हिंदी भाषा एवं लिपि

पालि भाषा का हिंदी में योगदान | पालि भाषा का हिंदी से सम्बन्ध | पालि भाषा की विशेषतायें

पालि भाषा का हिंदी में योगदान | पालि भाषा का हिंदी से सम्बन्ध | पालि भाषा की विशेषतायें

पालि भाषा का हिंदी में योगदान

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं में सर्वप्रथम पालि भाषा का विकास हुआ। पालिभाषा जब संस्कृत साहित्यिक स्तर पर सर्वोत्कृष्ठ थी तो ग्रामीण भाषा के रूप में विद्यमान थी। कालांतर में जब संस्कृत की भाँति पालि में भी साहित्य रचना हुई तो इसका महत्त्व बढ़ गया और वह जन भाषा और साहित्यिक भाषा दोनों रूपों में विद्यमान हो गयी।

पालि भाषा का विकास क्षेत्र पाटलिपुत्र को माना गया है और इनका विकास मागधी के आधार पर बताया गया है कि जबकि कुछ लोग इसे उज्जयिनी की भाषा मानते हैं क्योंकि अशोक के पुत्र महेंद्र उज्जयिनी में रहा करते थे। कुछ लोग इसे पूर्वी प्रभाव के कारण अर्ध मागधी से व्युत्पन्न मानते हैं। विद्वानों का एक वर्ग इसे सिंहली से विकसित मानता है वस्तुतः पालि का विकास सर्वप्रथम गौतम बुद्ध ने किया था किंतु उसका लिखित रूप अशोक के शिलालेखों में मिलता है। ये शिलालेख ब्राह्मी और खरोष्ठी में लिखे गये हैं तथा विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार वहाँ की स्थानीय भाषा से प्रभावित हैं। विद्वानों के मतानुसार गिरनार का शिलालेख ही मूल श्रेष्ठ पालि के निकट है तथा यह मागधी से प्रभावित है अतः मगध को ही पालि का मूल क्षेत्र मानना चाहिये। वस्तुतः ‘पालि’ बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ न केवल समग्र भारत की भाषा बन गयी वरन् उस युग में उसका अंतर्राष्ट्रीय महत्व हो गया था और उसका प्रसार, चीन, जापान और लंका तक व्याप्त था। आज भी उसका स्वरूप उन्हीं देशों में सुरक्षित है। पालि में गौतम बुद्ध के उपदेशों का संग्रह त्रिपिटिक, जातक कथायें, अट्ठकथा जैसे बौद्ध धर्म के समग्र ग्रंथ लिखे गये थे। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं से संस्कृत तर्क की परंपरा में पालि संस्कृत के पश्चात् प्रथम कड़ी है। वस्तुतः हिंदी में पालि का योगदान नगण्य ही रहा है किंतु धम्मपद और जातकों ने हिंदी को समृद्ध बनाने में सहयोग दिया है।

पालि भाषा की विशेषतायें-

पालि साहित्य को पिटक और अनुपिटक दो वर्गों में बाँटते हैं, जिनमें जातक धम्मपद, मिलिंद पंहो, बुद्धघोष की अट्टकथा, महावंश आदि प्रमुख हैं। पालि की विशेषतायें इस प्रकार हैं-

पाली में 47 ध्वनियाँ मानी जाती हैं जो इस प्रकार हैं-

स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, उ, एँ, ओ, ए ओ,           

=10

व्यंजन- क-वर्ग, च-वर्ग, ट-वर्ग, त-वर्ग, प-वर्ण         

= 25

य, य्, र्, ल, ल्, ह, व, व् स्, ह् तथा निग्गहीत (अनुनासिक)                       

= 12

 

= 47

(क) स्वर मध्यम अघोष व्यंजन के घोष होने की प्रवृत्ति मिलती है।

जैसे- माकन्दिय-मागन्दिय, स्फुटिक-फलिक

(ख) स्वर मध्यम घोष व्यंजन के अघोष होने की विरलता है। जैसे- मृदंग-मूर्तिग परिध- परिख, गगुरू-अकलु।

