बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषतायें

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषतायें | बौद्धकालीन शिक्षा की आधुनिक भारतीय शिक्षा को देन

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषतायें | बौद्धकालीन शिक्षा की आधुनिक भारतीय शिक्षा को देन

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषतायें

(Characteristics of Buddhistic Education)

बौद्ध कालीन शिक्षा की विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

(1) शिक्षा का माध्यम-

शिक्षा का माध्यम पाली भाषा थी। इसके अतिरिक्त संस्कृत भाषा का भी प्रयोग किया जाता था। प्रो० पी० डी० पाठक के अनुसार- “शिक्षा का माध्यम सामान्य रूप से पाली भाषा थी, परन्तु वैदिक साहित्य की शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इसके अतिरिक्त देश की अन्य प्रचलित भाषाओं का भी प्रयोग किया जाता था।”

(2) छात्र योग्यता-

बौद्ध काल में चाण्डालों को छोड़कर सभी जातियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। विकलांग, रोगी, अस्वस्थ, दण्डित एवं असम्मानित लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। विद्यारम्भ 8 वर्ष की आयु में होता था। 12 वर्ष तक भ्रमण की स्थिति में रहता था। 20 वर्ष को आयु के पश्चात् वह भिक्षु बन संकता था।

(3) शिक्षण पद्धति-

इस काल में शिक्षण की पद्धति मुख्यत: मौखिक थी, रटने पर बल दिया जाता था। वाद विवाद, तर्क-विश्लेषण, व्याख्या और स्पष्टीकरण विधियों का प्रयोग किया जाता था। हरवेनसांग के अनुसार- “शिक्षक पाठ्य-वस्तु का सामान्य अर्थ बताते थे तथा विद्यार्थियों को सविस्तार पढ़ाते थे। शिक्षक विद्यार्थियों को परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करते थे और कुशलता से उन्नति के पथ पर अग्रसर करते थे। वे क्रियाशून्य छात्रों को निर्देशित करते थे और मन्दबुद्धि विद्यार्थियों को ज्ञान अर्जन के लिए उत्सुक बनाते थे।”

(4) गुरू-शिष्य सम्बन्ध-

गुरू और शिष्य के मध्य मधुर तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। छात्र अपने गुरूओं की सेवा करते थे और गुरू के प्रति भक्ति एवं श्रद्धा-भाव रखते थे। गुरू भी छात्रों को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर उनके विकास के लिए सदैव सजग रहता था। डा० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- “अपने गुरू के साथ शिष्य के सम्बन्धों का स्वरूप पुत्रानुरूप था। वे पारस्परिक सम्मान, विश्वास और प्रेम से आबद्ध थे। गुरू भी आध्यात्मिक मार्ग का प्रदर्शन करता था।’

(5) पवज्जा संस्कार-

पवज्जा संस्कार के समय विद्यार्थी अपने केश मुँडाकर पीले वस्त्र धारण कर लेता था विनय पटक के अनुसार-“बालक अपने सिर को मुँडाता था, पीले वस्त्र धारण करता था, प्रवेश करने वाले मठ के भिक्षुओं के चरणों को अपने मस्तक से स्पर्श करता था और उनके सामने पालथी मारकर भूमि पर बैठ जाता था। मठ का सबसे बड़ा भिक्षु उससे तीन बार यह शपथ लेने को कहता.था-

‘बुद्ध   शरण    गच्छामि

धम्मं    शरणं   गच्छामि

संघं    शरणं   गच्छामि “

इस शपथ के बाद 10 उपदेश दिये जाते थे जो कि निम्नलिखित हैं जिन्हें ‘दससिक्व्खा पदानि’ भी कहते थे।

