बट्रेण्ड रसेल का जीवन

बट्रेण्ड रसेल का जीवन | बट्रेण्ड रसेल का कार्य | रसेल का दर्शन

बट्रेण्ड रसेल का जीवन | बट्रेण्ड रसेल का कार्य | रसेल का दर्शन | Life of Bertrand Russell in Hindi | Work of Bertrand Russell in Hindi | Russell’s philosophy in Hindi

बट्रेण्ड रसेल का जीवन तथा कार्य (Life and Work)

बर्ट्रेण्ड रसेल का जन्म सन् 1872 की 18 मई को इंगलैण्ड में ट्रेलेक वेल्स नामक स्थान पर हुआ। उनके पिता का नाम विस्क्राउण्ट ऐम्बाले तथा माता का नाम केट ऐम्बरले था। रसेल परिवार इंगलैण्ड के इतिहास में प्रसिद्ध रहा है। बर्ट्रेण्ड रसेल के बाबा लाई जॉन रसेल ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री रह चुके थे। बर्ट्रेण्ड रसेल दो भाई थे, बड़े भाई का नाम फ्रेंक रसेल था। उनकी एक बहिन थी जिसका छ वर्ष की आयु में देहावसान हो गया था। बर्ट्रेण्ड रसेल के जन्म के दो वर्ष बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया और साढ़े तीन वर्ष बाद पिता नहीं रहे। उनका लालन- पालन उनके पितामह लाई जॉन रसेल और पितामही लेडी जॉन रसेल ने किया। रसेल का पारिवारिक जीवन राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था और समाज सेवा का पाठ रसेल ने यहीं पर सीख लिया।

रसेल स्वभाव से विनयशील, लज्जालु और जिज्ञासु थे। भूगोल और गणित पढ़ने में उन्हें बचपन से ही रुचि थी। उन्होंने कैम्ब्रिज से मैट्रिकुलेशन परीक्षा में भाग लिया और छात्रवृत्ति परीक्षा में सफल हो गये। यहीं पर उन्होंने जर्मन, फ्रेंच, इटालियन और अंग्रेजी भाषा का गहन अध्ययन किया। सन् 1890 में अठारह वर्ष की आयु में वे ट्रीनिटी कॉलेज में प्रविष्ट हुए। प्रेजुएट बनने के बाद उन्होंने ‘द फाउन्डेशन्स ऑफ ज्योमेट्री’ नामक शोध-प्रबन्ध लिखा।

प्रारम्भ में रसेल ईश्वर पर विश्वास रखते थे किन्तु बाद में वे नास्तिक बन गये। बाईस वर्ष की अवस्था में उनका प्रथम विवाह एलिस से हुआ। सन् 1920 में चीन से लौटने के बाद उन्होंने डोरा रसेल से दूसरा विवाह किया। सन् 1936 में उनका तीसरा विवाह पैट्रीसिया स्पेन्स से हुआ और सन् 1952 में रसेल ने 80 वर्ष की अवस्था में कुमारी एडिथ फिन्च से चोधा विवाह किया। यौन-जीवन के प्रति उनके विचार बड़े क्रान्तिकारी थे।

रसेल ने गणितीय दर्शन पर  विश्वविख्यात कार्य किया। सन् 1903 में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रिंसिपुल्स ऑफ मैथमेटिक्स’ प्रकाशित हुई। ह्वाइटहेड के साथ मिलकर उन्होंने “प्रिंसिपिया मैथमेटिका” की रचना की। उनके अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-प्राबलम्स ऑफ फिलासफी, आवर नालेज ऑफ दी एक्सटर्नल वर्ल्ड, द साइंटिफीक आउटलुक, रोड्स टू फ्रीडम, प्रिंसिपुल्स ऑफ सोशल रिकान्सट्रक्शन हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलासफी, एजुकेशन एण्ड सोशल आर्डर आन, एजुकेशन; इन प्रेज ऑफ आइडिलनेस, मैरिज एण्ड मॉरल्स, द प्राब्लम ऑफ चाइना आदि।

विवाह से पूर्व रसेल पेरिस गये। वैवाहिक सुख एवं नये अनुभव हेतु रसेल जर्मनी और अमेरिका गये। सन् 1920 में वे रूस और चीन गये। इसके बाद वे पुनः अमेरिका गये। अमेरिका में कुल मिलाकर रसेल ने जीवन के छः वर्ष काटे थे। जीवन की सन्ध्या-बेला में वे आस्ट्रेलिया के सम्मानित अतिथि बनकर भ्रमणार्थ गये।

रसेल का राजनीतिक जीवन भी रोचक था। वे सन् 1907 में पार्लियापेण्ट के चुनाव के लिए खड़े हुए किन्तु हार गये। सन् 1922 व 1923 में वे लेवर पार्टी के उम्मीदवार के रूप में पार्लियामेण्ट के लिए पुनः चुनाव में खड़े हुए और दोनों बार हारे। एच० जी० वेल्स से वे राजनीति विषयक परामर्श प्रायः करते थे।

सन् 1899 में कैम्ब्रिज में उन्होंने दर्शन पर व्याख्यान दिये। सन् 1910 में उनकी नियुक्ति गणित-सिद्धान्त के प्रवक्ता-पद पर कैम्ब्रिज में हुई। प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने पर रसेल ने ब्रिटिश सरकार की युद्ध नीति की कटु आलोचना की और शान्ति का समर्थन किया। परिणामस्वरूप उन पर सौ पौण्ड का जुर्मान हुआ और कैम्ब्रिज की नौकरी से उन्हें हाथ धोना पड़ा।

