निगमीय प्रबंधन / Corporate Management

आन्तरिक पुनर्निर्माण | आन्तरिक पुनर्निर्माण की विशेषताएं | आन्तरिक पुनर्निर्माण की वांछनीयता | आन्तरिक पुनर्निर्माण की विधियां

आन्तरिक पुनर्निर्माण | आन्तरिक पुनर्निर्माण की विशेषताएं | आन्तरिक पुनर्निर्माण की वांछनीयता | आन्तरिक पुनर्निर्माण की विधियां | Internal reconstruction in Hindi | Features of internal reconstruction in Hindi | Desirability of internal reconstruction in Hindi | Methods of internal reconstruction in Hindi

आन्तरिक पुनर्निर्माण

(Internal Reconstruction/ Reconstruction)

जब वित्तीय अनुविन्यसन (Financial arrangement) को निर्धारित स्कीम मौजूदा कम्पनी के अस्तित्व को बनाए रखती है अर्थात न तो किसी नई कम्पनी का निर्माण होता है और न विद्यमान कम्पनी का विघटन ही होता है, तो उसे आन्तरिक पुनर्निर्माण कहते हैं। चूंकि इस प्रकार के अनुविन्यसन स्कीम का उद्देश्य विद्यमान वित्तीय संरचना को पुनर्संगठित करना होता है, अतः इसे ‘पुनर्संगठन’ भी कहते हैं। परिभाषा के रूप में, “आन्तरिक पुनर्निर्माण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत सम्पत्तियों का पुनर्मूल्यांकन, दायित्वों का पुनः आकलन, हानियों का अपलेखन तथा अंशों के चुकता मूल्य में कमी इत्यादि के द्वारा कम्पनी की व्यवस्था का पुनर्गठन किया जाता है।”

आन्तरिक पुनर्निर्माण की विशेषताएं

(Features of Internal Reconstruction/Restructure)

आन्तरिक पुनर्निर्माण की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं:

(1) आन्तरिक पुनर्निर्माण के द्वारा एक विद्यमान कम्पनी अपने व्यवसाय को जारी रखते हुए अपने वित्तीय स्वरूप को बदलने का प्रयास करती है।

(2) आन्तरिक पुनर्निर्माण की आवश्यकता तब होती है जब कम्पनी को लगातार असफलता के कारण समापन से बचाना है।

(3) आन्तरिक पुनर्निर्माण एक वैधानिक प्रक्रिया है।

(4) आन्तरिक पुनर्निर्माण के अन्तर्गत कम्पनी की अंश पूंजी में परिवर्तन किया जाता है। इस परिवर्तन के अन्तर्गत कम्पनी अपनी अंशी पूंजी की मात्रा को बढ़ा सकती है, अंश पूंजी को स्टॉक में परिवर्तित कर सकती है या अंशों का समेकन (Consolidation) कर सकती है।

(5) पूंजी में कमी लाकर आन्तरिक पुनर्निर्माण सम्भव है अर्थात् गत वर्षों में हुई हानियों के अपलेखन द्वारा।

(6) आन्तरिक पुनर्निर्माण अंशधारियों, ऋणपत्रधारियों एवं लेनदारों के साथ मिलकर पुनर्गठन की योजना बनाकर किया जा सकता है।

आन्तरिक पुनर्निर्माण की वांछनीयता

(Desirability of Internal Reconstruction / Restructure)

आन्तरिक पुनर्निर्माण की आवश्यकता तब होती है जब कोई कम्पनी अथक प्रयासों के पश्चात् लगातार असफल रहती है। इस असफलता से कम्पनी को समापन से बचाने का एक उत्तम विकल्प ‘आन्तरिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को अपनाने से है। ‘आन्तरिक पुनर्निर्माण के द्वारा कम्पनियों को अवसर प्राप्त होता है कि वे अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार कर सकें और कम्पनी को पुनः सफलता के मार्ग पर ला सकें। प्रायः निम्नलिखित दशाओं में आन्तरिक पुनर्निर्माण वांछनीय या आवश्यक हो जाता है:

(1) जब किसी कम्पनी में गत वर्षों में एकत्रित हानियां बहुत अधिक हो गयी हैं जिन्हें अपलिखित किया जाना आवश्यक हो गया है।

