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मूल्य का अर्थ व परिभाषा | मूल्यों का वर्गीकरण | मूल्यों की प्राप्ति कैसे हो सकती है?

मूल्य का अर्थ व परिभाषा | मूल्यों का वर्गीकरण | मूल्यों की प्राप्ति कैसे हो सकती है? | Meaning and definition of value in Hindi | Classification of Values in Hindi ​​| How can values ​​be achieved in Hindi

मूल्य का अर्थ व परिभाषा

(Meaning and definition of value)

नूल्य के सामाजिक जीवन में प्राप्ति एवं उसके महत्व की चर्चा करने के पूर्व उसके अर्थ को स्पष्ट कर लेना आवश्यक है। मूल्य को हम एक पैमाने के रूप में मान सकते हैं जो कि किसी घटना विशेष के प्रति सामाजिक मनोवृत्ति या दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करता है। देशकाल तथा संस्कृति में भिन्नता के साथ-साथ घटना एवं परिस्थिति का स्वरूप भी बदलता रहता है और इसी के साथ उस समाज के लोगों का उसके प्रति दृष्टिकोण भी बदल जाता है। यही कारण है कि पाश्चात्य देशों में जो परिस्थितियाँ एवं मूल्य देखने को मिलते हैं वह हमें भारत में देखने में नहीं आते। इतना ही  नहीं एक देश विशेष में भी मूल्यों के स्वरूप में परिवर्तन आता रहता है क्योंकि परिस्थितियों के बदलने के साथ हमारी मनोवृत्तियों एवं धारणाओं में भी अन्तर आ जाता है। प्राचीन भारतीय समाज में प्रचलित मूल्य आज परिवर्तित हो रहे हैं, क्योंकि घटनायें अब करवट ले रही हैं। धर्म, विवाह तथा जाति संबंधी मान्यताओं का रूप अब बदल गया है। इतना ही नहीं हमें जनजातीय ग्रामीण एवं  नगरीय समाजों में भी मूल्य विषमता देखने को मिलती हैं।

  1. एम० जानसन (M. Johnson) मूल्य की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, “मूल्य की एक धारणा या मान (Conception or standard) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह सांस्कृतिक हो सकता है या केवल व्यक्तिगत और इसके द्वारा चीजों की एक दूसरे के साथ तुलना की जाती है, स्वीकार या अस्वीकार की जाती है-एक दूसरे के तुलना में उचित या अनुचित अच्छा या बुरा ठीक अथवा गलत माना जाता है।”
  2. भी आर०के० मुकर्जी (R.K. Mukerjee) ने मूल्यों की सबसे विस्तृत एवं निष्पक्ष व्याख्या की है। आपके विचारों में हमें पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोण एवं विचारधारा का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। श्री मुकर्जी लिखते हैं, “मूल्य समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे इच्छायें तथा लक्ष्य (Desires and goals) हैं जिनका अन्तरीकरण (Internalization) सीखने या समाजीकरण (learning or socialization) की प्रक्रिया के माध्यम से होता है और जो कि प्रतीतिक अधिमान्यतायें (Subjective preferences) मान (Standard) तथा अभिलाषायें बन जाती हैं। आपकी परिभाषा भी इस सत्य को स्पष्ट करती है कि मूल्य सामाजिक रूप से मान्य, मानक व पैमाना है जिसके द्वारा हम विभिन्न परिस्थितियों, घटनाओं व व्यवहारों को सही अथवा गलत सिद्ध करते हैं। यह व्यक्तियों की मान्यता प्राप्त अभिलाषाओं को प्रदर्शित करते हैं। हम कभी भी मूल्यविहीन (valueless) मानव समाज की कल्पना नहीं कर सकते भले ही मूल्यों का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो।

मूल्यों का वर्गीकरण

(Classification of Values)

मूल्य प्रायः किसी भी समाज के मानक (Standards) अथवा आदर्श (Ideals) होते हैं और इस दृष्टिकोण से आवर्शों का वर्गीकरण नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि आदर्श तो स्वयं में आदर्श हैं, उनमें ऊँच-नीच का भाव नहीं होना चाहिए। किन्तु फिर भी विभिन्न मूल्यों को वास्तविक प्रकृति को समझने के लिए कतिपय विद्वानों द्वारा प्रस्तुत मूल्यों के वर्गीकरण पर एक विहंगम दृष्टि डाल लेना श्रेयस्कर एवं उपयोगी होगा :

