शिक्षाशास्त्र / Education

आदर्श शिक्षक के रूप में सर्वपल्ली राधाकृष्णन | भारतीय संस्कृति के पोषक

आदर्श शिक्षक के रूप में सर्वपल्ली राधाकृष्णन | भारतीय संस्कृति के पोषक | Sarvepalli Radhakrishnan as an Ideal Teacher in Hindi | nurturer of Indian culture in Hindi

आदर्श शिक्षक के रूप में सर्वपल्ली राधाकृष्णन

कॉलेज की पढ़ाई पूरा करने के बाद राधाकृष्णन मद्रास के प्रेसीडेंसी कालेज में शिक्षक नियुक्त हुए। एक बार सन् 1911 में जब एम० ए० की उपाधि वितरित की जा रही थी, तो दीक्षांत भाषण सर वी० कृष्णास्वामी अय्यर ने दिया। तब उनके मन में भी यह सपना जागृत हुआ था एक दिन उनका भी दीक्षांत भाषण ही और श्रोता होगा सारा विश्व। राधाकृष्णन्जी ने दर्शनशास्त्र के साथ-साथ वैकल्पिक विषय के रूप में गणित भी ले रखा था, परंतु उन्होंने कहीं भी यह प्रकट नहीं किया। हाँ, उनके व्याख्यानों में कभी-कभी इसकी छाप अवश्य दिखाई दे जाती थी। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह गणित विषय को लेकर कुशल इंजीनियर आदि बन सकते थे. परंतु दर्शन की उंगली पकड़कर पूरे विश्व को यथार्थ समझाने को ही उन्होंने महत्ता दी।

पश्चिमी देशों के विद्वान प्रायः यह कहा करते थे कि राधाकृष्णन् को चूंकि पश्चिम और पूर्व, दोनों के विचारों का यथार्थ बोध है, इसलिए वह दोनों के बीच सेतु बनाने का कार्य सफलता पूर्वक कर सकते हैं। ऐसा उन्होंने किया भी। पश्चिमी देशों के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने दर्शनशास्त्र की शिक्षा दी। पश्चिमी देशों को भारतीय धर्म एवं दर्शन से परिचित कराने का श्रेय राधाकृष्णन् को ही जाता है।

राधाकृष्णन की वाणी (स्पीच) का ही प्रभाव था कि उनकी आवाज भारत से बाहर विदेशों में भी पहुँच गई। इसकी विशेषता थी-व्याख्यान देने की उनकी अपनी तकनीक, अंग्रेजी भाषा पर पूर्ण एवं असामान्य अधिकार, अवसर के अनुसार सही शब्दों का चयन, भावों को स्पष्ट करने की विलक्षण प्रतिभा, तर्क एवं आत्मिक भावों के बीच तालमेल बिठाना आदि। छात्रों को समझाने की उनकी शैली सुगम होती थी। किसी विषय की गहराई में पहुँचकर उसके किस बिंदु को कहाँ तक छूकर आना है, यह उनके चरित्र की विशेषता थी। सभी छात्र अपने चहेते प्राध्यापक से ज्ञान पाने की चाह में टकटकी लगाए रखते, शायद यही कारण था कि दर्शन जैसा नीरस विषय भी राधाकृष्णन् का सान्निध्य पाकर सरस बन गया था।

राधाकृष्णन को आचार्य की उपाधि से भी विभूषित किया गया, क्योंकि उन्होंने प्रस्थानत्रयी- वेदांत सूत्र, उपनिषद् और गीता पर अंग्रेजी में भाष्य लिखा। संदर्भित ग्रंथों पर भाष्य लिखने के कारण पश्चिमी देशों ने राधाकृष्णन का सम्मान करके जब उन्हें सिर आँखों पर बिठा लिया, तब भारत के लोगों को उनका महत्त्व समझ में आया।

राधाकृष्णन् ने भारत सहित, कई एशियाई देशों और यूरोप में अध्यापन कार्य किया। उन्हें वह स्थान प्राप्त है, जो अब तक किसी भी एशियाई को प्राप्त नहीं हो सका है। उन्होंने अपने जीवन का (1908-1948) यानी 41 वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में बिताए थे। इस क्षेत्र में इन्होंने नई-नई ऊँचाइयों को छुआ एवं शिखर पर पहुँचने के बाद भी शिक्षा के प्रति उनके लगाव को सावित करने के लिए मात्र यह उदाहरण ही काफी है कि एक समय जब वह लंदन में हाई कमिश्नर थे, तो साथ ही वहाँ शिक्षण कार्य भी करते थे। एक शिक्षक और एक प्रशासक, दोनों का ही आपको खूब अनुभव था।

