अर्थशास्त्र / Economics

बहुराष्ट्रीय निगम | बहुराष्ट्रीय निगमों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव

बहुराष्ट्रीय निगम | बहुराष्ट्रीय निगमों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव

बहुराष्ट्रीय निगम

(Multi-National Corporations)

विदेशी सहयोग के रूप में भारतीय उद्योगों में बहुराष्ट्रीय निगमों की हिस्सेदारी की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। इस उद्देश्य के लिए भारतीय उद्योगपतियों के साथ सहयोग के समझौते बनाए जाते हैं जिनमें अक्सर टेक्नोलॉजी के प्रावधान की व्यवस्था होती है। कई बार विदेशी ब्रांड के नाम का इस्तेमाल करने की भी अनुमति दी जाती है। भारतीय कम्पनियों के साथ विदेशी कम्पनियों के सहयोग की मात्रा कितनी अधिक रही है, इसका अन्दाज मात्र इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद बड़े या माध्यम औद्योगिक ग्रुप में जितने नए उद्योग स्थपित किये गये, उनमें से लगभग सभी में किसी न किसी प्रकार का विदेशी सहयोग मौजूद रहा है। पिछले कुछ वर्षों में तो सरकारी नीति और ज्यादा उदार बना दी गई है, जिसके परिणामस्वरूप विदेशी सहयोग की बाढ़ सी आ गई है। उदाहरण के लिए, 1948 से 1988 के बीच 40 वर्षों में किये गये कुल 12,760 विदेशी सहयोग के समझौतों में से 6,165 (अर्थात् 48.3 प्रतिशत) 1981 से 1988 के बीच आठ वर्षों में किये गये जुलाई-अगस्त 1991 में घोषित उदार विदेशी निवेश नीति के परिणामस्वरूप, विदेशी सहयोग के समझौतों में तेजी से वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए, 1991 में प्रत्यक्ष निवेश प्रस्तावों के अनुमोदन का मूल्य 235 मिलियन डालर था जो 1994 में बढ़कर 2,900 मिलियन डालर (8,957 करोड़ रुपये) हो गया। 1991 से 1994 तक अनुमोदित कल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्रस्तावों की राशि 7.200 मिलियन डालर अनेक समझौते ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करने लिए किय गये जो अनावश्यक थी या जिनका उत्पादन घरेलू टेक्नालॉजी से भी आसानी से हो सकता था। इस सन्दर्भ में बहुत-सी वस्तुओं का नाम लिया जा सकता है जैसे वैक्यूम फ्लास्क (थरमस), लिपिस्टिक, टूथपेस्ट, कास्मेटिक्स, आइसक्रीम, बियर, बिस्कुट, रेडीमेड कपड़े इत्यादि। न केवल इन वस्तुओं के लिए विदेशी सहयोग के समझौतों को मंजूरी दी गई अपितु एक ही वस्तु के उत्पादन के लिए अलग-अलग उद्योगपतियों को अलग-अलग विदेशी कंपनियों से सहयोग करने की अनुमति भी दी गई। विदेशी सहयोग की अवधि समाप्त होने पर उनका दोबारा से नवीकरण (renewal) भी अक्सर किया गया। स्पष्ट है कि ये सारे विदेशी सहयोग के समझौते एक विशिष्ट उच्च आय वर्ग की मांग को पूरा करने के लिए तथा विदेशी ब्रांड के नाम का लाभ कमाने के लिये किये गये थे।

विदेशी सहयोग की इस ‘प्रवृत्ति’ के अलावा, उसमें और बहुत से दोष थे जैसा कि निम्न विवरण में स्पष्ट है-

