अर्थशास्त्र / Economics

विदेशी निजी पूंजी पर नियन्त्रण | विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम 1973 | विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम का कार्यान्वयन

विदेशी निजी पूंजी पर नियन्त्रण | विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम 1973 | विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम का कार्यान्वयन

विदेशी निजी पूंजी पर नियन्त्रण

भारत में निजी विदेशी पूंजी पर नियन्त्रण की जिम्मेदारी कई अलग-अलग सरकारी एजेन्सियों पर हैं। ये एजेन्सियाँ हैं- (i) कम्पनी विधि विषयक मन्त्रालय, (ii) भारतीय रिजर्व बैंक, (iii) औद्योगिक विकास मन्त्रालय और (iv) वित्त मन्त्रालय। परन्तु इन विभिन्न एजेन्सियों के कार्यों के बीच कोई तालमेल नहीं है। प्रत्येक विभाग अपने संकीर्ण पहलू से निजी विदेशी पूंजी के मामले पर विचार करता है और प्रायः उसके पास सीमित सूचना होती है। इसके अलावा विदेशी कम्पनी के हर प्रस्ताव की अलग-अलग जांच की जाती है और कभी भी इस बात की जांच नहीं नहीं की जाती कि उसका भारत के बाहर दूसरे उपक्रमों के साथ क्या सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में, विदेशी पूंजी और बहुराष्ट्रीय निगमों की क्रियाविधियों पर अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में कुल मिलाकर विचार नहीं किया जाता जिसका परिणाम यह होता है कि विदेशी कम्पनियां आवश्यक नियन्त्रण से बच निकलती हैं और अनेक राष्ट्र विरोधी कार्यवाहियां करवाने में सफल होती हैं।

1968 में औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति जांच समिति रिपोर्ट के प्रकाशन से आर्थिक क्षेत्रों में यह विश्वास जमने लगा कि विदेशी टेक्नालॉजी भारत के लिए मंहगी सिद्ध हुई है और इससे देश की विदेशों पर निर्भरता बढ़ रही है। कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों के अध्ययन से भी इसी प्रकार के निष्कर्ष प्राप्त हुए। इसके परिणामस्वरूप निम्न दशाओं में सरकारी नीति को और कड़ा बना दिया गया। (1) कुछ उद्योगों में टेक्नोलॉजी के आयात पर रोक लगा दी गई। इस सम्बन्ध में सरकारी नीति के दो पहलू थे- (i) अनावश्यक उपभोग वस्तुओं में और नये तकनीकी आयात की अनुमति नहीं दी जाएगी (इससे विद्यमान घरेलू क्षमता को नये तकनीकी आयात से स्वत: संरक्षण मिल गया), तथा (ii) जिन क्षेत्रों में उपलब्ध घरेलू क्षमता काफी है उनमें टेक्नोलॉजी का आयात नहीं किया जाएगा; (2) जिन उद्योगों में टेक्नोलॉजी के आयात की अनुमति दी गई, उनमें रायल्टी की अधिकतम दर निश्चित कर दी गई, (3) कुछ विशिष्ट उद्योगों में सिद्धान्त रूप से विदेश निवेश की इजाजत दी गई परन्तु विभिन्न व्यक्तिगत स्थितियों में निर्णय प्रशासन पर छोड़ दिया गया (4) समझौतों की अनुज्ञेय अवधि दस वर्षों से घटाकर पांच वर्ष कर दी गई और नवीनीकरण के बारे में कड़ा दृष्टिकोण अपनाया गया; (5) निर्यातों पर प्रतिबन्धों तथा अन्य विपणन सम्बन्धी प्रतिबन्धों की इजाजत नहीं दी गई और उत्पादन की एक निश्चित अनुपात को नियति करने का प्रावधान रखा गया (6) समझौतों में ऐसी व्यवस्था रखने की बात की गई कि आयातक को टेक्नालॉजी का अन्तरण करने की अनुमति होगी; तथा (7) विज्ञान व औद्योगिक अनुसन्धान परिषद् को टेक्नोलॉजी आयात के पूर्व-प्रार्थना-पत्रों का परीक्षण करने की अनुमति दी गई है और व्यवस्था रखी गई कि यदि उसके अनुसार ऐसी टेक्नोलॉजी देश में ही उपलब्ध है अथवा वह स्वयं इस टेक्नोलॉजी की आपूर्ति कर सकती है तो टेक्नोलॉजी के आयात की अनुमति नहीं दी जाएगी।

विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम 1973 (फेरा)

(Foreign Exchange Regulation Act, 1973) (F. E. R.A.)

यद्यपि विदेशी विनिमय नियमन स्पष्ट रूप से अपनी प्रस्तावना (Preamble) में विदेशीinपूंजी के नियमन का उल्लेख नहीं करता, लेकिन इसमें सन्देह है कि यह इस अधिनियम का यह एक मुख्य उद्देश्य है। दरअसल इस अधिनियम के द्वारा बहुराष्ट्रीय निगमों के संगठन और उनकी क्रियाविधि पर नियन्त्रण लगाये गये हैं। इस अधिनियम की धारा 29 के अनुसार सभी गैर-बैंकिंग विदेशी शाखा कम्पनियों और ऐसी रुपया कम्पनियों के लिए जिनमें विदेशी जोखिम पूंजी 40 प्रतिशत से ज्यादा है, रिजर्व बैंक से व्यवसाय करने के लिए अनुमति लेना होगी। यदि इस तरह की कोई कम्पनी किसी अन्य कम्पनी को पूरी तरह या आंशिक रूप से खरीदना चाहती है या फिर उसके अंश (शेयर) लाना चाहती है तो इसके लिए भी रिजर्व बैंक की अनुमति आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि सभी विदेशी कम्पनियों की भारत स्थित शाखाओं को भारत में रजिस्टर करवाना होगा और उनमें विदेशी जोखिम पूंजी का अंश 40 प्रतिशत से कम रहेगा।

