शिक्षाशास्त्र / Education

बर्ट्रेण्ड रसेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | रसेल के अनुसार पाठ्यक्रम | रसेल और यौन-शिक्षा | रसेल और धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा | रसेल और शिक्षण-पद्धति

बर्ट्रेण्ड रसेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | रसेल के अनुसार पाठ्यक्रम | रसेल और यौन-शिक्षा | रसेल और धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा | रसेल और शिक्षण-पद्धति | Objectives of Education according to Bertrand Russell in Hindi | Curriculum according to Russell in Hindi | Russell and Sex-Education in Hindi | Russell and Religious and Moral Education in Hindi | Russell and Pedagogy in Hindi

बर्ट्रेण्ड रसेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

(Aims of Education According to Russell)

बर्ट्रेण्ड रसेल के अनुसार शिक्षा द्वारा उपयुक्त आदतों का निर्माण होना चाहिए और संसार के प्रति उपयुक्त दृष्टिकोण का विकास करने में शिक्षा बालक की सहायता करती है। यह कार्य अनुदेशन द्वारा सम्भव है और इसीलिए रसेल शिक्षा और अनुदेश को समानार्थी समझते हैं।

शिक्षा का उद्देश्य निश्चित करना आवश्यक है। रसेल का कथन है, “छोटे बच्चे एक तरह का कच्चा माल हैं, जिससे हम जैसा चाहें वैसा माल बना सकते हैं, इसलिए मेरे ख्याल में सबसे पहले इस पर विचार करना चाहिए कि शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं और आज जिस प्रकार के बच्चे हमारे सामने हैं उनको शिक्षित करके हम कैसे व्यक्ति और समुदाय के निर्माण की आशा कर सकते हैं।”

रसेल के अनुसार शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है चरित्र-निर्माण। चरित्र निर्माण के लिए रसेल ने बालकों में कुल सामान्य गुणों के विकास को आवश्यक बताया है। ऐसे निम्नलिखित हैं–

(1) शक्ति- यह शारीरिक गुण है और इसका सम्बन्ध अच्छे स्वास्थ्य से है।

(2) साहस- इसका एक रूप है निर्भयता, भय एवं क्रोध की दशा में साहस आ नहीं सकता। स्वास्थ्य तथा शक्ति साहस के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त आत्म-सम्मान तथा जीवन के प्रति तटस्थ दृष्टिकोण का सम्मिश्रण साहस के लिये आवश्यक है। प्रेम की भावना तटस्थ दृष्टिकोण के विकास में सहायक होती है। ज्ञान भी इस दिशा में हमारी सहायता करता है।

(3) संवेदनशीलता- यह एक मनोभाव है। इससे साहस परिमार्जित हो जाता है। इसके लिए आवश्यक शर्तें हैं प्रशंसा और सहानुभूति ।

(4) वुद्धि- यह ज्ञानोपार्जन की क्षमता है। जिज्ञासा बौद्धिक जीवन की आधारशिला है। इसके बिना अभीष्ट विकास की भावना नहीं रहती।

चरित्र-निर्माण के अतिरिक्त शिक्षा का दूसरा महत्व उद्देश्य है-बौद्धिक विकास। इसके लिए निम्नलिखित गुणों का विकास आवश्यक है-

(1) जिज्ञासा

(2) उदाराशयता

(3) धैर्य

(4) परिश्रमशीलता

(5) स्थिरचित्तता

(6) निश्चयात्मकता

(7) एकाग्रता

रसेल के अनुसार शिक्षा का एक अन्य आवश्यक उद्देश्य व्यक्ति तथा नागरिकता का विकास करना है। राज्य तथा बालक के हित समान होने चाहिए। रसेल का झुकाव व्यक्तित्व के विकास की ओर अधिक है।

अवकाश का उपयोग करना मानव-जीवन के विकास के लिए आवश्यक है। व्यक्ति को कुछ अवकाश अवश्य चाहिए। अवकाश के क्षणों में ही अच्छी बातों का संचय सम्भव है। सभ्यता के प्रति अवकाश का योगदान अत्यधिक है। अतः अवकाश को ठीक से बिताने की शिक्षा देना भी एक आवश्यक शैक्षिक उद्देश्य है।

शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि बालक को प्रचार और सत्य में भेद करना सिखाया जाय। सत्य का विश्लेषण आवश्यक है। आजकल दलीय नीति का प्रचार चारों ओर छा गया है। बालक को इस योग्य बनाना है कि वह सत्य का अनुगमन कर सके और सत्य तथा असत्य में भेद कर सके।

रसेल शान्तिवादी थे और युद्ध को समाप्त करने के लिए उन्होंने जनमत तैयार किया था। शान्ति के लिए शिक्षा एवं अन्तर्राष्ट्रीय अवरोध के लिए शिक्षा की वे सदा वकालत करते थे।

रसेल के अनुसार पाठ्यक्रम

(Curriculum According to Russell)

रसेल के अनुसार पाठ्यक्रम में दो प्रकार की चीजें होनी चाहिए। एक तो ये अनुभव हों जिनको प्राप्त करना सभी के लिए आवश्यक है और दूसरी बातें कुछ ऐसी हैं जिनका जानना सबके लिए आवश्यक नहीं है।

चौदह वर्ष से कम आयु के बालकों को वे ही बातें सिखाई जानी चाहिए, जिनका जानना सबके लिए आवश्यक है। प्रारम्भ में बालकों को ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण देना चाहिए। गायन, नृत्य, ड्राइंग की भी शिक्षा दी जानी चाहिए। पाँच वर्ष के बालक को लिखना-पढ़ना आ जाना चाहिए। पाँच से चौदह वर्ष के बालक को अन्य विषयों के अतिरिक्त अंकगणित की भी शिक्षा दी जानी चाहिए।

भूगोल का पढ़ाना बहुत आवश्यक है। इतिहास का शिक्षण कुछ बाद में प्रारम्भ होना चाहिए क्योंकि समय का ज्ञान पाँच वर्ष के पहले बालक को होता नहीं। इतिहास राजनीतिक अथवा सैनिक न होकर बौद्धिक विकास का इतिहास हो।

गायन की शिक्षा नृत्य के बाद दी जाय। साहित्य भी पढ़ाया जाय किन्तु अनेक रचनाओं की तिथियों को याद करने की अपेक्षा कुछ उत्कृष्ट रचनाओं के चुने हुए अंशों को पढ़ाना अधिक लाभप्रद है। कुछ सुन्दर रचनाओं को कण्ठस्थ करा देना चाहिए।

बचपन से ही मातृभाषा के साथ अन्य भाषाओं की शिक्षा प्रारम्भ कर देनी चाहिए। विज्ञान एवं गणित की विधिवत् शिक्षा बारह वर्ष के बाद प्रारम्भ करनी चाहिए। वारह वर्ष की आयु के अन्त में शास्त्रीय विषयों की शिक्षा भी प्रारम्भ हो जानी चाहिए। पन्द्रह वर्ष के बाद कुछ विषयों में विशेष योग्यता प्रदान की जानी चाहिए।

स्वास्थ्य विज्ञान और शरीर-विज्ञान का कुछ ज्ञान प्रत्येक बालक को होना चाहिए। संसद और संविधान के सम्बन्ध में भी निष्पक्ष जानकारी प्रदान की जानी चाहिए।

रसेल और यौन-शिक्षा

(Russell and Sex Education)

रसेल ने यौन-शिक्षा पर विस्तार से विचार किया है। रसेल ने एक पुस्तक ‘मैंरिज एण्ड मॉरल्स’ नाम से लिखी, जिसका हिन्दी में भी ‘विवाह और नैतिकता’ नाम से अनुद हो चुका है। इस पुस्तक में उन्होंने उन्मुक्त यौन जीवन की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित किया और यौन- बन्धनों को अस्वीकार किया। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद उन्हें कैम्ब्रिज की नौकरी से निकाल दिया गया था।

रसेल काम को पाप न मानकर जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया मानते थे। काम का मनोदैहिक आधार है। काम एक शारीरिक भूख है और उदर, हृदय आदि को प्रभावित करता है। मानसिक रूप में यह मनोविकृतियों को जन्म दे सकता है। रसेल के अनुसार विवाह का बन्धन काम को बाँध नहीं सकता। उनके अनुसार पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री-पुरुषों से भी संभोग की छूट होनी चाहिए। वे अस्थायी एवं प्रयोगात्मक विवाह की भी बात करते हैं। उनका कहना है कि कुमार एवं कुमारियाँ अस्थायी विवाह कर लें, सम्भोग करें, गर्भपात करते- कराते रहें और इस प्रकार वैवाहिक जीवन के लिए अपने को तैयार करते रहें।

