अर्थशास्त्र / Economics

विदेशी पूँजी के विभिन्न स्रोत | भारत के आर्थिक विकास में विदेशी सहायता का योगदान | विदेशी ऋण की समस्याएँ

विदेशी पूँजी के विभिन्न स्रोत | भारत के आर्थिक विकास में विदेशी सहायता का योगदान | विदेशी ऋण की समस्याएँ

विदेशी पूँजी के विभिन्न स्रोत

(अ) विदेशी सहायता (External Assistance)-

विदेशी सहायता से अभिप्राय उस सहायता का है, जो सरकारी स्तर पर प्राप्त होती है। इसका प्रयोग पब्लिक एवं प्राइवेट दोनों ही सेक्टर में हुआ है। विभिन्न देशों के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी सहायता मिली है। इससे अनुदान (जो कि भेंट स्वरूप हैं, अतः लौटाते नहीं पड़ेंगे) P. L. 480 और P.L. 665 के अन्तर्गत अमेरिकी सहायता एवं ऋण (रुपयों में लौटाये जाने वाले एवं विदेशी मुद्रा में लौटाये जाने वाले) सम्मिलित हैं।

सर्वाधिक विदशी सहायता अमेरिका ने प्रदान की है। सहायता देने वाले देशों में दूसरा स्थान सोवियत संघ का है। तीसरा स्थान विश्व बैंक का है। विदेशों से प्राप्त होने वाली सहायता के सम्बन्ध में निम्न प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती हैं-

(1) विगत वर्षों में भारत को प्राप्त विदेशी सहायता में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसका कारण यह है कि हमारा योजना व्यय बराबर बढ़ रहा है।

(2) विदेशी मुद्रा में चुकाने योग्य ऋणों की मात्रा में तेजी से वृद्धि हुई है किन्तु अनुदान और P. L. 480 के अन्तर्गत प्राप्त राशियाँ घट गयी हैं, जिनका स्वाभाविक परिणाम यह है कि सामान्य कर-भार में वृद्धि तेजी से हो गई है।

(3) विदेशी ऋणों की शर्तों में बहुत उदारता आई है, ब्याज दर कम हुई है तथा ऋण लौटाने की अवधि अपेक्षतः लम्बी की गई है।

(4) यद्यपि ब्याज दर घटी है तथापि ऋण की बढ़ती हुई मात्रा के कारण कुल देय ब्याज बढ़ा है। यदि विदेशी कम्पनियों द्वार अर्जित एवं प्रेषित लाभांश को भी सम्मिलित कर लिया जाय, तो वार्षिक ब्याज की रकम कुल विदशी मुद्रा कमाई (चालू) का 20% है।

(5) विदेशी ऋणों को लौटाने में कठिनाई होने लगी है, क्योंकि विदेशी ऋणों से स्थगित कारखाने विलम्ब से फल देने वाले हैं। इसी कारण भारत ने ऋणदाता देशों से ऋण लौटाने की तिथियाँ स्थगित करने का अनुरोध कई बार किया।

(6) भारत पाक युद्ध के कारण कुछ समय तक दोनों देशों को विदेशी ऋण मिलने बन्द हो गये किन्तु अब फिर आरम्भ हो गये हैं।

(7) विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भारत को आर्थिक सहायता जारी रखना चाहते हैं लेकिन वर्ष 1991 के बाद से उन्होंने इसके लिए निम्न शर्ते लगायी हैं-

(i) वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पादन का 6.5 प्रतिशत के स्तर पर लाया जाय;

(ii) घाटे के सार्वजनिक उपक्रमों को या तो बन्द कर दिया जाय या उन्हें निजी क्षेत्रों को सौंप दिया जाय;

(iii) अर्थव्यवस्था का यथा सम्भव निजीकरण किया जाय;

(iv) विदेशी निवेशकों को अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान की जायें।

