शिक्षाशास्त्र / Education

रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन-वृत्त | रवीन्द्रनाथ टैगोर के दार्शनिक विचार | रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन | रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार | रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा के उद्देश्य | रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचारों की समीक्षा

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रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन-वृत्त

रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई सन् 1861 ई० को कलकत्ता के एक संभ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति के और ब्रह्म समाज में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। टैगोर का पारिवारिक वातावरण सुशिक्षित, सुसंस्कृत और धार्मिक था। इस वातावरण का उनके जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा। इन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया वह सब प्रकृति, परिवार और स्वाध्याय से प्राप्त किया अर्थात् टैगोर की शिक्षा पूर्णतया अनौपचारिक रूप से हुई। ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्हें अपने पिता के साथ हिमालय के प्राकृतिक क्षेत्र की यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बालक रवीन्द्र कभी-कभी पिताजी के साथ रहते हुए भी अकेले ही काफी दूर तक निकल जाते और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते। तभी से टैगोर के मन में प्रकृति एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति एक अटूट प्रेम तथा आस्था उत्पन्न हुई, जिसके परिणामस्वरूप आगे चलकर उन्होंने बालक की प्राकृतिक ढंग से शिक्षा पर अधिक बल दिया। बाल्यावस्था से ही उनकी रचनाएँ और लेख बंगाली पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। सन् 1887 ई० में टैगोर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड भेजा गया, किन्तु वहाँ भी उनका मन न लगा और बिना कोई उपाधि प्राप्त किये हुए ही वे भारत वापस लौट आये। वे बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उन्होंने कला, साहित्य, समाज-सेवा की और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति बने। रवीन्द्र की प्रथम रचना ‘कवि कला’ और प्रथम काव्य-संग्रह ‘वन फूल’ के नाम से प्रकाशित हुआ। 1913 ई० में उन्हें अपनी प्रसिद्ध रचना ‘गीतांजलि’ पर नोबुल पुरस्कार मिला। इस पुस्तक ने उन्हें विश्वकधि बना दिया। वे अध्ययन-अध्यापन के लिए स्वतन्त्र एवं प्राथमिक वातावरण को उपयुक्त एवं उत्तम समझते थे; अनः उन्होंने भोलपुर नामक स्थान पर  ‘शान्ति-निकेतन’ नामक विद्यालय की स्थापना की। प्रारम्भ में शांति निकेतन में केवल दस- बारह विद्यार्थी ही थे | किन्तु सन् 1922 तक इसकी ख्याति विश्व के विभिन्न देशों में फैल गई और यह ‘विश्व-भारती’ विद्यापीठ के नाम से जाना जाने लगा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सन 1951 ई० में केन्द्रीय सरकार ने इस विद्यापीठ को विश्वविद्यालय की मान्यता प्रदान करके आर्थिक सहायता देना भी प्रारम्भ किया। अब इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की सूची में सम्मिलित कर लिया गया है। इसकी स्थापना का उद्देश्य पूर्व एवं पश्चिम के बीच समन्वय स्थापित करना था। इस महापुरुष को ब्रिटिश सरकार ने ‘नाईट’ की उपाधि से, कलकत्ता और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों ने डी-लिट्० की उपाधि से और महात्मा गांधी ने ‘गुरुदेव’ की उपाधि से विभूषित किया। इसके अतिरिक्त कुछ लोग ‘कवीन्द्र’ और ‘महर्षि’ कहकर भी उन्हें सम्मानित करते थे। सन् 1904 से लेकर 1941 तक टैगोर का जीवन शिक्षा और साहित्य की सेवा में बीता। 7 अगस्त, सन् 1941 ई० को यह  महान् दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री स्वर्ग सिधार गया।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के दार्शनिक विचार

टैगोर का पारिवारिक वातावरण अत्यन्त सुशिक्षित, धार्मिक एवं सुसंस्कृत था। इसी वातावरण ने उनके जीवन दर्शन का निर्माण किया। टैगोर के ऊपर भारतीय दर्शन और विशेषकर उपनिषदों का प्रभाव अत्यधिक पड़ा। उन्होंने भारतीय परम्पराओं पर आधारित आदर्शवाद को अपनाया और आध्यात्मिकता की प्राप्ति को जीवन का मुख्य उद्देश्य माना । उन्होंने ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया। शाश्वत सत्यो में उनका दृढ विश्वास था। वे जद्वैतवादी विचारधारा के पोषक थे। टैगोर ने मानव और प्रकृति के बीच सामन्जस्य पर बल दिया। वे मानस की आत्मा को ऊँचा उठाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मानसिक एवं नैतिक प्रगति को आवश्यक बतलाया। टैगोर के जीवन-दर्शन के सम्बन्ध में कुछ लोगों को शंका है कि उनका अपना कोई दर्शन नहीं है। यह हो सकता है कि इस शंका के पीछे यह विचार हो कि टैगोर ने अपने दर्शन को पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं किया और केवल अपनी रचनाओं में संकेत मात्र ही दिये हैं। लेकिन लोगों की यह धारणा कि टैगोर का कोई दर्शन नहीं है बिल्कुल निराधार है। वास्तविकता यह है कि उनके काव्य और रचनाओं में ही उनके दर्शन की पूरी झलक दिखलाई पड़ती है। उनका काव्य और दर्शन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। डॉ० राधाकृष्णन् ने अपने विचार व्यक्त करते हुए टैगोर को केवल कवि और कलाकार ही नहीं वरन् उन्हें एक उच्चकोटि का दार्शनिक भी कहा है। टैगोर के जीवन दर्शन को पूर्णरूप से समझने के लिए ईश्वर, आत्मा, शाश्वत् सत्यों और प्रकृति आदि के संबन्ध से उनके विचारों की जानकारी करना आवश्यक है; अतः इन्हें नीचे संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है-

  1. ईश्वर- टैगोर ईश्वर को एक निश्चित सत्य मानते थे। यही कारण है कि उन्होंने कभी ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास भी नहीं किया। उनका दृढ विश्वास था कि समस्त क्रियाओं का संचालक ईश्वर है। इसके समर्थन में उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पर्सनॉलिटी’ (Personality) में लिखा है कि “ईश्वर के अस्तित्व के अभाव में संसार में कोई भी क्रिया नहीं हो सकती। हम जिन घटनाओं और क्रियाओं का प्रतिदिन के जीवन में अनुभव करते हैं, वे स्वयं नहीं घटित होतीं वरन् ये ईश्वर के संकेत और इच्छा से घटित होती हैं। उनका होना न होना ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।” इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में टैगोर के विचार एकदम स्पष्ट हैं।
  2. आत्मा- आत्मा के स्वरूप के विषय में टैगोर का मत है कि वह स्वतः सत्य है। परम सुख की प्राप्ति के लिए उन्होंने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को आवश्यक माना है। आत्मा का स्वतन्त्रता के विषय में टैगोर का कथन है कि ईश्वर से साक्षात्कार के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा का स्वरूप स्वतन्त्र हो । आत्मा की स्वतन्त्रता ही मानव-जीवन की सार्थकता और महानता का कारण है।
  3. द्वैतवाद और अद्वैतवाद का समन्वय- टैगोर ने सदैव इस बात का भरसक प्रयास किया है कि द्वैतवाद और अद्वैतवाद में समन्वय स्थापित हो। उनका विश्वास है कि सृष्टि की आवश्यकताओं में ऐक्य और द्वैत सम्मिलित है। टैगोर के विचार से संयोग और वियोग की क्रियाओं को एक साथ चलते रहना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि वे भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक जीवन के सम्बन्ध में संयोग और वियोग की उपस्थिति को आवश्यक समझते हैं। हम जानते हैं कि ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व में उनका इतना अधिक विश्वास था कि उन्होंने कभी इनके अस्तित्व को प्रमाणित करने की कल्पना भी नहीं की। उन्होंने स्वयं लिखा है- “मैं इसे समझने में असमर्थ हूँ, पर मैं यह स्वीकार कर लूँगा कि ‘एक’ दो कैसे हो जाते है।”
  4. प्रकृति और मनुष्य- टैगोर ने मनुष्य और प्रकृति दोनों को सत्य के अभिन्न अंगों के रूप में माना है। उनके अनुसार ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू के समान हैं। प्रकृति और मनुष्य को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। प्रकृति मनुष्य की आवश्यकता है और मनुष्य प्रकृति को, अतः वे एक-दूसरे के पूरक भी हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘साधना’ में लिखा है- “यदि किसी अवसर पर मनुष्य प्रकृति की उपेक्षा करता है और अपने को उससे अलग रखने का प्रयास करता है तो उस समय वह स्वयं को ऐसे वातावरण में अनुभव करता है जहाँ की हर वस्तु उसके लिए अपरिचित हो, जिस प्रकार संसार से दूर कारागार में पड़ा हुआ बन्दी।”
  5. मानवतावाद- रवीन्द्रनाथ टैगोर मानवतावादी विचारधारा में विश्वास करते हैं। वे संसार में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हैं। उन्होंने मानव को प्रकृति से ऊँचा और ईश्वर के समकक्ष माना है। उनका कहना है कि “मानव ही वास्तविकता है और सत्य भी है।” वे ईश्वर को मानवीय गुणों से भरपूर देखना चाहते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है। कि वे ईश्वर के स्थान पर मानव को पदासीन करना चाहते हैं। उनका विचार है कि ईश्वर तो अपने सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन रहे किन्तु इस संसार में मानव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो। इस प्रकार टैगोर ने ईश्वर की सृष्टि में मानवता को प्रथम स्थान प्रदान किया है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन

