हिंदी भाषा एवं लिपि

हिंदी की उपभाषाओं का परिचय | खड़ी बोली का परिचय | हिंदी की उपभाषाएँ

हिंदी की उपभाषाओं का परिचय | खड़ी बोली का परिचय | हिंदी की उपभाषाएँ

हिंदी की उपभाषाओं का परिचय

राजस्थानी क्षेत्र तथा विशेषताएँ-

उत्तर भारत के वर्तमान राजस्थान प्रदेश की यह भाषा है। इसके उत्तर में पंजाबी, दक्षिण में मराठी और पूर्व में ब्रज भाषा की सीमाएं हैं। भाषा के लिये ‘राजस्थानी’ शब्द का प्रयोग समूहवाची शब्द के रूप में हुआ है। इसके अंतर्गत राजस्थान की कतिपय बोलियों की गणना की जाती है। सर्वप्रथम डॉ० ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों की रूपरेखा प्रस्तुत की। पुरानी राजस्थानी का विधिवत् परिचय डॉ० एल०पी० तेस्सितोरी ने दिया। तदन्तर डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी ने राजस्थानी का ऐतिहासिक तथा भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट विवेचन प्रस्तुत किया। तेस्सितोरी ने यह स्पष्ट किया कि पश्चिमी राजस्थानी और गुजराती एक मूल स्रोत से विकसित हुई। पुरानी राजस्थान की साहित्य भी काफी संपन्न है। इसमें प्राचीन गद्य और पद्य दोनों मिलता है, यह इसकी मुख्य विशेषता है। शौरसेनी अपभ्रंश से उद्भूत पिंगल तथा ब्रजभाषा का प्रभाव अर्वाचीन राजस्थानी पर यथेष्ट रूप में पड़ा। पिंगल के अनुकरण पर ही राजस्थानी-काव्य की विशेष भाषा ‘डिंगल’ का आविर्भाव हो गया जिसका साहित्य 15वीं शताब्दी से उपलब्ध होता है।

राजस्थानी की कतिपय विशेषताएँ ये हैं-

(क) ध्वनि संबंधी-

  1. प्रायः शब्द के आदि में अ इ तथा शब्द के मध्य इ, अ के रूप मिलते हैं। यथा- सरदार > सिरदार, रिण > हिरण, पंडित > पिंडत्त, दिन > दन, मानुष > माणस, मिलाप > मलाप आदि।
  2. ण तथा ल ध्वनियों का विशेष प्रयोग होता है। यथा-काल, फल, थल आदि।
  3. शब्द के आरंभ तथा मध्य में घोष महाप्राण व्यंजन, घ, झ, ढ, ध, भ का उच्चारण क्ल्कि (Click) ध्वनि के रूप में होता है। यथा घोड़ा- गे ड्रो-, बाघ- बाग, लाभ > लाब आदि।

(ख) व्याकरण संबंधी –

  1. पश्चिमी हिंदी के सदृश संज्ञा पुलिंग कर्त्ता कारक एक वचन का रूप समान होता है। यथा-घोड़ो।
  2. पश्चिमी राजस्थानी के संबंधकारक में-रा, री, रो प्रत्यय लगते हैं। यथा-उणरो-उसका, उणरी-उसकी।
  3. संज्ञा आदि के विकारी रूप बहुवचन में- आं विभक्ति लगती है। यथा-सहीं, तोपां आदि।
  4. उत्तम पुरुष तथा मध्यम पुरुष के सर्वनामों के संबंध कारक एकवचन में म्हारो, थारो रूप होते हैं।
  5. संज्ञा, सर्वनाम आदि में विभक्ति-चिन्ह तथा कारक-चिन्ह दोनों का प्रयोग होता है।
  6. सहायक क्रिया- ‘है’ के लिये-‘आछ’ धातु रूप का सीमित प्रयोग जयपुरी में होता है। क्या छूं, छं, छय आदि में ‘छ’ रूप का व्यापक प्रयोग होता है।
  7. भविष्यकाल के रूप-सी स्यू आदि विभक्तियों तथा ला, ली आदि प्रत्ययों के योग से बनाये जाते हैं। यथा-रहसीं, रहस्यूं, बूड़ेला-डूबेगा।

खड़ी-बोली-क्षेत्र तथा विशेषताएँ

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है खड़ी बोली रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून आदि उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में बोली जाती है। इस क्षेत्र के पश्चिम में पंजाबी एवं बांगरू, उत्तर में पहाड़ी बोलियाँ तथा दक्षिणपूर्व में ब्रजभाषा का क्षेत्र है।

इसकी बोली कुछ ध्वनि संबंधी विशेषताएँ हैं-

(क) ऐ औ, ध्वनियों का सर्वथा अभाव है। हिंदी की तुलना में इनके स्थान पर क्रम से ‘ए’ और ‘ओ’ मिलती हैं। यथा-

ओर < और, हे < है।

(ख) अधिकांश स्थानों पर जहाँ हिंदी में ‘न’ मिलता है, वहाँ ‘ण’ ध्वनि का प्रयोग होता है,

(ग) मूर्धन्य ध्वनि ‘ळ’ का प्रयोग राजस्थानी और पंजाबी की ही भाँति किया जाता है। किंतु खड़ी बोली के रूप में इस ध्वनि का सर्वथा अभाव मिलता है।

(घ) व्यंजनों के द्वित्व रूप अर्थात् दीर्घ व्यंजनों से युक्त शब्दावली का प्रयोग होता है। यथा- रन्नी, पुच्छा आदि।

यथा- बेट्टी, लोट्टा (यहाँ ए और ओ दोनों ध्वनियाँ उच्चारण में ह्रस्व ही हैं)।

(ङ) व्याकरण संबंधी विशेषताओं में अग्रलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं-

(क) संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, कृदंत आदि रूपों में ब्रज तथा बुंदेली के अंतय औ, ओ की अपेक्षा शब्दांत में आ ध्वनि का प्रयोग हुआ है। यथा- भलौ, भलो > भला, मेरौ, मेरो > मेरा, गयो, गऔं > गया आदि।

(ख) संज्ञा के विकारी रूप बहुवचन में ओं के स्थान पर इस बोली है। आं मिलता है। यथा-लड़कों-लड़कां-घरों-घरां।

(ग) कर्तृवाच्य में वर्तमान काल का रूप सहायक क्रिया के साथ वर्तमान कृदंत की अपेक्षा सामान्य वर्तमान जोड़कर प्रयुक्त किया जाता है। यथा- (मेरठ के आस-पास के प्रदेश में)-