विदेशी विनियोग की वर्तमान कमी के सन्दर्भ में पहले से ही प्राधिकृत सहायता का उपयोग महत्वपूर्ण है। हाल के वर्षों में सहायता के उपयोग में आई रुकावटों का पता लगाने तथा उन्हें दूर करने के प्रयत्न किये गये थे। ये रुकावटें निम्न थीं-

(i) सीमित योजना आबंटन,

(ii) सामान और उपस्करों की वसूली में देरी,

(iii) परियोजना विस्थापितों के लिए भूमि अधिग्रहण और उसके पुनर्वास से सम्बन्धित समस्याओं के कारण रुपया, संसाधनों की कमी।

(ब) भारत में विदेशी व्यावसायिक विनियोग-

प्राइवेट सेक्टर में विदेशी विनियोग या विदेशी व्यावसायिक विनियोग, वे दीर्घकालीन स्वभाव के विनियोग हैं, जो भारत में व्यावसायिक उपक्रमों गैर निवासियों (Non-residents) द्वारा किये गये हैं। इनमें (i) विदेश स्थापित कम्पनियों की भारत में कार्य करने वाली शाखाओं के शुद्ध विदेशी दायित्वों और (iii) भारतीय कम्पनियों में विदेशियों द्वारा खरीदे गये आनुपातिक स्वतन्त्र कोर्षों समेत एवं ऋणपत्र सम्मिलित होते हैं। अभी तक भारत में प्राइवेट सेक्टर में विदेशी विनियोग प्रायः विदशी प्राइवेट एजेन्सियों द्वारा किये गये हैं। लेकिन आधुनिक वर्षों में ऐसे विनियोग का एक पर्याप्त भाग वह है जो प्राइवेट कम्पनियों ने विश्व संस्थाओं से ऋण के रुप में लिया है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत को विदेशी सहायता में लगातार वृद्धि हो रही है। परंतु उसको सही ढंग से उपयोग में नहीं लाया जा सका है।

भारत में विदेशी सहायता एक दृष्टि में

मिलियन अमेरिकी डालर

वर्ष ऋण

(1)

अनुदान

(2)

कुल  

(1) + (2)

उपयोग
1979-80 1603.6 698.9 2302.5 1675.4
1980-81 4768.9 95.9 4864.8 2733.7
1990-91 4236.4 291.0 4527.4 2733.7
1995-96 3249.8 399.0 3648.8 3306.4
1999-2000 4091.4 604.4 4695.8 3329.0
2000-01 3760.3 206.3 3975.6 2237.0
2001-02 4438.7 711.1 5249.8 3126.7
2002-03 4183.5 244.4 4427.9 3603.4
2003-04 3300.8 525.9 3826.7 3880.1

संयुक्त उपक्रम (विदेशी सहयोग)

आधुनिक वर्षों में विदेशियों ने भारतीय व्यवसायियों के साथ मिलकर संयुक्त उपक्रम स्थापित किये हैं। इनमें विदेशी व्यवसायी अंश पूँजी खरीदते हैं, तकनीकी सेवाएँ प्रस्तुत करते हैं, औद्योगिक उपक्रमों की प्रारम्भिक जोखिम झेलते हैं और साथ ही भारतीय विनियोक्ता भी उनके सहयोग के कारण ऐसे उपक्रमों में अधिक पूँजी लगाने हेतु उत्साहित होते हैं। अब तक भारत सरकार लगभग 5,000 संयुक्त उपक्रमों की स्थापना के लिए स्वीकृति दे चुकी है। उल्लेखनीय है कि सहयोग समझौतों की वार्षिक संख्या घटने लगी है। इसका कारण यह है कि अब अधिकांश लाभप्रद दिशाएँ प्रयोग में आ चुकी हैं तथा विदेशी तकनीक के उपयोग की सम्भावनाएँ भी खत्म होने लगी हैं। 1978-79 में सरकार ने 278 संयुक्त उपक्रमों के लिए स्वीकृति दी- औद्योगिक मशीनरी 70, इलैक्ट्रिकल इक्विपमेन्ट 54, केमिकल्स 30, परिवहन 14 एवं अन्य उद्योग 1051 वर्ष 1985, 1986 तथा 1987 में भारत सरकार ने क्रमशः 1024, 957 तथा 853 विदेशी सहयोग से स्थापित होने वाले संयुक्त उपक्रमों की स्वीकृति प्रदान की। वर्ष 1987 में स्वीकृत किये गये विदेशी सहयोग वाले 853 उपक्रमों में से विद्युत उपकरणों के 183 औद्योगिक मशीनरी वाले 132 तथा रसायन उत्पादित करने वाले 84 उपक्रम थे।