टैगोर स्वभाव से ही मानवतावाद और समन्वयवाद के समर्थक थे। उन्होंने एकत्व और समन्यीकरण के सिद्धांत को अपने जीवन-दर्शन का मूलाधार बनाया। इसी प्रकार उनके शिक्षा दर्शन के भी चार मूलाधार हैं- प्रकृतिवाद, मानवतावाद, आदर्शवाद और अन्तर्राष्ट्रीयतावाद । अब हम इनका वर्णन क्रमशः नीचे क्ररेंगे-

  1. प्रकृतिवाद- टैगोर ने प्राचीन भारतीय सभ्यता का उद्गम-स्थान उन वनों को माना है जहाँ पूर्वजों ने सर्वप्रथम निवास किया था और जहाँ में वे अपनी दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं को प्राप्त करते थे। टैगोर की विचारधाराएँ इस सभ्यता और उनके उद्गम स्थल से बहुत प्रभावित हुई। यही कारण है कि वे आधुनिक सभ्यता, जिसे वे ‘ईंट-गारे की सभ्यता’ कहते हैं, की अपेक्षा वनों में विकसित प्राचीन भारतीय सभ्यता को अधिक महत्व देते हैं। टैगोर प्रकृति के ज्ञान को अत्यधिक महत्व प्रदान करते हैं। उन्होंने प्रकृति को मानव की इच्छाओं के मिलन का स्थान माना है। उनका विश्वास है कि बालक में प्रत्येक वस्तु का ज्ञान और अनुभव स्वयं प्राप्त करने की प्रबल जिज्ञासा होती है। वह प्रकृति के साथ एकरूप हो जाना चाहता है। बालकों द्वारा अर्जित प्रकृति का अनुभव उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण और लाभदायक होता है। प्रकृति के सम्बन्ध में टैगोर की धारणाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) प्रकृति शिक्षा का एक शक्तिशाली माध्यम है।

(ii) प्रकृतिवाद का आधार संसार की समस्त वस्तुओं से प्रेम एवं ऐक्य स्थापित करना है।

(iii) प्रकृति का सम्पर्क बालक में प्रफुल्लता, चैतन्यता क्रियाशीलता, सौंदर्यानुभूति और‌ स्वतन्त्रता की भावनाएँ उत्पन्न करता है।

(iv) प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा की व्यवस्था करने से बालक मानव-जीवन और प्राकृतिक जीवन की घटनाओं का परस्पर सम्बन्ध-कारण सरलता से प्राप्त कर लेगा और उसकी समाजीकरण की प्रक्रिया में सहायता मिलेगी।

(v) प्रकृतिवाद अध्यात्मवाद का मार्ग प्रशस्त करता है।

  1. मानवतावाद- टैगोर का मानवतावाद में अटूट विश्वास था। व अपने जीवन में मानवता को बड़ा महत्व देते थे। उन्होंने मानव को ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड माना है; अतएव ये जीवन पर्यन्त मानवतावादी विचारधाराओं को फैलाने का प्रयास करते रहे। मानवता को वे महान् वैज्ञानिक उपलब्धियों से भी श्रेष्ठ समझते थे। उनके अनुसार मानवता का महत्व बताने पर सभ्यता का नाश हो जाता है। टैगोर की यही भावनाएँ और दृष्टिकोण शांति निकेतन के विकास के कारण बने। इस संस्था में मानव की आत्मा को महत्व प्रदान किया गया और इस आधार पर मानवता की शिक्षा हर क्षेत्र में दी गई।
  2. आदर्शवाद- टैगोर का शिक्षा दर्शन आदर्शवाद से काफी प्रभावित है। हम उनकी रचनाओं और वार्ताओं में इसकी स्पष्ट झलक देखते हैं। उनका विश्वास है कि प्रत्येक प्राणी में ईश्वर निवास करता है और उसी की प्रेरणा से वह सारे कार्य करता है। उनका यह भी विचार है कि प्रत्येक मनुष्य का अपना आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है। उसे चाहिए कि अपने इस व्यक्तित्व का विकास स्वाभाविक ढंग से प्राकृतिक वातावरण के बीच करे। टैगोर के आदर्शवाद-सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है-

(i) मानव जीवन में शांति का अभाव- टैगोर के अनुसार मनुष्य में सांसारिक वस्तुओं के प्रति प्रबल लालसा है। लालसा की पूर्ति न होने पर वह एक अजीब-सी व्याकुलता की अनुभूति करता है और परेशान-सा हो जाता है। संसार में चारों ओर अशांति का साम्राज्य है। सांसारिक वस्तुओं में मनुष्य को आत्मा बुरी तरह फँस गई है, जिसके कारण मनुष्य ऐसी परिस्थिति में आ पहुँचा है कि वह अपने कर्तव्यों को नहीं निर्धारित कर पा रहा है। यदि किसी प्रकार कर्तव्यों का निर्धारण कर भी लिया तो वह उनका पालन नहीं कर पा रहा है। इसीलिए टैगोर बालक की शिक्षा ऐसी चाहते हैं जो उसकी आत्मा को शांति, संतोष और प्रेम- भाव प्रदान कर सके। यह शिक्षा केवल प्राकृतिक वातावरण में ही सम्भव है।

(ii) आत्मज्ञान और संसार के बीच समन्वय- टैगोर आत्मज्ञान और विश्व एकता के सम्बन्ध पर विश्वास करते थे। उनके अनुसार यह संसार असंख्य ईश्वरीय चमत्कारों और दैवी रहस्यों से भरा है। बालक को इनके साथ एकता का ज्ञान कराने का प्रयास किया जाना चाहिए। टैगोर ने अपने आश्रम शांति-निकेतन में यह प्रयास किया और प्राचीन शिक्षकों की भाँति प्रकृति में जीवन है और जीवन के साथ एक आत्मा भी, जिसकी सहायता से मनुष्य की आत्मा का ईश्वर के साथ एकत्व स्थापित हो सकता है।

