हिंदी भाषा एवं लिपि

पूर्वी हिन्दी तथा पश्चिमी हिन्दी में अन्तर

पूर्वी हिन्दी तथा पश्चिमी हिन्दी में अन्तर

पूर्वी हिन्दी तथा पश्चिमी हिन्दी में अन्तर

पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत दो वर्ग हैं एक अकारान्त बहुला (खड़ी बोली) और हरियानी दूसरा ओकारान्त बहुला (ब्रज, बुन्देली आदि)-पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी में ध्वनियाँ लगभग वे ही हैं, जो हिन्दी के सामान्य रूप के अन्तर्गत परिणित होती हैं, (देखिए 5वाँ अध्याय) किन्तु उच्चारण में स्थानीय विशेषतायें है। इसमें ‘अ’ का स्थान अर्द्ध विवृत्त के निकट है तथा ‘ऐ’ और ‘औ’ मूल स्वर हैं। संयुक्त स्वर ‘अइ’, ‘अउ’- ‘ऐ’ ‘औं’ से भिन्न है। विदेशी ध्वनियों क ख, ग,ज, फ का उच्चारण कहीं पर शुद्ध रूप में और कहीं हिन्दीकृत होकर होता है। अंग्रेजी तत्मस शब्दों में ओं तथा अरबी-फारसी तत्सम शब्दों के साथ क, ख, ग, ज, फ आदि हिन्दी ध्वनियों का व्यवहार होता है।

पूर्वी हिन्दी के प्रतिकूल शब्द के मध्यम ‘ह’ का पश्चिमी हिंदी का लोप मिलता है, जैसे – दिया, (पूर्वी हिन्दी-देहिसि) ।

पूर्वी हिन्दी में ‘अ’ का उच्चारण पश्चिम हिन्दी की तुलना में अर्द्धविवृत होता है। पश्चिमी हिन्दी में यह अपेक्षाकृत विवृत है।

पश्चिम हिन्दी की ‘ड’, ‘ढ’ ध्वनियाँ पूर्वी हिन्दी में प्रायः ‘र’ ‘रह’ जैसी उच्चारित होती है, जैसे तोड़े (पश्चिमी हिन्दी ) -तोरे (पूर्वी हिन्दी) दोनों में ‘र’, ‘ल’ में श्री उच्चारण भेद है। पश्चिमी हिन्दी के फल, हल आदि के लिए पूर्वी हिन्दी में फर, हर आदि और पश्चिमी हिन्दी में ‘रस्सी’ जैसे शब्दों की ‘र’ ध्वनि पूर्वी में ‘लेजुरी’ जैसे उच्चारण देकर ‘ल’ रूप में मिलती है। इस प्रकार कहीं- कहीं पश्चिमी का ‘र’ पूर्वी में ‘ल’ तथा पूर्वी का ‘र’ पश्चिमी में ‘ल’ रूप में उच्चारित होता है।

पश्चिमी हिन्दी में दो स्वर प्रायः एक साथ नहीं आते पर पूर्वी में ऐसा बंधन नहीं है- कहै (पश्चिमी) कहइ (पूर्व और (पश्चिमी) > अउर (पूर्वी)।

पूर्वी हिन्दी के शब्द के आरम्भ में आगत ‘ए’, ‘ओ’, पश्चिमी में ‘य’ ‘व’ के रूप में मिलते हैं, यथा -यामें, वामें (पश्चिमी हिन्दी)- एमें, (पूर्वी हिन्दी), पश्चिमी हिन्दी के आकारान्त (ब्रज के ओकारान्त) शब्दों का ‘आ’ पूर्वी हिन्दी में या ता हस्व हो जाता है या लुप्त हो जाता है। जैसे ‘बड़ा’, ‘भला’ आदि पश्चिम हिन्दी के शब्द पूर्वी हिन्दी में ‘बड़भल’, आदि श्रुत होते हैं।

पश्चिमी हिन्दी में आकारान्त शब्दों के ‘आ’ का विकारी रूप ‘ए’ है किन्तु पूर्वी में विकारी रूप भी ‘आ’ ही है। जैसे, लड़का-लड़के (पश्चिमी हिन्दी ), लड़कवा- लड़किया (पूर्वी हिन्दी ) ।

