अर्थशास्त्र / Economics

निर्यात-आयात नीति 2002-07 | मूल्यांकन 31 मार्च 2002 को घोषित

निर्यात-आयात नीति 2002-07 | मूल्यांकन 31 मार्च 2002 को घोषित

निर्यात-आयात नीति (2002-2007)

(Export-Import Policy (2002-2007)

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री श्री मुरासोली मारन ने 31 मार्च 2002 को अगले पांच वर्षों के लिए निर्यात-आयात नीति की घोषणा की। देश में निर्यात को बढ़ाना देने तथा विश्व बाजार में 1% निर्यात का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए इस नीति में कुछ संवेदनाशील वस्तुओं को छोड़ अन्य  सभी वस्तुओं के निर्यात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबन्धों (Quantitative Restrictions) को हटा दिया। साथ ही विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones), कृषि-निर्यात क्षेत्रों (Agro-export zones), कुटीर तथा लघु स्तर उद्योगों, रत्न एवं आभूषण उद्योग को प्रोत्साहन देकर लातिन अमेरिका सहित कुछ नये बाजारों में निर्यात बढ़ाने पर जोर दिया गया है। विशेष आर्थिक क्षेत्र की इकाइयों को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ब्याज दर पर ऋण देने की घोषणा की गयी

विशेष आर्थिक क्षेत्रों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए पहली बार इन क्षेत्रों में भारतीय बैंकों की विदेशी शाखाएं खोलने की इजाजत दी गयी है। भारतीय रिजर्व बैंक की मंजूरी से दी गयी इस अनुमति के अनुसार इन बैंक शाखाओं को नकदी आरक्षण अनुपात (Cash Reserve Ratio) और सांविधिक तरलता अनुपात (Statutory Liquity Ratio SLR) के नियमों से छूट दी गयी है। इन शाखाओं से विशेष आर्थिक क्षेत्र की इकाइयों को अन्तर्राष्ट्रीय दरों पर वित्तीय सुविधा मिल सकेगी।

कृषि को रोजगारन्मुखी (Employment-oriented) बनाने के लिए नयी निर्यात-आयात नीति में कृषि-निर्यात विशेष बल देते हुए निर्यात पर परिवहन साहाय्य (Transport subsidy) देने के अलावा उस पर लगे सभी प्रतिबन्ध हटा लिए गए हैं।

फलों, सब्जियों, फूलों, मुर्गी फार्म उत्पाद एवं दुग्ध उत्पाद के निर्यात पर परिवहन साहाय्य मुहैया कराया जाएगा।

इस नीति में अग्रिम लाइसेंस (Advance Licensing) के तहत शुल्क छूट अर्हता प्रमाण पत्र (Duty Exemption Entitlement Certificate) को समाप्त करने के अतिरिक्त वार्षिक अग्रिम लाइसेंस स्कीम वापस ले ली गयी है। साथ ही निर्यातक किसी भी मूल्य के लिए अग्रिम लाइसेंस सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। शुल्क अर्हता पास बुक स्कीम (Duty Entitlement Pass Book- DEPB) में मूल्य सीमा की छूट को जारी रखा गया है। इसके तहत कुछ अपवादों को छोड़ कर-दरों को मध्यम अवधि में संशोधित नहीं किया जाएगा। एक अरब रुपये या उससे अधिक के निर्यात संवर्धन पूंजी वस्तु (Export Promotion Capital Goods) स्कीम के लिए लाइसेंस पर 12 वर्ष की निर्यात-दायित्व अवधि अनिवार्य होगी जिसमें 5 वर्षों की कर-छूट अवधि शामिल होगी।

नये बाजारों में प्रवेश के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उप-सहारा अफ्रीकी क्षेत्रों पर विशेष बल दिया जाएगा। इसके लिए बनाए गए कार्यक्रम के प्रथम चरण में नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, मारिशस, कीनिया, इथोपिया, तंजानिया और घाना सहित सात देशों में निर्यात बढ़ाने के प्रयास किए जाएंगे। इन देशों में 5 करोड़ रुपये तक निर्यात करने वाले निर्यातक को एक्सपोर्ट हाऊस (Export House) का दर्जा दिया जाएगा। नव राष्ट्रकुल देशों के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए आगामी वर्षों में एक विशेष कार्यक्रम शुरू किया जाएगा। लातिन अमेरिकी देशों को निर्यात बढ़ाने की योजना 2003 तक जारी रखी जाएगी।