(iii) मानव प्राणी और प्रकृति में प्रेम- टैगोर मानव प्राणी और प्रकृति में बड़ा घनिष्ठ संबंध बतलाते हैं। वे चाहते हैं कि इन दोनों के सम्बन्ध का आधार प्रेम हो न कि कृत्रिमता और स्वार्थपरायणता। मनुष्य के संबंध में प्रकृति का स्थान ‘माता’ के समान है जो अपने बालक के मानसिक और शारीरिक भोजन का प्रबन्ध करती है, उसकी देखभाल करती है और इस प्रकार विकास में सहायक होती है।

(iv) आध्यात्मिक शिक्षा- टैगोर बालक के संतुलित और बहुमुखी विकास के पक्ष में हैं। वे चाहते हैं कि बालक के शारीरिक और मानसिक विकास के साथ ही उसके आध्यात्मिक विकास पर भी पूरा ध्यान दिया जाय। किन्तु खेद का विषय है कि वर्तमान शिक्षा में बालक के आध्यात्मिक विकास की पूर्ण उपेक्षा की जाती है। टैगोर ने अपने स्कूल में इस बुराई को दूर करने का प्रयास किया है। उन्होंने ‘विश्वभारती बुलेटिन’ संख्या 12 के पृष्ठ 12 पर लिखा है- “मेरे स्कूल खोलने का मुख्य ध्येय यह रहा है कि बालक के आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा न होने पाये।”

(v) अन्तर्राष्ट्रीयतावाद- टैगोर मानवता में असीमित आस्था रखते हैं। उन्होंने सदैव मानव एकता की आवाज लगायी है। वे सदा यही चाहते थे कि पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में एक घनिष्ठ संबंध स्थापित हो और पूर्व तथा पश्चिम की अच्छी बातों का आपस में आदान-प्रदान हो । उनका विश्वास था कि इन संस्कृतियों में घनिष्ठता, निकटता और गुणों के मिलाप से विश्व के आपसी मतभेद और झगड़े सरलता से दूर किये जा सकते हैं। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया। इसी के परिणामस्वरूप आज विश्वभारती एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की संस्था बन चुकी है, जहाँ देश-विदेश के अनेक छात्र-छात्राएँ शिक्षा प्राप्त करते हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार

टैगोर के जीवन दर्शन और शिक्षा दर्शन का अध्ययन कर लेने से उनके शैक्षिक विचार- स्वतः ही स्पष्ट हो जाते हैं। किन्तु उनका क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से शिक्षा के विभिन्न पहलुओं-अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षा-विधि, अनुशासन, शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षालय आदि पर उनके विचारों को जानना आवश्यक है; अतः इनसे संबंधित उनके विचारों का  वर्णन हम नीचे पृथक्-पृथक् रूप से करेंगे-

  1. शिक्षा का अर्थ- टैगोर ने प्रचलित शिक्षा को दोषपूर्ण बतलाया। क्योंकि उनके विचार से प्रचलित शिक्षा बालक को स्वाभाविक विकास से वंचित कर देती है और उन्हें प्रकृति से प्राप्त होने वाले अनुभवों से दूर रखती है। यह शिक्षा बालक को दफ्तर और फैक्टरी की मशीन का एक अंग भले ही बना सकती हो किन्तु उसे पूर्ण मानव बना सकने में असमर्थ है। शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पर्सनॉलिटी’ में लिखा है- “सर्वोत्तम” शिक्षा यह है जो हमें केवल सूचना तथा ज्ञान ही नहीं देती वरन् हमारे जीवन को समस्त अस्तित्वों के अनुकूल बनाती है।”

(2) शिक्षा के सिद्धांत- टैगोर के शिक्षा-सिद्धांत उनकी दार्शनिक विचारधारा से पूर्णरूपेण प्रभावित है। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(i) एकता का सिद्धांत- टैगोर शिक्षा में एकता के सिद्धांत के प्रबल समर्थक हैं। उनके अनुसार- “वास्तव में मानव जातियों में स्वाभाविक अन्तर पाये जाते हैं जिन्हें सुरक्षित रखना है  और सम्मान देना है। शिक्षा का कार्य इन अन्तरों की उपस्थिति में भी एकता की अनुभूत कराना है। विषमताओं के होते हुए भी असंयम के बीच सत्य की खोज करना है।” टैगोर के विचार में मानवता की पूर्णता के लिए शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शिक्षा में एकता स्थापित करने की आवश्यकता है। उन्होंने अपने स्कूल में इस बात का पूर्ण प्रयास किया है।

(ii) स्वतन्त्र विकास का सिद्धांत- टैगोर ने शिक्षा में स्वतन्त्रता के सिद्धांत पर बहुत अधिक बल दिया है किन्तु स्वतन्त्रता से उनका तात्पर्य स्वेच्छाचारिता से नहीं था। वे स्वतन्त्रता भी आवश्यक बन्धनों से मुक्त चाहते हैं, क्योंकि असीमित स्वतन्त्रता आनन्द नहीं प्रदान कर सकती। पूर्ण आनन्द व्यक्ति तभी प्राप्त कर सकता है जब वह नियम के बन्धन में हो। यही बात विकास के संबंध में भी लागू होती है। उनका विचार है कि बालक के शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के लिए उसे अधिकतम स्वतन्त्रता और अवसर देना चाहिए। वे बालक की स्वतन्त्रता में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप के विरुद्ध हैं।

(iii) क्रिया का सिद्धांत- टैगोर ने भी शिक्षा को विकास की क्रिया माना है; अतएव अनेक पूर्ववर्ती शिक्षाशास्त्रियों की भाँति वह शिक्षा में किया के सिद्धांत पर बल देते हैं। उनका विचार है कि क्रिया द्वारा प्राप्त शिक्षा अधिक स्थायी और उपयोगी होती है। इसी विचार से उन्होंने अपने स्कूल के प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक के कार्यक्रम में अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक क्रियाओं को स्थान दिया है। अधिकांशतः इन क्रियाओं का स्वरूप रचनात्मक होता है।

(iv) अचेतन का सिद्धांत- मनोविश्लेषणवादियों की भाँति टैगोर का अचेतन मन में बहुत अधिक विश्वास है। उनका विचार है कि चेतन मन की अपेक्षा अचेतन मन अधिक क्रियाशील होता है। बालक अचेतन रूप से जीवन में काम आने वाली अनेक बातों को बिना किसी प्रयास के सहज ही सीख लेता है। पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक परम्पराओं को वह अचेतन रूप से ही ग्रहण कर लेता है, जिनकी अभिव्यक्ति उचित अवसर आने पर स्वतः ही हो जाती है।

(v) प्राकृतिक एवं सामाजिक शक्तियों के संतुलन का सिद्धान्त- टैगोर बालक की शिक्षा में प्राकृतिक और सामाजिक शक्तियों के संतुलन के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार शिक्षा और विकास में प्राकृतिक और सामाजिक शक्तियाँ कार्य करती हैं; अतएव इनमें संतुलन होना आवश्यक है। इनके संतुलन के परिणामस्वरूप ही बालक का पूर्ण विकास संभव है। टैगोर का कथन है कि शिक्षा का प्रथम चरण प्रकृति के अनुसार शिक्षा और दूसरा चरण सामाजिक व्यवहार की शिक्षा है। बालक सामाजिक वातावरण में रहता है; अतः उसकी शिक्षा के कार्यक्रम में सामाजिक क्रियाएँ भी आवश्यक हैं। टैगोर ने प्रकृति के दो रूप बतलाये हैं-(1) व्यक्ति की आन्तरिक प्रकृति और (2) व्यक्ति के चारों ओर की बाह्य प्रकृति। व्यक्ति की आंतरिक प्रकृति के ज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक आदि विभिन्न पहलू हैं। इन पहलुओं का बाह्य प्रकृति के साथ संतुलन आवश्यक है।