(ग) अल्पप्राणों के स्थान पर महाप्राणों के और महाप्राणों के स्थान पर अल्पप्राणों के प्रयोग की प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। जैसे- सुकुमार-सुखमाल, परश-फरसु, कील-खील तथा भुगिनी-बहिणी, व्यंजन का रूप लेने की प्रवृत्ति अत्यधिक प्रबल है।

(घ) समीकरण- अर्धव्यंजन का परवर्ती। जैसे- निम्न-निम्न, मार्ग- मग्ग, कर्म-कम्म, जीर्ण-जिण्ण। समीकरण की इस प्रवृत्ति में संस्कृत के संयुक्त व्यंजनों के पूर्व का दीर्घस्वर ह्रस्व हो गया है और संयुक्त व्यंजन द्वित्व हो गया है यह इस तथ्य का सूचक है कि पालि में विशेष मात्रा नियम मिलता है। यहां अक्षर एक मात्रा अथवा दो मात्राओं के ही हैं।

(ङ) स्वर मध्यम संस्कृत व्यंजन ध्वनियों- इ, द, स्थान पर लू लह का प्रयोग मिलता है जैसे मीढ़-मील्हू ।

(च) र्- ल् ध्वनियों में पारस्परिक परिवर्तन हो जाता है जैसे- तरुण-तलुण, मिल्किर।

(छ) घोष महाप्राण व्यंजनों के ‘ह’ हो जाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है जैसे-भंति-होवि पालि में स्वराघात के दोनों रूप-बलात्मक तथा संगीतात्मक मिले हैं इनमें अधिकता कलात्मक की ही है।

व्याकरण की दृष्टि से पालि भाषा न केवल वैदिक भाषा के समान स्वच्छंद है अपितु उसकी अपेक्षा सरल भी है व्याकरण की दृष्टि से पालि की विशेषतायें इस प्रकार हैं-

(क) अन्त्य व्यंजन लोप तथा स्वरागम के सामान्य नियम के कारण व्यंजनान्त रूपों का अभाव है। जैसे- विद्युत तथा शरत् शरद् ।

(ख) भिन्न श्वरांत शब्दों के रूप-सादृश्य के कारण समान हो गये हैं। जैसे- देवस्य, अग्निस्स, मिक्खुस्स (अकारांत, इकारांत तथा उकारांत शब्दों के एक वचनांत रूप)।

(ग) यूँ तो लिंग तीन हैं, परंतु नपुंसक लिंग पुल्लिंग में समाविष्ट हो गया है।

(घ) वचन दो हैं- एकवचन तथा बहुवचन द्विवचन नहीं।

(ङ) वैदिक भाषा के समान पालि में एक ही शब्द की एक विभक्ति के एक से अधिक रूप भी मिलते हैं, जैसे- धम्म-धम्मस्मि, धम्मम्हि ।

(च) क्रियारूपों में तीन पुरुष और दो वचन हैं। धातुओं के गण दस हैं, परंतु पद तक परस्मैपद ही है। गणों की सत्ता लुप्त होती प्रतीत होती है। क्रियायें चार हैं- निश्चय आजा, आदरार्थ आजा तथा संभावना काल भी चार हैं- लट्, लुङ, ऌट और ऌङ।