श्री पेरी (Pery) ने मूल्यों को नकारात्मक, सकारात्मक, विकासवादी तथा वास्तविक आदि चार श्रेणियों में विभक्त किया।

प्रो० सी० गोलाइटली (Prof. C. Golightly) ने मूल्यों को अनिवार्य तथा व्यावहारिक दो भागों में बाँटा अनिवार्य मूल्य बाध्यता मूलक होते हैं जैसे चोरी न करना तथा व्यावहारिक रूप में दिन-प्रतिदिन को क्रियाओं एवं आचरण से सम्बन्धित मूल्यों को सम्मिलित किया गया है जैसे बड़ों का आदर करना एवं सम्बन्धों की पवित्रता को बनाये रखना आदि।

स्टैंगर (Spranger) ने मूल्यों को निम्न श्रेणियों में विभक्त किया-

(1) सैद्धान्तिक मूल्य, इनमें दार्शनिक तत्त्व अधिक होते हैं।

(2) आर्थिक मूल्य

(3) कलात्मक मूल्य

(4) सामाजिक मूल्य

(5) राजनैतिक मूल्य

(6) धार्मिक मूल्य,

प्रो० एम० केस (Prof. M. Case) ने भो मूल्यों का अपने दृष्टिकोण से वर्गीकरण प्रस्तुत किया। आपने मूल्यों को (1) सावयवी मूल्य, (2) विशिष्ट मूल्य, (3) सामाजिक मूल्य तथा (4) सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य में बाँटा है।