(vi) आत्मानुशासन का सिद्धांत- पिछले पृष्ठों पर हम इस बात का वर्णन कर चुके हैं कि टैगोर स्वतंत्रता के सिद्धांत के पोषक थे। उनका विचार था कि स्वतंत्रता से बालक में आत्माभिव्यक्ति और आत्मनियंत्रण की शक्ति आती है, जिसका परिणाम आत्मानुशासन होता है। आत्मानुशासन में वह शक्ति है जो बालक का उचित शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक विकास कर सकती है। टैगोर के ये विचार प्राचीनकालीन शिक्षा व्यवस्था से अधिक प्रभावित जान पड़ते हैं।

  1. शिक्षण-सिद्धांत- शिक्षा के उपर्युक्त सिद्धांतों के अतिरिक्त टैगोर ने शिक्षण के भी कुछ सिद्धांत बताये हैं। ये शिक्षण-सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

(i) स्नेह और सहानुभूति द्वारा शिक्षा- टैगोर का विचार है कि बालक की शिक्षा स्नेह और सहानुभूतिपूर्ण वातावरण में होनी चाहिए। इस प्रकार के वातावरण में बालक को आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिलता है जिससे उसका पूर्ण विकास होता है। इसके विपरीत व्यवहार करने पर बालक के कोमल मन को ठेस पहुँचती है और उसकी अन्तःवृत्तियाँ उत्तेजित और असंतुलित हो जाती है।

(ii) खेल द्वारा शिक्षा- टैगोर इस बात में विश्वास करते थे कि बालक अपनी अधिकांश मूलप्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति खेल के माध्यम से करता है। खेल में उसे नैसर्गिक आनन्द की प्राप्ति होती है। खेल में वह अधिक से अधिक आनन्द प्राप्त करता है और उसका चित्त प्रसन्न रहता है। खेल-खेल में अचेतन रूप से वह बहुत कुछ सीख लेता है; अतः बालक की शिक्षा खेल के माध्यम से ही होनी चाहिए।

(iil) शिक्षा ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दी जाय- हम जो ज्ञान अपनी झानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करते हैं वह अधिक सत्य एवं स्थायी होता है। प्राकृतिक सत्यों का ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों से ही मिलता है। अतएव टैगोर का विचार है कि शिक्षा ऐसी हो जिसमें बालक को अपनी ज्ञानेन्द्रियों का अधिक से अधिक प्रयोग करने का अवसर मिले।

(iv) शिक्षण विचार- शक्ति को बढ़ाने वाला- टैगोर का विचार है कि बालक की प्रारम्भिक शिक्षा मूल-प्रवृत्यात्मक हो । किन्तु विकास को आगे की अवस्थाओं में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालक की विचार-शक्ति को बढ़ाने में सहायक हो। इसके लिए शिक्षक को चाहिए कि वह बालक को कोरा पुस्तकीय ज्ञान ही न प्रदान करे वरन् उसकी विचार-शक्ति को उद्दोप्त करने का प्रयास करे। इससे बालक में, अन्तर्दृष्टि का विकास होता है और वह सूझ-बूझ के साथ समस्याओं के समाधान को ढूँढ सकने में समर्थ होता है।

(v) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा एवं कला- टैगोर के मतानुसार अपनी मातृभाषा ही ज्ञानार्जन का उपयुक्त माध्यम है। बालक अपनी भाषा में किसी तथ्य को जितना सरलता और शीघ्रता से ग्रहण कर सकता है उतना किसी विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं सीख सकता; अतः बालक की शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से होनी चाहिए। यहाँ पर एक बात और भी ध्यान देने की है कि जहाँ टैगोर ने मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा पर बल दिया है वहीं विदेशी भाषा सीखने का विरोध भी नहीं किया है। क्योंकि वे अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के समर्थक थे। मातृभाषा पर अधिक बल देने का कारण केवल यही था कि बालक स्वभावतः विदेशी भाषा सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। इसलिए विदेशी भाषा के माध्यम से उनका पूर्ण विकास नहीं हो सकता। इसके लिए मातृभाषा ही उपयुक्त माध्यम है। टैगोर ने सौन्दर्यानुभूति और आनन्द की प्राप्ति पर अधिक बल दिया है। इसके लिए उनका विचार है कि बालक को कला के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना चाहिए।

(vi) जीवन को केन्द्र मानकर शिक्षा दी जाय- टैगोर जहाँ एक ओर प्रकृति के द्वारा शिक्षा का समर्थन करते हैं वहीं आधुनिक जीवन के कटु सत्यों के प्रति भी जागरूक है। अतः वे चाहते थे कि शिक्षा ऐसी हो जो बालक में जीवन की समस्याओं को हल करने की क्षमता उत्पन्न करे। इसके लिए उन्होंने जीवन को केन्द्र मानकर शिक्षा देने का समर्थन किया है। वे चाहते थे कि शिक्षा जीवन का अंग हो और उसकी व्यवस्था इस प्रकार की जाय कि उसका सम्बन्ध जीवन के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि विभिन्न पहलुओं से हो।

(vii) जीवन के अनुभवों पर बल- टैगोर ने जीवन को केन्द्र मानकर शिक्षा देने का समर्थन किया है। इसीलिए उन्होंने जीवन के अनुभवों को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है। उनका विचार है कि बालक की शिक्षा में उसके स्वयं जीवन के अनुभवों को तथा संचित अनुभवों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए। स्वानुभव द्वारा प्राप्त शिक्षा अधिक स्थायी होती है।

(viii) उत्तम शैक्षिक वातावरण तथा समस्त सुविधाएँ प्रदान की जायँ- टैगोर का विचार है कि बालक को प्रभावशाली शिक्षा प्रदान करने के लिए उपयुक्त शैक्षिक वातावरण तथा समस्त प्रकार की सुविधाएँ दी जानी चाहिए। उत्तम वातावरण में समस्त सुविधाओं के साथ सीखने की प्रक्रिया सरल, शीघ्र एवं स्वाभाविक होती है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा के उद्देश्य

यद्यपि टैगोर ने कहीं भी शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण पृथक् रूप से नहीं किया है, फिर भी उनकी रचनाओं में शिक्षा के उद्देश्यसम्बन्धी विचारों का संकेत मिलता है। उन्हीं विचारों के आधार पर उनके अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं-

(1) शारीरिक विकास- टैगोर का विश्वास था कि शिक्षा के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है; अतः उन्होंने शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास माना है। उनके विचार में उत्तम शारीरिक विकास के लिए आवश्यक हो तो कुछ दिन के लिए अध्ययन कार्य को स्थगित किया जा सकता है। शारीरिक विकास के लिए उन्होंने प्रकृति से संपर्क, खेल-कूद, व्यायाम एवं पौष्टिक भोजन आदि को आवश्यक बतलाया है।

(2) बौद्धिक विकास- टैगोर ने बालकों की शिक्षा का उद्देश्य मानसिक एवं बौद्धिक विकास करना बतलाया है। उनका विचार है कि बिना उपयुक्त बौद्धिक विकास के व्यक्ति जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान नहीं खोज सकता और न तो किसी प्रकार की उन्नति ही कर सकता है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को ज्ञानवान् बना कर उसमें स्मृति, तर्क, चिन्तन और कल्पना आदि मानसिक शक्तियों का विकास करने में सफल हो सके। परन्तु बौद्धिक विकास के लिए उन्होंने पुस्तकीय शिक्षा का घोर विरोध किया और प्रकृति तथा जीवन की प्रत्यक्ष पतियों से ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक बतलाया। उनका कथन था कि, इस प्रकार की शिक्षा से स्वतन्त्र चिन्तन एवं ज्ञानार्जन-क्रिया को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिलता है। इसके समर्थन में उन्होंने लिखा है- “पुस्तकों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना ही शिक्षा है। यह केवल कुछ ज्ञान ही नहीं प्रदान करता वरन इससे जानने की शक्ति का इतना विकास हो जाता है जितना  कक्षा में दिये जाने वाले व्याख्यानों द्वारा होना असम्भव है। यदि हमारी बौद्धिक क्षमता संवेग और कल्पना आदि को वास्तविकता से दूर रखा जाये तो वे दुर्बल और विकृत हो जाती है।”