(2) जब किसी कम्पनी की पूंजी संरचना अत्यधिक क्लिष्ट हो गयी है और उसे अब सरल और सुविधाजनक बनाना हो।

(3) जब कम्पनी के पूंजी मिलन अनुपात (Capital gearing ratio) में परिवर्तन करना आवश्यक हो गया हो अर्थात् जब किसी कम्पनी की साधारण अंश पूंजी एवं स्थिर लागत पूंजी का अनुपात उचित प्रतीत नहीं होता।

(4) जब कम्पनी के अंशो के अंकित मूल्य (face value) में परिवर्तन की आवश्यकता हो जिससे कि भावी निवेशकों को कम्पनी के प्रति विनियोग करने हेतु आकर्षित किया जा सके।

(5) जब कम्पनी के चिट्ठे में विद्यमान सम्पत्तियों का मूल्य उसकी पूंजी का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करता है अर्थात् चिट्ठे में दर्शायी गयी सम्पत्तियों को उनके उचित मूल्य से अधिक मूल्य पर दर्शाया गया है।

(6) जब कम्पनी की उत्पादक क्षमता में कमी हो गयी है।

आन्तरिक पुनर्निर्माण की विधियां

(Methods of Internal Reconstruction / Restructure)

आन्तरिक पुनर्निर्माण के अन्तर्गत मुख्यतया निम्नलिखित विधियों को शामिल करते हैं:

(1) अंश पूंजी में परिवर्तन,

(2) अंश पूंजी में कमी, तथा

(3) कम्पनी के सदस्यों एवं लेनदारों के साथ अनुविन्यसन की योजना (स्कीम)।

(1) अंश पूंजी में परिवर्तन (Alternation in Share Capital A/c )- कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 61 के अनुसार अशी द्वारा सीमित एक कम्पनी अपनी अंश पूंजी में परिवर्तन कर सकती है, बशर्ते पार्षद अन्तर्नियमों द्वारा उसे अधिकार प्राप्त हो। इस प्रकार के पूंजी परिवर्तन का प्रारूप निम्न में से कोई हो सकता है:

(अ) नए अंशों के निर्माण द्वारा अधिकृत अंश पूंजी को बढ़ाना (Increase in Authorised Share Capital) — जब किसी कम्पनी को अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता पड़ती है और उसके वर्तमान सभी अंश निर्गमित हो चुके होते हैं, तो वह नए अंशों का निर्माण करके अधिकृत पूंजी बढ़ा सकती है। इन नए अंशों के निर्गमन द्वारा अंश पूंजी को बढ़ाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में केवल यही प्रतिबन्ध लगाया गया है कि इस प्रकार के निर्गमन का प्रस्ताव पहले कम्पनी के विद्यमान सम अंशधारियों के उनके अंशों के अनुपात में मिलना चाहिए, बशर्ते कम्पनी ने विशेष प्रस्ताव द्वारा या केन्द्र सरकार के अनुमोदन पर साधारण प्रस्ताव द्वारा इसके विपरीत निर्णय न लिया हो। प्रत्येक अंशधारी को कम-से-कम 15 दिन की अवधि मिलनी चाहिए ताकि वह निर्णय कर सके कि उसे नए अंश खरीदने हैं या नहीं। यदि अंशधारी इस अवधि के भीतर अपनी इच्छा व्यक्त नहीं करता है, तो संचालकगण उन अंशों के निर्गमन के लिए स्वतंत्र होते हैं।

अधिकृत अंश पूंजी को बढ़ाने के लिए पारित प्रस्ताव के 30 दिन के भीतर कम्पनी रजिस्ट्रार को सूचित करना पड़ता है। नए अंशों के निर्गमन के सम्बन्ध में पुस्तपालन सम्बन्धी लेखे उसी प्रकार से होते हैं जैसे मूल अंशों के निर्गमन के सम्बन्ध में किए जाते हैं। नए अंशों के निर्गमन के सम्बन्ध में किए गए खर्चों को New Issue Expenses Account में डेबिट कर दिया जाता है, जिसे प्रारम्भिक व्यय के रूप में व्यवहृत करना चाहिए।.

