आधुनिक आर्य भाषाओं का वर्गीकरण | आधुनिक भारतीय भाषाओं के वर्गीकरण संबंधी विभिन्न मत
आधुनिक आर्य भाषाओं का वर्गीकरण | आधुनिक भारतीय भाषाओं के वर्गीकरण संबंधी विभिन्न मत
आधुनिक आर्य भाषाओं का वर्गीकरण-
आधुनिक भारतीय आर्यभाषायें अपभ्रंशों से विकसित हुई हैं और अब यह निर्विवाद सत्य है कि इनकी उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई है। इन भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव अवश्य है और इनके शब्द-भंडार की पूर्ति संस्कृत शब्दों से पर्याप्त मात्रा में हुई है, परंतु ये सभी भाषायें संस्कृत की पुत्री होकर स्वतंत्र रूप में अपभ्रंश से निकली हैं तथा ये बोलचाल की भाषाओं के अधिक निकट हैं। इन भाषाओं का वर्गीकरण विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है। इस क्षेत्र में हार्नली, वेबर, जार्ज ग्रियर्सन, डॉ. चटर्जी, डॉ धीरेंद्र वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जार्ज प्रियसर्जन तथा डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।
(क) जार्ज ग्रियर्सन का वर्गीकरण- जार्ज प्रियर्सन ने 1920 ई0 में ‘भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण भाग- (Linguistic Survey of India, Vol) 1 तथा ‘बुलैटिन ऑफ दी स्कूल ऑफ ओरिएन्टल स्टडीज, लंदन अंक 1, भाग-3 (Bulletin of the School of Oriental Studies, London, Vol., I, Pt. III) में आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
(1) बाहरी उपशाखा।
(क) पश्चिमोत्तरी उपसमुदाय-सिंधी, लहँदा।
(ख) पूर्वी समुदाय-बिहारी, बंगला, उड़िया।
(ग) दक्षिणी समुदाय- मराठी।
(2) मध्यवर्ती उपशाखा
(घ) मध्यवर्ती समुदाय-पूर्वी हिंदी
(ङ) केंद्रीय समुदाय-पश्चिमी हिंदी, पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी।
(च) पहाड़ी समुदाय-पूर्वी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी।
इसके उपरांत 1931 ई0 में जार्ज ग्रियर्सन ने Indian Antiquily, Supplement of Feb. 1931 के अंतर्गत उक्त वर्गीकरण का संशोधित रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया-
(क) मध्य देशी, पश्चिमी हिंदी
(ख) अंतर्वर्ती
(अ) पश्चिमी हिंदी में विशेष घनिष्ठता वाली भाषाएँ-पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, पहाड़ी, (पूर्वी, पश्चिमी, मध्यवर्ती)
(आ) बहिरंग से संबंध-पूर्वी हिंदी
(ग) बहिरंग भाषाएँ
(3) भीतरी उपशाखा
(अ) पश्चिमोत्तरी समुदाय-लहँद, सिंधी
(आ) पूर्वी समुदाय बिहारी, उड़िया, बंगला, असमिया
(इ) दक्षिणी समुदाय-मराठी।
इस प्रकार जार्ज ग्रियर्सन ने ध्वनि, व्याकरिणक रूप, शब्द समूह आदि को आधार बनाकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
(अ) बहिरंग शाखा
(क) पश्चिमोत्तर समुदाय-
(1) सिंधी (2) लहंदा
(ख) पूर्वी समुदाय
(3) उड़िया (4) बिहारी (5) बंगला (6) असमिया
(ग) दक्षिणी समुदाय-
(7) मराठी
(आ) मध्यदेशीय शाखा
(घ) मध्यवर्ती समुदाय-
(8) पूर्वी हिंदी
(इ) अंतरंग शाखा
(ङ) केंद्रीय समुदाय-
(9) पश्चिमी हिंदी (10) पंजाबी (11) गुजराती (12) भीली (13) खानदेशी (14) राजस्थानी
(च) पहाड़ी समुदाय-
(15) पूर्वी पहाड़ी या नेपाली (16) मध्यवर्ती पहाड़ी, (17) पश्चिमी पहाड़ी।
अतएव जार्ज ग्रियर्सन ने आधुनिक आर्यभाषाओं की संख्या 17 निश्चित की है और उन्हें तीन शाखाओं तथा छः समुदायों में विभक्त किया है।
