हिंदी भाषा एवं लिपि

देवनागरी लिपि की विशेषतायें | देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता | देवनागरी के नामकरण | देवनागरी लिपि व रोमन लिपि का अंतर | ‘अनुस्वार’ और ‘विसर्ग’ का हिंदी भाषा में महत्त्व

देवनागरी लिपि की विशेषतायें | देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता | देवनागरी के नामकरण | देवनागरी लिपि व रोमन लिपि का अंतर | ‘अनुस्वार’ और ‘विसर्ग’ का हिंदी भाषा में महत्त्व

देवनागरी लिपि की विशेषतायें | देवनागरी लिपि की प्रमुख विशेषतायें

देवनागरी लिपि रोमन के अलावा अन्य लिपियों की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है तथा इसमें पूर्णता का गुण अधिक है। कुछ दृष्टियों से तो यह रोमन लिपि से भी कई कदम आगे है। देवनागरी लिपि में वे सभी गुण विद्यमान हैं, जो एक श्रेष्ठ लिपि में होना आवश्यक हैं जैसे-

  1. ध्वनि तथा वर्ण में सामान्जस्य- किसी भी भाषा की ध्वनियों तथा उन्हें प्रकट करने वाले लिपि चिन्हों (वर्णों) में जितना अधिक सामंजस्य पाया जायेगा वह लिपि उतनी ही श्रेष्ठ लिपि होगी। देवनागरी में यह विशेषता पायी जाती है। इसमें जो लिखा जाता है वहीं बोला जाता है।
  2. समस्त ध्वनियों के लिये संकेत चिन्ह- देवनागरी लिपि में समस्त ध्वनियों के लिये लिपि संकेत है। उर्दू की तरह एक ही रूप या चिन्ह में नुकते अलग-अलग और रोमन की तरह कई संकेतों को जोड़कर एक ध्वनि का उच्चारण नहीं होता।

नुक्ते के हेर-फेर से उर्दू में खुदा का जुदा तथा रोमन लिपि में श.च.य आदि के लिये दो ध्वनि संकेतों का योग करना पड़ता है। जैसे Sh, th, ch आदि। रोमन लिपि में ठ् तथा ण् आदि ध्वनियों के लिये लिपि संकेत भी उपलब्ध नहीं है।

  1. स्पष्टता- देवनागरी लिपि में एक ध्वनि’ के लिये एक ध्वनि संकेत है तथा वह ध्वनि संकेत इतना स्पष्ट है कि दूसरी ध्वनि का आभास नहीं होता। रोमन लिपि में भी यह बात नहीं है। वहाँ U को उ पढ़े या अ इस बारे में प्रायः भ्रांति उत्पन्न हो जाती है।
  2. देवनागरी लिपि में जो मात्राओं का नियम बनाया गया है, वह अत्यंत वैज्ञानिक है तथा अन्य लिपियों में इसका अभाव सा है फलतः उर्दू लिपि में पढ़ने लिखने में बहुत कठिनाई आती है। मंदिर का उच्चारण मंदर किया जाता है। रोमन में भी ‘अ’, ‘आ’, ‘ए’, ‘ऐ’ -इन चार व्यक्तियों के लिये A (ए) का उपयोग स्वतंत्रतापूर्वक किया जाता है।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता

देवनागरी लिपि रोमन के अलावा अन्य लिपियों की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है तथा इसमें पूर्णता का गुण अधिक है। कुछ दृष्टियों से तो यह रोमन लिपि से भी कई कदम आगे हैं।

वैज्ञानिकता एवं उत्कृष्टता- देवनागरी लिपि में वे सभी गुण विद्यमान है जो एक श्रेष्ठ लिपि में होना आवश्यक है। जैसे-

  1. ध्वनि तथा वर्ण में सामंजस्य- किसी भी भाषा की ध्वनियों तथा उन्हें प्रकट करने वाले लिपि चिन्हों में जितना अधिक सामंजस्य पाया जायेगा वह लिपि उतनी ही श्रेष्ठ लिपि होगी। देवनागरी में यह विशेषता पायी जाती है। इसमें जो लिखा जाता है वही बोला जाता है।
  2. एक ध्वाने के लिये एक ही संकेत- देवनागरी लिपि में कोई प्रांति नहीं हो पाती क्योंकि एक ध्वनि के लिये एक ही संकेत है। उर्दू और रोमन आदि लिपि में यह बहुत बड़ा दोष है कि वहाँ एक ही ध्वनि के लिये कई संकेत होते हैं।