  1. सार्वभौमिक मानवीय मूल्य (Universal human Values) – समान समाज में समानता एवं असमानता दोनों ही विशेषतायें साथ-साथ मिलती हैं। एक ओर यदि एक समाज विशेष में भाषा, जाति, प्रजाति धर्म एवं संस्कृति के आधार पर समानता दिखलाई पड़ती है तो दूसरी ओर अन्य समाजों के सन्दर्भ में हमें उपरोक्त आधारों पर हो अनेक विषमतायें भी देखने को मिलती हैं। चूंकि सामाजिक सांस्कृतिक कारक मूल्य निर्धारण में विशेष योग देते हैं इसलिए सांस्कृतिक विषमता विभिन्न विद्वानों में अलग-अलग मूल्यों की झाँको प्रस्तुत करती हैं। किन्तु फिर भी जैसा कि कुछ विद्वानों का मत है कि ‘संस्कृति के सामान्य हर’ के कारण उनमें कुछ न कुछ आधारों पर समानता अवश्य दिखलाई पड़ती है और इसीलिए कुछ ऐसे सामाजिक मूल्य भी हैं जिनका अस्तित्व हमें सभी समाजों में समान रूप से दिखलाई पड़ता है। इन सार्वभौमिक मूल्यों में हम निम्न का उल्लेख कर सकते हैं-
  2. अहिंसा- विश्व का कोई भी समाज ऐसा नहीं हो जो कि हिंसा को प्रोत्साहित करे। सभी समाजों में व्यक्ति को अहिंसा के महान मूल्य का पालन करने की बात की गयी है। चाहे हजरत मोहम्मद हों, चाहे ईसा मसीह, चाहे भगवान महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध अथवा गाँधी सभी ने अहिंसा के मूल्य को मानव जीवन में प्राथमिकता दी है। गाँधी का तो सम्पूर्ण जीवन दर्शन एवं स्वाधीनता का नारा अहिंसा के सर्वोच्च मूल्य से ही ओत-प्रोत रहा।
  3. सत्यम, शिवम्, सुन्दरम्- प्रत्येक समाज चाहे वह पूर्वी हो या पश्चिमी, ग्रामीण हो या नगरीय, सत्य बोलने पर विशेष बल देता है। इसके साथ ही शिवम् अर्थात् सभी जीवों के प्रति दया एवं कल्याण का कार्य करना मानव मात्र का पुनीत कर्तव्य माना गया है। इसके अतिरिक्त समस्त मानव प्राणियों में अपने चारों ओर बिखरी सुन्दरता को देखना एवं सुन्दरता का निर्माण करना चाहिए। अंग्रेजी के महान छायावादी कवि (John keats) ने लिखा भी है Beauty is truth. truth beauty, that’s all ye know and need to know.
  4. प्रेम- प्रेम जीवन को मधुरता है तथा मानव को सभी जीवों को प्रेम करना चाहिए। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि पाश्विक प्रवृत्तियों के द्योतक हैं और हमें इन पर विजय पानी चाहिए तभी हम वास्तविक अर्थों में मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं। अंग्रेजी में सत्य ही कहा गया है Love conquers all 3r Peace hath her victories no less renowned than war.
  5. ईमानदारी – सभी समाजों में ईमानदारी को एक उच्च सामाजिक मूल्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। Honesty is the best policy की कहावत इसकी उपयोगिता को ही प्रकट करती है। हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं प्रत्येक कार्य में ईमानदारी का परिचय देना चाहिए।
  6. समानता, स्वतन्त्रता एवं बन्धुत्व – सभी मनुष्य समान हैं। जाति, लिंग, धर्म एवं गोत्र तथा प्रजाति एवं भाषाई आधार पर उनके साथ असमानता का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। काले और गोरे का भेद किसी भी प्रकार उचित नहीं है। भारतीय संविधान की समानता, स्वतन्त्रता एवं बंधुत्व की श्रेष्ठ भावना को स्वीकार करता है। फ्रान्स की क्रान्ति का तो मुख्य नारा Equality, liberty और Fraternity ही था।
  7. न्याय – न्याय की भावना रखना भी एक उच्च सार्वभौमिक मानवीय मूल्य है। एक ओर सभी को समान रूप से न्याय का अधिकार है तो दूसरी ओर न्यायकर्ता को न्याय में निष्पक्ष होने की बात सभी कहते हैं।
  8. सेवा- सभी जीवों एवं मानव मात्र की सेवा करना प्रत्येक मानव का धर्म है। किसी को भी संकट में पड़ा देखकर मुँह मोड़ना कायरता है एवं निन्दनीय है। संकट एवं विपत्ति में ही मनुष्य के वास्तविक गुणों की परख की जाती है।
  9. देश-प्रेम- विश्व के प्रत्येक समाज में चाहे वहाँ के निवासी पहाड़ों पर निवास करते हों या मैदानों में, पठारों में या रेगिस्तान में, देश-प्रेम की भावना की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की गयी है। जिस देश में हम जन्म लेते हैं वहाँ की भूमि ही हमारी माँ है और अपनी माता की रक्षा करना प्रत्येक मानव का प्रथम कर्तव्य है।
  10. नैतिकता – यह सत्य है कि विभिन्न समाजों में-नैतिकता के अलग-अलग मापदण्ड होते हैं किन्तु कोई भी ऐसा समाज न होगा जो अनैतिकता को प्रोत्साहन दें। प्रत्येक मानव से उच्च नैतिक आदर्श स्थापित करने की आशा की जाती है।

इन उपरोक्त मानवीय मूल्यों के अतिरिक्त सहयोग, सहनशीलता, क्षमा, संयम आदि को भी प्रत्येक युग एवं समाज में समान रूप से स्वीकारा गया है जिससे कि मानव शांतिमय सह अस्तित्व के वातावरण में रह सकें।

मूल्यों की प्राप्ति कैसे हो सकती है?

(How are values acquired?)