(ब) अंशों का स्टॉक में बदलना (Conversion of Shares into Stock) – केवल पूर्ण दत्त अंशों को ही स्टॉक में परिवर्तित किया जा सकता है। स्टॉक समान तथा क्रमबद्ध भागों में नहीं बंटा होता है, अतः अंशों को स्टॉक में बलने पर अंशधारियों के पास अंश पूंजियों का इतना (एक निश्चित मात्रा) भागू होता है, न कि अंशों की निश्चित संख्या । उदाहरण के लिए, एक अंशधारी के पास 100 अंश 20₹ प्रति अंश हैं। इन अंश को स्टॉक में बदलने पर उस अंशधारी के पास 2,000₹ का स्टॉक होगा। अंशों के इस प्रकार का स्टॉक में परिवर्तन एक माह के भीतर ही रजिस्ट्रार को सूचित कर देना चाहिए। इस प्रकार के स्टॉक में परिवर्तित अंश पूंजी के भाग पर कम्पनी अधिनियम के वे प्रावधान लागू नहीं होते हैं, जो अंशों से सम्बंधित होते हैं।

(स) अनिर्गमित अंशों का विलोपन (Cancellation of Unissued Share Capital)– एक कम्पनी को अधिकार होता है कि वह उन तमाम अंशों को समाप्त कर दे, जो निश्चित तिथि को निर्गमित न किए गए हों या जिनके निर्गमन का वायदा किसी व्यक्ति के साथ न किया गया हो। ऐसा करने का मुख्य उद्देश्य इन अंशों द्वारा प्राप्त असुविधाजनक अधिकारों या दायित्वों से छुटकारा पाना ही होता है। कानून की निगाह में अंशों का इस प्रकार का विलोपन पूंजी में कभी नहीं कहलाती है, परन्तु इस क्रिया से कम्पनी की पूंजी हासिल हो जाती है। अतः प्रदत्त पूंजी कर का फायदा उठाने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि ऐसे अंशों के विलोपन के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित करते समय मौलिक रकम से अधिकृत पूंजी को भी बढ़ा दिया जाए। इसके सम्बन्ध में पुस्तपालन सम्बन्धी लेखा नहीं किया जाता है।.

(द) कम मूल्य वाले अंशों का अधिक मूल्य वाले अंशों में समेकन (Consolidation of Shares into Shares of a Large Amount)- एक कम्पनी को अधिकार है कि वह अपनी अंश पूंजी को कम मूल्य वाले अंशों से अधिक मूल्य अंशों में समेकन करके बांट दे। इस प्रकार की क्रिया से चुकता पूंजी की रकम में कोई परिवर्तन नहीं होता है, परन्तु अंशों की संख्या पहले से कम हो जाती है। यदि अंश पूर्ण दत्त न हो अर्थात् अंश का पूरा मूल्य न मांगा गया हो, तो यह ध्यान में रखना चाहिए कि समेकन के बाद चुकता मूल्य और अधिकृत मूल्य (nominal value) का वही अनुपात रहे, जो गठन से पहले था। उदाहरण के लिए, यदि 100₹ वाले अंश हैं और उन पर केवल 80 ₹ चुकाता किया गया है (80%) और इन अंशों का गठन 1,000₹ वाले अंशों में करना है, तो उन पर 800₹ से चुकता होगा। पुराना अंश पूंजी खाता बन्द करने के लिए और नया अंश पूंजी खाता खोलने के लिए पुस्तकों में लेखा करना पड़ता है। सदस्यों के रजिस्टर में भी आवश्यक संशोधन कर दिया जाता है, क्योंकि उनके अंशों की थाती में कमी आ जाती है।

(य) विद्यमान अंशों का कम मूल्य वाले अंशों में उप-विभक्त करना (Subdivision of Shares into Shares of Smaller Amount)– उपर्युक्त के आधार पर ही एक‌  कम्पनी भी बहते अंशों को कम मूल्य वाले अंशों में विभक्त भी कर सकती है। ऐसा करने का मुख्य उद्देश्य छोटे विनियोक्ताओं को प्रोत्साहन देना होता है।

(2) अंश पूंजी में कमी (Reduction in Share Capital)– कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 66 अंश पूंजी में कमी से सम्बन्धित है, जो निम्न प्रकार हैं:

