भारत का प्रागैतिहासिक युग

भारत का प्रागैतिहासिक युग | भारत की पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति | पूर्व पाषाण कालीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन

भारत का प्रागैतिहासिक युग | भारत की पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति | पूर्व पाषाण कालीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन

भारत का प्रागैतिहासिक युग

भारत का भौगोलिक रूप सुरचना के लम्बे क्रम का परिणाम है। काल की अनन्त लहरों के रूप में भूकम्प, ज्वालामुखी, प्रलयंकारी बाढ़े एवं अन्य अनेक प्राकृतिक लीलाओं के फलस्वरूप भारत की रचना कई खण्डों में हुई है। उत्तर ध्रुव से दक्षिण तक विस्तृत चट्टानें अति प्राचीन तथा दक्षिणी पठार बहुत बाद के हैं। बैरल महोदय के अनसार दस लाख वर्ष पहले मानव तथा हिमालय एक साथ ही अस्तित्व में आए थे। सृष्टि की लीलाओं के फलस्वरूप जब भारत का भौगोलिक ढांचा बनकर तैयार हो गया, उसके पश्चात् भारत भूमि पर मानव प्रगट हुआ। आवश्यकता ने उपकरणों को जन्म दिया। इन्हीं उपकरणों के आधार पर प्रागैतिहासिक युगीन भारत की सभ्यता का वर्णन हम चार भागों में कर सकते हैं यथा-

(1) पूर्व पाषाण काल, (2) मध्य पाषाण काल, (3) उत्तर पाषाण काल, (4) धातु युग।

भारत की पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति

(1) जीवन प्रणाली- पूर्व पाषाण काल में मानव जीवन बर्बर था। उसे सभ्यता का कोई ज्ञान न था। जीवन पूर्णतया प्रकृति के आश्रय पर निर्भर था। कतिपय प्रमाणों से पता चलता है कि अभी मनुष्य को अग्नि की उपयोगिता का ज्ञान नहीं हुआ था। अतः जो कुछ भी आहार मिलता था उसे वह कच्चा खाता था। कृषि कर्म से अनभिज्ञ होने के कारण मनुष्य स्वयं उत्पन्न होने वाले कन्दमूल आदि का भक्षण करता था। आखेट मुख्य उद्यम था। इसके द्वारा वह जंगली जानवरों का शिकार करता था। कई स्थानों पर मनुष्य तथा पशुओं के अस्थिपंजर साथ-साथ मिले हैं इसके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मानव तथा पशु के बीच सम्बन्ध तो स्थापित हो चुका था, परन्तु अभी मनुष्य को पशु-पालन की विधि का ज्ञान न था।

(2) निवास-स्थान- निवास स्थान को आवश्यकता का प्रमुख आधार या उद्देश्य आत्मरक्षा से सम्बन्धित रहा है। प्रकृति के आश्रय पर रहने वाले मनुष्य के लिए आत्मरक्षा का प्रश्न सर्वोपरि रहा होगा। यह निश्चित है कि इस अवस्था में प्रकृति के विभिन्न प्रकोपों जैसे महाशीत, तीव्र ग्रीष्मता या अतिवृष्टि से वह सन्त्रस्त रहता होगा। साथ ही उसे अनेक हिंसक पशुओं तथा अन्य हिंसक प्रवृत्ति वाले मनुष्यों से सदा भय लगा रहता होगा। आत्मरक्षा की सर्वोपरि भावना से प्रेरित होकर उसने विश्राम आदि के लिए जब किसी निवास की कल्पना की होगी तो उसने वृक्षों, कन्दराओं तथा नदियों के कगारों को ही सुरक्षित पाया होगा। उत्खनन द्वारा जो सामग्री प्राप्त हुई है उनका प्राप्ति स्थान अधिकांशतः पर्वत कन्दरायें तथा नंदियों के कछार हैं। अतः हमें प्रतीत होता है कि इस काल का मनुष्य या तो घने वृक्षों पर अथवा पर्वत की कन्दराओं और नदियों के कछारों में रहता था।

(3) वस्त्राभूषण- इस काल के आदि मानव को वस्त्राभूषण का कोई ज्ञान न था। अतः मनुष्य विशुद्ध नग्नावस्था में विचरण करता था। शीत से बचाव का माध्यम उसके शरीर के लम्बे बाल ही थे। कपड़े या वृक्षों की छाल की बात तो दूर अभी उसमें वृक्ष के पत्तों द्वारा अपने शरीर को ढंकने की कल्पना भी उत्पन्न नहीं हुई थी।

