भारत में कुटीर एवं लघु उद्योगों की समस्याएँ

भारत में कुटीर एवं लघु उद्योगों की समस्याएँ | लघु उद्योग का भारत के विकास में योगदान | कुटीर एवं लघु उद्योगों को समस्यामुक्त करने के उपाय

भारत में कुटीर एवं लघु उद्योगों की समस्याएँ | लघु उद्योग का भारत के विकास में योगदान | कुटीर एवं लघु उद्योगों को समस्यामुक्त करने के उपाय

भारत में कुटीर एवं लघु उद्योगों की समस्याएँ (Cottage and Small Industries in India)

कुटीर एवं लघु उद्योगों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

(1) कच्चे माल की समस्या (Problem of Raw Material)- अधिकांश कुटीर उद्योग कच्चे माल हेतु स्थानीय स्रोतों पर निर्भर रहते हैं। लेकिन स्थानीय स्रोत दोहरा शोषण करते हैं, जैसे- कच्चे माल को ऊँचे दाम पर बेचना व निर्मित माल कम कीमत पर खरीदना।

(2) वित्त की समस्या (Problem of Finance) – कुटीर एवं लघु उद्योगों की सर्वाधिक गम्भीर वित्तीय समस्या है, क्योंकि ऐसे उद्यमों को वित्त प्राप्त करने में विशेष कागजी कार्यवाही करनी पड़ती है, जो लघु उद्यमियों के लिए कठिन है।

(3) परम्परागत उत्पादन विधि एवं संगठन की समस्या (Problem of Traditional Production Method and Organisation)- उत्पादन पद्धति परम्परागत होने के कारण वस्तुओं का उत्पादन परिष्कृत नहीं है, क्योंकि भारत के कुटीर उद्योग सामान्यतः जातिगत हैं, इसके परिणामस्वरूप ऐसे उद्योगों से उत्पादित सामान-घटिया किस्म की ऊँची लागत पर तैयार होता है।

 (4) बड़े उद्योगों से प्रतिस्पर्धा की समस्या (Problem of Competition from Large Industries)- भारत में बड़े उद्योग की तरह लघु उद्योग भी स्वतंत्र अस्तित्व में रहकर उत्पादन क्रियायें करते हैं। इससे दोनों प्रकार के उद्योगों में न केवल बाजारी-प्रतिस्पर्धा विपणन के समय उत्पन्न होती है, बल्कि कच्चे माल, वित्त सुविधा प्राप्त करने में भी गलागाट प्रतिस्पर्धा होती है। इसी का परिणाम है कि लघु उद्योग बीमार उद्योग हो जाते हैं।

(5) विपणन की समस्या (Problem of Marketing)-

(अ) चूँकि ऐसे उद्यमियों की बाजार में कोई दुकानें नहीं होती हैं, जहाँ उत्पादित माल सरलता से बेचा जा सके। फलतः फुटपाथ पर वस्तुएं रखकर विपणन करना पड़ता है।

(ब) ऐसे उत्पादकों को अपनी वस्तुएँ बिचौलिये के हाथों बेचनी पड़ती हैं, जिससे उन्हें वस्तु की उचित कीमत नहीं मिल पाती है।

(स) ऐसे उत्पादकों की वस्तुएं प्रमापीकृत व वर्गीकृत नहीं होती हैं, अतः प्रत्येक वस्त का अलग-अलग मूल्य होता है।

(6) प्रमापीकरण की समस्या (Problem of Standardisation)- भारतीय कुटीर एवं लघु उद्योगों का उत्पादन सदैव अप्रमापित रहता है, जिससे उन्नत किस्म समरूप वर्गीकृत वस्तुओं का अभाव है। इससे उद्यम के श्रमिक, कारीगर व मालिक उचित पारिश्रमिक प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

(7) अकुशल कारीगरों की समस्या (Problem in Inefficient Workers)- कुटीर एवं लघु उद्योगों में अकुशल श्रमिकों की एक प्रमुख समस्या है, क्योंकि लघु उद्योग न्यूनतम मजदूरी न मिलने के कारण भी कुशल कारीगर उपलब्ध नहीं होते हैं।

लघु एवं कुटीर उद्योग का भारत के विकास में योगदान या महत्व-

भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का महत्व निम्नलिखित कारणों से हैं-