  1. अंश पूंजी में कमी की प्रक्रिया

(A) कम्पनी को अपने अंश पूंजी को विभिन्न प्रकार से कम करने की शक्ति — अंशों द्वारा सीमित अथवा गारण्टी द्वारा सीमित तथा अंश पूंजी रखने वाली एक कम्पनी विशेष प्रस्ताव पारित करके तथा अपने प्रार्थनापत्र पर राष्ट्रीय कम्पनी विधि ट्रिब्यूनल द्वारा सम्पुष्टि किये जाने पर किसी प्रकार से और विशेष रूप से निम्न प्रकार से अपनी अंश पूंजी कम कर सकती है:

(a) यह अपने अंशों के किसी के सम्बन्ध में चुकता न की गयी अंश पूंजी के सम्बन्ध में दायित्व को समाप्त कर सकती है या घटा सकती है।

(b) अपने अंशों में से किसी पर दायित्व को समाप्त करने या घटाने के साथ या उसके बिना (i) यह किसी चुकता अंश पूंजी को निरस्त कर सकती है जो समाप्त हो गयी है या उपलब्ध सम्पत्तियों द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं करती या (ii) यह किसी चुकता पूंजी का भुगतान कर सकती है जो कम्पनी की आवश्यकता से अधिक है।

इसके पश्चात् यह पार्षद सीमानियम को संशोधित कर सकती है और अपनी अंश पूंजी तथा अंशों को तद्नुरूप कम कर सकती है।

यह उल्लेखनीय है कि यदि कम्पनी पर अपने द्वारा कम्पनी अधिनियम, 2013 के लागू होने से पहले या बाद में स्वीकृत किन्हीं जमाओं या उन पर देय ब्याज के सम्बन्ध में पुनः भुगतान बकाया है तो अंश पूंजी में ऐसी कमी नहीं की जा सकती।

(B) प्रतिवेदनों (आपत्तियों) के आमंत्रण हेतु ट्रिब्यूनल द्वारा नोटिस– जब एक कम्पनी अपनी अंश पूंजी में कमी के लिए ट्रिब्यूनल को प्रार्थनापत्र देती है तो ट्रिब्यूनल इसकी सूचना केन्द्र सरकार, कम्पनी रजिस्ट्रार, सूचीयत कम्पनियों की दशा में प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) तथा कम्पनी के लेनदारों को देती है। यदि इस सूचना के तीन माह के अन्दर इनमें से किसी के द्वारा कोई आपत्ति की जाती है तो ट्रिब्यूनल इस पर विचार करता है। यदि इस अवधि में कोई आपत्ति प्राप्त नहीं होती तो ट्रिब्यूनल यह मान लेगा कि इन्हें कम्पनी द्वारा अंश पूंजी कम करने पर कोई आपत्ति नहीं है।

(C) ट्रिब्यूनल द्वारा सम्पुष्टि आदेश- यदि ट्रिब्यूनल सन्तुष्ट हो जाता है कि कम्पनी के प्रत्येक लेनदार का ऋण या दावा निस्तारित या निर्धारित या सुरक्षित किया जा चुका है यदि उसकी सहमति ली जा चुकी है तो वह उन शर्तों एवं दशाओं के आधार पर, जिन्हें वह उचित समझे, अंश पूंजी में कमी की सम्पुष्टि का आदेश निर्गत करेगा। तथापि ट्रिब्यूनल द्वारा अंश पूंजी में कमी के किसी ऐसे प्रार्थनापत्र को स्वीकृत नहीं किया जायेगा, जिसमें ऐसी कमी के लिए कम्पनी द्वारा प्रस्तावित लेखांकन व्यवहार धारा 133 में निर्दिष्ट लेखांकन प्रमाप या कम्पनी अधिनियम, 2013 के किसी प्रावधान के अनुकूल न हो और इस सम्बन्ध में कम्पनी के अंकेक्षक द्वारा एक प्रमाणपत्र ट्रिब्यूनल के पास जमा करना होगा।

(D) ट्रिब्यूनल के सम्पुष्टि आदेश का प्रकाशन- ट्रिब्यूनल द्वारा निर्गत अंश पूंजी में कमी के आदेश का कम्पनी द्वारा उस प्रकार से प्रकाशन किया जायेगा, जिस प्रकार ट्रिब्यूनल द्वारा निर्देशित किया गया हो। यदि कम्पनी इस निर्देश का पालन करने में असमर्थ रहती है जो इस पर 5 लाख ₹ से लेकर 25 ₹ लाख तक जुर्माना किया जा सकता है।