खाता हूँ > खाऊँ हूँ, मारता हूँ > मारूं हूँ।

इसी प्रकार अपूर्ण रूप भूत के लिए सहायक क्रिया के साथ अन्त्य ए कृदन्त का प्रयोग होता है। यथा वह पढ़े था, मैं मारे था।

हिंदी की अन्य बोलियों की अपेक्षा इसमें अरबी, फारसी शब्दों का प्रयोग अधिकांश से हुआ ।

बांगरू-क्षेत्र तथा विशेषताएँ

स्थान और बोलने वालों की जाति के अनुरूप यह बोली कई नामों से व्यवहृत होती है। हरियाना के आस-पास इसको ‘हरियानी’ अथवा ‘देसाड़ी’, रोहतक और दिल्ली में जाटों के नाम पर ‘जादू’ एवं अन्य स्थानों में ‘बांगरू’ (बांगर-प्रदेश से संबंधित) नाम से प्रचलित हैं। परंतु इन सभी बोली-विभेदों में प्रायः समानता मिलती है। इनका क्षेत्र विस्तार दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार तथा पटियाला तथा झीदं स्थानों तक पाया जाता है। पश्चिम में पंजाबी, दक्षिण में मारवाड़ी दक्षिण-पूर्व में ब्रज और उत्तर-पूर्व में बोली का प्रभाव दिखाई देता है। इसके बोलने वालों की संख्या 22 लाख से ऊपर है।

(क) ध्वनि संबंधी विशेषताओं में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-

(1) मूर्धन्य ‘ण’ का प्रयोग बहुलता से मिलता है, हिंन्दी में इस स्थान पर ‘न’ का ही प्रयोग हुआ अपणा अपना, होणा होना।

(2) मूर्धन्य ळ भी बहुप्रयुक्त ध्वनि है। यथा-काल < काल (ठीक राजस्थानी बोलियों की ही भाँति)।

(3) ‘ड्र’ ध्वनि का प्रयोग नहीं मिलता। इसके स्थान ‘ड’ का प्रयोग प्रचलित है। यथा-बडा < बड़ा।

(4) शब्द में द्वित्व व्यंजनों का प्रयोग खड़ी बोली की भाँति बहुतायत से हुआ है तथा इनके पूर्व के स्वर ‘आ’ को छोड़कर सभी ह्रस्व, रूप में मिलते हैं। यथा-मुक्का < मूका, भित्तर < भीतर, परंतु चालनणा चाल्ल्या, घाल्लाणा, घाल्ल्या।

(ख) व्याकरण-संबंधी विशेषताएँ संक्षेप में इस प्रकार दी जा सकती हैं-

(1) खड़ी बोली से कहीं अधिक मात्रा में तिर्यक बहुवचन के रूप ओं में अंत न होकर- आं में अंत होते हैं। यथा-

घोड़ा < घोड़ों, दिनां < दिनों, छोरयां < छोरियों ।

(2) परसर्गों का प्रयोग भी हिंदी की अन्यान्य बोलियों से बहुत कुछ भिन्नता रखता है।

यथा-ने (हिन्दी ने) कर्त्ता कारक परसर्ग का प्रयोग इस बोली में पंजाबी की ही भाँति कर्म, संप्रदान के लिए भी प्रयुक्त होता है-

परदेस नै (हिंदी)- परदेश को।

‘ती, ‘तै’ परसर्ग अपादान में, ‘क’, ‘कै’ संबंध में अधिक प्रयुक्त होते हैं।

(3) सर्वनाम-रूप भी कहीं पंजाबी और कहीं राजस्थानी से मेल खाते हैं। यथा- मन्नै: = मुझको, तन्ने = तुझको (हिंदी) ।

निश्चय ही ‘नै’ पर बलाघात का प्रभाव है जिसके कारण ‘मैं’ का केवल ‘म’ रूप शेष रह गया है।

हिंदी की अन्य बोलियों में यत्रतत्र ‘नहीं = ‘मैं ही’ के लिये मिलता है।

तूं, धूं, त्हारों थारो आदि रूपों में ‘थ’ ध्वनि की ओर झुकाव राजस्थानी के समान हैं। कतिपय शब्दों भी व्होत आदि रूपों का झुकाव ‘भ’ महाप्राण की ओर पूर्ण स्पष्ट है। कुछ ऐसा जान पड़ता है कि महाप्राण की वहाँ दो कोटियाँ हैं और इस प्रकार स्पर्श व्यंजनों के हम तीन भाग कर सकते हैं, जैसे-त, तह, थ आदि ।

(4) सहायक क्रियाओं के प्रयोग में वर्तमान काल का क्रिया-रूप उल्लेखनीय हैं जो कि पंजाबी की ही भाँति है, यथा-सैं, सूं आदि, हिंदी- हैं, हूँ आदि।

(5) वर्तमानकालिक कृदन्त रूपों की रचना पंजाबी की भाँति दा लगाकर होती है। यथा- ‘जांदा’, हिंदी ‘जाता’ आदि।

(6) भूतकालिक कृदंत रूपों में अंत-या का प्रयोग उल्लेखनीय है- चाल्या, हिंदी चला, खड़ी बोली चाल्ला। बांगरू बोली के अध्ययन से यह विचार तर्क-संगत जान पड़ता है कि दक्खिनी हिंदी जो कि बहमनी राज्यों में पनपी, निस्संदेह बांगरू तथा खड़ी बोली के मध्यस्थल क्षेत्र के सैनिकों द्वारा प्रथम वहाँ व्यवहृत हुई। इसकी चर्चा खड़ी बोली (हिंदी) के विकास में पहले की जा चुकी है। दक्खिनी-साहित्य में संशा के तिर्यक रूप, सर्वनामों के मंत्र, तरी रूप तथा भूतकाल के या वाले रूप बांगरू के समान ही प्रयुक्त हुए हैं।

ब्रजभाषा क्षेत्र तथा विशेषताएँ

लिंग्विस्टिक सर्वे में डॉ. ग्रियर्सन ब्रज के लिए एक और नाम ‘अंतर्वेदी’ दिया है अर्थात् गंगा-यमुना के बीच प्रदेश की भाषा। ब्रज केवल ब्रजमंडल प्रदेश की ही (जिसका विस्तार 84 कोस की परिधि का है) भाषा नहीं है। इसका विस्तार व्यापक क्षेत्र में पाया जाता है। ब्रजभाषा का टकसाली रूप मथुरा, आगरा, अलीगढ़ तथा धौलपुर में प्रयुक्त होता है। इसका कारण यह है कि प्राचीन ‘शूरसेन’ जनपद का केंद्र ‘मथुरा’ ही था जहाँ पर शौरसेनी अपभ्रंश प्रचलित थी और ब्रजभाषा इसी अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी हुई। बुलंदशहर, बदाऊँ और नैनीताल की तराई में प्रयुक्त भाषा में खड़ी बोली का प्रभाव पाया जाता है। एटा, मैनपुरी, बरेली की ब्रजभाषा में कनौजीपन मिलता है। गुड़गाँव भरतपुर तथा ग्वालियर के पश्चिमोत्तर भू-भाग की ब्रज में बुंदेली तथा राजस्थानी की झलक मिलती है। प्रसिद्ध भाषा-विज्ञानी डॉ० वीरेंद्र वर्मा ने पीलीभीत तथा इटावा की बोली को कन्नौजी की अपेक्षा व्रज के अधिक निकट माना है।

ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर में बांगरू तथा खड़ी बोली, पूर्व में कन्नौजी तथा अवधी, दक्षिण में बुंदेली तथा पश्चिम में राजस्थानी का प्रदेश है। 38 हजार वर्गमील के क्षेत्र में ब्रजभाषा के बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ 22 लाख से ऊपर आंकी गई है। ब्रज अपने साहित्यिक महत्व तथा व्यापकता के कारण बोली-रूप से उठकर भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई जिसकी चर्चा पूर्व पृष्ठों में विस्तार से की जा चुकी है। ब्रजभाषा-साहित्य का इतिहास 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उस समय से माना जाता है जब बल्लभ-मत के अष्टछापी भक्त कवियों के कीर्तन आदि का आयोजन गोवर्धन के मंदिर में की गई। इनमें सूरदास और नंददास प्रमुख थे। मीराबाई और तुलसीदास ने भी ब्रजभाषा को कुछ अंशों में अपने काव्य का माध्यम बनाया। केशव, रसखान, सेनापति, रहीम, बिहारी, देव, मतिराम, भूषण, घनानंद, भिखारीदास, पद्माकर आदि प्रसिद्ध कवियों ने ब्रजभाषा को ही काव्य भाव के लिए चुना है। ब्रजभाषा की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि लगभग समस्त उत्तर भारत में यह काव्य-भाषा के रूप में गृहीत हुई। साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त ब्रज का लोकसाहित्य भी अपना निज का महत्व रखता है। ब्रजमंडल नामक संस्था ब्रज के प्रादेशिक साहित्य के प्रचार, संरक्षण एवं प्रसार में संलग्न है। इन गीतों तथा कहानियों में ब्रज की मधुरिमा तथा सरसता कूट-कूट कर भरी है। हिंदी भाषा के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने ब्रजभाषा का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। भाषा क्षेत्र में उनका यह शोध-कार्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

(क) ध्वनि-संबंधी विशेषताओं के संबंध में ब्रजभाषा पश्चिमी हिंदी का प्रतिनिधित्व करती है। हिंदी की अन्य बोलियों की ही भाँति, इसमें भी व ब, य ज, ष ह मिलता है। अनुनासिक व्यंजनों में न, म ध्वनियों का प्रयोग अपने महाप्राण रूपों के साथ उच्चरित होता है, अन्य अनुनासिक व्यंजनों का प्रायः लोप मिलता है।

(ख) व्याकरण संबंधी कतिपय विभिन्नताएँ इस प्रकार संग्रहीत की जा सकती हैं-

(1) हिंदी यदि आकारांत भाषा कही जा सकती है, तो इसकी तुलना में ब्रजभाषा औंकारांत भाषा ठहरती है। इस प्रकार संज्ञा, सर्वनाम, परसर्ग तथा कृदंत रूपों में जहाँ हिंदी में अन्त्य-आ ध्वनि मिलती है, वहाँ ब्रजभाषा में और मिलती है। यथा-

गला > गरौ, मेरा > मेरौ, का > कौ, गया > गयौ ।

(2) संज्ञा के तिर्यक बहुवचन रूपों को अंत-न अथवा-लगा कर और मूल बहुवचन रूपों की रचना स्त्री लिंग में ऐ अथवा केवल अनुस्वार और पुल्लिंग में ए लगाकर की जाती है।

यथा-

लारिकन, गइयन, (तिर्यक बहु) लट-लटें घुड़िया घुड़ियाँ, कांटी-कांटे (मूल बहु0) ।

अतीत काल अन्य पुरुष की क्रिया के एक विचित्र प्रयोग की चर्चा भी की जाती है, यथा- लरिका ने चलो गओ (लड़का गया-लड़के के द्वारा जाया गया)। आदर्श हिंदी में इस प्रकार का प्रयोग चिन्त्य माना जाता है। निम्नांकित उदाहरणों में ‘कहना तथा पूछना’ क्रियाएँ अतीत काल स्त्रीलिंग में प्रयुक्त हुई हैं। इनका अनवय वस्तुतः कर्म कारक ‘बात’ से हुआ जो यहाँ लुप्त हैं। यथा-उसने कही (उसने बात कही), उसने पूछी (उसने बात पूछी)।

बुंदेली-क्षेत्र तथा विशेषताएँ

बुंदेली बुंदेलखंड की प्रधान जाति बुंदेली की बोली मानी जाती है, जिसका विस्तार जालौन, हमीरपुर, झांसी, बांदा, ग्वालियर, ओरछा, सागर, दमोह, नृसिंहपुर, सिउनी तथा जबलपुर, हुशंगाबाद तक फैला हुआ है। छत्रसाल के राज्य की सीमा जिस दोहे से स्पष्ट की जाती है, वह दोहा भी बुंदेली की सीमा के रूप में साधारणतः गृहीत है। यह इस प्रकार है-

इत जमुना उत नर्मदा, इत चंबल उत टौंस।

छत्रसाल सौं लरनि की रही न काहू हौंस॥

परंतु यह कथन तात्कालिक राजनीतिक एकता की दृष्टि से जितना सत्य है उतना भाषा की व्याकरणिक गठन की दृष्टि से नहीं। सीमावर्ती प्रदेशों में स्वाभावतः ब्रज, अवधी, राजस्थानी भाषाओं का प्रभाव पड़ा है। बांदा जिला की भाषा में बुंदेली, बघेली और बैसवाड़ी (अवधी) का सम्मिश्रण है। इसका क्षेत्र विस्तार लगभग 40 हजार वर्गमील है जिसमें सवा करोड़ से अधिक व्यक्ति इस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। इस बोली के भी कई एक विभेद किए जा सकते हैं क्योंकि इस विस्तृत क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने वाली सामाजिक एकता का अभाव है। यातायात के साधन अत्यल्प हैं। स्थानीय विशेषताओं को ध्यान में रखकर ग्रियर्सन बुंदेली के पंवारी, खटोला, राठोरी तथा लुघांती आदि कई उपभेद किए हैं।