(4) जीविकोपार्जन- हम पहले ही कह चुके हैं कि अभी तक मनुष्य को कृषि कर्म तथा पशुपालन का ज्ञान नहीं हुआ था। अतः इनकी खाद्य सामग्री भी सीमित थी तथा उसमें विविधता का पूर्णतः अभाव था। आखेट ही जीविकोपार्जन का माध्यम था। इससे कई लाभ होते थे-पहला तो वन्य-पशुओं से छुटकारा मिल जाता था, दूसरे मारे हुए जानवरों के मांस का भोजन तथा उनकी हड्डियों से नुकीले हथियार प्राप्त हो जाते थे। आखेट द्वारा पर्याप्त मनोरंजन तथा शारीरिक क्षमता भी प्राप्त हो जाती थी।

(5) आयुध- जीवनोपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करने तथा उनका अनुकूलनं करने के लिए विभिन्न आयुधों की आवश्यकता ने मनुष्य का ध्यान ऐसे विभिन्न पदार्थों की ओर आकर्षित किया जो सख्त तथा नुकीले हों। फलतः आयुधो का आविष्कार हुआ। यह इस युग की क्रान्तिकारी घटना थी। भारत में प्राप्त पूर्वपाषाणकालीन आयुधों में उत्तरी तथा दक्षिणी भारत से प्राप्त फ्लेक प्रधान सोहन प्रणाली तथा कुल्हाड़ी प्रधान मद्रास प्रणाली प्रमुख हैं। प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य ने पाषाण को बिना काटे-छाँटे तथा बिना घिसे-पिटे ही प्रयुक्त किया परन्तु जब उसकी कल्पना ने और आगे उडान भरी तो उसन इन आयुधों का आवश्यकतानुसार नाना प्रकार की आकृति प्रदान की तथा उपर्याग के लिए उन्हें सहजता प्रदान की। उदाहरणार्थ यदि निवास स्थान को सुरक्षित करने की आवश्यकता हुई तो उसने गोल, चौड़े,ऊँचे तथा लम्थे पाषाण खण्टों का उपयोग किया और यदि आखेट की आवश्यकता हुई तो पैने, लम्बे, नुकीले पाषाणों का प्रयोग किया।

(6) सामाजिक दशा- पूर्व पाषाण कालीन सामाजिक जीवन सहज, सादा तथा साधारण था। पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर रहने के कारण आवश्यकतायें सीमित थीं। आखेट मुख्य उद्यम होने तथा कृषि एवं अग्नि से अनभिज्ञता के कारण मनुष्य प्रायः अलग-अलग रहता था। सहयोगी की अपेक्षा ही संगठित जीवन को प्रेरणा दे सकती थी। इस काल में मनुष्य को स्वयं मनुष्य से ही भय था। अत: आदि मानव का सामाजिक जीवन बहुत ही प्रारम्भिक अवस्था में था। निर्बल या छोटे जानवर का शिकार करना तो सरल था तथा यह काम एक व्यक्ति भी कर सकता था, परन्तु जब किसी विशाल जन्तु से सामना होता होगा तो संभवतः कई मनुष्य उसमें सहयोग करते होंगे। यहीं से समूह में रहने तथा सामूहिक रूप से कार्य करने की भावना ने जन्म लिया। अब वे दूर-दूर पेड़ों या कन्दराओं में रहने की अपेक्षा आस-पास दो या तीन के समूहों में रहने लगे। पहले ये नग्नावस्था में रहते थे, परन्तु समूह में रहने के कारण उनमें लज्जा जैसी भावना का जन्म हुआ अतः वे वृक्ष की छाल, पत्ते या पशुओं की खाल से शरीर ढंकने लगे। मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति वंश वृद्धि है अर्थात् अपनी संख्या में वृद्धि करना। समूह में रह कर उसने सम्मिलित रूप से आखेट करने के महत्व को समझा तथा प्राप्त सामग्री को बाँट कर खाना प्रारम्भ किया। सामूहिक रूप से कार्य सम्पादन तथा उदर पूर्ति आदि मानव की प्रथम सामाजिक दशा थी।

(7) धार्मिक दशा- इस विषय में कोई ऐतिहासिक सामग्री या प्रमाण अभी तक अप्राप्य हैं जिसके आधार पर हम पूर्व पाषाण कालीन मनुष्य की धार्मिक आस्थाओं एवं विश्वासों का अनुमान लगा सकें। विश्वास, प्रेम, घृणा जैसी भावनायें अभी तक अजन्मी थीं। मनुष्य पूर्ण रूप से स्वावलम्बी था तथा उसके समस्त कार्य स्वयं उसकी क्षमता पर निर्भर थे। प्रकृति की लीलाओं में वह चमत्कार अवश्य देखता था, परन्तु इस लीला के पीछे कौन है ? यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में नहीं उपजा था। अतः पूर्व पाषाण कालीन मनुष्य में धार्मिक विश्वासों का जन्म नहीं हुआ था। हमें अभी तक उस काल की कोई मृतक समाधि प्राप्त नहीं हुई है अतः प्रतीत होता है कि शव को ऐसे ही छोड़ दिया जाता था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि दैनिक जीवन की कठोरता ने पूर्वपाषाण युगीन मानव को मनन तथा चिन्तन का अवकाश ही नहीं दिया परन्तु अनुमान के आधार पर हम इतना तो अवश्य ही कह सकते हैं कि प्रकृति की विनाशलीला सम्मुख होने पर मनुष्य में भय का संचार अवश्य ही होता होगा तथा प्रकृति को सर्वोपरि मान कर मनुष्य मूक भाव से हृदय ही हृदय में प्रकृति से आशाजनित सुरक्षा की याचना करता होगा।

