ-तत्व तथा सम्बन्धतत्व का योग रहता है। इसमें शब्दों का स्वतन्त्र होअस्तित्व नहीं है। वे प्रत्यय, विभक्ति आदि से संयुक्त होकर वाक्य में प्रयुक्त होते हैं। संसार की अधिकांश भाषाएँ योगात्मक हैं, योग के प्रकृति के अनुसार इन भाषाओं के निम्नलिखित विभाग किये जा सकते हैं-

(क) प्रश्लिष्ट योगात्म (Incorporating)

इस विभाग की भाषाओं में सम्बन्ध-तत्व तथा अर्थ-तत्व को अलग नहीं किया जा सकता। जैसे संस्कृत ‘ऋजु’ से आर्तव’ ‘या’ ‘शिशु’ से शैशव में अर्थतत्व तथा सम्बन्ध तत्व का अभेद हो गया है। इनको समास-प्रधान भाषाएँ भी कहते हैं, क्योंकि इनमें अनेक अर्थ-तत्वों का समाज की प्रक्रिया से योग हो सकता है, जैसे राजपुत्र गण विजयः। इनके भी दो भेद किये गए हैं- पूर्ण प्रश्लिष्ट और आंशिक प्रश्लिष्ट।

पूर्ण प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं (Completely Incorporative) में सम्बन्ध-तत्व तथा अर्थ-तत्व का योग इतना पूर्ण ररहता है कि शब्दों क संयोग से बना हुआ एक लम्बा-सा शब्द ही पूरा वाक्य बन जाता है। ग्रीनलैण्डं तथा दक्षिणी अमेरिका की चेरी की भाषा इसी प्रकार की है। चेरी की भाषा में-नातेन = लाओ, अमोखोल = नाव, निन = हम के संयोग से ‘नाधोलिनिन’ शब्द बन गया जिसका अर्थ ‘हमारे पास नाव लाओ’ है। इस प्रकार मीनलैण्ड की भाषा में ‘अउलिसरिआतोरसु अपोंक’ (वह मछली मारने के लिए जल्दी जाता है) अउलिसर (मछली मारना), पेअर्तोर (किसी काम में लगना), पिन्नेसुअर्पोक (वह शीघ्रता करता है) से मिलकर बना है।

आंशिक प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं (Partly Incorporative) में सर्वनाम तथा क्रिया के मेल में क्रिया लुप्त होकर सर्वनाम का पूरक बन जाती है।

वास्क भाषा में

दकार कि ओत = में इसे उनके पास ले जाता हूँ।

नकारसु = तू मुझे ले जाता है।

हकारत = मैं तुझे ले जाता हूँ।

भारतीय भाषाओं में भी उदाहरण द्रष्टव्य है-

गुजराती में- ‘में कहा ‘जे’ का ‘मकुंजै’ (मैंने वह कहा)।

(ख) श्लिष्ट योगात्मक (Inflecting)

विभक्ति प्रधान, संस्कार प्रधान, विकृति प्रधान (Inflexional) भी इसी के नाम हैं। इन भाषाओं में सम्बन्ध तत्व के योग से अर्थ-तत्व कुछ विकृत हो जाता है फिर भी सम्बन्ध-तत्व को झलुक अलग ही मालूम पड़ती है। जैसे संस्कृत में वेद, नीति, इतिहास तथा भूगोल के ‘इक’ प्रत्यान्त वैदिक, नैतिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक आदि। प्रत्यय के परिणामतः वेद आदि शब्द में भी विकार आ गया है। इसमें कारक, बचन आदि का सम्बन्ध विभक्ति द्वारा हो जाता है। इस वर्ग की भाषाएँ संसार में सर्वोन्नत है। सामो, हामी और भारोपीय परिवार इसी विभाग में आते हैं।

श्लिष्ट भाषाओं के भी दो उप-विभाग हैं- (1) अन्तर्मुखी तथा (2) बहिर्मुखी।

अन्तर्मुखी श्लिष्ट (Internal Inflectional) भाषाओं में जोड़े हुए भाग अर्थ-तत्व के बीच में घुल-मिलकर रहते हैं। अरबी भाषा में सम्बन्ध तत्व स्वर होता है जो व्यंजनों के साथ घुल-मिलकर रहता है। कृ-तू-व (लिखना) से अन्तर्मुखी विभक्तियाँ लगाकर किताब, कातिब (लिखने वाला), कुतुब (बहुत सी किताबें), मकतब शब्द बनते हैं। इसी प्रकार कृ-तू-ल (मारना) से कतल (खून) कातिल (मारने वाला), कित्ल (शत्रु) यकतुलु (वह मारता है) है। क्-त्-ब् या कृत्ल् में विभिन्न स्वरों के समावेश से अर्थ परिवर्तित हो गया है।

आगे इस अन्तर्मुखी के दो भेद हैं-

(1) संयोगात्मक (Synthetic)-अरबी आदि सेमेटिक भाषाओं का प्राचीन रूप संयोगात्मक था। शब्दों में अलग से सहायक सम्बन्ध तत्व लगाने की आवश्यकता न थी।

(ग) वियोगात्मक (Analytic)- अब संयोगात्मक भाषाओं का रूप वियोगात्मक हो रहा है। सहायक शब्दों को सम्बन्ध को दिखने के लिए आवश्यकता पड़ती है। हिब्रू भाषा में यह स्पष्ट रूप दिखाई देता है।