रसेल के अनुसार प्रत्येक बालक-बालिका को यौन शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए। गुप्तांगों की स्वच्छता, सन्तति-निरोध, बच्चों का जन्म, उत्तेजक अंग, सम्भोग के परिणाम आदि बातों की जानकारी वस्तुनिष्ठ रीति से दी जानी चाहिए।

रसेल और धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा

(Russell on Religious and Moral Education)

रसेल के अनुसार धर्म दो प्रकार का होता है- (1) वैयक्तिक और (2) सामाजिक। वैयक्तिक धर्म वह है जिसमें व्यक्ति कुछ बातों को व्यक्तिगत जीवन में पवित्र मानता है। सामाजिक रूप वह है जिसमें वह एक आचार संहिता का पालन करता है। रसेल के अनुसार धर्म का जन्म भय के कारण होता है। धर्म बुराइयों को भी चलने देता है। अतः शिक्षा पर धर्म का प्रभाव अच्छा नहीं है। इस दृष्टि से धर्म की शिक्षा देना व्यर्थ है।

परम्परागत नैतिकता की शिक्षा देना भी व्यर्थ है। यह नकारात्मक सिद्धान्त है। नैतिकता को बदलते रहना चाहिए। आज के समाज में नैतिकता ऐसी हो जो रचनात्मकता को प्रोत्साहित करे। ऐसी नैतिकता ज्ञान और प्रेम पर आधारित होगी। आधुनिक नैतिकता की शिक्षा बालक को दी जानी चाहिए किन्तु परम्परागत नैतिक नियमों की शिक्षा देने का रसेल विरोध करते हैं।

रसेल और शिक्षण-पद्धति

(Russell and Method of Teaching)

रसेल मनोविज्ञान की खोजों से प्रभावित थे और शिक्षण को मनोविज्ञान पर आधारित करना चाहते थे। शिशु में सीखने की इच्छा प्रयत्न होती है अतः माता-पिता का कर्तव्य है कि बालक को सीखने के अवसर प्रदान करें। शिशु को भय से बचाना चाहिए।

खेल बालकों का सर्वप्रिय होता है। इससे रचनात्मक शक्ति का भी विकास होता है। खेल और कल्पना साथ-साथ चलते हैं। खेल को जरूरत से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए।

इतिहास को चित्र और सिनेमा के माध्यम से पढ़ाया जाए तो अच्छा है। भूगोल की शिक्षा के विषय में वे कहते हैं, “मैं भूगोल की शिक्षा चित्रों, यात्रियों की कहानियों और विशेष रूप से सिनेमा के माध्यम से पढ़ाने का पक्षपाती हूँ जिसमें यह दिखाया जाएगा कि यात्री ने अपनी यात्रा में क्या-क्या देखा।”

गणित की रहस्यात्मकता को सिखाने के लिए मांटेसरी के उपकरणों की उपयोगिता है। शिक्षण में सरल से कठिन की ओर जाना चाहिए।

साहित्य की शिक्षा में कण्ठस्थीकरण एवं अभिनय विधि का उपयोग करना चाहिए। भाषा शिक्षण में रसेल प्रत्यक्ष-विधि का समर्थन करते हैं।

बालकों की रुचियों का ध्यान रखना आवश्यक है। बालकों को क्रियाशील बनाना चाहिए। पुस्तकों के अध्ययन की ओर छात्रों को उन्मुखं करना चाहिए और ऊँची कक्षाओं में व्याख्यान-विधि का प्रयोग करना चाहिए।

शिक्षण-विधि वैज्ञानिक होनी चाहिए। इसके लिए वाद-विवाद आवश्यक प्रविधि है। आगमन विधि का प्रयोग खूब होना चाहिए। रसेल निरीक्षण, भ्रमण, परिभ्रमण आदि को उपयोगी मानते हैं। श्रव्य-दृश्य-साधनों के महत्व से वे परिचित थे। रेडियो व सिनेमा के उचित उपयोग का वे परामर्श देते हैं।

अनुशासन के क्षेत्र में रसेल स्वतन्त्रता और अनुशासन में समन्वय का समर्थन करते हैं और दोनों को उपयोगी बताते हैं। इस दृष्टि से वे मध्यम मार्गी हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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