भारतीय संस्कृति के पोषक

राधाकृष्णन् ने यद्यपि क्रिश्चियन कॉलेज में अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण की थी, परंतु अपनी दिनचर्या को सादगीपूर्ण बनाए रखा। वह शाकाहारी तो थे ही, वेश-भूषा में भी सदैव कोट, शेरवानी, पगड़ी ही धारण करते थे। इस संबंध में उनका कहना था-मनुष्य का लक्ष्य ज्ञान प्राप्ति व उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए। जहाँ तक ऊपरी आवरण की बात है, दूसरे का वस्त्र पहनने की  अपेक्षा स्वयं का आवरण धारण करना उचित रहता है। यह उनके चरित्र की विशेषता ही कही जाएगी कि भोजन व वस्त्र में वह सदा ही देश की मान्यताओं एवं परंपराओं को निभाते रहे और पूरे विश्व के सामने एक आदर्श उपस्थित करते रहे। एक समय तो ऐसा लग रहा था कि राष्ट्रपति राधाकृष्णन्, उपराष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, ये सभी लोग भारतीय परंपरा एवं वेशभूषा के जीवंत उदाहरण थे। राधाकृष्णन् पर विश्व-वक्ता स्वामी विवेकानंद का काफी प्रभाव पड़ा। प्रायः वह समय निकालकर उनका भाषण सुनने जाते थे। वेदांत केसरी स्वामी विवेकानंद के प्रभाव के कारण ही उनकी निष्ठा हिंदू धर्म में हुई। यह निष्ठा कोई अंघ श्रद्धा न होकर ज्ञान से ओत-प्रोत थी और जिसका आधार तार्किक था। इस सत्य को स्वीकार करते हुए राधाकृष्णन जी ने स्वयं लिखा है, “स्वामी विवेकानन्द के अदम्य साहस एवं वाग्मिता ने हिंदू धर्म के प्रति मेरे उस अभिमान को जागृत किया है, जिस पर ईसाई मिशनरी बार-बार आघात करते रहते हैं। “

वास्तव में, राधाकृष्णन् में भारतीय परंपराओं के प्रति निष्ठा का बीज तो घर के वातावरण में ही पड़ चुका था। वे संस्कार इनमें बचपन से ही घर कर गए थे, फिर भी इनमें रुचि एवं आस्था का संचार तब हुआ, जब वह अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने गए। उस समय छात्र राधाकृष्णन् के मन में हिंदू धर्म के सही स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। स्वामी विवेकानंद द्वारा हिंदू धर्म एवं हिंदुत्व की सही व्याख्याने राधाकृष्णन जी की जिज्ञासा को बहुत सीमा तक शांत, किया, साथ ही उनकी भावना व आस्था को भी दृढ़ता दी।

राधाकृष्णन् में ‘रचनात्मक लेखन प्रतिभा

डॉ० राधाकृष्णन् में रचनात्मक लेखन प्रतिभा कूट-कूट कर भरी हुई थी। वैसे तो उन्होंने चालीस से भी अधिक ग्रंथ लिखे, परंतु निग्न ग्रंथ अति प्रसिद्ध हुए– इन्डियन फिलॉसफी (2 भागों में), हिंदू व्यू ऑफ लाइफ, ईस्ट एंड वेस्ट इन रिलिजन, दि हॉर्ट ऑफ हिंदुस्तान, माई सर्च फॉर ट्रुथ, ईस्टर्न रिलीजन एंड वेस्टर्न थॉट, महात्मा गाँधी, एजुकेशन, पालिटिक्स एंड वार, रिलीजन एड सोसायटी, भगवद्गीता, दि रिलीजन ऑफ दि स्पिरिट एंड वल्र्ड्स नीड, दि प्रिंसिपल उपनिषद्, दि रिकवरी ऑफ फेथ, ब्रह्मसूत्र इत्यादि अनेक पुस्तकों का स्वतंत्र लेखन तो किया ही, 150 से भी अधिक पुस्तकों का संपादन भी किया।