रसायन और भेषिज क्षेत्र में सभी कीटनाशक नुस्खों पर शुल्क अर्हता पासबुक की दर 65 प्रतिशत निर्धारित की गयी। साथ ही बिना किसी सीमा के नुस्खों के निशुल्क निर्यात की छूट दी गयी।

नयी नीति में रत्न एवं आभूषण उद्योग को बढ़ावा देने के लिए गैर-तराशे हीरों (Rough diamonds) पर सीमा शुल्क को घटा कर शून्य कर दिया गया और इसके लिए लाइसेंस प्रणाली खत्म कर दी गयी।

इलैक्ट्रानिक हार्डवेयर उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए नयी नीति में प्रौद्योगिक पार्क स्कीम (Technology Park Scheme) को संशोधित किया गया है। इससे यह क्षेत्र विश्व व्यापार संगठन के सूचना तकनालाजी समझौते (Information Technology Agreement) के तहत शुल्क-रहित प्रणाली का सामना कर सकेगा। इलैक्ट्रानिक हार्डवेयर प्रौद्योगिकी के तहत इकाइयां एक वर्ष के स्थान पर 5 वर्ष की अवधि में निर्यात की सकारात्मक दर के आधार पर निबल विदेशी मुद्रा सुविधा को हासिल कर सकेंगी।

निर्यात-आयात नीति में सभी निर्यात-उत्पादों पर ईंधन लागत में रियायत दी गयी है ताकि ईंधन के बढ़े खर्च के प्रभाव को कम किया जा सकें।

निर्यात-उत्पादों (Export products) में सबसे अधिक 7 प्रतिशत रियायत टिकाऊ वस्तुओं, लौह इंजीनियरिंग उत्पादों एव फैब्रिक गारमेंट्स पर दी गयी है।

मूल्यांकन 31 मार्च, 2002 को घोषित

मार्च 2002 को घोषित निर्यात-आयात नीति में कई प्रकार के उपायों का उल्लेख किया गया है। कुछ कर-रियायते दी गयी हैं, कुछ कार्य प्रणालियों को युक्तियुक्त बनाने का प्रयास किया गया है, मात्रात्मक प्रतिबन्ध (Quantitative Restrictions) हटा दिए गए हैं और विशेष आर्थिक क्षेत्रों ओर और प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया है।

इस नीति का एक और सकारात्मक लक्षण अफ्रीका के देशों पर ध्यान केन्द्रित करना था ताकि अफ्रीका के देशों के लिए भारतीय निर्यात को बढ़ावा प्राप्त हो सके। इस पहल से भारतीय निर्यात इस बढ़ते हुए बाजार में प्रवेश कर सकेंगे, जिसकी अभी तक उपेक्षा की जा रही थी।

एक और महत्वपूर्ण पहल जिसका उल्लेख करना अनिवार्य है, वह है भारतीय बैंकों को विदेशों में शाखाएं खोलने की अनुमति देना। उसका उद्देश्य निर्यातकों को अन्तर्राष्ट्रीय दरों पर अन्तर्राष्ट्रीय वित्त उपलब्ध कराना है। इससे निर्यातकों के लिए उधार की लागत कम हो जाएगी और इस प्रकार वे अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकेगे। यह पहल, जिसको विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones) के लिए केन्द्रित किया जाएगा, इस नीति का एक और अभिनन्दनीय पहलू है।

किन्तु आलोचकों ने कई मुद्दे उठाये जिन पर विचार करना आवश्यक है। चाहे श्री मारन ने 11.9 प्रतिशत और औसत वार्षिक निर्यात का लक्ष्य अलग पांच वर्षों में लिए रखा है, परन्तु प्रश्न उठता है कि क्या दसवीं योजना में सकल देशीय उत्पाद की औसत 8 प्रतिशत वृद्धि-दर प्राप्त करने के लिए यह लक्ष्य पर्याप्त है? दसवीं योजना के लिए 14-15 प्रतिशत औसत वार्षिक निर्यात दर प्राप्त करने के लक्ष्य का सुझाव दिया गया है। अतः निर्यात-आयात नीति (2002-2007) द्वारा निर्धारित लक्ष्य दसवीं योजना की आवश्यकता के लिए नाकाफी है। दूसरे, 1991-2000 के दौरान निर्यात की औसत वार्षिक वृद्धि दर 9.8 प्रतिशत रही और इस कारण 11.9 प्रतिशत के लक्ष्य को मर्यादित ही कहा जा सकता है और किसी भी दृष्टि से “साहसपूर्ण” की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

