शिक्षाशास्त्र / Education

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का व्यक्तित्व | डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के व्यक्तिगत स्वभाव का संक्षिप्त चित्रण

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का व्यक्तित्व | डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के व्यक्तिगत स्वभाव का संक्षिप्त चित्रण | Personality of Dr. Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi | Brief description of the personality of Dr. Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का व्यक्तित्व

डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के पूर्वज मद्रास के निकट के गाँव ‘सर्वपल्ली’ में रहते थे। वहीं से यह ब्राह्मण परिवार आजीविका की खोज में ‘तिरुतणी गाँव’ में आकर बस गया। इसीलिए राधाकृष्णन् का नाम सर्वपल्ली राधाकृष्णन पड़ा। इनके पिता श्री वीर स्वामी उइया पुरोहिताई करते थे। इस कार्य के अंतर्गत वह शिक्षा, धार्मिक उपदेश व दीक्षा देते थे।

राधाकृष्णन् का जन्म 5 सितम्बर, 1888 को हुआ। ये आपस में पाँच भाई-बहन थे। इनके माता-पिता धनी तो नहीं थे, परंतु उतने गरीब भी नहीं थे, कारण था कि इनके पिता स्थानीय जमींदार के राजपुरोहित थे। फिर भी राधाकृष्णन् ने स्वयं के बल पर ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया।

राधाकृष्णन् की बारह वर्ष तक की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिता की देखरेख में रहकर गाँव में हुई, बाद में उनके पिता जब तिरुतणी गाँव में जाकर बस गए, तो उनका परिचय यहाँ ईसाई मिशनरियों से हुआ। इन मिशनरियों ने बाद में राधाकृष्णन् को पश्चिमी ज्ञान अर्जित कराया।

क्रिश्चियन स्कूल में पढ़ने के कारण इन्हें अंग्रेजी विषय का अच्छा ज्ञान हो गया। साथ ही बाइबिल भी कंठस्थ हो गई। पुस्तकों का अध्ययन इनकी आदत बन गई। बेल्लौर के दूर हीज कालेज में उन्होंने स्कूली शिक्षा ग्रहण की और बाद में मद्रास के क्रिश्चियन कालेज में दाखिला लिया। यहाँ उनके सहपाठियों में पंडित कृष्णा स्वामी अय्यर थे जो आगे चलकर भारतीय संविधान निर्माण समिति के सदस्य बने।

कहा जाता है कि ‘होनहार विरवान के, होत चीकने पात’, यानी होनहार होने की प्रवृत्ति शुरू से दिखाई दे जाती है। राधाकृष्णन् अपनी सभी कक्षाओं में सदैव प्रथम स्थान प्राप्त करते थे। मद्रास के किश्चियन कॉलेज में प्रवेश से उनका संपर्क ईसाई मिशनरियों से तो बढ़ा, परंतु जब ये मिशनरियाँ पुरानी भारतीय रीति-नीति को सड़ागला घोषित कर व तथ्यों को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करती तो वह आहत हो उठते थे। इन्होंने एम०ए० में दर्शनशास्त्र विषय को इसलिए चुना क्योंकि विवेकानंद जी से वह काफी प्रभावित थे। मात्र 20 वर्ष की उम्र में राधाकृष्णन ने अपना प्रथम निबंध ‘दि इथिक्स ऑफ दि वेदांत’ लिखा। इस लेख पर उनके दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक ए०जी० हाग की प्रतिक्रिया थी-एम० ए० की परीक्षा के लिए इस विद्यार्थी ने जो निबंध प्रस्तुत किया है, उससे यह प्रमाणित होता है कि छात्र दर्शनशास्त्र के मुख्य-मुख्य सिद्धांतों से पूर्णतः परिचित है और उसे सब कुछ कठस्थ है। जटिल तकों को वह उपयुक्त व सरल ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखते है। इन सबके अलावा उनका अंग्रेजी भाषा पर भी प्रभुत्त्व होना उसकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाता है।