(i) चोरी न करना।

(ii) जीव- हत्या न करना।

(iii) असत्य न बोलना ।

(iv) मादक वस्तुओं का सेवन न करना।

(v) ऊँचे बिस्तर पर न सोना।

(vi) वर्जित समय में भोजन न करना।

(vii) अशुद्धता से दूर रहना।

(viii) नृत्य-संगीत आदि से दूर रहना।

(ix) सोने-चाँदी का दान न लेना।

(x) श्रृंगार प्रसाधनों का प्रयोग न करना।

(6) उपसम्पदा संस्कार-

इस संस्कार में 12 वर्ष की आयु से 20 वर्ष तक की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् छात्र, भिक्षु के रूप में संघ में रहने का अधिकारी बन जाता था। संघ में रहने का अधिकारी छात्र भिक्षुकों के निर्णय के अनुसार बनता था। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् छात्र अपने प्राचार्य के साथ श्रेष्ठ भिक्षुकों के समक्ष उपस्थित होता था। भिक्षुगण छात्र से प्रश्न पूछते थे। यदि छात्र, इस परीक्षा में सफल हो जाता था तो उसका उपसम्पदा संस्कार किया जाता था। उपसम्पदा संस्कार करते समय भिक्षु को संघ में रहने के लिए कतिपय नियमों का पालन करना पड़ता था । ये नियम निम्नलिखित हैं-

(i) वृक्ष के नीचे निवास करना।

(ii) भिक्षा माँगकर भोजन करना।

(iii) स्त्री समागम, चोरी और हत्या से बचना।

(iv) अलौकिक शक्तियों का दावा न करना।

(v) साधारण वस्त्रों को धारण करना।

(vi) औषधि के रूप में केवल गोमूत्र का सेवन करना।

(7) व्यावसायिक शिक्षा-

बौद्ध काल में व्यावसायिक शिक्षा भी दी जाती थी, जैसे-औषधि, विज्ञान, कताई-बुनाई, भविष्य कथन आदि। डा० सुरेश भटनागर के अनुसार-“बीद्ध्ध काल में लेखन, गणना रूपम, कृषि, वाणिज्य, कुटीर उद्योग और पशुपालन, हस्तज्ञान, इन्द्रजाल , मृतकों को जीवित करने का मंत्र, पशुओं की बोली का ज्ञान, धनुर्विद्या, भविष्य कथन, इन्द्रिय सम्बन्धी क्रियाओं का वशीकरण, शारीरिक संकेत, औषधि विज्ञान, पाठ्यक्रम में थे।”

(8) शिक्षा पद्धति-

बौद्ध काल में शिक्षा मठों और विहारों में दी जाती थी इसमें केवल संघ के श्रमणों को ही शिक्षा दी जाती थी इस काल में प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्या, वाद-विवाद, निरीक्षण एवं प्रवचन विधि, देशाटन और प्रकृति निरीक्षण विधि आदि शिक्षण विधियों को प्रयोग में लाया जाता था। विद्यार्थियों को अनुभव प्राप्त करने के लिए देशाटन को भेजा जा सकता था। महान व्यक्तियों के प्रवचन कराये जाते थे और विद्यार्थियों के ज्ञानवर्द्धन के लिए वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित की जाती थी गुन्नार मिरडल के अनुसार-“शास्त्रीय विवादों को प्रोत्साहित किया जाता था।”

(9) छात्र जीवन से सम्बन्धित नियम-

बौद्ध कालीन शिक्षा में छात्रों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से संभावित नियमों का पालन करना पड़ता था। क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

भोजन- छात्रों को दिन में तीन बार भोजन करने का नियम था। भोजन शाकाहारी और शुद्ध होता था। रात्रि के भोजन के लिए शिष्य और गुरू कहीं-न-कहीं आमंत्रित होते थे।

भिक्षाटन- छात्रों को भिक्षाटन के नियमों का पालन करना पड़ता था। छात्र प्रात: काल ही भिक्षाटन को निकल जाते थे। भिक्षा मौन रूप से माँगी जाती थी। भिक्षा उतनी ही ली जाती थी जितनी की आवश्यकता होती थी।

स्नान- प्रतिदिन स्नान करना आवश्यक था दूसरे व्यक्ति से शरीर का मैल उतरवाना वर्जित था। शरीर को लकड़ी से नहीं मल सकते थे और स्नान करते समय क्रीड़ायें नहीं कर सकते थे।

वस्त्र धारण- छात्रो को कम वस्त्र धारण करने का आदेश था। छात्र साधारणत: तोन वस्त्र धारण करत थे जिन्हें ‘तिसिवरा’ कहते थे।

अनुशासन- बौद्ध कालीन शिक्षा में छात्र अनुशासन में रहते थे फूल-पत्तियाँ तोड़ना, श्रृंगार-प्रसाधनों का प्रयोग, अपशब्दों का बोलना, सार्वजनिक स्थानों पर तमाशे देखना आदि वर्जित था। जो छात्र इन नियमों को तोड़ते थे, उन्हें दण्डित किया जाता था।