मूल्य एक अमूर्त सामाजिक घटना (Abstract social phenomenon) है तथा सामाजिक सांस्कृतिक विरासत का एक अंग है अर्थात् मूल्य प्राप्ति किसी भी प्रकार से एक जन्मजात देन न होकर सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया का प्रतिफल है। हम सब जानते हैं कि जन्म के समय बालक केवल मांस मज्जा का एक लोथड़ा मात्र होता है। वह पशुवत होता है। किन्तु जन्म के पश्चात् वह अपने समाज के सामाजिक सांस्कृतिक घेरे में प्रवेश करता है जहाँ समाज की प्रक्रिया के द्वारा उसे विभिन्न मानवीय गुणों को उसके व्यक्तित्व में आत्मसात् कर उसे पशु स्तर से उठा कर सभ्य मानव के रूप में गढ़कर खड़ा करती है। सामाजीकरण की यह प्रक्रिया सामाजिक अन्तःक्रिया के माध्यम से सम्पन्न होती है। मूल्यों के आत्मीकरण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका परिवार एवं उसके सदस्य माता-पिता एवं भाई-बहन आदि अदा करते हैं। इसलिए चार्ल्स कूले नै परिवार को एक प्राथमिक समूह की संज्ञा देते हुए उसे ‘मानव स्वभाव की वृक्षारोपणी’ (Nursery of human nature) की  संज्ञा दी है। परिवार में ही व्यक्ति को उचित एवं अनुचित तथा भले और बुरे का ज्ञान करा दिया जाता है। वह समाज के विभिन्न निषेधों (taboos) एवं मान्यताओं से भी परिचित होता है। इस प्रकार जैसे-जैसे उसके व्यक्तित्व का विकास होता जाता है वह जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित मानवीय मूल्यों को ग्रहण करता जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मूल्यों के समावेश को हमें कोई अलौकिक या प्राणिशास्त्रीय प्रक्रिया नहीं माननी चाहिए बल्कि उसे एक सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में जानना चाहिए।

मूल्यों के निर्धारण में मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक तीनों ही आधार अपनी-अपनी भूमिका अदा करते हैं। सामाजिक प्रत्यक्षीकरण, मनोवृत्ति, प्रेरणा, सुझाव तथा अनुकरण आदि मूल्य निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। प्रत्यक्षीकरण के द्वारा हमें एक सामाजिक परिस्थिति का बोध होता है तथा उचित एवं अनुचित का निर्धारण करना होता है। मनोवृत्ति हमको परिस्थिति के सम्बन्ध में सोचने एवं उसी प्रकार व्यवहार करने को प्रेरित करती है तथा सुझाव एवं अनुकरण मूल्यों के प्रसार को सम्भव बनाते हैं।

इसी प्रकार मूल्य प्रदत्त (Ascribed) न होकर अर्जित (Achieved) होते हैं। मूल्य सांस्कृतिक संरचना के ही अंग हैं। संस्कृति ही व्यक्ति के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करती है। यही आदर्श व मान (Ideals and standards) भूसामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान सामाजिक मूल्यों के रूप में विकसित हो जाते हैं किन्तु सांस्कृतिक विषमता के कारण पूर्वी एवं पश्चिमी समाजों में मूल्यों में अन्तर दिखलाई पड़ता है। उदाहरण के लिए यौन सम्बन्ध, विवाह, सामाजिक सहवास एवं विधवा पुनर्विवाह आदि के बारे में जो कठोर आदर्श मूल्य हमें भारतीय समाज में देखने को मिलते हैं, वह पश्चिमी समाजों में नहीं।

किन्तु यहाँ हम मूल्य निर्धारण की व्याख्या में सामाजिक निर्णायकों की अवहेलना नहीं कर सकते। समाज ही रंगमंच प्रस्तुत करता है तथा अन्तःक्रिया के द्वारा मूल्यों के विकास एवं विस्तारण को सम्भव बनाता है। दुर्खीम ने तो मूल्यों को एक सामाजिक तथ्य के रूप में देखा तथा उसे सामूहिक प्रतिनिधित्व का प्रतिफल माना। जिस प्रकार सामाजिक तथ्यों में आप के अनुसार वाह्यता तथा बाध्यता दो विशेषतायें होती हैं उसी प्रकार मूल्य किसी व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज की भावनाओं की सामूहिक अभिव्यक्ति हैं। इसी प्रकार समाज पर मूल्यों का बाध्यता मूलक प्रभाव होता है। अर्थात् व्यक्ति को सामाजिक निन्दा एवं तिरस्कार से बचने के लिए मूल्यों के अनुरूप ही क्रिया एवं आचरण करना पड़ता है। जैसे हिन्दू समाज में व्यक्ति को अन्तर्विवाह का पालन करना पड़ता है, विधवा विवाह को निषिद्ध माना जाता है विवाह को एक संस्कार के रूप में देखा जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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