(1) रोजगार एवं अर्द्ध रोजगार (Employment and Semi-Employment)-

भारत में जितनी बेरोजगारी है, विश्व के किसी भी देश में नहीं है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि “बेकारी का निराकरण केवल कुटीर एवं लघु उद्योग धन्धों पर निर्भर है।” यदि देश में कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना में क्रान्ति आए, तो करोड़ों बेकार युवक शीघ्र रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि केवल हथकरघा उद्योग में लगभग 80 लाख व्यक्तियों को रोजगार मिला हुआ है।

(2) पूँजी निर्माण (Capital Formation) – भारतवर्ष एक निर्धन राष्ट्र है, जहाँ पूँजी का अभाव है। ऐसी दशा में पूँजी की व्यवस्था के लिए केवल दो आधार दिखाई देते हैं- (1) आन्तरिक बचतों को प्रोत्साहित करना (2) विदेशों से कर्ज प्राप्त करना। लेकिन इनमें से आन्तरिक बचंतों से प्राप्त पूँजी अधिक महत्वपूर्ण है।

(3) भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुकूल (Favourable to Indian Economy) – भारत में केवल कुटीर एवं लघु उद्योग ही उपयुक्त हैं, जिनमें कम पूँजी पर अधिक श्रमशक्ति की माँग हो सकती है, जबकि बड़े उद्योगों में पूँजी विनियोग की मात्रा ऊँची होती है और मशीन आधारित काम होने के कारण श्रमशक्ति का अल्प उपयोग हो पाता है।

(4) आर्थिक समानता (Economic Equality)- आर्थिक विषमता को समाप्त करने में कुटीर एवं लघु उद्योगों का विशेष महत्व है, जिससे धन का केन्द्रीयकरण सम्भव नहीं रह जाता है। आज ग्रामीण क्षेत्रों में धन का अभाव जबकि शहरी चन्द लोगों की तिजोरियाँ निरन्तर भर रही हैं। इस असमानता को कम करने में कुटीर एवं लघु उद्योग प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं।

(5) औद्योगिक विकेन्द्रीकरण (Industrial Decentralisation)- कुटीर एवं लघु उद्योग ही एक मात्र विकल्प है, जो देश के ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरी क्षेत्रों तक स्थापित किए जा सकते हैं। ऐसी दशा में वास्तविक औद्योगिक विकेन्द्रीकरण हो सकेगा। अतः कटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना केवल औद्योगिक विकन्द्रीकरण की ही दृष्टि से उपयुक्त नहीं है, अपितु सुरक्षा व प्रादेशिक असमानताएँ कम करने की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है, अपितु सुरक्षा व प्रादेशिक असमानताएँ कम करने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

(6) शीघ्र उत्पादक उद्योग (Quick Production Industry)- ऐसे उद्योगों से वस्तुओं का उत्पादन शीघ्र सम्भव है, क्योंकि कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना में कुछ दिन या कुछ माह लगते हैं और अति शीघ्र उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, जबकि बड़े पैमाने के उद्योगों की स्थापना में 1 वर्ष या 2 वर्ष तक का समय लगता है, इसलिए कुटीर एवं लघु उद्योग सबसे उपयुक्त हैं, जो माँग के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इसी कारण ऐसे उद्योगों को “शीघ्र उत्पादक उद्याग” की संज्ञा दी जाती है।

(7) कृषि पर जनसंख्या के भार में कमी (Reaction in the Pressure of Population on Agriculture)- भारतीय कृषि क्षेत्र में देश की लगभग 69 प्रतिशत जनसंख्या कार्यशील है, लेकिन कृषि कार्य में इतनी जनसंख्या की आवश्यकता नहीं है। यदि उन्हें कुटीर एवं लघु उद्योग में लगा दिया जाये तो कृषि उत्पादकता पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस दृष्टि से कुटीर एवं लघु उद्योग अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

(8) सरल कार्य प्रणाली (Simple Working)- कुटीर एवं लघु उद्योग का संचालन प्रणाली अत्यन्त सरल एवं व्यक्ति विशेष पर निर्भर होती है। इसके विपरीत बड़े पैमाने के उद्योगों में बड़ी मात्रा की पूँजी, तकनीकी विशेषज्ञों, नवीन तकनीकी प्रशिक्षण, विशाल भवन एवं व्यापक हिसाब-किताब की सदैव आवश्यकता रहती है।