ठेठ बुंदेली की कोई साहित्यिक बहुमूल्य रचना उपलब्ध नहीं होती। एनसाई ईसुरी, धर्मदास, गंगाधर की रचनाएँ बुंदेली में ही है। तुलसी, केशवदास, पद्माकर, ठाकुर, गोरेलाल आदि कवियों ने काव्य के लिए ब्रजभाषा को ही अपनाया है। परंतु इन कवियों की रचनाओं पर यथेष्ट बुंदेली-प्रभाव मिलता है। जगनिक की प्रसिद्ध रचना ‘आल्हाखंड’ ऐतिहासिक और जन- परंपरा के आधार पर ही नहीं अपितु प्रकृत-सामग्री के भाषा-विश्लेषण द्वारा भी ‘बनाफरी’ में लिखा गया, जो कि बुंदेली की एक बोली है और महोबा के आस-पास बोली जाती है।

बुंदेली की सामान्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(1) ध्वनि-समूह एवं उसका शब्दों में प्रयोग ब्रजभाषा के समान ही है। साहित्यिक हिन्दी की तुलना में रखते हुए हम कह सकते हैं कि- (क) हिंदी ड्, ञ, ण-न, (ख) हिं, य, ब -क्रम से ज, ब, (ग) हिं, श, ष, स, -से (घ) शब्दों में अनुनासिकता का अधिकाधिक प्रयोग, यथा-

हित्रां (हिरण), हांत, पांव, नांक, कान, मूं, घिंची आदि।

(2) जिस प्रकार हिंदी की अन्य बोलियों के संबंध में स्पष्ट किया जा चुका है, हम बुंदेली को उसी दृष्टि से ओकारांत बहुला भाषा कह सकते हैं अर्थात् हिंदी संज्ञा, सर्वनाम, कृदन्त के रूपों में जहाँ अन्तय आ ध्वनि मिलती हैं, वहाँ बुंदेली में ओ मिलता है, यथा-

हिंदी, नज, बुंदेली क्रमशः गला, गरौ, गरो, बुरा, बुरौ, बुरओं, मेरा, मेरौ, मोओ, गया, गयौ, गओ आदि।

(3) संज्ञा के मूल तथा विकृत एकवचन और बहुवचन के रूप ब्रजभाषा के ही समान हैं, यथा-गाइया, गइयन (गाय), मौड़ा (लड़का), गोड़ों, गोड़न, (पैर), मौड़ीं (लड़की), बिन्नू, बिन्नू (बहिन)।

(4) सर्वनाम-रूप भी ब्रजभाषा के समान हैं। यत्किंचित् अंतर इस प्रकार हैं-

उत्तर पुरुष संबंध कारक रूप- रौ >ओ- हमाओ (हमारा)

मध्यम पुरुष संबंध कारक रूप- रौ>ओ- तुम्हाओ (तुम्हारा)

कारक के संबंधों को स्पष्ट करने वाले परसर्गों की सूची इस प्रकार है

कर्ता कारक     नै     (हिंदी-ने)

कर्म कारक     खां, खौं    (हिंदी-को)

करन-अपआदआन कारक    सैं (हिंदी-से)

संप्रदान कारक     कै लानैं, के नानैं         (हिंदी के लिए)

संबंध कारक     कौ, की, के, खौ, खी, खे      (हिंदी का, की के)

अधिकरण कारक     मैं, पै, पर        (हिंदी-में, पर)

(6) सहायक क्रिया रूपों के संबंधों में दो बातें उल्लेखनीय हैं- वर्तमानी काल आय (हिंदी है, बैसवाड़ी आहि, आय), आंय (हिंदी-है), आंव (हिंदी-हौ), आत (हिंदी-तू है), आव (हिंदी- ह्रौ), भूतकाल तो (हिंदी था, ब्रजभाषा-थो) ती (हिंदी-थे), ते (हिंदी-थे)।

(7) भविष्यत् काल के रूपों की रचना ब्रजभाषा की भाँति-ह के रूपांतरों को लगाकर होती है। उदाहरण के लिए हिंदी ‘जाना’ क्रिया के रूप बुंदेली में स्पष्ट किये जा रहे हैं। यथा-

मैं जैहों, (हिंदी मैं जाऊँगा), हम जैहन, (हिंदी-हम जायेंगे),

तैं जैहत, (तू जायेगा), तुम जैहों, (तुम जाओगे)।

वो जैहै (वह जायेगा), वैं जैहैं, (वे जायेंगे।

उत्तम पुरुष बहुवचन के साथ हम जैवी’ आदि रूप भी उत्तर-पूर्व में सुनने में मिलेंगे जो कि अवधी के समान हैं।

पहाड़ी क्षेत्र तथा विशेषताएँ

हिमालय की उपत्यका में हिंदी की ध्वनि एवं व्याकरण संबंधी कुछ समानता रखने वाली बोलियाँ नैपाली, गढ़वाली, कुमाउनी आदि हैं। डॉ. सुनीतकुमार चटर्जी उन बोलियों का विकास खस-अपभ्रंश से तथा उन्हें शौरसेनी अपभ्रंश से प्रभावित मानते हैं। गुर्जर अपभ्रंश का भी विशेष प्रभाव उनके विकास के मूल में बताया जाता है। विद्वानों ने नैपाली को पूर्वी, गढ़वाली और कुमाउनी को मध्य तथा शिमला और उसके आस-पास के प्रदेश के बोली-रूपों को पश्चिमी पहाड़ों के नाम से दिया है। वर्तमान जनसंख्या के अनुसार पूर्वी पहाड़ी बोलने बालों की संख्या 4 लाख 13 हजार, मध्य पहाड़ी की 7 हजार तथा पश्चिमी की 23 लाख 26 हजार बताई गई हैं।