1976 में FERA के लिये नये दिशा निर्देश तैयार किये गये। इनके अनुसार विदेशी जोखिम पूंजी के तीन स्तर निर्धारित किये गये-74 प्रतिशत, 51 प्रतिशत, तथा 40 प्रतिशत। विदेशी कम्पनियों को 40 प्रतिशत से अधिक 74 प्रतिशत तक अंश रखने की अनुमति निम्न परिस्थितियों में दी गईं (i) यदि वे बुनियादी उद्योगों में कार्यरत हों; (ii) यदि विदेशी पूंजी मुख्य रूप से निर्यात उद्योगों में लगी हुई है; (iii) यदि उद्योगों में जटिल टेक्नोलॉजी या विशिष्ट कौशल की आवश्यकता हो; तथा (iv) यदि चाय बागान में विदेशी पूंजी का इस्तेमाल होता हो।

यदि इनमें किसी एक गतिविधि या कुल गतिविधियों से कम्पनी के अपनी बिक्री का 75 प्रतिशत से अधिक प्राप्त होता है तो वह 74 प्रतिशत विदेशी पूंजी रख सकती है। यही स्तर उन कम्पनियों के लिए लागू होगा जो या तो अपने उत्पादन के 40 प्रतिशत से अधिक का निर्यात करती है अथवा अपनी बिक्री का कम-से-कम 60 प्रतिशत के बराबर निर्यात करती है। चाय बागान कम्पनियों को कुछ शर्तों के अधीन 74 प्रतिशत विदेशी पूंजी रखने का अधिकार है। जो कम्पनियां अपने पूरे उत्पादन का निर्यात करती हैं उन्हें 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी रखने की स्वतन्त्रता है।

यदि ऊपर बताई गई गतिविधियों से बिक्री, कुल नि मक्री केवल 60 प्रतिशत से अधिक है। तो कम्पनी को 51 प्रतिशत विदेशी पूंजी रखने का अधि कार है बशर्ते कि वह अपनी बिक्री का कम-से-कम 10 प्रतिशत निर्यात करती हो। यही स्तर उन कम्पनियों पर भी लागू है जिनका निर्यात उनकी बिक्री के 40 प्रतिशत से अधिक है।

विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम का कार्यान्वयन

(Implementation of FERA)

विदेशी विनिमय अधिनियम को लागू करने में | बहुत देरी की गई। जिन कंपनियों को विदेशी पूंजी कम करने के निर्देश दिये गये थे उनमें से अधिकतर कंपनियों ने निर्देशों का पालन नहीं किया। कई कंपनियों ने तो इस दिशा में कोई कार्यवाही शुरू तक नहीं की। सरकार ने स्वयं कई कंपनियों को इन निर्देशों से छूट दे दी। मार्टिनुसन के अध्ययन की सारणी 3.2 से यह स्पष्ट होता है कि उस सारणी में शामिल 895 कंपनियों में से 249 कंपनियों को इस धारा से छूट दी गई थी कि विदेशी पूंजी ज्यादा-से-ज्यादा 40 प्रतिशत हो सकती है- 132 कंपनियों को 40 प्रतिशत से अधिक, 116 कंपनियों को 51 प्रतिशत से अधिक एवं 74 प्रतिशत तक एक कंपनी को 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी रखने का अधिकार दिया गया।

जिन कम्पनियों ने FERA में दिये गये निर्देशों का पालन नहीं किया उनके बारे में मार्टिनुसन ने एक विशेष बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उनका कहना है कि लगभग वे सभी कम्पनियां केवल तीन प्रकार के उद्योगों में थीं। या तो ये चाय बागान के क्षेत्र में थी या दवाइयों व औषधियों में थी या फिर कुछ विशिष्ट बड़े बहुर्राष्ट्रीय निगमों से सम्बद्ध थी। चाय के क्षेत्र में यह व्यापार भारत के विदेश व्यापार में चाय के महत्त्व का परिणाम था। जहां तक दवाइयों व औषधियों का सम्बन्ध है। ‘स्थूल दवाइयों’ (Bulk Drugs) के लिए भारत की बहुर्राष्ट्रीय निगमों पर निर्माता के कारण FERA के निर्देशों के पालन में देरी हुई मार्टिनुसन के अनुसार 1976 में भारत में स्थूल दवाइयों के कुल उत्पादन में बहुर्राष्ट्रीय निगमों का हिस्सा 42 प्रतिशत था। “सरकार इस बात से डरती थी कि यदि उसने FERA के अधीन निर्देशों का कड़ाई से पालन किया तो बहुर्राष्ट्रीय निगम भारत में दवाइयों को उत्पादन कम अथवा बंद कर सकते हैं। अतः इनका आयात अधिक मूल्य पर विदेशी मुद्रा के रूप में करना पड़ेगा। तीसरे प्रकार के उद्योगों में हिन्दुस्तान लीवर आयात प्रतिस्थापन में सफल है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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