उदाहरण- ‘स’ के लिये क्रमशः ‘से’ ‘स्वाद’ सीन’ ये तीन संकेत हैं।

रोमन में- ‘क’ के लिये C (Cat), K (King), Q (Queen), Cu (Cuckoo) तथा Ch (Chemistry) आदि। इसी प्रकार एक ही संकेत U कहीं अ (But) उच्चारित होता है, तो कहीं उ (Put) देवनागरी इन दोषों से सर्वथा

  1. समस्त ध्वनियों के लिये संकेत चिन्ह- देवनागरी लिपि में समस्त ध्वनियों के लिये लिपि संकेत है। उर्दू की तरह एक ही रूप या चिन्ह में नुकते अलग-अलग और रोमन की तरह कई संकेतों को जोड़कर एक ध्वनि का उच्चारण नहीं होता। नुक्ते के हेर-फेर से उर्दू में खुदा का जुदा तथा रोमन लिपि में ‘श’ ‘च’ ‘थ’ आदि के लिये दो ध्वनि संकेतों का प्रयोग करना पड़ता है। जैसे – Sh, Th, Ch आदि। रोमन लिपि में ‘ठ’ तथा ‘ग’ ध्वनियों के लिये लिपि संकेत भी उपलब्ध नहीं हैं।
  2. स्पष्टता- देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिये एक ध्वनि संकेत है तथा यह ध्वनि संकेत इतना स्पष्ट है कि दूसरी ध्वनि का आभास नहीं होता। रोमन लिपि में भी यह बात नहीं है। वहाँ U को उ पढ़े या अ इस बारे में प्रायः भ्रांति उत्पन्न हो जाती है।
  3. देवनागरी लिपि में जो मात्राओं का नियम बनाया गया है वह अत्यंत वैज्ञानिक है तथा अन्य लिपियों में इसका अभाव सा है। फलतः उर्दू लिपि में पढ़ने लिखने में बहुत कठिनाई आती है। मंदिर का उच्चारण मंदर किया जाता है। रोमन में भी ‘अ’ ‘आ’ ‘ए’ ‘ऐ’ इन चार ध्वनियों के लिये A (ए) का उपयोग स्वतंत्रतापूर्वक किया जाता है।
  4. वर्णमाला के क्रम में वैज्ञानिकता- (अ) इस लिपि की वर्णमाला के समस्त क्रम अत्यंत वैज्ञानिक रीति के क्रमानुसार रखे गये हैं। (ब) ध्वनियों के स्वर व व्यंजन विभक्त है। रोमन, अरबी-फारसी व उर्दू लिपि की तरह दोनों को मिलाया नहीं गया है। (स) स्वरों में ह्रस्व- दीर्घ के समस्त विभाजन में वैज्ञानिकता पायी जाती है। (द) व्यंजनों का कराण्य, तालव्य, मूर्दन्य और ओष्ठ जैसे वर्गीकरण भी पूर्ण रूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किये गये हैं। इसी कारण देवनागरी लिपि व हिंदी दोनों के सीखने के लिये सर्वथा उपयुक्त हैं और साथ ही साथ सरल भी। जिन लोगों ने वर्णमाला के वर्णों को क्रम से सजाया था वे वास्तव में उत्कृष्ट ध्वनि शास्त्री थे।

देवनागरी के नामकरण

देवनागरी के संबंध में निम्नलिखित मत हैं-

(1) कुछ भाषाविदों का मत है कि गुजरात के ‘नागर ब्राह्मणों’ में प्रचलित होने के कारण ही यह लिपि ‘नागरी’ कहलायी।

(2) कुछ विद्वान इसका संबंध ‘नागर’ शब्द से जोड़ते हैं। नागर का अर्थ वे नगर (शहर) से लगाते हैं, अर्थात् नगरों में प्रचलित होने के कारण यह ‘नागर लिपि’ कहलायी ।

(3) बौद्धों के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ललित विस्तर’ की ‘नागलिपि’ से भी इसका संबंध लगाया जाता है। किंतु डॉ० एल. डी. वार्नेट के अनुसार ‘नाग-लिपि’ तथा नागरी में कोई संबंध नहीं है।

(4) देव भाषा संस्कृत के लिखने में इसका प्रयोग होता है अतः यह देवताओं की भाषा होने के कारण यह लिपि देवनागरी लिपि कहलायी ।

(5) एक अन्य मत के अनुसार मध्य युग में स्थापत्य की एक शैली थी जिसे नागर कहा जाता था। इसमें चतुर्भुजी आकृतियाँ होती थी। नागरी लिपि में भी चतुर्भुजी अक्षरों (म, प,य) के कारण इसे नागरी कहा गया।