यद्यपि उपरोक्त पुस्तकों की स्वतंत्र रचना राधाकृष्णन ने की, परंतु इनमें से केवल इंडियन फिलॉसफी के दोनों भागों की रचना ने ही उन्हें विश्व में प्रसिद्धि दिलाई। उनकी भाषा सरल, मार्गदर्शी, लालित्यपूर्ण रही है। उनकी लेखन शैली में छोटे-छोटे वाक्यों का एक अलग महत्त्व वाक्य छोटे हैं, परंतु बहुत प्रभावी हैं। उन्होंने धर्म एवं तत्त्वज्ञान के बारे में सविस्तार लिखा धर्म की व्याख्या वह इतिहास के आधार पर करते थे। प्रायः ऐसा कम ही देखा जाता है कि जो व्यक्ति उच्च कोटि का वक्ता होता था। वह उतना ही अच्छा लेखक भी होता है। यह केवल राधाकृष्णन् की ही विशेषता थी कि उनमें दोनों ही गुणों का अद्भुत मेल था। उनकी दिनचर्या में बारह घंटे तक अध्ययन करना सम्मिलित था। उनकी यह आदत स्वयं मार्शल स्टालिन के लिए कुतूहल का विषय बनी हुई थी। वास्तव में, कुशल लेखन-कला आने के लिए विलक्षण स्मृति का होना आवश्यक होता है। क्योंकि लेखन के लिए ढेर-सारा अध्ययन करना पड़ता है। और विभिन्न विषय-वस्तुओं के तथ्यों की सही जानकारी प्राप्त करनी आवश्यक होती है।

राधाकृष्णन भाषा का चुनाव इस तरह करते कि कठिन एवं जटिल लगने वाला विषय भी सहज हो जाता एवं शिष्यगण आसानी से समझ जाते। साथ ही वह तकों की तुष्ट के लिए कई ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत करते कि विषय की अमिट छाप श्रोता के मस्तिष्क पर हमेशा के लिए, पड़ जाती। यही कारण था कि उनकी कक्षा में शिष्यों की संख्या निरंतर बढती जाती। वह कक्षा में राहिष्णु व्यवहार अपनाते थे। अध्ययन में ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख कर उन्होंने अध्यापन की विशिष्ट शैली का आविष्कार किया। व्यक्तित्व की आभा में उनकी जणी जहाँ चार-चाँद लगा देती थी, वहीं भारतीय वेश-भूषा उनके देश-प्रेमी होने की भावना भी प्रकट करती। उनके तथ्यपरक एवं सारवान विचार हर किसी को अपना बना लेने के लिए काफी होते थे। उनके विषय में यह कहावत चरितार्थ हो जाती है कि व्यक्तित्व को ऊँचा बनाने के लिए भाषा की सहजता एक आवश्यक अंग है।

कुशल शिक्षाविद् तथा प्रशासक

राधाकृष्णन् तेज बुद्धि के तो थे ही, वह कुशल प्रशासक भी थे। शिक्षा को नई दिशा, नया आधार देकर तह उसे उपयोगी बनाने का प्रयत्न आजीवन करते रहे। उन्होंने कई विश्वविद्यालयों में कुलपति की भूमिका का निर्वहन किया और यहाँ कई प्रकार के सुधार भी किए। छात्रों को हर प्रकार की सहायता उपलब्ध कराना तो जैसे उन्होंने अपना लक्ष्य मान लिया था।

डॉ० राधाकृष्णन् के कुशल प्रशासक होने का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि वह कई विश्वविद्यालयों के कुलपति रहे। जब वह कलकता विश्वविद्यालय के कुलपति थे और 1926 में तब आंध्र विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया, तो उसके भी कुलपति बने। सीनेट ने आंध्र प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए हुए चुनाव में बहुमत से राधा कृष्णन् को कुलपति बनाया। आंध्र विश्वविद्यालय शुरू-शुरू में केवल परीक्षाएं हो कराता था। इन्होंने वहाँ वैज्ञानिक अध्ययन के लिए प्रयोगशालाएं खुलवाई, पुस्तकालय खुलवाए, इन पद-भारों को कुशलतापूर्वक निभाकर उन्होंने इस संदेह को खरू कर दिया कि एक व्यक्ति जो पुस्तकों में ही उलझा रहता है वह कुशल प्रशासक कैसे हो सकता है?