निर्यात नीति कृषि के निर्यात को बढ़ावा देना चाहती है और इस कारण यह गेहूं के निर्यात को बढ़ाना चाहती है ताकि देश में | जनवरी 2002 तक एकत्रित 580 लाख टन के अत्यधिक बफर-स्टाक को कम किया जा सके। सरकार के सामने दो विकल्प हैं- एक तो यह कि खाद्यानों का निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित की जाए, और दूसरा इस खाद्यान्न का प्रयोग ‘रोजगार के लिए खाद्य’ (Food for work) कार्यक्रम के प्रयोग किए जाए और इस प्रकार सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रम में रोजगार कायम किया जाए। यह बात अत्यन्त निराशाजनक है कि भारतीय खाद्य निगम, गेहूं को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में पशुओं के चारे के रूप में से मिट्टी के भाव पर बेच रहा है। प्रश्न उठता है कि भारतीय खाद्य निगम द्वारा प्राप्त गेहूं की किस्म इतनी घटिया क्यों है जबकि सरकार साल-दर-साल किसानों के लिए गेहूं के समर्थन मूल्य मे वृद्धि करती है? इससे यह बात साफ हो जाती है कि भारतीय खाद्य निगम के कार्यकलापों में भारी भ्रष्टाचार विद्यमान है। केन्द्र सरकार भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से राज्य सरकारों को खाद्यान्नों उठाने के लिए राजी करने में विफल हुई है और यह इस बात से विदित है कि जहां सन् 2000-01 में 285.5 लाख टन चावल और गेहूं का आबंटन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए किया गया, वहां राज्य सरकारों द्वारा केवल 117.2 लाख टन उठाया गया अर्थात् आवण्टन का केवल 41 प्रतिशत। इसका मुख्य कारण खाद्यान्नों की ऊंची कीमत निश्चित करना था और यह नीति विवेकहीन थी। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता ने खुले बाजार से खाद्यान्न खरीदने को तरजीह दी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से उपलब्ध होने वाले घटिया अनाज को नकार दिया। यदि सरकार कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ाना चाहती है, तब इसे गेहूं और चावल की किस्म को उन्नत करने की ओर ध्यान देना होगा ताकि इससे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अच्छी कीमत प्राप्त की जा सके।

अपने कृषि उत्पादों के लिए ऊंची कीमत प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि खाद्य- संसाधन पर बल दिया जाए। इस उद्देश्य के लिए खाद्य प्रसंस्करण (Food Processing) के लिए एक अलग मंत्रालय कायम किया गया परन्तु अभी तक इस मंत्रालय का निष्पादन निराशाजनक रहा है। कृषि-संसाधन से भारत में प्राप्त मूल्य-वद्धि (Value addition) 15-20 प्रतिशत रही है जबकि यह विकसित देशों में 0 प्रतिशत से भी अधिक है। भारत को खाद्य- संसाधन द्वारा मूल्य-वृद्धि को बढ़ाने की ओर प्रयास करना चाहिए।

निर्यात-आयात नीति में विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर भारी बल दिया गया है, जो कि पहले प्रोन्नत किए जा रहे, निर्यात-प्रोन्नति क्षेत्रों (Export Promotion Zones) और निर्यात-प्रेरित इकाइयों (Export-oriented Units) का ही नया स्वरूप हैं। परन्तु निर्यात-प्रोन्नति क्षेत्रों और निर्यात-प्रेरित इकाइयों का अनुभव कुछ बहुत अच्छा नहीं रहा है। ये दोनों मिलकर कुल निर्यात का 12 प्रतिशत कारोबार करते हैं। बहुत सी कार्यविधि सम्बन्धी अड़चनों के कारण वे बेहतर निष्पादन दिखा नहीं पाए। यह अधिक वांछनीय होगा यदि विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए अत्यधिक अधिकारतंत्रीय रुकावटें खड़ी न की जाएं और उन्हें निर्यात-बाजारों में प्रवेश के लिए समर्थ बनाया जाए। यह बात ध्यान में रखनी होगी कि चीन में विशेष निर्यात क्षेत्रों द्वारा कुल निर्यात का 40 प्रतिशत उपलब्ध कराया जाता है। भारत को विशेष आर्थिक क्षेत्रों के निष्पादन को उन्नत करने के लिए सबक लेना चाहिए।