भारत की मध्य पाषाण कालीन संस्कृति

कतिपय विद्वानों के अनुसार मध्य पाषाण काल का कोई अस्तित्व नहीं है। उनके अनुसार पूर्व पाषाण काल के उपरान्त उत्तर पाषाण काल आरम्भ हुआ था। परन्तु शोध कार्यों तथा उत्खनन द्वारा अनेक ऐसे प्रमाण तथा सामग्री आदि की प्राप्ति हुई जिसके आधार पर पूर्वपाषाणकाल के उपरान्त एक ऐसे युग की संस्कृति की गाथा प्रकाश में आई है जिसे मध्य पाषाण काल की संज्ञा से विभूषित किया गया है। वर्किट तथा टॉड महोदय द्वारा किए उत्खननों द्वारा कुर्नूल तथा बम्बई से ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनके द्वारा मध्य पाषाण काल की विशेषताओं का पता चलता है।

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भारत की उत्तर पाषाण कालीन संस्कृति

प्रागैतिहासिक युग में प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार निरन्तर विकास होता जा रहा था। उत्तर पाषाणकाल की जलवायु पूर्व पाषाणकाल की अपेक्षा अधिक सम हो गई थी। महाशीत तथा अत्यधिक ग्रीष्मता की अपेक्षा जलवायु साधारण स्तर की होने के कारण मानव की शरीरिक क्षमता तथा बुद्धि का विकास होने लगा। विद्वानों का मत है कि इस सभ्यता का काल आज से लगभग पच्चीस सहस्त्र वर्ष पूर्व से लेकर लगभग सात सहा वर्ष पूर्व तक था।

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निष्कर्ष

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि आदि काल से लेकर उत्तर पाषाण काल तक मानव ने निरन्तर विकास किया। आधुनिक भारत का बहुत कुछ, उस समय के सामाजिक जीवन, धार्मिक आस्थाओं, आर्थिक संगठन तथा कला में प्रस्फुरण के रूप में उभरने लगा था।

भारत की धातु युगीन संस्कृति

पूर्व पाषाण, मध्य पाषाण तथा उत्तर पाषाण युग को सामूहिक रूप में पाषाण युग की संज्ञा दी जाती है। जब मानव ने प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाये तो एक समय ऐसा आया जब उसे मात्र पाषाण प्रयोग से विरक्ति सी होने लगी। ऐतिहासिक धारा के स्वाभाविक स्वरूप का अनुशीलन करते हुए उसने कुछ और नवीन खोज द्वारा धातु के महत्व को समझाना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप उस युग का आविर्भाव हुआ जिसे इतिहास में “धातु युग” के नाम से जाना जाता है। पाषाण टूट सकता था, उसे मोडना, घुमाना कठिन था। इसके विपरीत धातु द्वारा निर्मित उपकरणों में सुडौलता, टिकाऊपन चिकनाहट तथा सुन्दरता आपेक्षित थी। धातु को किसी भी रूप में ढाला जा सकता था। इन्हीं विशेषताओं के कारण मनुष्य ने पाषाण प्रयोग की अपेक्षा धातु प्रयोग को महत्व दिया।

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निष्कर्ष

प्रागैतिहासिक युग की भारतीय संस्कृति के उपरोक्त निरूपण द्वारा हमें इस निष्कर्ष की प्राप्ति होती है कि इस धरा पर प्रगट होने वाले आदि मानव समूह ने उत्तरोत्तर प्रगति की । आविष्कारों और किसी नवीन खोज की जिज्ञासा से ओत-प्रोत मानव ने सभ्यता एवं संस्कृति के विकास को अपूर्व शक्ति प्रदान की। समय बीतता रहा, विकास ने उन्नति की और शनैःशनै जीवन जटिल से जटिलतम होता गया। जो जीवन तब केवल क्षुधा और जीवन रक्षा के रूप में एकांगी था-धीरे-धीरे बहुअंगी हो गया। इस, प्रकार प्रागैतिहासिक सभ्यता एवं संस्कृति मानव विकास की निरन्तरता की एक ऐसी कडीं जिनमें वर्तमान संस्कृति के अनेक रुप और गुण अंकुरण के रूप में उपस्थित थे।

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