(3) नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास- टैगोर नैतिकता को मानव जीवन का आवश्यक अंग मानते हैं। उन्होंने अपनी रचना ‘साधना’ के पृष्ठ 56 पर लिखा है कि “पशु और मनुष्य में वह अन्तर है कि पशु के जीवन में नैतिकता का अभाव होता है जब कि मनुष्य के जीवन में कहीं न कहीं नैतिक आधार मोजूद रहता है !’ उनका विचार है कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में इसी नैतिक आधार को विकसित करना है। टेगोर आदर्शवादी विचारधारा के समर्थक थे; अतः उन्होंने शिक्षा का व्यक्ति का आध्यात्मिक गुणों का विकास करना  माना है। उन्होंने अपने विद्यालय ‘विश्वभारती’ में आध्यात्मिक विकास पर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने स्वयं लिखा है-“भोलपुर में स्कूल खोलने का मेरा उद्देश्य यह था कि हमारे बालक आध्यात्मिक रूप से विकसित हो जावें।”

(4) शिक्षा तथा जीवन में सामन्जस्य स्थापित करना- टैगोर ने जीवन को केन्द्र मानकर शिक्षा देने का समर्थन किया है। वे चाहते थे कि शिक्षा ऐसी हो जो बालक में जीवन की समस्याओं को हल करने की क्षमता उत्पन्न करे। टैगोर ने लिखा है-“इस समय हमारा ध्यान आकर्षित करने की सर्वप्रथम तथा महत्वपूर्ण समस्या हमारी शिक्षा तथा हमारे जीवन में सामन्जस्य स्थापित करने की समस्या है।”

(5) मस्तिष्क तथा आत्मा की स्वतन्त्रता- टैगोर ने शिक्षा का उद्देश्य बालक के मस्तिष्क तथा आत्मा को स्वतन्त्र बनाना माना है। उनके अनुसार यह स्वतन्त्रता तभी मिल सकती है जब स्वतन्त्र जीवन बिताया जाय और मनुष्य को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कराया जाये। यह कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्भव है, ऐसा टैगोर का विचार है। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-“आत्मा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होनी चाहिए। क्योंकि एक स्वतन्त्र ही दूसरे स्वतन्त्र के समकक्ष होता है। ईश्वर स्वयं चाहता है कि आत्मा स्वतन्त्र रूप में उसके समीप आये और इसी ध्येय से उसने हमें स्वतन्त्रता और बुद्धि प्रदान की है।” टैगोर पुनः कहते हैं कि ईश्वर से साक्षात्कार करने तथा मानव जीवन को सार्थक और महान् बनाने के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा का स्वरूप स्वतन्त्र हो ।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास- टैगोर मानवतावादी विचारक हैं। उनकी मानवता में असीमित आस्था है और उन्होंने मानव एकता पर बहुत अधिक जोर दिया है; अतः उनके अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास करना भी है, जिससे हम एक- दूसरे की भावनाओं और संस्कृतियों का आदर करें तथा सम्पूर्ण मानव जाति की भलाई के लिए तत्पर रहें। उनकी जीवन पर्यन्त यही इच्छा रही है कि पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियो में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो। उन्होंने इसी लक्ष्य को सामने रख कर शान्ति निकेतन की स्थापना की जो कि आज विश्व-भारती के नाम से प्रसिद्ध है।

शिक्षा का पाठ्यक्रम

शिक्षा के उद्देश्यों की ही भाँति टैगोर ने शिक्षा के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में भी अलग से कोई निश्चित योजना प्रस्तुत नहीं की है, फिर भी उनकी रचनाओं में शिक्षा के पाठ्यक्रम से संबंधित विचार मिलते हैं। उन्होंने प्रचलित पाठ्यक्रम को दोषपूर्ण बतलाया क्योंकि यह बालक में भौतिकवादिता का विकास करके उसे केवल धनोपार्जन के योग्य बनाता है। यह पाठ्यक्रम बालक का सर्वागीण विकास करने में असमर्थ है। उनके विचार में पाठ्यक्रम का स्वरूप इतना व्यापक होना चाहिए कि वह बालक के व्यक्तित्व के सभी पक्षों का समान रूप से विकास कर सके। उनके अनुसार मानव-जीवन के आंतरिक (आध्यत्मिक) और बाह्य (सामाजिक) दो पहलू होते हैं। पाठ्यक्रम में ऐसे ही विषयों का समावेश होना चाहिए जो इन दोनों पहलुओं का विकास करने में समर्थ हों। अतः उन्होंने बालक के आंतरिक पहलू के विकास के लिए धर्म एवं नैतिकता तथा बाह्य पहलू के विकास के लिए कला, विज्ञान और सामाजिक विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने को कहा। टैगोर का मत है कि बालक सामाजिक बातावरण में रहता है; अतः उसकी शिक्षा में सामाजिक पाठ्यक्रम का समावेश आवश्यक है। वे चाहते हैं कि बालक को सहकारिता की भावना पर आधारित कार्यक्रमों की शिक्षा प्रदान की जाय। इससे वह समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझेगा, सामाजिक नियमों के अनुसार चलना स्वीकार करेगा और इस प्रकार उसका समाजीकरण होगा।

टैगोर ने ‘आत्माभिव्यक्ति’ को भी शिक्षा का एक लक्ष्य माना है। इसके लिए उन्होंने बताया कि बालक संगीत, कला और दस्तकारी (हस्तकला) के माध्यम से स्वयं को आसानी से व्यक्त कर सकता है; अतः पाठ्यक्रम में इन विषयों का समावेश किया जाना चाहिए।

टैगोर का विश्वास ज्ञान के एकीकरण और समन्चीकरण में अधिक है। इसके लिए क्रिया-प्रधान पाठ्यक्रम का समर्थन करते हैं। उनका विचार है कि पाठ्यक्रम में धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि विषयों के साथ-साथ अन्य क्रियाएँ-भ्रमण, अभिनय, चित्रकला, बागवानी, हस्तकलाएँ, संग्रह तथा अनेक सहगामी क्रियाएँ जैसे खेल-कूद, समाज सेवा, छात्र-स्वशासन आदि को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए। उनके द्वारा संचालित ‘विश्वभारती’ में इसी प्रकार का पाठ्यक्रम देखने को मिलता है। इस प्रकार टैगोर ने केवल विचार ही नहीं प्रकट किया अपितु उसको साकार रूप भी दिया।

शिक्षण विधि

टैगोर ने प्रचलित शिक्षा प्रणाली को कृत्रिम तथा दोषपूर्ण बतलाया और शिक्षण-विधि को जीवन की वास्तविकता से सम्बन्धित करने की आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए उन्होंने जिन शिक्षण-पद्धतियों का समर्थन किया है वे निम्नलिखित हैं-