निर्यात-आयात नीति में कुटीर तथा हस्तशिल्प क्षेत्र और लघु-स्तर क्षेत्र के लिए जो कि देश के कुल निर्यात में 35 प्रतिशत योगदान देते हैं, कुछ रियायतें दी गयी हैं। परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि इस नीति में, इस क्षेत्र के सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू अर्थात् बैंक-उधार का विस्तार करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि उदारीकरण- उपरान्त काल में प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के लिए उधार उपलब्ध कराने पर कम बल दिया जाने के परिणामस्वरूप, लघु स्तर इकाइयों को पर्याप्त मात्रा में उधार उपलब्ध नहीं कराया गया। इसमें संशोधन होना चाहिए।

निर्यात-आयात नीति (2002-07) में कुछ पहले चल रही रियायतें एवं राहतें कायम रखी गयी हैं ये हैं : शुल्क अर्हता पासबुक स्कीम, (Duty Entitlement Passbook Scheme) अग्रिम लाइसेंस, निर्यात संवर्धन पूंजी वस्तु (Export Promotion Capital Goods) स्कीम। इन योजनाओं का मूल आधार यह है कि यदि निर्यातक इन आयातित आदानों का प्रयोग करता है, तो उसे ये शुल्क-मुक्त प्राप्त होने चाहिए। परन्तु इन सभी रियायतों और प्रोत्साहनों के बावजूद, 2001-02 में हमारे निर्यात में केवल 1.5 प्रतिशत की नाममात्र वृद्धि हो हो पायी। 1991-2000 की अवधि के दौरान आयात की वृद्धि-दर निर्यात-वृद्धि-दर की अपेक्षा ऊंची रही है। इसका तात्पर्य यह विदेशी भारतीय बाजार में प्रवेश करने में अधिक सफल हुए हैं, और इसकी तुलना में भारतीय विदेशी बाजारों में अपेक्षाकृत कम प्रवेश कर पाए हैं। अतः जब तक केन्द्र एवं राज्य सरकारें बन्दरगाहों पर वस्तुओं की गतिविधि को सुविधाजनक बनाने के लिए आधार संरचना को उन्नत नहीं करतीं, तब तक इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकेंगे।

इस नीति में गैर-तराशे हीरों पर सीमा-शुल्क हटा कर, इन्हें शुल्क-मुक्त कर दिया गया है। परन्तु यदि हम रत्नों एवं आभूषणों के कुल निर्यात में इनके शुद्ध निर्यात का परीक्षण करें, तो यह पता चलता है कि इनका भाग 1995-96 में 60.1 प्रतिशत से कम होकर 1999-2000 में 28 प्रतिशत हो गया और फिर थोड़ा सा उन्नत होकर 34.9 प्रतिशत हो गया। इससे यह बात रेखांकित होती है कि केवल आयात-शुल्क में कटौती से इनके निर्यात को आवश्यक प्रोत्साहन प्राप्त नहीं होगा।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि केवल वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय निर्यात को बढ़ाने के लिए उचित वातावरण कायम नहीं कर सकता। इसके लिए उसे पावर-मंत्रालय एवं परिवहन मंत्रालय के साथ समन्वय करना होगा ताकि निर्यात के लिए माल की ढुलाई में विलम्ब को कम किया जा सके। इसी प्रकार, वाणिज्य मंत्रालय को वित्त मंत्रालय को इस बात के लिए राजी करना होगा कि आधारसंरचना (Infrastructure) विकास के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध कराए। न केवल यह, केन्द्र एवं राज्य सरकारों को अपने निर्यात बढ़ाने के उपायों में तालमेल बिठाना होगा। यह उद्देश्य तभी प्राप्त हो सकता है यदि हमारे निर्यात अधिक प्रतिस्पर्धी बन जाएं। इसके लिए निर्यात क्षेत्र में प्रौद्योगिकी (Technology) में सुधार करना होगा और एक कुशल आधारसंरचना का विकास करना होगा। निर्यात-आयात नीति (2002-07) का केन्द्र-बिन्दु शुल्क-कटौती और कुछ रियायतों को उपलब्ध कराने तक सीमित रहा है, इसकी सफलता के लिए उसका विस्तार करना होगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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