पूर्वी पहाड़ी को ‘पर्वतिया’, ‘गोरखाली’, ‘खसकुस’ भी कहते हैं। इस क्षेत्र में चीनी- तिब्बती परिवार की ‘नेवाटी’ बोली का भी व्यापक प्रयोग होता है। मध्य पहाड़ी के दो मुख्य भेद हैं- गढ़वाली और कुमाउनी। कुमाठनी अल्मोड़ा तथा नैनीताल और गढ़वाली पौरी-गढ़वाल तथा मंसूरी के आस-पास के प्रदेशों में प्रचलित है। पश्चिमी पहाड़ी की लगभग 30 बोलियाँ हैं जिनमें उत्तर प्रदेश के जौनसार-बावर स्थान की बोली जौनसारी तथा पश्चिम की शिरसौरी, चंबाली, कुलूई, क्युंथली आदि मुख्य हैं। इन बोलियों में कोई विशेष साहित्य नहीं पाया जाता। नेपाली का सबसे महत्वपूर्ण कार्य अंग्रेज-विद्वान टर्नर द्वारा ‘नेपाली शब्दकोष’ है। नेपाल में हिंदी का मान अधिक है। माध्यमिक (गढ़वाली, कुमाउनी) क्षेत्र के कवियों ने ब्रजभाषा में ही रचनाएँ की हैं। किंतु आधुनिक काल में उनमें साहित्य सर्जना हो रही हैं। इनका लोकसाहित्य संपन्न है, ये देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती हैं। पश्चिमी पहाड़ी की बोलियाँ शारदा से संबंधित टाकरी लिपि के विभिन्न रूपों में लिखी जाती हैं।

  1. इन बोलियों की सामान्य विशेषताओं में वही व्याकरणिक प्रवृत्ति प्रमुख हैं, जिसके आधार पर खड़ी बोली को आकारांत, ब्रजभाषा को औकारान्त तथा बुंदेली और कनौजी को ओकारांत भाषाएँ कहा जाता है। राजस्थानी में भी ओकारांत प्रवृत्ति विशेष उल्लेखनीय है। विकास की दृष्टि से पहाड़ी बोलियों को भी ओकारान्त भाषाएँ कहा जा सकता है अर्थात संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा कृदन्त रूपों में जहाँ हिंदी में अन्त्य आ ध्वनि है, वहाँ पहाड़ी बोलियों में अन्त्य ओ मिलता है।

(क) कर्म और संप्रदान के कारक संबंधों को स्पष्ट करने वाले परसर्ग-रूप पश्चिमी और मध्य बोलियों में ‘सनि, कणि, कैं, हैं’ और नेपाली में ‘लाई’ के प्रयोग उल्लेखनीय हैं-

(ख) करण कारकीय परसर्ग गढ़वाली ‘ने’ कुमाउनी, नेपाली ले’।

(ग) अपादान कारकीय परसर्ग गढ़वाली ‘ते’, ‘थै’, नेपाली में ‘बाट’ ।

(घ) संबंध कारकीय परसर्ग गढ़वाली ‘की’ ‘को’ ब्रजभाषा की भाँति ‘की’ मिलता है।

(ङ) अधिकरण कारकीय परसर्ग गढ़वाली ‘में’, अवधी की भाँति ‘मा’ रूप विशेष रूप से प्रचलित है।

(3) उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम रूपों में में, मैं, मेरी तथा बहुवचन हम, हमन, हमारी आदि प्रयुक्त होते हैं।

(4) वर्तमानकालिक सहायक क्रिया के रूपों में गुजराती की भांति ‘छ’ वाले रूप प्रचलित हैं। पंजाबी की भाँति ‘स’ वाले और हिंदी की भाँति ‘ह’ वाले और भोजपुरी की भाँति ‘ब’ वाले रूपों का प्रयोग नहीं होता है।

(5) भूतकालिक कृदन्त रूप चलनो, चत्थो आदि ओकारांत ही हैं।

डॉ० ग्रियर्सन ने भारतीय भाषाओं के सर्वे में पूर्वी हिंदी के अंतर्गत अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी तथा बिहारी उपभाषा- खंड की भोजपुरी, मैथिली और मगही मुख्य बोलियाँ दी हैं। लब्ध-प्रतिष्ठ भाषा विज्ञानी डॉ० बाबूराम सक्सेना ने पूर्वी हिंदी के केवल दो मुख्य रूप अवधी और छत्तीसगढ़ी माना है। बघेली को अवधी का रूपांतर कहा है। डॉ० ग्रियर्सन ने भी इसे स्वीकार करते हुए लिखा है कि बघेली को अवधी से भित्ररूप केवल जनसाधारण के कारण ही दिया गया है अन्यथा बघेली का अवधी से कोई भिन्न रूप नहीं है।

नीचे पूर्वी हिंदी की विभिन्न बोलियों की सामान्य विशेषताओं को अलग-अलग स्पष्ट किया जा रहा है।

अवधी-क्षेत्र तथा विशेषताएँ

वैज्ञानिक विश्लेषण की दृष्टि से अवधी पूर्वी हिंदी की एक बोली ठहरती है, परंतु एक विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए समाज के विचार-विनिमय का माध्यम होने के कारण उसे हम मध्य प्रान्त की भाषा भी कह सकते हैं। तुलसी की समाज भेदिनी दृष्टि ने अवधी को एक बहुत बड़ी व्यावहारिक शक्ति प्रदान की थी परंतु समाज की कुछ अन्य विपरीत परिस्थितियों ने जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है, इसे ब्रजभाषा के सामने साहित्यिक भाषा न बनी रहने दिया। फिर भी उसकी अक्षुण्ण परंपरा को हम तीन भागों में बाँट कर अध्ययन कर सकते हैं-

(1) 1000 ई0 से लेकर 17वीं शताब्दी के अंत तक। 1000 ई0 के आस-पास के भावा- रूपों का तर्क पूर्ण अनुमान किया जा सकता है, यद्यपि उस युग की कोई निश्चित रचना उपलब्ध नहीं होती। स्वप्नावती, खरंडावती, मृगावती, मधुमालती आदि प्रेम-गाथाओं का स्पष्ट उल्लेख उसकी अप्रतिहत गति का दर्शन करा देता है। जायसी तथा इस परंपरा में आने वाले अन्यान्य सूफी कवि तत्कालीन अवधी भाषा का अन्यान्य स्वभाविक रूप सामने रखते हैं। महाकवि तुलसी का रामचरितमानस उस युग की अवधी का एक परिष्कृत और सहित्योपयुक्त रूप है। इसी रूप को आदर्श बना कर तथा आधुनिक युग की विशेष संस्कृतमथी हिंदी की प्रवृत्ति को अपना कर पं० द्वारिका प्रसाद मिश्र ने ‘कृष्णायन’ जैसी सुंदर रचना प्रस्तुत की है। उपरोक्त रचनाओं के विभाजन तथा यदि साहित्यिक मापदंड न रखा जाए तो भाषा की शुद्ध क्षेत्रीय व्याकरणिक प्रवृत्ति के अनुसार- ‘रामचरितमानस’ की रचना अवधी के बैसवाड़ी रूप-पश्चिमी रूप (वैश्य राजपूतों की प्रधानता के कारण यह प्रदेश उस नाम से प्रसिद्ध हुआ है।) को आधार बनाकर हुई है, जबकि पद्मावत आदि प्राप्त सूफी रचनाओं का आधार अवधी का पश्चिमी रूप है। संज्ञा सर्वनाम तथा क्रिया-रूपों के अन्यान्य उदाहरण इस अंतर को स्पष्ट करने के लिए दिए जा सकते हैं परंतु वाक्य-गठन संबंधी एक अंतर का उदाहरण देकर ही यहाँ संतोष किया जा सकता है। रामचरितमानस में भूतकालिक सकर्मक क्रिया वाक्य के कर्म से यत्रतत्र उसी प्रकार संबंधित मिलती है जिस प्रकार पश्चिमी हिंदी में। समीपस्य होने के कारण बैसवाड़ा पर पश्चिमी हिंदी की किसी बोली विशेष (ब्रजभाषा) का प्रभाव स्पष्ट है। सूफी कवियों के क्रिया-रूप पूर्वी हिंदी की प्रवृत्ति के ही अनुकूल हैं। इन कवियों के पर्याप्त उदाहरण पहले पूर्वी और पश्चिमी हिंदी भेद को दिखलाते हुए दिये जा चुके हैं।