(10) स्त्री शिक्षा-

प्रो० एस० वर्मा के अनुसार- “बौद्ध कालीन शिक्षा में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। बोद्ध भिक्षुओं के लिए स्त्रियों का समीप्य निषिद्ध था, परन्तु कुछ समय पश्चात् अपनी विमाता महाप्रजापति के आग्रह पर स्त्रियों को संघ में प्रवेश की आज्ञा प्राप्त हो गयी | स्त्रियों के संघ बौद्ध भिक्षुओं के संघ से अलग होते थे। स्त्रियां संघ में प्रवेश करके भिक्षुणी कहलाती थी इस प्रकार बौद्ध काल में शिक्षा का प्रसार स्त्री शिक्षा के रूप में विकसित हुआ।”

प्रो० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- “स्त्रियों के संघ में प्रवेश करने की अनुमति ने स्त्री शिक्षा को विशेष रूप में समाज के कुलीन और व्यावसायिक वर्गों की स्त्रियों की शिक्षा को बहुत अधिक प्रोत्साहन दिया।”

(11) पाठ्यक्रम-

बौद्ध काल का पाठ्यक्रम उच्च-स्तर का माना जाता था। इस काल में बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिन्दू दर्शन, संस्कृत, पाली अध्यात्मशास्त्र, खगोल शास्त्र तथा औषधि शास्त्र की शिक्षा दी जाती थी।

डा० सुरेश भटनागर के अनुसार-“इस युग में पाठ्यक्रम दो प्रकार का था-धार्मिक और लौकिक। धार्मिक पाठ्यक्रम के अंतर्गत वेद शास्त्र तथा बौद्ध शास्त्र पढ़ाये जाते थे। उन दिनों वेद और बौद्ध ग्रंथों का उदारतापूर्वक अध्ययन कराया जाता था। लौकिक पाठ्यक्रम में, समाज की भौतिक आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान दिया जाता था। इसमें लेखन, गणित, कताई, बुनाई, छपाई, शास्त्रार्थ, सिलाई, रंगाई, चित्रकला, मूर्तिकला. संगीत, वास्तुकला, पशु-पालन, कृषि तथा चिकित्सा आदि थी। इस युग में गुरू-शिष्य के सम्बन्ध, वैदिक तथा ब्राह्मण युग की तरह मधुर थे। आचार्य की आज्ञा का पालन और सेवा करना शिष्यों का कर्त्तव्य था। अपराध होने पर प्रायश्चित की व्यवस्था थी।”

बौद्धकालीन शिक्षा की आधुनिक भारतीय शिक्षा को देन

(Contribution to Modern Indian Education)

आधुनिक भारतीय शिक्षा को बौद्ध-शिक्षा का योगदान अत्यन्त व्यापक और अभिनन्दनीय है। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे अनेक कार्य आयोजित किए जाते हैं, जो बौद्ध-शिक्षा के अभिन्न अंग थे; यथा-

(1) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा का आयोजन।

(2) खेल-कूद और शारीरिक व्यायाम का आयोजन।

(3) व्यावसायिक और लाभप्रद विषयों की शिक्षा का आयोजन ।

(4) बहु-शिक्षक और सामूहिक शिक्षा का प्रणालियों का आयोजन।

(5) शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अध्ययन की निश्चित अवधि का आयोजन।

(6) सामान्य विद्यालयों का आयोजन।

(7) शिक्षा-संस्थाओं मे प्रवेश-सम्बन्धी न्यूनतम आयु, नियमों और परीक्षा का आयोजन।

(8) सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के बालकों को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने का आयोजन।

(9) माता-पिता और अभिभावकों के साथ रहने वाले बालकों के लिये शिक्षा की सुविधाओं का आयोजन।

(10) स्त्रियों के लिये उच्च शिक्षा का आयोजन।

(11) प्राविधिक और वैज्ञानिक शिक्षा का आयोजन ।

(12) लौकिक और सामान्य विषयों की शिक्षा प्रदान करने का आयोजन ।

(13) उच्च स्तर पर सैद्धान्तिक और प्रयोगात्मक शिक्षा का आयोजन।

(14) लोकसभाओं को प्रोत्साहन और उनको शिक्षा का माध्यम बनाने का आयोजन ।

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