बहिर्मुखी श्लिष्ट (Internal Inflectional)- भाषाओं में विभक्ति तथा प्रत्यय भूल भाग (अर्थ + तत्व) के बाद आते हैं। जैसे संसकृत में गम् धातु से ‘गच्छ + अ + अन्ति = गच्छन्ति’ । भारोपीय परिवार की भाषाएँ इसी वर्ग में आती हैं। इसके भी दो भेद हैं-

(1) संयोगात्मक- इसमें सम्बन्ध तत्व मूलरूप में विद्यमान रहता है। भारोपीय परिवार की मौक, लैटिन, संस्कृत, अवेस्ता आदि प्राचीन भाषाएँ संयोग रूप में थीं। लियूआनियन आज भी संयोगात्मक है।

(घ) वियोगात्मक- आधुनिक भारोपीय भाषाएँ वियोगात्मक हो गई हैं। अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला इसी प्रकार की हैं।

अश्लिष्ट योगात्मक अथवा प्रत्यय प्रधान भाषाएँ (Agglutinative)-  इनमें सम्बन्ध-तत्व तथा अर्थ-तत्व की पृथक् सत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सभ्यता, महत्व में प्रत्यय स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके अवान्तर विभाग निम्न हैं-

(क) पूर्व-योगात्मक या पुर: प्रत्यय प्रधान (Prefix Agglutinative)- इन भाषाओं में सम्बन्ध-तुत्व आरम्भ में लगता है। इसका प्रायः उपसर्ग के रूप में प्रयोग होता है। बाटू (अफ्रीका) इसी कोटि में आती है। जूलू भाषा में-

उम् = एक वचन का चिन्ह, अब

बहुवचन का चिन्ह न्त = आदमी

इनके योग से बने शब्द- उमुन्तु = एक आदमी, अवन्तु  = एक  आदमी।

नाउमुन्तु = आदमी में, नाअबन्तु = आदमियों से।

इसी प्रकार काफिर भाषा में- कुति = हमको, कुनि = उनको शब्द बनता है।

(ख) मध्य योगात्मक या अन्तःप्रत्ययप्रधान (Inflix Agglutinative)- इन भाषाओं में सम्बन्ध-तत्व मध्य में जुड़ता है। मुण्डा वंश की संथाली भाषा में-

मंझि = मुखिया, प-बहुवचन का चिन्ह

इनके योग से मपंझि बन गया है। ‘प’ का योग मध्य में है।

तुर्की तथा बन्टू में भी कुछ रूप उपलब्ध होते हैं। तुर्की में-

सेवमेक = प्यार करना

सेव- इलमेक = प्यार किया जाना।

सेव इनमेक = अपने को प्यार करना।

(ग) अन्त योगात्मक एवं परप्रत्यय प्रधान (suffix Agglutinative) – इन भाषाओं में प्रत्यय का योग अन्त में रहता है। यूराल अल्टाइक तथा द्रविड़ कुल की भाषाएँ इसी श्रेणी की हैं। उदाहरण-तुर्की में एक घर

एवलेर = कई घर, एवलेर इम =  मेरे घर ।

कन्नड़ में अनेक रूप इसी प्रकार के मिलते हैं।

(घ) पूर्वान्त योगात्मक- अर्थ तत्व में प्रत्यय का पहिले और बाद में भी होता है-यथा न्युगिनी की मकोस भाषा में म्नफ = सुनना।

जम्नफ = मैं सुनता हूँ।

ज-म्नफ-उ = मैं तेरी बात सुनता हूँ।

(ङ) ईषत प्रत्यय प्रधान (Partially Agglutinative)-  ये भाषाएं योगात्मक तथा अयोगात्मक के मध्य की भाषाएँ हैं। हौसा, बास्क, जापानी, न्यूजीलैण्ड एवं हवाई द्वीप की भाषाएं इसी वर्ग को हैं। मलायन भाषाएँ सर्व योगात्मक तथा सर्वप्रत्यय प्रधान हैं।

इस वर्गीकरण की उपयोगिता-

आधुनिक काल में भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में अधिक अनुसंधान हो जाने पर आकृति-मूलक वर्गीकरण का महत्व कम हो गया है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से इस विभाजन की उपयोगिता अधिक नहीं हो सकी है। भाषा वाक्य-गठन, रचना और शैली के अध्ययन में इससे सहायता मिल सकती है। परन्तु भाषा के बाह्य रूप के आधार पर यह वर्गीकरण भाषा के युक्तियुक्त स्वरूप का निर्णय नहीं कर सकता। भाषा का स्वभावगत गुण परिवर्तनशीलता है। बाह्य प्रभावों के कारण भाषा के रूपों में परिवर्तन होते रहे हैं। एक ही शब्द के अनेक स्थानों पर विभिन्न स्वरूप मिलते हैं। परिणामस्वरूप इससे अनेक भाषाएँ एक वर्ग में आ जाती है जिनका कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है। विभक्ति प्रधान वर्ग को छोड़कर अन्य वर्गों में अनेक असम्बद्ध भाषाएँ संग्रहीत हैं। जैसे द्रविड और यूराल अल्टाई परिवार की भाषाओं में ऐतिहासिक साम्य न होते हुए भी इनको रूप-साम्य के आधार पर एक ही वर्ग में रखा जो वैज्ञानिक नहीं है। परन्तु इतना निश्चय है कि आकृतिमूलक वर्गीकरण भाषा के विकास-क्रम को समझने में सहायक है। भाषा के चक्र और उसकी गति के बोधार्थ इसका योग महान् है। संयोग से वियोग और आयोग से योग सम्बन्धी विकास का ज्ञान इस वर्गीकरण से यथेष्ट मिल जाता है। समास प्रधान अमेरिकी बोलियाँ आदिम मानव की भाषा की द्योतक हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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