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भारतीय आर्य भाषाएँ| भारतीय आर्यभाषा का काल विभाजन | प्राचीन भारतीय आर्यभाषाएँ | वैदिक भाषा की ध्वनियाँ | वैदिक भाषा की विशेषताएँ

भारतीय आर्य भाषाएँ | भारतीय आर्यभाषा का काल विभाजन | प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ | वैदिक भाषा की ध्वनियाँ | वैदिक भाषा की विशेषताएँ

भारतीय आर्य भाषाएँ

भारतीय आर्य भाषा का महत्व संसार की समस्त भाषाओं से अधिक है इस महत्व का श्रेय प्रमुख रूप से संस्कृत भाषा को जाता है इसके महत्व के कारण निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व की किसी भी अन्य प्राचीन भाषा का साहित्य इतना समृद्ध नहीं है और न ही इतना प्रामाणिक है।
  2. ग्रीक तथा लैटिन यूरोप की इन दोनों प्राचीन भाषाओं का साहित्य मिलकर भी मात्रा में संस्कृत-साहित्य से कम ही बैठता है।
  3. इस वर्ग में वैदिक, बौद्ध और जैन, इन तीनों प्रमुख धर्मों का तथा अन्य अनेक धर्मों का साहित्य प्राप्त होता है।
  4. भारतीय आर्यभाषा की प्राचीनतम भाषा, वैदिक भाषा का साहित्यिक ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है।
  5. यूरोप में संस्कृत भाषा के अध्ययन के साथ ही भाषाविज्ञान को एक विज्ञान के रूप में मान्यता दी गई है।

भारतीय आर्यभाषा का काल विभाजन

काल की दृष्टि से भारतीय आर्यभाषा की पूरी श्रृंखला को 3 भागों में बाँटा गया है-

(क) प्राचीन भारतीय आर्यभाषाएँ (मा0भा0आ0)- 1500 ई0पू0 से 500 ई0 पू0 तक।

(ख) मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाएँ (म०भा० आO)- 500 ई0पू0 से 1000 ई0 तक।

(ग) आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ (आ0 मा0 आ0)- 1000 ई0 सन् से अब तक।

प्राचीन भारतीय आर्यभाषाएँ

इनका समय 1500 ई0पू0 से 500 ई0पू0 तक माना गया है। इस वर्ग में भाषा के दो रूप उपलब्ध होते हैं- (1) वैदिक या वैदिक संस्कृत (2) संस्कृत या लौकिक संस्कृत।

वैदिक या वैदिक संस्कृत-इसे ‘वैदिक भाषा, ‘वैदिकी’, छान्दस् या ‘प्राचीन संस्कृत’ भी कहा जाता है। वैदिक भाषा का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है। यद्यपि अन्य तीनों संहिताओं, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा प्राचीन उपनिषदों आदि की भाषा में वैदिक ही है, किंतु इन सभी में भाषा का एक ही रूप नहीं मिलता है। ‘ऋग्वेद’ के दूसरे मंडल से नौवें मंडल तक की भाषा ही सर्वाधिक प्राचीन है।

यह ‘अवेस्ता’ के अत्यधिक निकट हैं। शेष संहिताओं तथा अन्य ग्रंथों में भाषा का क्रमिक विकसित रूप प्राप्त होता है। पो. आन्त्वां आदि विद्वानों का मत है ऋग्वेद की उन ऋचाओं की भाषा ही प्राचीनतम है, जिनमें आर्यों का वातावरण तत्कालीन पंजाब के वातावरण से मिलता- जुलता है। इसी प्रकार वैदिक भाषा के दो अन्य रूप-दूसरा और तीसरा भी वैदिक साहित्य में प्राप्त हुए हैं। दूसरे रूप पर मध्यदेशीय भारत का तथा तीसरे रूप पर पूर्वी भारत का प्रभाव स्पष्ट है। इससे ज्ञात होता है कि वैदिक भाषा का प्रवाह अनेक शताब्दियों तक रहा। भाषाविदों का विचार है कि वैदिक भाषा का जो रूप हमें आज वैदिक साहित्य, विशेषतः ऋग्वेद में प्राप्त होता है, वह तत्कालीन साहित्यिक भाषा ही थी, बोलचाल की भाषा नहीं थी। तत्कालीन बोलचाल की भाषा को जानने का कोई साधन आज हमारे पास उपलब्ध नहीं है।