पश्चिमी हिन्दी में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के कर्ता का परसर्ग ‘ने’ है जो पूर्वी हिन्दी में प्रयुक्त नहीं होता है। अन्य कारकों के परसर्ग भी पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी में प्रायः भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पश्चिमी हिन्दी में कर्म- सम्प्रदान में को, क, कु, कॅ, कू, के, को (पूर्वी हिन्दी में, कहँ, को, का, काँ, के), करण-अपादान में- सूं, सें, सै, तै, से, (पूर्वी हिन्दी में, से, ते, तें, ले, सन आदि) समबन्ध में का, की, के, की आदि) अधिकरण में में, मैं, पे,पै, पर आदि (पूर्वी हिन्दी में, मैं, मह, मों, पर माँझ आदि) व्यवहत होते हैं।

सम्बन्ध और प्रश्नवाचक सर्वनाम के रूप पूर्वी हिन्दी में ‘जे’ ‘से’ और ‘के’ हैं तथा पश्चिमी हिन्दी में क्रमशः जो, सो और कौन का प्रयोग होता है।

पूर्वी हिन्दी के शब्द ‘मोर’ ‘तोर’ के लिए पश्चिमी में ‘मेरा’, ‘तेरा’ प्रयुक्त होते हैं। पश्चिमी हिन्दी में पुरुषवाचक सर्वनाम के एकवचन में ‘हम’ तथा बहुवचन में ‘हमन’ प्रयुक्त होता है।

क्रिया पदों की दृष्टि से भी पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। पूर्वी हिन्दी के क्रियारूपों में सर्वनाम अन्तर्युक्त रहते हैं, जैसे- डारेउ, ‘मैने डाला’, डारिस। ‘तूने डाला’, अहेउँ, आहेउ ‘मैं हूँ, पूर्वी भाग में – बाटेऊँ आदि, किन्तु पश्चिमी हिन्दी में पुरुषवाचक सर्वनाम भिन्न-भिन्न होता है और क्रियारूप एक ही ‘डाला’ होगा, जैसे ‘मैने डाला’ ‘उसने डाला’ आदि। पूर्वी हिन्दी में क्रिया कर्त्ता मूलक होती है। जैसे- नहाय लिए (नहा लिया)

पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी में भविष्यकालिक क्रिया की विशेषता भी भिन्न-भिन्न हैं। संस्कृत में भविष्य काल के रूप दो प्रकार से बनते हैं- 1-कर्तृवाच्य भावे रूप में, जैसे ‘चलिष्यति’, 2- कर्मवाच्य कृदन्त भावे रूप में, जैसे ‘चलितव्यम। पश्चिमी हिन्दी (ब्रजभाषा आदि में) ‘चलिष्यति’ से चलिहै’, चलिहौ, जैसे प्रयोग विकसित हुए चलिष्यति > चलिस्यति > चलिहइ > चलिहै। पूर्वी हिन्दी में संस्कृत कर्म वाच्य कृदन्त के भावे रूप का विकास इस प्रकार हुआ चलितव्यम > चलिदब्वं > चलिअन्वं > चलब। ‘चलिहै’ और ‘चलब’ क्रमशः पश्चिमी (विशेषताः ब्रजभाषा) तथा पूर्वी हिन्दी के भविष्यत् काल के रूप है। भविष्यकालिक क्रिया रूपों के अन्त में ‘ग’ रूपों (अर्थात गा, गे, गी आदि) का होना पश्चिमी हिन्दी की अतिरिक्त विशेषता है।

पश्चिमी और पूर्वी हिन्दी की विशेषताओं का भिन्न-भिन्न होना उनकी मूल भाषाओं के अनुसार ही है। पश्चिमी हिन्दी का विकास ‘शौरसेनी’ से तथा पूर्वी हिन्दी का ‘अर्धमागधी’ से हुआ और इन्हीं के अनुसार इनमें भिन्नता मिलती है।

पश्चिमी हिन्दी बोलने वालों की संख्या लगभग चार करोड़ तथा पूर्वी हिन्दी की भाषियों की संख्या लगभग दो करोड़ 78 लाख है।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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