  1. विदेशी सहयोग के बहुत से समझौतों में सरकार ने अलग-अलग उद्योगपतियों को अलग-अलग स्रोतों से एक ही अथवा एक जैसी ही टेक्नालॉजी के आयात की अनुमति दी है। इससे देश पर भुगतान का भार तो बढ़ गया है परन्तु उपलब्ध तकनीकी ज्ञान में वृद्धि नहीं हुई है।
  2. एक ही जैसी वस्तुओं की टेक्नालॉजी का अलग-अलग स्रोतों व देशों से आयात करने के लिए कारण कई तरह के कलपुर्जो, डिजाइनों, कच्चा माल इत्यादि की आवश्यकता बढ़ गई है। इसलिए इनके उत्पादन के लिए या फिर इनका स्टॉक रखने के लिए व्यवस्था करनी पड़ी है जिससे साधनों का अपव्यय हुआ है। इसके अलावा, वस्तुओं के मानकीकरण (Standardization) में भी कठिनाई हुई है।
  3. समझौतों की शर्ते अक्सर विदेशियों के अनुकूल व हमारे हितों के प्रतिकूल रही हैं इसके मुख्य कारण भारतीय उद्योपगतियों की कमजोर सौदा-शक्ति तथा विदेशी विनिमय के संकट के कारण सरकार की विदेशी सहयोग प्राप्त करने की तत्परता थी।
  4. क्योंकि मशीनरी के विनिर्देश (Specification) तथा उपकरणों की आपूर्ति करने का काम विदेशी सहयोगियों पर छोड़ दिया गया था, इसलिए न केवल उन्होंने मनमानी कीमतें लगाईं अपितु कई बार आवश्यकता से अधिक सामान का आयात किया। कई बार तो स्थानीय विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद माल का आयात किया गया। कभी-कभी कलपुर्जे न होने के कारण मशीनें बेकार पड़ी रहीं और कभी-कभी उत्पादन प्रक्रिया आवश्यकता से अधिक जटिल (Sophisured) व यंत्रीकृत (mechanised) थीं। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं कि विदेशी सहयोगियों ने भारत को अपने देश में पुरानी पड़ चुकी (obsolete) टेक्नालॉजी सौंप दी।
  5. भुगतान की दरें भी इस प्रकार तय की गई थी कि ज्यादा से ज्यादा लाभ प्राप्त किया जा सके। आमतौर पर सरकार की यह नीति थी कि ज्यादा-से-ज्यादा वार्षिक बिक्री का 5 प्रतिशत तथा आयात किये गये प्लांट के मूल्य का 5 प्रतिशत तकनीकी फीस के रूप में दिया जाय या फिर तकनीकी फीस के रूप में जारी पूंजी का 10 प्रतिशत एकमुश्त राशि के रूप में दे दिये जायं। परन्तु ये ‘अधिकतम सीमाएँ’ वास्तव में ‘सामान्य दरें’ बन गईं।
  6. सबसे बड़ी कठिनाई विदेशी सहयोग के समझौतों में कई प्रतिबंधात्मक व नियंत्रक शर्तों का होना है। कुछ नियंत्रक शर्ते यह थीं-(i) टेक्नलॉजी किसी अन्य व्यक्ति या उद्योगपति को हस्तांतरित नहीं की जा सकती (कई बार तो समझौते समाप्त होने के बाद भी); (ii) उत्पादन विदेशी सहयोगी द्वारा बताये गये विनिर्देशों के अनुसार करना होगा और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार उसमें फेरबदल नहीं किया जा सकता; (iii) यदि विदेशों से कुछ खरादारी करनी हो तो केवल विदेशी सहयोग से ही (या उसके माध्यम से ही) की जा सकती है। (iv) कई बार विदेशी तकनीकी विशेषज्ञों की निगाह के नीचे उत्पादन पर नियन्त्रण करने की व्यवस्था थी; (v) कीमत-नीति व विपणन इत्यादि में भी विदेशी सहयोगी फर्म का हस्तक्षेप रहता था। कई बार यह शर्त होती थी की उत्पादन का एक हिस्सा उस सहयोगी कम्पनी की इस देश में कार्यरत किसी इकाई को पूर्व-निश्चित कमीशन पर उपलब्ध कराना होगा या किन्हीं विशिष्ट फर्मों को एकमात्र विकी एजेंट नियुक्त करना होगा; था (vi) निर्यात करने के अधिकार पर भी प्रतिबन्ध थे और यह प्रावधान था कि केवल विशिष्ट देशों को अथवा विशिष्ट शर्तों पर निर्यात किये जा सकते हैं।
  7. विदेशी सहयोग के कारण एकाधिकारी शक्तियों को प्रोत्साहन मिला है तथा आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण बढ़ा है। विदेशी कम्पनियों ने बड़े औद्योगिक घरानों के साथ सांठ-गांठ की है और इससे दोनों पक्षों को लाभ हुआ है। विदेशी सहयोग के कारण बड़े औद्योगिक घरानों को पेटेंट (Patent) साधनों, विदेशी मुद्रा इत्यादि प्राप्त करने में बड़ी मदद मिली है जिससे उनकी संपत्ति व आर्थिक शक्ति में और ज्यादा वृद्धि हुई है।

बहुराष्ट्रीय निगमों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव

राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग विदेशी पूँजी का विरोध करते हैं। विदेशी पूँजी के भारतीय अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित हानिकारक प्रभाव पड़े हैं-