इसी प्रकार से उन्होंने छात्रावासों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन किया। उस समय जाति- व्यवस्था अपनी चल सीना पर थी। फलतः रसोई (मेस) की व्यवस्था विभिन्न समुदायों के लिए अलग की जाती थी। राधाकृष्णन् जी ने सभी के लिए एक रसोई मेस चलवाए, जिसमें सभी छात्रों के लिए भोजन व्यवस्था उपलब्ध होती थी। इस व्यवस्था को शुरू करने से पहले उन्होंने छात्रावास अधीक्षक की राय लेना उचित समझा था।

डॉ० राधाकृष्णन् ने मानव धर्म की महत्ता को स्वीकार किया। उनके मानव धर्म को इतनी व्यापक मान्यता मिली कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने डॉ० स्लेटर के अधीन सार्वभौमिक धर्मों का अध्ययन करने के लिए ‘स्टडी ऑफ वर्ल्ड रिलीजंस’ नामक एक केंद्र की स्थापना की। इसके उद्घाटन के लिए डॉ० राधाकृष्णन् को विशेष निमंत्रण दिया गया। वर्ष 1959 में इन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के इस विशिष्ट विभाग का उद्घाटन किया। यह सब उनके कुशल शैक्षिक प्रशासक होने का ही प्रमाण था कि उन्हें विशिष्ट अवसरों पर आमंत्रित किया जाता था। श्रेष्ठ दार्शनिक होने के नाते दीक्षांत भाषणों के लिए भी वह आमंत्रित किए जाते थे।

उपसंहार

प्रस्तुत पाठ द्वारा आपने यह जाना कि डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् को भारत का दूसरा राष्ट्रपति चुने जाने पर विश्व के चिंतकों ने काफी प्रसन्नता व्यक्त की। एक चिंतक या अध्यापक का राष्ट्रपति चुना जाना एक अपूर्व घटना व उस देश के नागरिकों की मानसिक उदारता को दर्शाता है। एक साधारण व्यक्ति की तरह राधाकृष्णन भी कोई धुनी-मानी परिवार के नहीं थे, फिर भी विद्या-बुद्धि में कोई उनका जोड़ीदार नहीं था। उनकी इन्हीं विलक्षण प्रतिभाओं के कारण अमेरिका, ब्रिटेन सहित अन्य पश्चिमी देशों ने उन्हें सिर-आँखों पर बिठा लिया और तब, भारतवासियों को लगा कि वह अपने ही रत्न को न पहचानने की भूल कर रहे हैं। जब इस तथ्य पर विचार किया तो फिर राष्ट्रपति जैसा सर्वोच्च पद सौंपने में भी किसी प्रकार की देर न लगाई।

आपने इसी पाठ के अंतर्गत उनकी गुरु-भक्ति, कुशाग्रबुद्धि को जाना। उनके उदार व्यक्तित्व का उदाहरण तब देखने को मिला, जब उन्होंने कलकत्ते के छात्र के पत्र को पढ़कर उसे पुस्तकें भेंट की, और उसे सांत्वना-भरा उतर भी लिख भेजा। पढ़ने की अदम्य लालसा उनमें जीवन-भर बनी रही। वह स्तालिन से भेंट करनेवाले एकमात्र सौभाग्यशाली भारतीय थे। वह एक आदर्श शिक्षक थे, साथ ही भारतीय संस्कृति के पोषक भी थे। इसके अंतर्गत आपने देखा कि उनका खानपान शाकाहारी तो होता ही था, वेश-भूषा भी भारतीय थी। वही शेरवानी, कोट, पगड़ी को वह देश-विदेश सब जगह पहनते थे। उन्होंने अपनी परंपरा की पहचान एवं एक अलग छाप विदेशों में बनाई। यह कार्य स्वामी विवेकानंद के बाद उन्होंने ही किया है। इसका शायद यह भी कारण था कि राधाकृष्णन जी स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित थे।

एक शिक्षाविद् प्रशासक के रूप में राधाकृष्णन् ने शिक्षा में सुधार किया। कुलपति के रूप में छात्रावास से लेकर अध्यापक के कर्तव्यों तक की व्याख्या की। भारत में ही नहीं, विदेशों में भी उनके शैक्षिक सद्प्रयासों से प्रेरित होकर हार्वर्ड विश्वविद्यालय में ‘स्टडी ऑफ वर्ल्ड रिलीजंस’ की स्थापना की गई।

