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यथार्थवाद की विशेषताएँ | यथार्थवाद के सिद्धान्त

यथार्थवाद की विशेषताएँ | यथार्थवाद के सिद्धान्त

यथार्थवाद की विशेषताएँ

दार्शनिकों के द्वारा यथार्थवाद की कुछ विशेषताएँ बताई गई हैं जिन्हें हम यहाँ दे रहे हैं:-

(i) प्रत्यक्ष जगत की सत्यता में विश्वास- यथार्थवादी प्रो० रॉस के शब्दों से सहमत हैं, “ऐ आदर्शवादियों, तुम्हारा कथन सत्य नहीं है। संसार विचार कदापि नहीं हो सकता है। यदि केवल विचार ही वस्तुएँ है तो कृपया एक पुरुष को अश्व बना दीजिए, पेंसिल को ग्रह बना दीजिए।” बात सही है सामने रोटी देखकर हम विचारें कि यह मिर्च है कड़वी कह कर उसे न खावें और भूखे रह जावें। अतएव यथार्थवाद का संसार सम्बन्धी विश्वास सत्य है।

(ii) कल्पना और भावुकता को कोई स्थान नहीं- यथार्थवादी वैज्ञानिक की तरह काम करते हैं, सामने जो तथ्य प्राप्त होता है उसे ग्रहण करते हैं, वे कल्पना की उड़ान में नहीं रहते और न तो केवल भावावेश में काम करते हैं। आज जो मिल रहा है उसे यथार्थवादी नहीं छोड़ते और न आशा रखते हैं कि मिलते हुए को छोड़ देने से कल दूनी वस्तु मित जावेगी।

(iii) मन मस्तिष्क का विकसित अंग- यथार्थवाद मन को एक वस्तु मानते हैं जो मस्तिष्क का एक विकसित अंग है। इनके अनुसार मन एक स्वच्छ स्लेट है जिस पर संसार के अनुभव छपते हैं। अतएव मन अदृश्य नहीं स्थूल पदार्थ है।

(iv) इन्द्रिय संवेवन, निरीक्षण एवं विश्लेषण में विश्वास- यथार्थवादी अपने अनुभव को सत्य सिद्ध करने में इन्द्रियों का प्रयोग करता है, अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों से घटना, स्थिति, पदार्थ, क्रिया का निरीक्षण करता है और अन्त में उसका विश्लेषण करता है तथा सत्य ज्ञान को स्थापित करता है।

(v) पारलौकिकता में विश्वास नहीं- इस संसार से बाहर और आगे क्या है इसमें यथार्थवाद का विश्वास नहीं है। इसीलिए परलोक, स्वर्ग, आत्मा का जगत इन सबसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है और न इसका कोई अस्तित्व यथार्थवादी के लिए होता है।

(vi) वस्तु के जगत में एक नियमितता होना- संसार की जो भी वस्तुएँ हैं क्या वे अस्त-व्यस्त फैली हुई हैं? यथार्थवाद के विचार से सभी वस्तुएँ एक नियम से रखी हैं, सभी क्रियाएँ एक क्रम से होती हैं। मनुष्य के शरीर में सभी अंग नियमपूर्वक काम करते हैं। मनुष्य का मन भी क्रमिक ढंग से क्रियाशील रहता है।

(vii) निश्चित विचारों के साथ कार्य करना- यथार्थवाद में विश्वास रखने वाले वस्तुनिष्ठ ढंग से काम करते हैं। ऐसे निश्चित विचार के होने से अनुभव और ज्ञान का संचय एवं संगठन उचित ढंग से होता है तथा वैज्ञानिक ढंग से तथ्यों एवं ज्ञान की खोज भी होती है।

(viii) मनुष्य एक भौतिक प्राणी-मनुष्य भौतिक जगत का एक अंग है। उसमें कोई आत्मा नहीं, आध्यात्मिक तत्व नहीं। पाँच भौतिक तत्वों से मनुष्य का निर्माण हुआ है। यह अवश्य सत्य है कि मनुष्य जगत की वस्तुओं के बारे में जानकारी करता है।

(ix) वर्तमान में एकमात्र विश्वास होना- यथार्थवादी भूत और भविष्य में विश्वास नहीं रखते हैं। वर्तमान जीवन के समस्त कार्य-व्यवहार में अपना विश्वास रखते हैं। अतएव इन्हें केवल वर्तमान के बारे में ही चिन्ता रहती है। इसे सुखी बनाना ही वे सब कुछ समझते हैं।

(x) संवेदन ही ज्ञान का आधार- प्रो० बर्ट्रेण्ड रसेल ने कहा है कि “पदार्थ के अन्तिम निर्धारक अणु नहीं हैं बल्कि संवेदन हैं।” (Atoms are not the final determinants of matter but the sensation) | संवेदन में प्रत्यक्ष भी निहित है (Perception is also implied in sensation)। अतएव संवेदन और प्रत्यक्षण प्रक्रिया के आधार पर ज्ञान प्राप्त होता है।

(xi) जगत की वस्तुएँ अवयव रूप में- प्रो० ए० एन० ह्वाइटहेड ने कहा है कि “जगत् विकास की प्रक्रिया में एक प्रगतिशील अवयव है।”

इससे स्पष्ट है कि पूरा विश्व जड़ एवं चेतन दोनों रूपों में एक अच्छी व्यवस्था है और हमेशा सभी वस्तुएँ अच्छी तरह रहती हैं। मनुष्य इसका एक उदाहरण है।

(xii) सामाजिक जीवन में विश्वास- यथार्थवादियों का विश्वास है कि व्यक्ति अकेले उतना उपयोगी नहीं है जितना कि समाज | इसीलिए यथार्थवादियों का नारा है ‘समाज का अनुसरण करो’ (Follow Society) | समाज के हित में ध्यान में रखकर उसी के अनुकूल जीवन की गतिविधियों को आयोजित करना चाहिए।