(1) क्रिया द्वारा शिक्षा- टैगोर आनन्द की प्राप्ति के लिए क्रियाशील जीवन में विश्वास करते हैं। टैगोर के अनुसार जीवन को क्रियाशील बनाकर सत्य के आदर्श की प्राप्ति की जा सकती है। वे चाहते हैं कि मनुष्य जीवन में सक्रिय और क्रियाशील रहे। इसीलिए उन्होंने लिखा है-“मनुष्य को जीवन में अधिक से अधिक सक्रिय होना चाहिए। इससे वह अपने अन्तर्निहित गुणों को व्यक्त करता है और दूर की वस्तुओं को अपने निकट समेटता है। इस प्रकार क्रियाशील बनकर अपनी वास्तविकताओं को प्रकट कर मनुष्य बराबर नयी-नयी वस्तुओं का अनुभव करता है।” इसीलिए टैगोर का विचार है कि क्रिया के माध्यम से शिक्षा दी जाय। क्रिया में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाये और उसको ऐसा अवसर प्रदान किया जाय जिसमें कि वह अपने स्वयं के प्रयत्वों द्वारा शिक्षा ग्रहण करे।

(2) स्वाध्याय एवं प्रयोग द्वारा शिक्षा- टैगोर का विचार है कि बालक को स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए। विज्ञान, कला एवं अन्य व्यावहारिक विषयों के लिए प्रत्यक्ष अनुभव एवं प्रयोग विधि अत्यन्त उपयोगी है। इन विधियों से प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है।

(3) वाद-विवाद विधि- टैगोर ने बाद-विवाद की विधि को भी शिक्षा की एक उपयोगी विधि माना है। उनका विचार है कि बालक आपसाद-विवाद करके तथा प्रश्न और उत्तर के द्वारा अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करते हैं; अतः शिक्षा में वाद-विवाद तथा प्रश्नोत्तर- विधि का प्रयोग उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है।

(4) गुरु-शिष्य-प्रणाली द्वारा शिक्षा- टैगोर प्राचीन भारतीय शिक्षा के आदर्शों में गहरी आस्था रखते हैं और अनुभव करते हैं कि यदि आधुनिक शिक्षा पद्धति में प्राचीन शिक्षा पद्धति के मूल सिद्धांतों को सम्मिलित कर लिया जाय तो देश की वर्तमान शिक्षा पद्धति के दोषों का निराकरण हो सकता है। इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने कहा है कि प्राचीन काल के गुरु  और शिष्य के बीच जिस प्रकार व्याख्यान, उपदेश और निर्देश के द्वारा शिक्षा कार्य होता था उसी प्रकार आज भी शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

(5) भ्रमण द्वारा शिक्षा- टैगोर ने भ्रमण को भी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण साधन बतलाया है। उनका विचार है कि भ्रमण अथवा यात्रा के समय बालक बौद्धिक रूप से अत्यधिक क्रियाशील रहता है; अतएव उस समय अवसर देखकर उपयुक्त ज्ञान देना श्रेयस्कर होता है। शिक्षा देने की यह एक उत्तम विधि है। उन्होंने कहा है- “भ्रमण के समय पढ़ाना शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है।”

अनुशासनसम्बन्धी विचार

टैगोर आदर्शवादी विचारक थे अतः उनका अनुशासनप्रिय होना स्वाभाविक ही था। किन्तु वे दमनात्मक अनुशासन अथवा कठोर नियन्त्रण के पक्ष में नहीं थे। अनुशासन के सम्बन्ध में ये बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता और उसके सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का समर्थन करते हैं। वे नहीं चाहते थे कि बालक की कोमल भावनाओं पर कठोरता के साथ अनुशासन लादा जाय। कठोर एवं अनुचित नियन्त्रण के कारण बालक के मन में विद्रोही भावना का जन्म होता है। लेकिन यदि कुछ नियन्त्रणों को प्रेम और सहानुभूति के आवरण में लपेट कर बालक को दिया जाय तो वह उन्हें स्वीकार कर लेता है। उनका विचार था कि बालक की मनोवृत्तियों को उदारता और सहानुभूतिपूर्वक समझ कर उचित व्यवहार करने से उनकी अनुशासनहीनतापूर्ण क्रियाओं को दूर किया जा सकता है। अतः शिक्षकों एवं अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि बालक को अधिक से अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करें तथा उनके साथ प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें। इससे बालक में आन्तरिक अनुशासन या आत्मानुशासन की भावना उत्पन्न होती है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि टैगोर प्रचलित दमनात्मक अनुशासन का कड़ा विरोध करते थे और उनका विश्वास स्वतन्त्रता, प्रेम और सहानुभूति से उत्पन्न आत्मानुशासन में था।

शिक्षकसम्बन्धी विचार

टैगोर ने अपनी शिक्षा प्रणाली में शिक्षक को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया है। शिक्षक के सम्बन्ध में टैगोर ने जो विचार प्रस्तुत किये हैं उनमें उनकी आदर्शवादी विचारधारा की गहरी छाप है। उनके अनुसार वास्तविक शिक्षक वही है जो बालकों को शिक्षा प्रदान करने के साथ ही साथ स्वयं भी निरन्तर ज्ञान की खोज में लगा हो। टैगोर चाहते हैं कि शिक्षक स्वयं को भी छात्रावस्था में ही अनुभव करे; छात्र को प्रेरणा प्रदान करे और विषय को जीवन के साथ सम्बन्धित करके पढ़ायें। वह यह नहीं चाहते कि शिक्षक छात्रों को केवल सूचनाओं के बोझ से लाद कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लें। उसे शिक्षण के स्थान पर अधिकतर मार्गदर्शन का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि टेगोर शिक्षक को निर्देश अथवा सूचना देने वाला नहीं वरन निरन्तर ज्ञान की खोज में लगा रहने वाला और उत्तम मार्गदर्शक के रूप में देखना चाहते हैं।

विद्यार्थीसम्बन्धी विचार

टैगोर व्यक्तिवाद के समर्थक हैं। उनका विश्वास है कि जीवन की समस्याओं को व्यक्ति अपने व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा सुलझा सकता है। इस दृष्टिकोण से वे बालक को शिक्षा के क्षेत्र में अधिक से अधिक स्वतन्त्र देखना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उसके मस्तिष्क को इतनी स्वतन्त्रता और अधिकार प्रदान किया जाय कि वह अपने भविष्य का निर्माण स्वयं कर सके। उनका विचार है कि समस्त शैक्षिक कार्यों का आयोजन बालक की इच्छा, रुचि और स्वभाव के अनुसार ही किया जाय। कोई भी शैक्षिक कार्य बलपूर्वक लादने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए।

विद्यालयसम्बन्धी विचार

टैगोर सत्कालीन विद्यालयों, जिनमें इमारत, फर्नीचर, पुस्तकों, प्रयोगशालाओं, पाठ्य- पुस्तकों और पुस्तकालयों को अधिक महत्व दिया जाता था, की अपेक्षा प्राकृतिक वातावरण को अधिक महत्व प्रदान किया है। विद्यालय के सम्बन्ध में अपने प्रारम्भिक अनुभवों का स्मरण करते हुए टैगोर ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पर्सनॉलिटी में लिखा है-“जब मुझे स्कूल भेजा गया तो मैंने अपने को अपने वास्तविक जगत से दूर, निर्जीव कुर्सियों, मेजों और दीवालों से घिरा हुआ पाया और यह प्रतीत हुआ कि ये निर्जीव वस्तुएँ मुझे अंधे की भाँति घूर रही है। उस वातावरण से मुझे भय का अनुभव हुआ।” विद्यालय की आलोचना करते हुए लिखा है-“हमारे परम्परागत विद्यालयों में उत्तम प्रकार के विवेक की उपेक्षा और तिरस्कार होता है। यह बालक को ईश्वर की अनोखी कला से पूर्ण उस वास्तविक जगत् से बलपूर्वक दूर हटा लेता है जिसमें उसके व्यक्तित्व के विकास के समस्त साधन उपलब्ध हैं।” इसलिए शिक्षा ईश्वर की कला से पूर्ण प्राकृतिक वातावरण में होनी चाहिए। इसीलिए वे भारत की प्राचीन गुरुकुल- प्रणाली का समर्थन करते हैं, क्योंकि प्राकृतिक वातावरण में स्थित वन सभ्यता के प्रतीक थे। इन आश्रमों में बालक के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास होता था। इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा देने को कहा है। उनकी धारणा थी कि प्राकृतिक बातावरण में शिक्षा प्राप्त बालक सांसारिक सत्य के अधिक निकट होता है। टैगोर ने अपने स्कूल शांतिनिकेतन की स्थापना ऐसे ही वातावरण में किया था।