(9) बड़े पैमाने के उद्योगों की समस्याओं से छुटकारा (Redemption from the Problems)- कुटीर एवं लघु उद्योगों में एकाकी स्वामित्व या साझेदारी की व्यवस्था रहती है। इससे श्रमिक व मालिक में आपसी घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है, क्योंकि श्रमिकां की संख्या सीमित होने के कारण मालिक व श्रमिक में पारिवारिक सम्बन्ध रहते हैं।

(10) निर्यात में सहायक ((Helpful in Export) – ऐसे उद्योगों से उत्पादित वस्तुओं का निर्यात किया जाता है, जिससे विदेशी मुद्रा का लाभ प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, ऐसे उद्योगों की कलात्मक वस्तुएं, जैसे हाथी दांत से निर्मित वस्तुएं, आकर्षक छपाई से युक्त दरियाँ मूर्तियाँ व अन्य सामान जो विदेशी बाजार में ऊँची कीमत प्राप्त करती है।

कुटीर एवं लघु उद्योगों को समस्यामुक्त करने के उपाय-

(1) वित्त की व्यवस्था (Arrangement of Finance)- कुटीर एवं लघु उद्योग की वित्तीय व्यवस्था हेतु विशिष्ट वित्तीय संस्थाएँ जैसे- व्यापारिक बैंक व राज्य वित्त निगम आदि स्थापित होने चाहिए जो सरलता से ऐसे उद्योगों को ऋण प्रदान करें। इसी प्रकार कुटीर एवं लघु उद्योगों के लिए बैंक को ब्याज की दर भी कम होनी चाहिए, जिससे लघु उद्यमी भी तरलता अधिमान (Liquidity Preference) दे सके।

(2) कच्चे माल की उपलब्धता (Availability of Raw Materials)- कच्चा माल सुगमता से लघु उद्यमियों को प्राप्त हो सके, इसके लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। अतः कच्चे माल की आपूर्ति लघु उद्यमियों को सरलता से हो। इस हेतु सहकारी समितियाँ गठित होनी चाहिए, जो सामान्य वस्तुओं से सम्बन्धित इकाइयों के कच्चे माल को उपलब्ध करायें।

(3) तकनीकी सहायता (Technical Assistance)- तकनीकी सहायता से उद्यम की उत्पादन-कुशलता में वृद्धि एवं उत्पादन लागत कम होती है। नवीन वस्तुओं का उत्पादन भी तकनीकी सहायता पर निर्भर है। यह तकनीकी सहायता सरकार को लघु उपकरण, यंत्र, विद्युत-चालित मशीनों के रूप में कम कीमत पर उपलब्ध करानी चाहिए।

(4) करों में छूट (Rebate in Taxes)- चूँकि लघु इकाइयों के उत्पादक कर भार को वस्तुओं की कीमत पर विवर्तित नहीं कर पाते हैं इसलिए कुटीर एवं लघु उद्योगों को शैशवावस्था में कर मुक्त कर देना चाहिए। लेकिन लाभ में चलने वाली इकाइयों पर न्यूनतम कर भी लगाये जा सकते हैं।

(5) विपणन सुविधाएँ (Marketing Facilities)- सरकार को विपणन व्यवस्था हेतु कुछ ऐसे बाजार निर्मित करने चाहिए जहाँ ऐसे उद्योगों का माल विक्रय हो। इसके अलावा सरकार केन्द्रीय विपणन संस्था की स्थापना करे, जो ऐसे उद्यमियों से प्रत्यक्ष रूप में माल खरीदे और निर्यात की व्यवस्था करें। यदि सम्भव हो तो ऐसे उद्योगों को संस्ते परिवहन की सुविधा भी समीचीन है।

(6) नि:शुल्क लाइसेंस (Free Licensing)- कुटीर एवं लघु उद्योगों को निःशुल्क लाइसेंस देना आवश्यक है, क्योंकि लघु उद्यम स्थापित करते समय उद्यमियों को सर्वप्रथम लाइसेंस प्राप्त करना पड़ता है, जिसकी प्रक्रिया सरल नहीं है।

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