शब्द- पालि में तद्भव शब्दों की अधिकता है।

बोलियां- पालि में विकास की दृष्टि से कम से कम उसके चार रूप मिलते हैं।

पालि का संक्षिप्त परिचय

प्रथम प्राकृत-काल- यह काल 500ई0 पूर्व से ईसवी सन् के आरंभ तक माना जाता है। इस काल की प्रमुख भाषा पालि है। यह पालि भाषा मूलतः कहाँ प्रचलित थी? इस प्रश्न पर सभी विद्वान एकमत नहीं हैं। परंतु आज इतना सभी मानते हैं कि बुद्ध भगवान् ने मागधी भाषा में अपने उपेदश दिये थे और कुछ काल उपरांत उन्हीं उपदेशों को जिसे लोक प्रचलित एवं राष्ट्रीय भाषा में अंकित करके प्रचारित किया गया, वही भाषा ‘पालि’ के नाम से प्रसिद्ध है। आज संपूर्ण पालि-साहित्य भगवान बुद्ध से संबंधित है, क्योंकि बौद्ध धर्म संबंधी संपूर्ण प्राचीन काव्य, गाथायें आदि पालि-भाषा में ही मिलती हैं। आगे चलकर संस्कृत भाषा में भी बौद्ध साहित्य का निर्माण हुआ है, परंतु अधिकांश प्राचीन बौद्ध साहित्य की भाषा में भी बौद्ध साहित्य का निर्माण हुआ है, परंतु अधिकांश प्राचीन बौद्ध साहित्य की भाषा प्रालि ही है। कुछ  विद्वान मागधी और पालि भाषा को एक ही मानते हैं, परंतु आधुनिक विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं, क्योंकि मागधी भाषा का क्षेत्र सीमित था और वह प्राचीन मगध प्रदेश में ही बोली जाती थी, जबकि पालि का क्षेत्र व्यापक था और यह अंतर्प्रान्तीय भाषा हो गई थी। इतना आवश्यक है कि पालि भाषा पर अन्य बोलियों का भी प्रभाव पड़ा था। इसके अतिरिक्त यह धारणा भी निर्मूल है कि पालि आदि प्राकृत भाषाओं का जन्म संस्कृत भाषा से हुआ है, क्योंकि संस्कृत और प्राकृत भाषा के रूपों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यही ज्ञात होता है कि मध्यकालीन आर्यभाषाओं का विकास संस्कृत से न होकर स्वतंत्र रूप से हुआ है। अतएव पालि भाषा की संस्कृत से विकसित न होकर एक ऐसी मिश्रित भाषा मानी जा सकती है, जिसमें मध्य देश की बोलियों की प्रवृत्तियों का प्राधान्य है और कुछ अंश अन्य प्रादेशिक बोलियों के भी हैं। इस भाषा में बुद्ध भगवान् के वचनों का संग्रह ‘त्रिपिटक’ (तिपिटक) के नाम से प्रसिद्ध है, जो सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक कहलाते हैं। इसके अनंतर इन पिटकों पर लिखी हुई टीकायें। मिलती हैं, जो अनुपिटक कहलाती हैं। सुत्तपिटक में पाँच निकाय हैं- दीर्घनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुदद्दकनिकाय। इनमें से खुद्दनिकाय का धम्मपद अत्यंत महत्वपूर्ण है। विनयपिटक में तीन ग्रंथ सम्मिलित हैं- सुत्तविभंग, खंधक और परिवार-पाठ। इसी तरह अभिधम्मपिटक में सात ग्रंथ सम्मिलत हैं- धम्मसंगणी, विभंग, कथावत्थु, पुग्गलपंचति, धातुकहा, यमक और पट्टानप्यकरण। ये सभी ग्रंथ दार्शनिक विचारों से परिपूर्ण हैं। जातक- कथायें भी पालि भाषा की महत्त्वपूर्ण देन हैं। अनुपिटक का अधिकांश भाग सिंहली विद्वानों द्वारा रचा गया है। इन ग्रंथों में भी संवाद या कथा के रूप में दार्शनिक विवेचन किया गया है। इनके अतिरिक्त पालि भाषा में छंदशास्त्र, व्याकरण तथा कोष ग्रंथ भी मिलते हैं। इस प्रकार पालि- साहित्य का रचना काल 481 ई0 पूर्व से आधुनिक युग तक लगभग ढाई हजार वर्षों में फैला हुआ है, और इसने एशिया के एक अरब से अधिक व्यक्तियों को कई दृष्टि से प्रभावित किया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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