यथार्थवाद के सिद्धान्त

दार्शनिक विचारधारा के रूप में यथार्थवाद के भी कुछ सिद्धान्त हमें मिलते हैं। ये सिद्धान्त नीचे दिये जा रहे हैं-

(i) प्रत्यक्ष का सिद्धान्त- यथार्थवादी विचारकों का कहना है कि जो कुछ सामने दिखाई देती है और उपस्थित है वह सत्य है, झूठ नहीं है। इस सिद्धान्त के आधार पर जगत मिथ्या नहीं सत्य है, वास्तविक है। अतएव यथार्थवाद आदर्शवाद के विपरीत सिद्धान्त रखता है।

(ii) इन्द्रिय-ज्ञान का सिद्धान्त- यथार्थवाद मनुष्य की इन्द्रियों को ज्ञान-प्राप्ति का एकमात्र साधन मानता है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों से सूंघकर, देखकर, चखकर, छूकर तथा सुनकर संसार की वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान सही होता है।

(iii) अवयवबादी सिद्धान्त- सभी प्राणी तथा जड़वस्तु में एक अवयव (Organism) की कल्पना यथार्थवादी करते हैं। उदाहरण के लिये मनुष्य के विभिन्न अंग एक अवयव रूप में पाये जाते हैं और ये सभी अंग (organ) “एक तरंगित प्रतिक्रिया” करते हैं। इस प्रक्रिया से प्रगति तथा परिवर्तन होता है। इन अंगों की प्रक्रिया और प्रतिक्रिया शाश्वत होती रहती है। मस्तिष्क भी एक अंग के रूप में क्रिया करता है।

(vi) मानव की महत्ता का सिद्धान्त- यथार्थवाद का विश्वास है कि मानव और उसका जीवन बहुत महत्वपूर्ण है और उसकी क्रियाएँ इस जगत में सुख-दुःख प्रदान करती हैं। मनुष्य का वर्तमान जीवन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वह प्रत्यक्ष होता है। इसकी अच्छी व्याख्या हमें नव यथार्थवाद में मिलती है।

(v) वैज्ञानिकता का सिद्धान्त- न्यथार्थवाद किसी प्रकार की भावुकता और कल्पनाशीलता में विश्वास नहीं रखता है। यह वैज्ञानिकता के सिद्धान्त में विश्वास करता है। इस दृष्टि से ठोस तथ्यों एवं तथ्यों में ही यथार्थवादी की आस्था पाई जाती है।

(vi) वस्तुनिष्ठा का सिद्धान्त- यथार्थवादी व्यक्तिनिष्ठता की अपेक्षा वस्तुनिष्ठता में विश्वास करता है। अतएव अनुभूति के स्थान पर बाह्य निरीक्षण को अधिक महत्व देती है और इसी में विश्वास करता है। बाह्य निरीक्षण से ही सत्य ज्ञान मिलता है।

(vii) भौतिकता का सिद्धान्त- यथार्थवाद किसी प्रकार की आध्यात्मिकता में जरा भी विश्वास नहीं रखता है। मनुष्य को भी भौतिक दृष्टि से देखता है। भौतिक दृष्टिकोण से सभी तथ्यों की जाँच मनुष्य करता है, इसमें यथार्थवादी धारणा पाई जाती है।

(viii) यांत्रिकतावादी सिद्धान्त- यथार्थवादी सारे जगत तथा मनुष्य को यांत्रिक ढंग से कार्य करता मानता है। मनुष्य का मन भी यांत्रिक ढंग से क्रियाशील होना बताया गया है। सम्पूर्ण जगत एक नियम में बंधा माना जाता है, एक क्रम से सभी कार्य होते हैं, कोई अव्यवस्था नहीं पाई जाती है। यह यथार्थवादी विचार है।

(ix) सामाजिकतावादी सिद्धान्त- यथार्थवाद मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि सामूहिक रूप से अधिक महत्व देता है। इसका कारण यह है कि समाज की रचना नियम के पालन से होता है और समाज व्यक्ति को भावुक, अस्त-व्यस्त ढंग से व्यवहार करने से रोकता है। अतएव सामाजिकतावादी सिद्धान्त का पालन यथार्थवाद के अनुसार मनुष्य के लिये आवश्यक होता है।

(x) सुखवादी सिद्धान्त- यथार्थवादी सुखपूर्ण जीवन में विश्वास रखता है। शरीर स्वस्थ्य रहे, खाओ पियो और मौज से रहो यह यथार्थवाद को मान्य है। यदि जीवन में सुख नहीं है तो निश्चय ही जीवन स्थिर हो जाता है। उसमें प्रगति नहीं होती है।

(xi) उपयोगिता का सिद्धान्त- सुखवादी सिद्धान्त से मिला-जुला यह सिद्धान्त है। यथार्थवादी लोग यह मानते हैं कि मनुष्य जितना अधिक वस्तुओं का प्रयोग करता है, उन्हें उपयोग में लाता है, उतना ही जीवन का आनन्द, सुख, भोग उसे प्राप्त होता है। अतः उपयोगिता का सिद्धान्त यथार्थवाद में मान्य होता है।

(xii) राज्य सम्बन्धी सिद्धान्त- यथार्थवाद ने राज्य को मनुष्य के सुख-शान्ति का साधन माना है। यह मनुष्यों का एक नियमित संगठन है। इसका कर्तव्य प्रत्येक नागरिक के जीवन को सुखमय एवं सुरक्षित बनाने के लिये भौतिक साधन जुटाना है। अतः यह भी यथार्थवाद का एक सिद्धान्त है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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