भारत के आर्थिक विकास में विदेशी सहायता का योगदान

(1) पूँजी के निर्माण की दर प्रथम योजना के प्रारम्भ में 5% से बढ़कर सातवीं योजना के अन्त तक 21.7 प्रतिशत हो जाना।

(2) खाद्यान्न की पूर्ति और मूल्यों में स्थायित्व लाने में सहायता।

(3) रेल परिवहन का आधुनिकीकरण और विकास सुगम होना। इसमें कुल विदेशी सहायता का 14% भाग लगा है।

(4) सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोजनाओं और अनेक महत्वपूर्ण उद्योगों के विकास में संयुक्त उपक्रम अनुदान, तकनीकी सुविधा एवं ऋण सहायता का बड़ा हाथ रहना।

(5) विदेशी मुद्रा के अभाव को पूरा करने में सहायता मिलना।

विदेशी ऋण की समस्याएँ

(1) विदेशी ऋण का कमर तोड़ बोझ- हम महत्वाकांक्षी योजनाएँ बनाते हैं, उन योजनाओं की पूर्ति के लिए हमें विदेशों से ऋण लेना होता है। फिर धीरे-धीरे ऋणों की उस राशि का ब्याज ही इतना चढ़ जाता है कि उसे चुकाने में भी परेशानी होती है। ब्याज चुकाने के लिए हमें फिर विदेशियों से ही और ऋण माँगना पड़ता है। ब्याज और कर्ज की अदायगी का यह बोझ तभी कम हो सकता है, जबकि ब्याज की दर कम हो और साथ ही उनकी अदायगी अधिक लम्बी अवधि में हो।

(2) ऋण के प्रयोग में अपव्यय- अगर हमने समझदारी से काम लिया होता और अपनी योजनाओं को ठीक ढंग से बनाया होता, तो हम इसमें से काफी विदेशी सहायता की बचत कर सकते थे। यदि हमने आदर्शवाद को आड़े न आने दिया होता और अपने देश के भीतर ही गैर सरकारी क्षेत्र के अनुभव का लाभ उठाकर उत्पादन किया होता तो आज हम विदेशी कर्जों में गले तक डूबे न होते। यदि सरकार अब भी अपनी नीतियों में परिवर्तन करे, गैर सरकारी क्षेत्र को देश के विकास में योग देने का अवसर दे, विदेशों से प्राप्त ऋणों का पूर्ण सदुपयोग करे एवं निर्यात बढ़ाने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करे, तो स्थिति सुधर सकती है।

(3) सहायकों का कर्त्तव्य- इसके अलावा जो विकसित देश, अल्पविकसित देशों को विकास के लिए सहायता देते हैं, उनका भी यह कर्त्तव्य होता है कि वे अल्पविकसित देशों द्वारा विकास के फलस्वरूप तैयार किये गये सामान को खरीदें। यदि अल्पविकसित देश हमेशा प्राथमिक उत्पादों के ही निर्यातकर्ता बने रहें तो उनके औद्योगिक विकास का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता।

(4) बन्धित ऋण- भारत को विदेशी सहायता का एक बड़ा भाग बन्धित ऋणों के रूप में मिला है, जिससे अनेक बार ऐसी दशाएँ उत्पन्न हो गई कि विदेशी सहायता की स्वीकृति मिलने पर भी विदेशी मुद्रा की समस्या का सामना करना पड़ा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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