रसेल को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। उन पर अनेक प्रकार के मिथ्या आरोप लगाये गये। उनका जीवन संघर्ष का जीवन था। डोरा रसेल के साथ उन्होंने एक स्कूल की भी स्थापना की जिसमें उन्होंने बच्चों को पढ़ाने का माक्षात् अनुभव प्राप्त किया। उनके अनेक मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया।

किन्तु रसेल को सम्मान भी खूब मिला। उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। कलिंग पुरस्कार से भी वे सम्मानित किये गये। जून सन् 1950 में उन्हें ‘आर्डर आफ मेरिट से भी सम्मानित किया गया।

2 फरवरी सन् 1970 को इस महापुरुष ने अपने संघर्षमय सांसारिक जीवन को समाप्त कर दिया। रसेल के निधन पर उनके मित्र डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा कि हमारे युग का एक प्रमुख विचारक उठ गया।

रसेल का दर्शन (Russel’s Philosophy)

रसेल के दर्शन को तीन चरणों में समझा जा सकता है। प्रथम चरण का प्रारम्भ सन् 1911 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘द प्राबलम्स ऑफ फिलासफी’ से मानना चाहिए। इस प्रथम अवस्था में रसेल कुछ-कुछ प्रत्यावादी थे किन्तु प्रत्यक्षीकरण की समस्या पर विचार करते समय उन्होंने यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया था। इस स्तर पर वे बर्कले की दृष्टि सृष्टि है’ का पाखण्ड करते हैं। बाह्य पदार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व में रसेल का विश्वास है। वे ज्ञाता और ज्ञेय में भेद करने हैं तथा बाह्य संसार की सत्ता से इन्कार नहीं करते। ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध दो प्रकार का है- एक साक्षात् ज्ञान है और दूसरा वर्णन ज्ञान। साक्षात् ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त ज्ञान है। यह इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है। अनुमान द्वारा प्राप्त ज्ञान वर्णन-ज्ञान है। वस्तुतः पदार्थ का ज्ञान हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकता। हम तो उसे ही जान सकते हैं जो इन्द्रियों द्वारा हमें दे दिया गया है। ‘सामान्य’ का ज्ञान साक्षात् ज्ञान है। इसी प्रकार इन्द्रियदत्तों का ज्ञान साक्षात् ज्ञान है। हमे वर्णन ज्ञान पर भी निर्भर रहना पड़ता है। इतिहास की लगभग सभी बातों का ज्ञान वर्णन- ज्ञान द्वारा प्राप्त होता है।

रसेल के दर्शन का द्वितीय घरण सन् 1914 में प्रकाशित उनकी पुस्तस्वीकार करते थे दि एक्सटर्नल वर्ल्ड’ से प्रारम्भ होता है। अब तक रसेल निम्नलिखित धार तत्वों के अस्तित्व को स्वीकार करते थे-

(1) ज्ञाता मन

(2) साक्षात् ज्ञान द्वारा ज्ञेय इन्द्रियदत्त

(3) साक्षात् ज्ञान द्वारा ज्ञेय ‘सामान्य’

(4) वर्णन-ज्ञान द्वारा ज्ञेय भौतिक पदार्थ

द्वितीय चरण में आकर रसेल ने चौथे तत्त्व अर्थात् वर्णन ज्ञान द्वारा ज्ञेय भौतिक पदार्थ की सत्ता को स्वीकार कर लिया। फिर भी रसेल बाह्य जगत् की सत्ता मानते हैं और उसे इन्दियदन द्वारा निर्मित बताते हैं।

रसेल के दर्शन का तृतीय चरण सन् 1921 में एकाशित उनकी पुस्तक ‘दि एनालिसिस ऑफ माइण्ड’ से प्रारम्भ होता है। इस स्तर पर रसेल ने संवेदर और इन्द्रियदर के मध्य व्याप्त अन्तर को अस्वीकार कर लिया। मन और पुद्गल में अथवा चेहन और जड़ में व्याप्त भेद को समझने में और दोनों में समन्वय लाने के प्रयास में किसी एक को दूसरे में विलीन करने की आवश्यकता नहीं है जैसा कि प्रत्ययवादी और वैज्ञानिक करते हुए दिखाई पड़ते हैं। इसके लिए रसेल ने जड़ और चेतन दोनों को ‘तटस्थ विशेषों’ से निर्मित बताया। ‘तटस्थ विशेष’ न जड़ हैं न चेतन वरन मौलिक है एवं विशेष सन्दर्भों में विशेष रूप से व्यवस्थित हो जाते हैं।

रसेल के दर्शन के उपर्युक्त तीनों चरणों को देखने से यह विदित होता है कि उनके दर्शन में परिवर्तन होता रहा है। उन्होंने इन्द्रियदत्त पर इतना अधिक कार्य किया है कि कभी-कभी उनके दर्शन को “इन्द्रियदत्तों का दर्शन” के निकट पहुँच जाते हैं। तटस्थ विशेषों की स्वतन्त्र सत्ता मानते हैं और इन्हें मन पर निर्भर नहीं मानते। भ्रम व त्रुटि के विषय में नव्य- वास्तववादियों की भाँति रसेल भी कहते हैं कि भ्रम या त्रुटि का कोई प्रश्न नहीं। स्वप्न में भी वस्तुएँ उतनी ही सत्य हैं जितनी जाग्रत अवस्था में।

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