डॉ० राधाकृष्णन् की रचनात्मक लेखन प्रतिभा के अंतर्गत आपने देखा कि जहाँ स्वामी विवेकानंद को भारतीय धर्म के वास्तविक स्वरूप से विश्व को परिचित कराने का श्रेय जाता है, वहीं राधाकृष्णन् को भारतीय दर्शन से विश्व को अबगत कराने का श्रेय जाता है। उन्होंने कई पुस्तकें स्वतंत्र रूप से लिखीं। प्रस्थानत्रयी-वेद, उपनिषद् व गीता पर भाष्य लिखने के कारण वह आचार्य भी कहलाए। विभिन्न उदाहरणों व प्रसंगों के अध्ययन से आपने राधाकृष्णन् में व्याप्त विलक्षण स्मरण-शक्ति का अनुभव किया। साथ ही लेखन एवं वक्ता का अद्भुत सामंजस्य भी देखने को मिला, जो अब तक विरले लोगों में ही देखने को मिलता है।

इस प्रकार डॉ० राधाकृष्णन के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का विवेचन करने के पश्चात् साररूप में हम कह सकते हैं कि कुछ चीजें तो उनमें ईश्वर प्रदत्त थीं, जैसे-विलक्षण स्मरण- शक्ति, कुशाग्र बुद्धि आदि। परंतु वह इसके लिए सतत् व कठिन परिश्रम भी करते रहे। क्योंकि सफलता तभी मिल सकती है, जब स्वस्थ मन-मस्तिष्क में परिश्रम द्वारा सही ज्ञान भरा जाए। अतः जीवन में उन्नति व सफलता के लिए हम सबको कठिन परिश्रम अवश्य करना चाहिए। आप यदि राधाकृष्णन् जैसे व्यक्तित्व के धनी बनना चाहते हैं, तो उनकी आदतों को अवश्य  सामान्य शिक्षा प्रदान करना होगा।

कमीशन का मूल्यांकन (Evaluation of the Commission)

कमीशन के गुण-

आयोग के निर्माता ने देश की आत्मा का अवलोकन कर विश्वविद्यालयों के सुझाव प्रस्तुत किये थे। पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ मानव विषयों को भी स्थान दिया गया है। विनाशकारी भौतिक प्रगति ने संसार को एक बार युद्ध की आग में झोंका था।

आयोग का प्रथम महत्त्वपूर्ण कार्य था ग्रामीण विश्वविद्यालयों की स्थापना। इस कमीशन ने पूर्व तथा पश्चात्य संस्कृति को मिलाने का प्रयास किया था। पाश्चात्य विधियों को शिक्षा के क्षेत्र में स्वीकार करते हुए भी शिक्षा की मूल भावना में भारतीयता को ही प्रश्रय मिला। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में, “आयोग का प्रमुख गुण यह है कि वह अतीत से अपना पूर्व विच्छेद नहीं करना चाहता, वरन् उसमें प्राप्त होने वाले उत्तम तत्त्वों को सुरक्षित रखना चाहता है।”

आयोग ने समस्त पहलुओं पर ग्रहन अध्ययन कर अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की जो कि छात्रों के लिये कल्याण हेतु परम् उपयोगी सिद्ध हुई।

कमीशन के दोष (Demerits of the Commission)

उपरोक्त गुणों के विद्यमान रहते हुए भी यह आयोग दोषरहित नहीं कहा जा सकता है। यह ललित कलाओं के विषय में मौन रहा है। धार्मिक शिक्षा तथा स्त्री-शिक्षा पर स्पष्ट विचार व्यक्त नहीं किये हैं। ग्रामीण विश्वविद्यालय के स्वरूप के विषय में स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जहाँ एक ओर स्वर्ण गगन में संध्या की लालिमा है वहाँ दूसरी ओर कालिमा श्लोकों से रंजित विभावरी का आंचल भी है। फ्रांस देश के प्रसिद्ध वीर नेपोलियन ने कहा था कि ‘किसी राष्ट्र की प्रगति के लिये सुभरता की बड़ी आवश्यकता है। बिना समुचित स्त्री-शिक्षा के कोई भी राष्ट्र उन्नति के शिखर पर नहीं चढ़ सकता है। कमीशन द्वारा की गई सिफारिशों को कार्यन्वित करने के लिये सरकार एवं जनता यथोचित सहयोग प्रदान कर विश्वविद्यालय की नवीन शिक्षा के आदर्श नवयुग के निर्माता उत्पन्न करें।

निष्कर्ष- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत विश्वविद्यालयों के पुनर्गठन तथा शैक्षिक स्तर में प्रगति करने के लिए ही इस कमीशन की नियुक्ति की गई। कमीशन के विद्वान् सदस्यों ने विश्वविद्यालयों की स्थिति का ज्ञान करके ही अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कमीशन की सिफारिशों के परिणामस्वरूप सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान समिति (University Grant Commission) की नियुक्ति की है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में इस कमीशन का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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