  1. लाभांश की अदायगी- भारत से दूसरे देशों को लाभांश, ब्याज, रायल्टी, तकनीकी सेवाओं के लिए शुल्क तथा तकनीशियनों के वेतन के रूप में प्रति वर्ष भुगतान होता है। उदाहरण के लिए, निजी क्षेत्र की कम्पनियों ने 1970-71 में 95.3 करोड़ रुपये दूसरे देशों को प्रेषित किये (इन्हें (Foreign remmitances कहा जाता है)। विदेशों को प्रेषण 1981-82 में बढ़कर 398.9 करोड़ रुपये तथा 1989 में 8135 करोड़ रुपये हो गया। निर्मल चन्द्रा के एक अध्ययन से पता चलता है कि नौवें दशक के मध्य में कुल निजी निगम लाभांशों का लगभग 60 प्रतिशत, या फैक्ट्री क्षेत्र के लाभांशों का लगभग 40 प्रतिशत, विदेशी फर्मों द्वारा अपने देशों को प्रेषित किया गया।
  2. आर्थिक संरचना का विखण्डन- विदेशी पूंजी देश की अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा प्रभाव डाल सकती है। कई बार इसके कारण घरेलू उद्यम की योग्यताओं को पनपने का मौका नहीं मिलता, अल्पाधिकारिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है। अर्थव्यवस्था में पुरानी टेक्नोलॉजी का प्रयोग और अनुपयुक्त वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता है तथा उत्पादन संरचना में उच्च आय वर्गों की मांग को पूरा करने के लिए परिवर्तन किये जाते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है भारत में विदेशी पूंजी कई अनावश्यक उद्योगों जैसे श्रृंगार के प्रसाधनों, टूथपेस्ट, बिस्कुट, बाल पेन, फाउन्टेन पेन इत्यादि में लगी हुई है। पॉल बरन व अन्य मार्क्सवादी विचारकों का मत है कि विदेशी पूंजी (खास तौर पर जब यह बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से प्राप्त होती है) ‘नवसाम्राज्य’ व ‘शोषण’ के द्वार खोलती है।
  3. राजनैतिक हस्तक्षेप- अपनी व्यापक वित्तीय एवं तकनीकी शक्ति के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के पास अब इतनी ताकत आ गई कि वे अल्प-विकसित देशों के नीति-निर्णयों पर राजनैतिक प्रभाव डाल सकने में सक्षम हो गये हैं। इन बहुराष्ट्रीय निगमों के अनुचित राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण कई छोटे-छोटे अल्प-विकसित देशों की स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता कम हुई है और उनकी स्वायत्तता खतरे में है। यही कारण है कि अल्प-विकसित देशों में बहुराष्ट्रीय निगमों की गतिविधियों को सन्देह व शंका की दृष्टि से देखा जाता है और उन पर नियन्त्रण लगाने के लिए कई तरह के कानून बनाये गये हैं एवं प्रशासनिक नियन्त्रणों की व्यवस्था की गई है।
  4. तकनीकी सहयाता का अनुपयोगी स्वरूप- अल्प-विकसित राष्ट्र अनुसन्धान व विकास गतिविधियाँ नहीं करते, उनके ये प्रयास अपने मूल देश में अथवा किसी अन्य विकसित देश में होते हैं। यह निश्चय ही चौंकने वाली बात है कि यद्यपि अनुसंधान व विकास गतिविधियां विकसित देशों में केन्द्रित रहती हैं तथापि उनकी कीमत अल्प-विकसित देशों में बहुराष्ट्रीय निगम की सहायक कम्पनियों का अपनी बिक्री के अनुपात में विदेशी मुद्रा के प्रेषण द्वारा चुकानी पड़ती है। विदेशी मुद्रा के रूप में यह प्रेषण रॉयल्टी व तकनीकी फीस के अलावा है। इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि कभी-कभी बहुराष्ट्रीय निगम, जिनकी अपने उत्पादन-क्षेत्र में एकाधिकारिक या अर्द्ध-एकाधिकारिक स्थिति होती है, अपनी सर्वोत्तम टेक्नोलॉजी का अन्तरण अल्प-विकसित देशों में नहीं करता अपितु पुरानी व प्रयोग न आ सकने वाली टेक्नोलॉजी का अन्तरण करते हैं। अपनी मजबूत सौदाकारी शक्ति का फायदा उठाकर बहुराष्ट्रीय निगम कड़ी शर्तों पर तकनीक अन्तरण करते हैं। कई बार तकनीक अन्तरण, संरक्षित घरेलू बाजार का लाभ उठाने के लिए किया जाता है। इसके अलावा, बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा अक्सर पूँजी प्रधान तकनीकों का अन्तरण किया जाता है, जो भारत जैसे अत्यधिक श्रम-पूर्ति वाले देश के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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