वर्गीकरण के आधारभूत तत्त्व- जर्ज ग्रियर्सन ने जिन मूलभूत आधारों पर अपना यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया है, उन्हें हम सुविधा की दृष्टि से चार भागों में विभाजित कर सकते हैं- (1) इतिहास (2) ध्वनि (3) व्याकरणिक रूप और (4) शब्द समूह।
(1) इतिहास- जार्ज ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को अंतरंग व बहिरंग शाखाओं में इसलिए बाँटा है, क्योंकि हार्नली आदि विद्वानों का यह विचार था कि आर्य लोग दो दलों में भारत आये थे। पहले दल में आये हुए आर्यों ने उनकों मार भगाया और वे उत्तर-पूर्व तथा दक्षिण की ओर भाग गये तथा नवागन्तुक आर्य मध्य देश में बस गये। इसी आधार पर दूसरे दल में आने वाले आर्यों की भाषा को अंतरंग शाखा में तथा पहले दल में आये हुए और उत्तर- पूर्व तथा दक्षिण में शरण लेने वाले आर्यों की भाषा को बहिरंग शाखा में सम्मिलित किया है।
(2) ध्वनि- जार्ज प्रियर्सन ने कितने ही ध्वन्यात्मक आधार भी ऐसे दिये हैं, जिनके फलस्वरूप सुदूर-पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण की भाषाओं में समानता दृष्टिगोचर होती है। ऐसे ही अंतरंग शाखा की भाषाओं में भी साम्य है। जैसे-
(1) बहिरंग शाखा की उत्तर-पश्चिमी तथा पूर्वी शाखा की बोलियों में अंतिम स्वर ‘इ’, उ, ए’ विद्यमान हैं जबकि अंतरंग शाखा की बोलियों में से स्वर लुप्त हो गये हैं।
(2) बहिरंग शाखा की भाषाओं में संस्कृत के ‘इ’ का ‘ए’ तथा ‘उ’ का ‘ओ’ हो जाता है।
(3) बहिरंग शाखा में संस्कृत के ‘उ’ के स्थान पर ‘इ’ मिलता है।
(4) बहिरंग शाखा की भाषाओं में ‘ल’ का ‘र’ और ‘ड’ हो गया है।
(5) बहिरंग भाषाओं में संस्कृत के ‘ऐ’ तथा’औ’ के स्थान पर ‘ए’ और ‘ओ’ मिलते हैं।
(6) बहिरंग भाषाओं में ‘दू’ का ‘इ’ हो गया है, किंतु अंतरंग भाषाओं में ऐसा परिवर्तन हुआ है।
(7) बहिरंग भाषाओं में ‘म्ब’ का परिवर्तन ‘म्’ में हो गया है, जबकि अंतरंग भाषाओं में यह ‘ब्’ हो गया है।
(8) बहिरंग भाषाओं में संस्कृत ‘स’- के स्थान पर ‘ह’ हो जाता है, जबकि अंतरंग भाषाओं में ऐसा नहीं होता।”
(9) बहिरंग भाषाओं में महाप्राण वर्णों का परिवर्तन अल्प्राण में हो गया है, जबकि अंतरंग भाषाओं में यह परिवर्तन नहीं दिखाई देता।
(3) व्याकरणिक रूप- जार्ज ग्रियर्सन ने व्याकरणिक रूप संबंधी अनेक उदाहरण भी ऐसे दिये हैं, जिनके आधार पर आपने इन भाषाओं को अंतरंग एवं बहिरंग शाखाओं में विभक्त किया है। जैसे-
(1) बहिरंग भाषायें में स्त्री-प्रत्यय ‘ई’ का प्रयोग पूर्वी एवं पश्चिमी समुदायों में मिलता है।
(2) बहिरंग भाषायें पुनः श्लिष्टावस्था में प्रवेश कर चुकी है, जबकि अंतरंग भाषाएँ अभी तक विश्लेषणात्मकता में हैं।
(3) बहिरंग भाषाओं में विशेषणात्मक प्रत्यय ‘ल’ विद्यमान है, जबकि अंतरंग भाषाओं में इसका अभाव है।
(4) बहिरंग भाषाओं की भूतकालिक क्रियाओं के साधारण रूपों से ही उनके वचन एवं पुरुष का बोध हो जाता है, जबकि अंतरंग भाषाओं में क्रिया का यह रूप सर्वत्र समान रहता है।
(4) शब्द समूह- इनके अतिरिक्त जार्ज ग्रियर्सन ने बहुत से शब्दों का समान रूप से व्यवहार दिखाकर भी यह सिद्ध किया है की अंतरंग भाषाओं में जिन शब्दों की बहुलता है, बहिरंग भाषाओं में वे अधिक नहीं मिलते। ऐसे ही बहिरंग भाषाओं में जिन शब्दों का अधिक प्रयोग होता है, वे अंतरंग भाषाओं में कम मिलते हैं इस प्रकार आपने शब्द समूह को आधार बनाकर ही इन भाषाओं की पृथकता का निरुपम किया है।
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