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी अन्य विचार

शिक्षा का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जिस पर टैगोर का ध्यान न गया हो। उनकी रचनाओं में हमें धार्मिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के सम्बन्ध में उनके पर्याप्त विचार मिलते हैं, जिनका हम नीचे पृथक्-पृथक् वर्णन करेंगे-

(1) धार्मिक शिक्षा- टैगोर का जन्म एवं लालन-पालन एक धार्मिक परिवार में तथा धार्मिक माता-पिता के द्वारा हुआ था; अतएव टैगोर का भी धार्मिक प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक ही है। उन्होंने जीवन का मुख्य ध्येय ईश्वर तक पहुँचने को माना है और उसके लिए ज्ञान और भक्ति दो मार्गों को बताया है। उनके अनुसार मनुष्य दोनों ही मार्गों के द्वारा ईश्वर अथवा सत्य तक पहुँच सकता है। धर्म के सम्बन्ध में टैगोर बड़े ही उच्च और क्रान्तिकारी विचार वाले हैं। वे धार्मिक शिक्षा को सविधिक रूप से दिये जाने का समर्थन नहीं करते, क्योंकि सविधिक शिक्षा बहुत ही वैयक्तिक होती है। इसीलिए उन्होंने शांति-निकेतन में किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय विशेष के कर्मकाण्डों की व्यवस्था नहीं की। ‘विश्व-भारती’ में सभी धर्मों को समान महत्व दिया जाता है। सभी धर्मों के धर्माधिकारियों के जन्म-दिवस और उत्सव मनाये जाते हैं। धर्म के सम्बन्ध में टैगोर वास्तविकता की ओर अधिक झुके हुए हैं और रूढ़िवादिता तथा सांप्रदायिकता आदि को कोई महत्व नहीं देते। उसके अनुसार शुद्ध आचरण, सादगी और पवित्रता जिस स्थान पर होती है वहीं दया और धर्म फलता-फूलता है। डॉ० राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘दि फिलॅसफी ऑव रवीन्द्रनाथ टैगोर’ में एक स्थान पर लिखा  है-“ईश्वर को पाने के लिए धार्मिक नहीं वरन् प्रकृति में अपने को लीन कर देना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। और प्राकृतिक वातावरण में जहाँ शांति और एकांत का साम्राज्य हो वहाँ ही मनुष्य को सरलता से ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव होता है और उसे ईश्वर के सामीप्य का आनन्द प्राप्त होता है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि टैगोर धर्म के सम्बन्ध में रूढ़ियों और सांप्रदायिकता आदि से दूर हट कर एक व्यापक दृष्टिकोण रखते थे। किन्तु उन्होंने कभी भी किसी प्रकार की नविधिक धार्मिक शिक्षा का समर्थन नहीं किया।

(2) नैतिक शिक्षा- टैगोर नैतिकता को मानव-जीवन का एक आवश्यक अंग मानते हैं। वे चाहते हैं कि मानव-जीवन का नैतिक आधार अवश्य हो। ये नैतिकता के सिद्धांत में समस्त गुणों को सम्मिलित करते हैं। उनका विचार है कि मनुष्य में नैतिक दृष्टि से अच्छाइयों और बुराइयों में विभेद कर सकने की क्षमता होनी आवश्यक है। टैगोर के अनुसार मानवता का जीवन व्यतीत करने के लिए नैतिकता का सहारा उतना ही आवश्यक है जितना इस शारीरिक जीवन के लिए यह भौतिक संसार। किन्तु नैतिकता के लिए भी उन्होंने किसी भी सविधिक शिक्षा का समर्थन नहीं किया है। उनका मत है  कि शिक्षा के द्वारा बालक का सर्वाङ्गीण विकास करके उसे पूर्ण मानव बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। पूर्ण मानव में नैतिकता स्वयमेव निहित है।

(3) जन-शिक्षा- टैगोर ने सर्वसाधारण व्यक्तियों की शिक्षा का समर्थन किया है। उनके विचार में सागज का कोई भी सदस्य अशिक्षित नहीं रहना चाहिए। वे अपने समय में जन- साधारण में शिक्षा की कमी के कारण अत्यन्त दुखी थे। इसलिए उन्होंने समाज के हर व्यक्ति को शिक्षित करने पर बल दिया। उनका कथन है कि बालकों की अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा तथा प्रौदों की शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। टैगोर का मत था कि जन-शिक्षा के द्वारा आपसी भेद-भाव दूर होंगे, समाज समृद्धशाली होगा और जनसाधारण में जागृति आयेगी। जन-शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो और यह शिक्षा पुस्तकीय नहीं वरन् व्यावहारिक हो। जनशिक्षा में प्राचीन एवं नवीन दोनों प्रकार के साधनों जैसे रामायण, महाभारत, कथा-कीर्तन, संगीत-भजन, लोकगीत, लोकनृत्य, धार्मिक मेला, प्रवचन, सम्मेलन, प्रदर्शिनी, रात्रि-पाठशाला और सचल पुस्तकालयों की सहायता लेनी चाहिए।

(4) स्त्री-शिक्षा- तत्कालीन समाज में स्त्रियों की उपेक्षा एवं दुर्दशा देखकर टैगोर ने शिक्षा के माध्यम से उनका भी उत्थान करने का विचार प्रस्तुत किया। जहाँ उनके लिए अलग शिक्षा की व्यवस्था न हो सके वहाँ सह-शिक्षा की व्यवस्था की जाये। इस विचार से उन्होंने स्वयं भी शांतिनिकेतन में स्त्री-शिक्षा विभाग खोला जहाँ स्त्रियों को पुरुषों की ही भाँति शास्त्रीय विषयों की शिक्षा की व्यवस्था है। इनके लिए गृह-विज्ञान, सिलाई और पाक-कला की शिक्षा का भी विशेष प्रबन्ध है।

(5) ग्रामीण शिक्षा- भारत की 80 प्रतिशत से भी अधिक जनता गाँवों में रहती है; किन्तु अशिक्षा के कारण गाँवों की दशा अत्यन्त ही शोचनीय है। इसके लिए टैगोर ने ग्रामीण शिक्षा और गाँवों के नवनिर्माण तथा पुनर्सङ्गठन का विचार प्रस्तुत किया। इस विचार को उन्होंने अपने शांतिनिकेतन में साकार रूप दिया। उन्होंने ‘ग्रामीण पुनर्निर्माण संस्था’ नामक एक अलग विभाग खोला जिसके 4 उपविभाग हैं-कृषि विभाग, दुग्धशाला विभाग, ग्राम कल्याण विभाग और उद्योगशाला विभाग। इस विभाग में विद्यार्थियों को ग्रामों के पुनर्गठन, ग्रामीण औरसमस्याओं को समझना और उनके उपायों को खोजने की शिक्षा दी जाती है।

(6) राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा- टैगोर मानवतावादी विचारक थे। उनमें देश-प्रेम तथा जन-कल्याण की भावना प्रबल थी। इसलिए उनका विचार था कि बालकों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने के साथ ही साथ उन्हें अन्तर्राष्ट्रीयता की भी शिक्षा दी जाय। उनका विश्वास था कि राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता की शिक्षा से बालकों में मानवता के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा और आपसी मतभेदों को सरलता से दूर किया जा सकेगा। अन्तर्राष्ट्रीयता  की शिक्षा के लिए उन्होंने मानव प्राणी की एकता, मानव ज्ञान की एकता तथा विश्व नागरिकता का दृष्टिकोण हमारे सामने प्रस्तुत किया।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचारों की समीक्षा