उन दिनों मद्रास राज्य में शिक्षा-सेवा के लिए एलटी होना आवश्यक था। इसलिए उन्होंने टीचर्स कालेज, सैदापेठ में वर्ष 1910 में प्रवेश लिया। यहाँ भी उनकी विलक्षण प्रतिभा से सब लोग चकित थे। जब एल०टी० परीक्षा की तैयारी के लिए टीचर्स कालेज के प्रोफेसर ने अन्य छात्रों के लिए राधाकृष्णन् से व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए कहा, तो उन्होंने कुल तेरह व्याख्यान दिए। उनके इस व्याख्यान पर स्वयं एम० के० रंगास्वामी आयंगर की प्रतिक्रिया थी-

“राधाकृष्णन् के इन व्याख्यानों में विषय की गहराई, वाग्मिता, परिष्कृत शैली, शब्दों के सुंदर चयन ने सबका मन मोह लिया एवं आश्चर्यचकित कर दिया।” वर्ष 1911 में राधाकृष्णन् कालेज की औपचारिक शिक्षा पूरी कर ली। उन्होंने अब तक की सभी परीक्षाएं विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की थीं।

हमारे शास्त्रों में लिखा है कि ज्ञान तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब गुरु के प्रति निष्ठा व भक्ति हो। राधाकृष्णन् जी ने इस तथ्य पर पूरी तरह अमल किया। वह मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर डॉ० ए० जी० हाग के प्रिय छात्रों में से एक थे। गुरु के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम व निष्ठा थी, जबकि दूसरी ओर मिशनरियों द्वारा हिंदू धर्म की गलत तस्वीर प्रस्तुत करना उन्हें अंदर तक आहत कर देता था। इस चीज को उन्होंने सकारात्मक रूप में लिया और मन में यह निश्चय कर लिया कि वह एक दिन अवश्य ही हिंदू धर्म के सही मर्म से मिशनरियों को अवगत कराएंगे, ताकि हिंदू धर्म के प्रति जो गलत धारणाएं उन्होंने अपने मन नें पाल रखी थीं, उनसे वे उबर सकें। यह संकल्प उनकी गुरुभक्ति में न तो बाधक था और न ही उनकी गुरु-निष्ठा में कोई कमी ला सका।

स्वभाव

राधाकृष्णन् किसी धनी परिवार के नहीं थे वह गरीबी व अभावों से अच्छी तरह परिचित थे। छात्र जीवन में वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपनी दैनिक आवश्यकता को पूरा करते रहते। सक्षम हो जाने पर भी उनमें अहंकार नहीं आया। यदि कोई छात्र अपनी किसी भी प्रकार की असमर्थता उनसे व्यक्त करता, तो वह उसे पूरा करने का प्रयास करते। इसका एक उदाहरण है- जब वह भारत के उप-राष्ट्रपति एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के उप-कुलपति थे, तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के एम०ए० (दर्शनशास्त्र) के एक विद्यार्थी ने उन्हें दर्द भरा पत्र लिखा था-“मैं धनाभाव के कारण आपकी पुस्तक ‘इंडियन फिलॉसफी’ खरीदने में असमर्थ हूँ। उसे पढ़ना चाहता हूँ, रुचि भी है। आपकी बहुत-बहुत कृपा होगी, यदि आप मेरी परीक्षा तक अपनी पुस्तक की एक प्रति भिजवा दें। मैं परीक्षा समाप्त होते ही पुस्तक आपके पास लौटा दूंगा?” पत्र पढ़ते ही राधाकृष्णन जी को छात्र का दर्द महसूस हुआ। तत्काल उन्होंने पुस्तक उस छात्र को भिजवा दी, साथ ही यह टिप्पणी भी लिखी कि-“अब इसे लौटाने की आवश्यकता नहीं है।”

राधाकृष्णन् बचपन से ही संकोची स्वभाव के थे। इसी कारण वह पुस्तकों में ही हमेशा ध्यान लगाते और इसीलिए मित्र कम ही बना पाते थे। इस प्रवृत्ति से वह आगे चलकर भी मुक्त नहीं हो सके अध्यापक बनने के बाद जब उन्हें छात्रों को पढ़ाने के लिए कमरे उपलब्ध नहीं होते तो वह गलियारे आदि में ही पढ़ा लिया करते। इस दौरान वह कक्षाओं के पास से गुजरते समय इतने दबे पाँव जाते कि दूसरों का ध्यान भंग न होने पाए। इन उदाहरणों से राधाकृष्णन के उदार स्वभाव का प्रमाण मिलता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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