(6) तात्रिक यंत्रों में बनने वाले चिन्ह ‘देवनगर’ से मिलते-जुलते अक्षरों के कारण इस लिपि को देवनागरी कहा जाने लगा। ओझा जी व श्री आर. श्याम शास्त्री ने भी इस तर्क का समर्थन किया है।

(7) देवनगर अर्थात् काशी में प्रचलित हो जाने के कारण यह देवनागरी कहलायी। इस प्रकार नागरी का मूल अर्थ क्या है, यह कहना कठिन है।

देवनागरी लिपि व रोमन लिपि का अंतर

रोमन लिपि उच्चारणानुकूल है, अर्थात इसमें जिस ध्वनि का उच्चारण जहाँ किया जाता है, वह कवह ध्वनि वहीं लिखी जाती है। जबकि देवनागरी में यह बात स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देती है जैसे- “प्रतिष्ठित” शब्द को रोमन लिपि में लिखने पर PRATISHTHIT सभी ध्वनियाँ उसी क्रम में तथा उसी स्थान पर है जहाँ पर बोली जाती है। पर देवनागरी लिपि में प्रतिष्ठित लिखने पर ‘इ’ ‘त’ और ‘उ’ के पहले लिखी जा रही है जबकि इनका उच्चारण दोनों के पश्चात हो रहा है।

रोमन लिपि में उच्चारण के अनुरूप ध्वनि चिन्ह तो है पर सभी ध्वनि चिन्ह नहीं है। जबकि देवनागरी लिपि में लगभग सभी ध्वनि चिन्ह हैं। जैसे रोमन लिपि में ‘त’ वर्ग की ध्वनियाँ नहीं हैं। फलस्वरूप नागरी का ‘तोताराम’ रोमन में ‘टोटाराम’ खोता खोटा हो जाता है। उच्चारण परिवर्तन के साथ-साथ कभी-कभी अर्थ परिवर्तन भी हो जाता है।

महाप्राण ध्वनियों के लिये कोई स्वतंत्र चिन्ह रोमन लिपि में नहीं है उसमें ( लगाकर महाप्राण ध्वनियाँ लगाई जाती हैं। जैसे KH (ख), CH (च), TH (य) इत्यादि। जबकि देवनागरी में हर वर्ग के साथ महाप्राण ध्वनियाँ (ख, झ, उ, ध, फ आदि) के पृथक-पृथक चिन्ह वर्तमान है।

रोमन लिपि में अनेक ध्वनि चिन्हों का अभाव होने से उसके लिखे शब्दों को मनमाने ढंग से पढ़ा और बोला जाता है, जैसे VARANASI शब्द को वारानसी आदि रूपों में पढ़ा और बोला जाता है, और यही कारण है कि वाराणसी का उच्चारण अंग्रेजी के कारण बनारस हो गया। है। वाराणसी को उसी रूप में पढ़ना और बोलना देवनागरी लिपि में ही संभव है। रोमन लिपि में ड, ढ वर्णों के लिए ध्वनि चिन्ह नहीं है उसके लिए उसमें R,R, H का प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि देवनागरी की अच्छी भली रोकड़ रोमन में आकर ‘रोकर’ हो जाती है। कहाँ रोकड़ की संपन्नता तथा कहाँ रोकर की विफलता।

इस प्रकार स्पष्ट है कि शुद्धता, अर्थ वैज्ञानिक वर्णमाला की दृष्टि से देवनागरी रोमन लिपि से श्रेष्ठ है, शुद्ध है। स्पष्टता तथा सरलता की दृष्टि से देवनागरी लिपि की तुलना विश्व की किसी भी लिपि से नहीं की जा सकती।

‘अनुस्वार’ और ‘विसर्ग’ का हिंदी भाषा में महत्त्व

देवनागरी लिपि में अनुस्वार को प्रकट करने के लिये (.) का तथा अर्धचन्द्र बिंदु (.) का प्रयोग होता है किंतु वैज्ञानिक दृष्टि से अशुद्ध होने पर भी आजकल प्रेस आदि की सुविधा के कारण अधिकांशतः बिंदु (.) का ही प्रयोग प्रचलित हो गया है। वास्तव में अनुनासिक पृथक ध्वनि न होकर वर्ण विशेष का अंग रूप है, उदाहरणार्थ- अं में अ और अनुनासिक दो ध्वनियाँ न होकर अनुनासिक ‘अ’ कही जाने वाली केवल एक ही ध्वनि है अर्थात् अनुनासिक की न तो स्वर से पृथक कोई सत्ता है और न ही श्रुति इसके विपरीत अनुस्वार का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। यह शुद्ध नासिक्य ध्वनि है। हिंदी के निम्नांकित शब्दों में अनुस्वार देखा जा सकता है- अहंकार, संवाद, झंडा, कंडा, अंगूर।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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