वैदिक भाषा की ध्वनियाँ

वैदिक भाषा की ध्वनियाँ मूलभारोपीय ध्वनियों से कई बातों में भिन्न हैं-

  1. मूलभारोपीय तीन मूल स्वरों- आ, एँ, ओ के स्थान पर वैदिक में केवल एक ‘अ’ ही मूल हस्व स्वर शेष है।
  2. मूलभारोपीय तीन मूल दीर्घ स्वरों- आ, ए, ओ के स्थान पर वैदिक में केवल एक ‘अ’ ही मूल ह्रस्व स्वर शेष है।
  3. मूलभोरोपीय में प्राप्त न, म् अंतस्थ ध्वनियों का वैदिक में लोप हो गया है।
  4. मूलभारोपीय में तीन प्रकार की कवर्ग ध्वनियाँ थी किंतु वैदिक में एक ही प्रकार कवर्ग (क, ख, ग, घ्) ध्वनियाँ।
  5. मूलभारोपीय में चवर्ग तथा टवर्ग का नितान्त अभाव था, जबकि वैदिक ध्वनियों में ये नये दो वर्ग आ मिले हैं। मूर्धन्य टवर्ग ध्वनियों का आगमन वैदिक संस्कृत की बहुत बड़ी विशेषता है, जिसका कारण द्रविड़ भाषा का प्रभाव है।
  6. मूलभारोपीय में एक ही ‘स’ (ऊष्म) ध्वनि थी। वैदिक में इसके साथ ही श् तथा ष् ये दो (उष्म) ध्वनियाँ और आ जुड़ी हैं। इस प्रकार वैदिक ध्वनि-समूह में निम्नलिखित ध्वनियाँ हैं।

वैदिक ध्वनि-समूह

मूलस्वर – अ, आ, इ, इ, उ, उ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ओ      =11

संयुक्त स्वर- ऐ, (अइ), औ, (अउ)                 = 2

कंठ्य – क, ख, ग, वू, ङ्, (कवर्ग)               = 5

तालव्य- च्, छ्, ज्, झ, ञ, (चवर्ग)                = 5

मूर्धन्य- टू, टू, ड्, ळ्, द्, ण् (टवर्ग)                  =7

दन्त्य- तू, थ्, द्, ध्, न, (पवर्ग)                       =5

ओष्ठ्य प्, फ्, व्, भ् म् (पवर्ग)                      =5

दन्तोष्ठ्य – व्                                           = 1

अन्तस्थ- पू, र, ल, व्                                  = 4

शुद्ध अनुनासिक- अनुस्वार (0)                    =1

संघर्षी शू, ष, स्.ह् (क, ख) पूर्व अर्द्वविसर्गदृश) जिह्वामूलीय (प, फ् से पूर्व अर्द्धविसर्ग सदृश) उत्तरी उपाध्मानीय      =46