(2) 1700-1900 ई0 के बीच ब्रजभाषा काव्य-भाषा रहा परंतु भूपति, बेनी, भिखारीदास आदि की रचनाओं को पढ़कर अवधी, ब्रज की सम्मिलित कल्पना की जा सकती है।

(3) 1900 ई0 से अब तक। साहित्यिक, की प्रवृत्ति लोकोन्मुखी होने के कारण फिर से अपनी क्षेत्रीय बोलियों को अपनाने की ओर हैं। हास्य, व्यंग्य के रूप में अवधी का पुनरुत्थान पं० प्रतापनारायण मिश्र के समय से ही मिलता है। आधुनिक अन्यान्य कवि साहित्य के अन्य क्षेत्रों और काव्य के अन्य विषयों के लिए भी अवधी का प्रयोग कर रहे हैं।

क्षेत्र विस्तार की दृष्टि से कहा जा सकता है कि अवधी अवध प्रांत के हरदोई जिले को छोड़कर शेष समस्त भाग की बोली है। यह लखीमपुर खीरी, सीतापुर, उन्नाव, रायबरेली, लखनऊ, बाराबंकी, प्रतापगढ़ सुलतानपुर, बहराइच, गोंडा आदि स्थानों में बोली जाती है।

डॉ० बाबूराम सक्सेना ने अवधी के तीन रूप-पश्चिमी, केंद्रीय तथा पूर्वी माने हैं। अवधी की ध्वनि एवं व्याकरण संबंधी कतिपय विशेषताएं इस प्रकार संग्रहीत की जा सकती हैं।

(1) अवधि पूर्वी हिंदी की प्रतिनिधि बोली है, इसलिए ऊपर पूर्वी और पश्चिमी हिंदी के भेद को स्पष्ट करती हुई जो विशेषताएँ गिनाई गई हैं, वे सब यहाँ उदाहरण- रूप में लाई जा सकती हैं। अर्थात् असमान स्वरों की समीपवर्ती स्थिति अवधी के उच्चारण अनुकूल हैं, परंतु खड़ी बोली की संधि होने की प्रवृत्ति अधिक है। ह्रस्व ‘ई’, ‘उ’ के बाद दीर्घ ‘आ’ का उच्चारण अवधी भाषा-भाषियों के लिए सुलभ है परंतु हिंदी वालों को नहीं, यथा-

क्रम से अवधी- सिआर, हिंदी-स्यार (लिखित रूप सियार), कउवा, कौआ, गइया, गेया, गुआल, ग्वाल आदि ।

(2) ह्रस्व-अ, दीर्घ आ, के उपरांत ह्रस्व ‘इ’ का उच्चारण अवधी में सुलभ है, खड़ी बोली, ब्रज भाषा में कदापि नहीं। यथा-

ब्रज-जात, हिंदी-जाता, अवधी-जाइत।

(3) ह्रस्व- ‘ए’ और ‘ओ’ के उच्चारण की प्रवृत्ति हिंदी में नहीं मिलती। अवधी में इसका प्रयोग बहुलता से हुआ है, यथा-

बेटवा, लोटवा, हिंदी- क्रम से बेटा, लोटा।

बलाघात वा पर है, फलतः सांस खिंच कर-चा पर विशेष रूप से पड़ती है अतएव दीर्घ ए, ओ, हस्वरूप में ही मिलते हैं। सर्वनाम के जोहि, केहि, तेहि आदि रूपों में भी ह्रस्व ‘ए’ का अनुमान तर्कपूर्ण है क्योंकि तभी तो साहित्य में अनेक रूपों में लिखे गए हैं यथा- जेहि, जिहि, ज्यहि। यहाँ तीनों का रूप अशुद्ध हैं, ह्रस्व ‘ए’ ध्वनि के लिए देवनागरी में भिन्न लिपि-चिन्ह नहीं हैं, इसलिए व्यक्तीकरण अनेकता लिए हुए हैं।

(4) कतिपय अवधी संज्ञाओं के तीन-तीन रूप ह्रस्व, दीर्ष, अतिदीर्घ मिलते हैं। यथा- घोड़ा, घोड़वा, घोड़ौना, बेटा, बैटवा बैटौना, लारिका, लारिकता लारिकौना।

(5) सर्वनाम और विशेषण-रूपों की प्रवृत्ति भी हस्वान्त को ओर है। यथा- बड़ < बड़ा > थोर < थोड़ा मोर < मेरा हमार < हमारा, तोर < तेरा, तुम्हारा < तुम्हार। पर विशेषण कहीं- ‘क’ निरर्थक प्रत्यय लगाकार अपने रूप को दीर्घ कर लेते हैं। यथा- बहुतक, कछुक, थोरक आदि।

(6) ब्रजभाषा तथा अवधी के कुछ अन्य सर्वनाम रूपों की भिन्नता इस प्रकार स्पष्ट की जा सकती है- ब्रज, अवधी, खड़ी (क्रमशः) यौ जो, वौ, को, ए, ई, ओ, ऊ, के, यह, वह, जो कौन।

(7) (क) परसर्ग रूपों में उल्लेखनीय विशेषता यह है कि अवधी में कर्ता-कारक के संबंध को स्पष्ट करने वाला ‘ने’ परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है।