(E) ट्रिब्यूनल के सम्पुष्टि आदेश की प्रमाणित प्रति रजिस्ट्रार को देना- कम्पनी अंश पूंजी में कमी के ट्रिब्यूनल के सम्पुष्टि आदेश की प्रमाणित प्रति एवं ट्रिब्यूनल द्वारा स्वीकृत सूक्ष्म की प्रति 30 दिन के अंदर रजिस्ट्रार को देगी, जिसमें निम्न दिखाया गया होः

(a) अंश पूंजी की राशि,

(b) अंशों की संख्या जिसमें यह विभाजित है,

(c) प्रत्येक अंक का मूल्य,

(d) पंजीयन के समय प्रत्येक अंश पर चुकता मानी गयी राशि।

इसके पश्चात् रजिस्ट्रार इसका पंजीकरण करेगा तथा इस सम्बन्ध में प्रमाणपत्र निर्गमित करेगा।

यह ध्यान रहे कि उपर्युक्त में से कोई भी नियम कम्पनी द्वारा अपनी प्रतिभूतियों के वापस क्रय (buy-back) पर लागू नहीं होगा।

  1. किसी सदस्य पर किसी मांग या अंशदान का दायित्व नहीं-कम्पनी का कोई सदस्य, भूत या वर्तमान, अपने द्वारा धारित किन्हीं अंशों के सम्बन्ध में इस अन्तर से अधिक राशि की किसी मांग या अंशदान के लिए दायी नहीं होगा, जो अंश पर चुकायी राशि या घटी राशि जो चुकायी मानी गयी है (जैसी भी स्थिति हो) और कमी के आदेश द्वारा निर्धारित राशि का अन्तर हो।
  2. आपत्ति का अधिकार रखने वाले ऐसे लेनदार के दावे या ऋण के सम्बन्ध में, जिसका नाम लेनदारों की सूची में शामिल नहीं था, सदस्यों का दायित्व – यदि किसी ऐसे लेनदार का नाम लेनदारों की सूची में शामिल नहीं है, जिसे अंश पूंजी को कम करने पर आपत्ति करने का अधिकार है और पूंजी की कमी के पश्चात् कम्पनी उसके ऋण या दावे की राशि का भुगतान करने में सक्षम नहीं है (जब यह ट्रिब्यूनल द्वारा समापन प्रक्रिया के अन्तर्गत हो), तोः

(a) रजिस्ट्रार द्वारा कमी के आदेश के पंजीयन की तिथि पर प्रत्येक व्यक्ति, जो कम्पनी का सदस्य है, ऐसे ऋण या के भुगतान के लिए अंशदान करने के लिए उत्तरदायी होगा। यह राशि उस राशि से अधिक नहीं होगी, जिसका अंशदान करने के लिए वह उत्तरदायी होता यदि कम्पनी उक्त तिथि से ठीक पहले दिन समापन प्रारम्भ करती।

(b) यदि कम्पनी का समापन हो चुका है और ऐसा कोई लेनेदार अपनी गैर-जानकारी के प्रमाण सहित ट्रिब्यूनल को प्रार्थनापत्र देता है। तो ट्रिब्यूनल, यदि वह उचित समझे, अंशदान के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों की सूची तय कर सकता है और इस सूची में शामिल अंशदानकर्ताओं से याचना करने और उसे प्रभावी करने की व्यवस्था कर सकता है।

  1. कम्पनी के दोषी अधिकारियों का दायित्व- यदि कम्पनी का कोई अधिकारी निम्न में से कोई अपराध करता है, तो वह धारा 447 के अन्तर्गत कपट के लिए अपराधी होगा। इसके लिए 6 माह से लेकर 10 वर्ष तक की सजा हो सकती है तथा कपट में निहित राशि से लेकर उसकी तीन गुनी राशि तक दण्ड हो सकता है :

(a) यदि अधिकारी ने जानबूझकर ऐसे लेनदार का नाम छिपाया हो तो कमी पर आपत्ति करने का अधिकारी था।

(b) यदि अधिकारी ने जानबूझकर किसी लेनदार के दावे या ऋण की प्रकृति या राशि के संबंध में मिथ्या वर्णन किया हो।

(c) यदि अधिकारी उपायुक्त छिपाव या मिथ्या वर्णन में सहायक, प्रोत्साहक या भागीदार हो।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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