कुल =52

वैदिक भाषा की विशेषताएँ

प्रत्येक भाषा का अपना एक विशिष्ट स्वरूप होता है। प्रतयेक भाषा अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के कारण अपना अलग-अलग अस्तित्व रखती है। किसी भाषा की ऐसी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. वैदिक भाषा में स्वरों के ह्रस्व और दीर्घ उच्चारण के साथ ही उनका प्लुत उच्चारण भी होता है, आसीइत विन्दती उ इत्यादि।
  2. वैदिक भाषा में ‘ल’ स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है।
  3. वैदिक भाषा में संगीतात्मक स्वराघात का अधिक महव है। इसमें तीन प्रकार के स्वर हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। वैदिक मंत्रों के उच्चारण में इनका ध्यान रखना अनिवार्य होता है।
  4. स्वर-परिवर्तन से, शब्दों के अर्थों में भी परिवर्तन हो जाता है। ‘इंद्रशत्रुः’ इसका प्रसिद्ध उदाहरण है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी वैदिक भाषा का स्वराघात प्रधानता का अधिक महत्व है।
  5. वैदिक भाषा की व्यंजन ध्वनियों में ळ् और ळ्ह दो ऐसी ध्वनियाँ हैं, जो उसे अन्य भाषाओं से पृथक करती है, जैसे ‘इळ्ळ्’ ‘अग्निी आदि।
  6. प्राचीन वैदिक में ‘लू’ के स्थान पर प्रायः ‘र’ का प्रयोग मिलता है, जैसे- ‘सलिल’ के स्थान पर सरिर’ ।
  7. वैदिक भाषा में संधि-नियमों में पर्याप्त शिथिलता दिखाई देती है। अनेक बार संधि योग्य स्थलों पर भी संधि नहीं होती और दो स्वर साथ-साथ प्रयुक्त हो जाते हैं, जैसे-‘तितण्द’ (अ, उ) ‘गोओपशा’ (ओ, ओ) ।
  8. वैदिक भाषा में शब्द-रूपों में पर्याप्त अनेकरूपता दिखाई देती है। उदाहरण के लिए प्रथमा विभक्ति, द्विवचन, में ‘देवा’ और ‘देवौ’, प्रथमा विभक्ति बहुवचन में ‘जनाः’ और ‘जनासः’ तृतीय विभक्ति बहुवचन में ‘देवैः’ और ‘देवेभिः’ दो-दो रूप प्राप्त होते हैं। यह विविधता कुछ अन्य रूपों में भी दिखती हैं।
  9. यही विविधता धातुरूपों में भी उपलब्ध होती है। एक ही ‘कृ’ धातु के लट्लकार, प्रथम पुरुष में- कृणोति’, ‘कुणुते’, ‘करोति’, ‘कुरुते’, ‘करति’ आदि अनेक रूप मिलते हैं।
  10. धातुओं से, एक ही अर्थ में अनेक प्रत्यय लगते हैं। जैसे, एक ही ‘तुमुन’, प्रत्यय के अर्थ में ‘तुमुन’, ‘स’ सेन्’ ‘असे’, ‘असेन्’, ‘कसे’, ‘कसेन्’, ‘अर्ध्य’, ‘अध्यैन्’, ‘कध्यै’ ‘कध्यैन्’ ‘शध्यै’, ‘शध्यैन्’ ‘तवै’, ‘तवेड् और ‘तवेन्- ये 16 प्रत्यय मिलते हैं। यही विविधता तत्वा आदि अन्य अनेक प्रत्ययों में भी है।
  11. वैदिक भाषा में उपसर्गों का प्रयोग स्वतंत्र रूप से होता था। उदाहरणार्थ “अभि त्वापूर्वपीतये सृजामि”-(ऋग्वेद 1/19/19) ‘अभि’ उपसर्ग का प्रयोग ‘सृजामि’ क्रियापद से पृथक स्वतंत्ररूप से हुआ है। इसी प्रकार “मानुषान् अभि’ (ऋ0 1/48/7) में ‘अभि’ स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त है।
  12. पदरचना की दृष्टि से वैदिक भाषा श्लिष्टयोगात्मक है। संबंधत्व (प्रत्यय) के जुड़ने पर यहाँ अर्थतत्त्व (प्रकृति) में कुछ परिवर्तन तो हो जाता है, किंतु अर्थतत्व तथा संबंधतत्व को अलग से पहचाना जा सकता है। जैसे- ‘गृहाणाम, यहाँ ‘गृह प्रकृति’ तथा ‘नाम् प्रत्यय स्पष्ट रूप से पहचाने जाते हैं।

संक्षेप में, वैदिक भाषा में प्रयोगों की अनेकरूपता को देखने से लगता है कि आज वैदिक भाषा का जो स्वरूप हमें दिखाई देता है, वह तत्कालीन अनेक बोलियों का मिला-जुला रूप है, जिनमें देश-भिन्नता तथा काल-भिन्नता, दोनों का ही होना संभव है। संभवः, उस काल की जनसामान्य की विविध बोलियों का ही, हिंदी की खड़ी बोली के समान, एक परिनिष्ठित साहित्यिक रूप वह वैदिक भाषा है जो हमें आज ‘ऋग्वेद‘ आदि में प्राप्त होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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