(ख) संबंध कारकीय परसर्ग- 1. धरम क टीका (मानस) पु० 2. राम कै प्रतीती (मानस) स्त्री, 3. राम का घेरवा पु० (ह्रस्व-क इसी से संबंधित है)। 4. राम कर दासा (केर, केरी, केरे रूप भी पुरानी अवधी में प्रचलित रहे हैं।)

(8) सहायक क्रियाएँ इस प्रकार हैं-

(क) वर्तमानकालिक-

  1. आहि, आय- वैसवाड़ी (पूर्वी अवधी)।
  2. बा, बाटै (पश्चिमी अवधी)।
  3. अहै, अहौं आदि- (पुरानी अवधी)।

(ख) भूतकालिक-1 रहेऊ, रहा, रही आदि

ऊ आबा रहा (वह आया था)

  1. अहे आदि भी पुरानी अवधी में मिलते हैं।

(9) भविष्यत् काल की रूप-रचना में अवधि में- ब लगाकर होती है। कतिपय व्याकरिणक स्थानों में ह के अवशेष -चिन्ह भी प्रचलित हैं। यथा- हम जाब (हिंदी-मैं जाऊँगा), ऊ जाई, ऊ जइहै (हिंदी-वह जाएगा)।

(10) क्रियार्थक संज्ञा के रूपों की रचना- ब लगाकर होती है, यथा- देखब (हिं देखना), घूमन (हिं घूमना)।

बघेली- क्षेत्र तथा विशेषताएँ

बघेली बघेलखंड की बोली है जिसका केंद्र रीवा राज्य माना जाता है। किंतु इसका विस्तार दमोह, जबलपुर मांडला, बालाघाट आदि जिलों में पाया जाता है। फतेहपुर हमीरपुर, बांदा में भी इसका व्यवहार बुंदेली मिश्रित रूप में होता है। इस क्षेत्र के उत्तर में अवधी, पूर्व में छत्तीसगढ़ी, दक्षिण-पश्चिम में बुंदेली बोलियों का विस्तार मिलता है। लिगिवस्टिक सर्वे में इसके बोलने वालों की संख्या 46, 12,756 दी गई है, अब यह संख्या अधिक ही है।

मध्यकाल में रीवां राज्य उच्चकोटि के कलाकारों का केंद्र था। प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन, बीरबल, नरहरि आदि कवियों का संबंध रीवा राज्य से था और यहीं से वे अकबरी दरबार में पहुंचे थे। रीवां के महाराज भी केवल प्रसिद्ध गुणापारखी ही नहीं वरन् उच्चकोटि के विद्वान भी रहे हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि बघेली के रूप अवधी के समान ही प्रयुक्त होते हैं। परंतु शब्दों में ध्वनि-संबंधी विशेषता अवश्य वर्तमान है। कुछ प्रयोग भी मित्र है। बघेली की कतिपय विशेषताओं को इस प्रकार संग्रहीत किया जा सकता है-

(1) संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि शब्दों के मध्य में प्रयुक्त ओ तथा ए ध्वनियों का वा और या में परिवर्तन मिलता है। यही प्रवृत्ति कम या अधिक मात्रा में बैसवाड़ी में भी मिलती है। जैसे घोड़ा-ध्वाड़ि, मोर-म्वार, खेत-ख्यात, जेहि-ज्यहि ।

(2) संज्ञा के रूप अवधी के समान ही हैं। यथा-घ्वाड़, घ्वाड़े (मूल), ध्वाड, ध्वाड़न (तिर्यक) ।

(3) सर्वनामों के एक वचन में मय, म्वहि, म्वार और बहु में, हम्ह, हम्हारे, रूप मिलते हैं।

(4) इनमें कर्ता ‘ने’ परसर्ग का अभाव है। का, कहा, से, तर, कर आदि कारक-चिन्हों का प्रयोग होता है।

(5) सहायक क्रिया वर्तमान काल में है, हूँ एक) हैं, अहेन बहु0, भूतकाल में रहा, रहेऊं – एक0, रहेन बहु0 भविष्य में होई, होव्येउँ एक) होइहैं, होब बहु0, में होते हैं।

(6) क्रियाओं में भूतकाल के रूपों के साथ एकवचनमें रहा और बहुवचन में ता, तें, प्रत्यय लगते हैं। उदा. उत्तम पुरुष एक) रहे हुँते, बहुवचन में रहेनतें। भविष्यकाल के उत्तम मध्यम तथा अन्य पुरुषों में क्रमशः देखव्यडं, देखिब, देखिचेस, देखिबा, देखी, देशिहैं होता है। ब>ह रूप का प्रयोग अवधी के समान मिलता है। उदा. देखबेयउँ, बेस्तिहौ।

छत्तीसगढ़ी क्षेत्र तथा विशेषताएँ

छत्तीसगढ़ी का विस्तार रायपुर, विलासपुर के जिलों, कांकेर, नंदगांव, खैरागढ़, रामगढ़ तथा कुछ भिन्न रूप में कोरिया, सरगुजा, उदयपुर, जशपुर आदि स्थानों में और बालाघाट में खल्वाटी (खलोटी) नाम से पाया जाता है। डॉ0 ग्रियर्मन ने लिंग्विस्टिक सर्वे में इसके बोलने वालों की जनसंख्या 37,55,343 दी है। अब यह संख्या अधिक ही है। छत्तीसगढ़ी में व्याकरण आदि ग्रंथों की रचना मिलती है। परंतु कोई साहित्य उपलब्ध नहीं होता। केवल लोकगीत प्रचलित मिलते हैं-

इस बोली की कुछ विशेषताएँ ये हैं-

(1) संज्ञा, सर्वनाम में ए, और ध्वनियों का क्रमशः अइ और अउ मिलता है। जैसे बैल- बइल, जौन-जउन, तौन-तउन, कौन-कउन आदि।

(2) शब्द के मध्य में ‘इ’ ध्वनि का लोप मिलता है। यथा- लड़िका लड़का।

(3) संज्ञा के प्राचीन रूप में अन प्रत्यय तथा आधुनिक में मन प्रत्यय का प्रयोग मिलता है। उदा. लड़िकामन, परंतु कभी-कभी इसका प्रयोग नहीं भी किया जाता है।

(4) कारकों में का, ला, बर ले, से, के, मा आदि परसर्ग प्रयुक्त होते हैं।

(5) उत्तम पुरुष सर्वनाम एकवचन में में, मैं, तिर्यक मो, मोर, तथा बहु, हम, हमधन आदि रूप मिलते हैं।

(6) क्रियाओं में वर्तमान-कालिक ‘हूं’ क उत्तम पु. एकवचन में हवउ, म० पुo हव, प्र0पु0 हवै तथा बहु0 में हवन, हवे, हवै (क्रमशः) और आदरार्थक रूप एकवचन हौ, आंव, हथ, है आदि, बहु, मैं हन् ही हैं आदि व्यवहृत प्रयुक्त होते हैं।