टैगोर के शिक्षा दर्शन पर अनेक वादों का प्रभाव दिखलायी पड़ता है। वे आदर्शवादी, यथार्थवादी, प्रकृतिवादी, प्रयोजनवादी और सबसे अधिक मानवतावादी प्रतीत होते हैं। टैगोर के शिक्षा दर्शन में उनका मानवतावादी दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण है। उनका मानवतावाद मनुष्य को सत्य के समीप ता है। उनका आदर्शवाद शिक्षा और समाज को एक कड़ी में जोड़ने का प्रयास करता है। उनका दर्शन जीवन की वास्तविकताओं के प्रति भी सजग है। टैगोर ने जनशिक्षा का समर्थन किया है, इससे उनके दर्शन में प्रगतिवाद की झलक दिखलायी पड़ती है। किन्तु साथ ही साथ इससे अधिक वे मानव के आध्यात्मिक पक्ष का विकास करना चाहते हैं। वे शिक्षा द्वारा मानव मस्तिष्क के विकास पर बल देते हैं, जिससे मनुष्य प्रकृति और ईश्वर के निकट पहुँचने में समर्थ हो सके। टैगोर चाहते थे कि समाज का दूषित वातावरण स्वच्छ, शुद्ध और सजीव बनकर क्रियाशील हो । उनका यह विचार प्रयोजनवादी विचारधारा का परिचायक है। उन्होंने शिक्षा में प्रकृति और व्यक्ति को विशेष महत्वपूर्ण बतलाया और स्वतन्त्रता के सिद्धांत का प्रबल समर्थन किया है।

टैगोर की शैक्षिक विचारधारा बहुत ही महत्वपूर्ण एवं सराहनीय है। किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में उसमें अनेक कमियाँ भी हैं। आज के भौतिकतावादी युग में उनका मानवतावादी सिद्धान्त एवं आध्यात्मिक विकास की शिक्षा का सिद्धान्त बहुत अधिक व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता। इसी प्रकार जब आज प्रत्येक विषयों में विशेषीकरण का युग है तो ऐसी दशा में गुरुकुल प्रणाली, पुस्तकविहीन शिक्षा, प्रयोगशाला और पुस्तकालयविहीन शिक्षालय आदि की कल्पना करना कहाँ तक उचित है-

(1) शिक्षा के सम्बन्ध में व्यापक दृष्टिकोण अपनाना- अभी तक शिक्षा को बहुत ही संकुचित अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है। किन्तु टैगोर ने इसके सम्बन्ध में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनके अनुसार शिक्षा ज्ञान का संचय मात्र नहीं वरन् यह तो वैयक्तिक और सामाजिक दृष्टिकोण से व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करना है। उनके अनुसार बालक का सर्वागीण विकास करना ही शिक्षा का कार्य है। आज समस्त विद्वान एवं शिक्षाशास्त्री उनके इस विचार का समादर करते हैं।

(2) पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय- टैगोर है, वह प्रथम भारतीय महापुरुष हैं जिन्होंने देश-विदेश में घूम-घूमकर अपने व्याख्यानों तथा भोलपुर में शांतिनिकेतन की स्थापना करके पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने का सफल प्रयास किया। यही कारण है कि आज हम उन्हें भारतीय संस्कृति का दूत मानते हैं।

(3) प्रकृति को महत्व- आज के विकासशील युग में जहाँ मनुष्य मनुष्य न रहकर मशीन बन गया है, जिसे प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेने की कौन कहे, आँख उठाकर देखने तक का समय नहीं है, वहीं पर टैगोर ने उसका ध्यान पुनः आकर्षित किया है। आज के समय में उपेक्षित प्रकृति और प्राकृतिक सौन्दर्य के महत्व को स्पष्ट करके उन्होंने मनुष्य में रुचि और इच्छा जागृत कर दी है।

(4) मानवता की शिक्षा- वर्तमान भौतिकवादी युग में मानव ईर्ष्या, द्वेष, कलह तथा सर्वोपरि होने की इच्छा के कारण मानवता को भूल चुका है। आज उसे ऐसी रामस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जहाँ वह अपने स्वार्थ के सामने दूसरे के साथ प्रेम, दया, सहानुभूति, परोपकार आदि का विचार भी मन में नहीं ला पाता। ऐसी परिस्थिति में टैगोर ने मानवता की शिक्षा का संदेश देकर एक महान कार्य किया है।

(5) विश्वबंधुत्व की शिक्षा- टैगोर मानवतावादी विचारक थे। अपने विचारों के अनुसार उन्होंने शिक्षा का कार्य-विश्वबंधुत्व की भावना का विकास करना बतलाया। इसके लिए ही उन्होंने अपने विद्यालय शांतिनिकेतन में पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने के दृष्टिकोण में पाठ्यक्रम का निर्धारण किया। आज के संघर्षशील, युग में यह उनका बहुत बड़ा योगदान कहा जा सकता है।

(6) धर्म के सम्बन्ध में नवीन दृष्टिकोण आज तक भारत में धर्म से तात्पर्य पूजा- पाठ और कर्मकाण्डों से लगाया जाता रहा है। किन्तु टैगोर ने धर्म की वास्तविकता से सम्बन्धित करके और उस रूढ़िवादिता तथा सांप्रदायिकता आदि से अलग बताकर हमारा मार्ग- दर्शन किया।

(7) सौन्दर्यानुभूति की शिक्षा- रवीन्द्रनाथ टैगोर सौन्दर्य और कला के प्रेमी थे। यद्यपि उन्होंने सौन्दर्य की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी है, फिर भी सौन्दर्य के प्रति अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है। उनके अनुसार आनन्द की प्राप्ति के लिए सौन्दर्यानुभूति आवश्यक है। अतः बालक को संगीत, कला, चित्रकला, अभिनय आदि के द्वारा सौन्दर्यानुभूति की शिक्षा दी जानी चाहिए। ऐसा टैगोर का विचार था।

(8) विश्वभारती की स्थापना- शिक्षा के क्षेत्र में टैगोर का सबसे बड़ा योगदान ‘शांतिनिकेतन’ जो अब ‘विश्वभारती’ के नाम से सुविख्यात है, की स्थापना करना है। इस अनुपम शिक्षण-संस्था में टैगोर ने अपने समस्त शैक्षिक विचारों को साकार किया है। आज यह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की संस्था बन चुकी है और पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने तथा मानव जाति को मानवता का पाठ पढ़ाने का पवित्र कार्य कर रही है।

सारांशतः

रवीन्द्रनाथ टैगोर वर्तमान काल के महान भारतीय दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री थे। उनके शिक्षादर्शन में विभिन्न वादों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। शिक्षा के क्षेत्र में वे मध्यममार्गीय थे। उनके शिक्षादर्शन का मूल सिद्धांत प्रत्येक वस्तु के साथ एकत्व की भावना है। टैगोर मानवता में अटूट विश्वास रखते थे; अतः उनके अनुसार शिक्षा का कार्य बालक में मानवता का विकास करना है। उनकी मानवता किसी एक ही राष्ट्र तक सीमित नहीं हैं वरन् उसमें संपूर्ण विश्व आता है। टैगोर प्राचीन गुरुकुल प्रणाली में विश्वास रखते हैं। शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में वे बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता देने का समर्थन करते हैं। धार्मिक क्षेत्र में उन्होंने कर्म संसार को महत्व दिया है। शिक्षक के सम्बन्ध में टैगोर का विचार है कि उसे सदा ज्ञान की खोज में लगा रहने वाला तथा अच्छा पथ-प्रदर्शक होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सबसे  बड़ी देन ‘विश्वभारती’ है।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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