(7) भूतकाल एकवचन में रहेउँ, रहौं, रहे, रहै, बहु, में रहेन, रहैय् आदि प्रयुक्त होते हैं।

(8) वर्तमानकालिक कृदंत-अत प्रत्यययुक्त उदा० देखत और भूत काल में- ए उदा0 देखे, क्रियार्थक संज्ञा के रूप देश, देखन, देखब आदि मिलते हैं।

भोजपुरी क्षेत्र तथा विशेषताएँ

हिंदी की बिहारी बोलियों में भोजपुरी का क्षेत्र अधिक व्यापक तथा हिंदी के अधिक निकट है। शाहाबाद जिला के उत्तर-पश्चिम में ‘भोजपुर’ परगना के आधार पर भोजपुरी का नामकरण हुआ है। वर्तमान काल में भी छोटका भोजपुर तथा बड़का भोजपुर नामक गाँव पायें जाते हैं। भोजपुरी का विस्तार शाहाबाद, सरन, चम्पारन, रांची, मुजफ्फरपुर का पश्चिमोत्तर भाग, उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों वाराणसी, गाजीपुर, आजमगढ़, बलिया, जौनपुर एवं मिर्जापुर, गोरखपुर के कुछ भागों में पाया जाता है। इसके बोलने वालों की संख्या सर्वे में 2,0412608 दी गई है। अब यह संख्या बढ़ गई है। डॉ० ग्रियर्सन ने भोजपुरी के उत्तरी, दक्षिणी, पश्चिमी तथा नगपुरिया रूप दिये हैं। दक्षिणी भोजपुरी टकसाली भोजपुरी मानी जाती है जिसका विस्तार शाहाबाद, सारन, बलिया तथ पूर्वी गाजीपुर में मिलता है। इस स्टैंडर्ड रूप को अधिक श्रुतिमधुर तथा संगीतात्मक स्वराघात संपन्न माना गया है। सर्वनाम ‘रउआ’ के रूप ‘राउर’ आदि केवल टकसाली रूप में ही मिलते हैं। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने भोजपुरी भाषा के उद्गम और विकास का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

भोजपुरी का गद्य-साहित्य भी विकसित हो रहा है। राहुल सांकृत्यायन ने इसमें आठ नाटकों को प्रकाशित किया है। श्री अवध बिहारी सुमन भोजपुरी के सफल कहानी लेखक हैं। इनके अतिरिक्त कई कहानी और नाटक लेखक हैं। लोक कथाओं में भी गद्य का सुंदर रूप मिलता है।

भोजपुरी का कोई स्वतंत्र साहित्य उपलब्ध नहीं होता। फिर भी हिंदी के संत कवियों- कवीर, धर्मदास, धरणीदास, शिवनारायण, भीखा साहब आदि के पदों में भोजपुरी का प्रयोग हुआ है। भोजपुरी के अनेक आधुनिक कवि प्रतिभासंपन्न माने जाते हैं। डॉ. कृष्ण देव उपाध्याय ने भोजपुरी लोक गीतों का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है। भोजपुरी के गीतों का साहित्य बहुत ही ससुंपन्न है जिसमें वहाँ के सामाजिक जीवन का सुंदर संगीतमय चित्रण मिलता है।

भोजपुरी की कतिपय विशेषताएँ हैं-

(1) भोजपुरी के उत्तरी (गोरखपुर) रूप में अनुनासिक ध्वनि का आगम मिलता है। यथा- भट-घाँट, नाद-नींद। सारन तथा मुजफ्फरनगर में बोली नाद-नाँद सारन तथा मुजफ्फरनगर की बोली में र इ मिलता है। यथा घोड़ा, घोरा, सड़क-सरक। गोरखपुर बस्ती में भी यह रूप मिलता है। जैसे पड़त-परत

(2) भोजपुरी की नगपुरिया बोली में बंगला भाषा के प्रभाव से अकारान्त का उच्चारण हो जाता है। जैसे-कल-काल।

(3) भोजपुरी में संज्ञा एवं विशेषण के तीन रूप-माली, मलिया, मलिनयबा मिलते हैं। कुछ शब्दों के दो-दो रूप होते हैं।

(4) बहुवचन के रूप नि, न्ह, न आदि प्रत्यय तथा सभ, लोग आदि शब्दों के योग से बनते हैं जैसे- घरन, घरन्ह, रउआँ, सभन् मिलते हैं।

(5) इसमें कर्त्ता कारक में कोई प्रत्यय या परसर्ग नहीं जुड़ते। करण में ए, अन् प्रत्यय जुड़ते हैं। यथा- भूखें (भूख से) अधिकरण में एक, ऍ, संबंध में र का योग होता है- घरे, मोर आदि। इनके परसर्गों का भी प्रयोग होता है।

(6) पुरुष वाचक सर्वनाम एकवचन में (मूल), मोहिं (विकारी), मोर (संबंध), बहु – में (मूल) हमनिका (विकारी), हमरि, (संबंध) तथा इनके आदरार्थक रूप हम, हमरा, हमार, हमरन प्रयुक्त होते हैं।

(7) क्रियादि पुल्लिंग उत्तम पुरुष एकवचन के रूप बाड़ी, बाड़े, बारी, म.पु. बाड़े, प्र.प्र. वाडे, बा तथा बहु, में बाटी, बाटें, वाटेन रूप मिलते हैं।

(8) भूतकाल के एकवचन में रहली, रहले रहल, रहतसि बहु में रहली, रहलन्हि, रहलेसन्हि रूपों में पुरुष विशेष की सूचना शब्दों में निहित है। पश्चिमी हिंदी की बोलियों में ऐसे रूप का अभाव पाया जाता है।

मैथिली- क्षेत्र तथा विशेषताएँ

मैथिली के लिये तिरहुतिया तथा मिथिला-भाषा नाम भी प्रचलित मिलते हैं। मैथिल कोकिल विद्यापति ने इसे देशी बोली (देसिल बआना) के नाम से तथा 19वीं शताब्दी के अंत में कविवर चंदा झा ने इसे मिथिला-भाषा के नाम से अभिहित किया है। मैथिली का विस्तार दरभंगा, पूर्णिया, गंगापार, दक्षिण के मुंगेर तथा भागलपुर में माना जाता है। सर्वे में डॉ. ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ के लगभग दी है। मैथिली के बोलने वाले बंगाल, आसाम आदि प्रांतों में पाये जाते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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