इतिहास / History

औद्योगिक क्रांति के परिणाम | Result of the Industrial Revolution in Hindi

औद्योगिक क्रांति के परिणाम | Result of the Industrial Revolution in Hindi

औद्योगिक क्रांति के परिणाम

(Result of the Industrial Revolution)

औद्योगिक क्रांति के परिणाम यूरोप के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन पर पड़ा। वास्तव में इस क्रांति ने मानव जीवन के सभी हिस्सों को उद्वेलित किया और समाज का कोई भी भाग इससे अछूता नहीं रहा। यदि इस क्रांति से किसी वर्ग को पूंजी जमा करने और समाज के निम्नवर्ग को शोषण का मौका मिला तो शोषित वर्ग को भी शोषक वर्ग से मुक्ति पाने के लिए तरह-तरह के यल करने पड़े और अंत में शोषण से मुक्ति पाने के लिए उपाय ढूंढने पड़े। अत्यधिक उत्पादन होने से उत्पादक देश को बाजार की जरूरत पड़ी जिसके लिए उत्पादक देशों को आक्रामक नीति अपनाकर उपनिवेशवाद के रास्ते पर अग्रसर होना पड़ा।

आर्थिक प्रगति-

औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप विटेन में सर्वोन्मुखी परिवर्तन हुआ। वस्तुओं का उत्पादन अति तीव्र गति से बढ़ा। इस वृद्धि में कपड़ा उद्योग का बहुत स्थान था। 1815 से 1825 ई० के बीच कुल निर्यात का 50% भाग कपड़ा होता था तथा कुल आयात का 20% कपास होता था। इस समय उद्योगपतियों को लाभ भी काफी मिल रहा था। 1820-25 के बीच औद्योगिक उत्पादन 40% के लगभग बढ़ा, जबकि वेतन केवल 5% बढ़ा। परिणामस्वरूप, उत्पादन में वृद्धि के कारण उद्योगीकरण तथा तकुनीको विकास को और भी प्रोत्साहन मिला। इससे अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी वृद्धि हुई और थोड़े समय में ही ब्रिटेन को ‘संसार की उद्योगशाला’ कहा जाने लगा। 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन विश्व की अर्थव्यवस्था पर छाया रहा जिसके परिणामस्वरूप अंगरेजों की आय में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।

तकनीकी विकास तथा भारी मशीनों के प्रयोग के कारण कारखानों की स्थापना होने लगी, जिससे बहुत से मजदूर एक साथ एक जगह काम करते थे। इसके साथ ही, कृषि उत्पादन और जनसंख्या में भी वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप, देश की अर्थव्यवस्था का आधार ही बदल गया। पहले अधिक जनता गांवों में रहती थी और गांव ही अर्थव्यवस्था के आधार थे। परंतु, उद्योगीकरण के बाद शहर ही आर्थिक जीवन के आधार बन गए। 1820 ई. तक जनसंख्या का एक तिहाई भाग तथा 1850 ई. तक आधा भाग शहरों में रहने लगा था। शहरों की संख्या तथा आकार में तीव्र गति से विस्तार हुआ। लंकाशायर, मैनचेस्टर, लिवरपूल तथा शेफिल्ड जैसे शहरों का विकास औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप हुआ।

शहरों के विकास से नई-नई समस्याएं उठ खड़ी हुई। शहरों का विकास अनियंत्रित ढंग से हुआ और लोगों के स्वास्थ्य, सफाई, पढ़ाई-लिखाई और मनोरंजन की व्यवस्था पुराने ढंग से स्थानीय शासनों से नहीं हो सकती थी। नए शहरों में गंदगी थी और अधिकांश निवासी अस्वास्थ्यकर अवस्था में जीवन व्यतीत करते थे। ऐसी अवस्था में उनका स्वास्थ्य सुधारने के लिए म्युनिस्पैलिटियों की स्थापना हुई और अस्पताल तथा डाक्टरों का प्रबंध हुआ।

देश में शहरी आबादी की प्रधानता हो जाने से तरह-तरह के राजनीतिक आंदोलन चलने लगे। इतिहास बताता है कि शहर बरावर सरकार के खिलाफ विरोध के केंद्र रहे हैं। शहरों में क्रांतिकारी और जनतांत्रिक दल बने और इनसे जनतांत्रिक संस्थाओं के विकास में सहायता मिली।

परिवहन के साधनों में वृद्धि तथा उत्पादन के तत्वों में एकरूपता होने से इस क्रांति से ब्रिटेन के सभी भाग एक-दूसरे के निकट आ गए। इस तरह, इस क्रांति के पहले राष्ट्रीयता की और फिर अंतरराष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहन मिला। कच्चे माल को प्राप्ति और उत्पादित माल के लिए बाजार के लिए प्रतिद्वंद्विता भी बढ़ी।

जनसंख्या में वृद्धि-

उत्पादन की वृद्धि से मिल-मालिकों को अधिक लाभ हुआ किंतु पहले से जनसाधारण के जीवन का स्तर कुछ ऊंचा उठा और इस कारण जनसंख्या की वृद्धि हुई। 1700 ई० के पहले इंग्लैंड की जनसंख्या के प्रति 100 वर्ष में लगभग दस लाख व्यक्तियों के हिसाब से वृद्धि होती थी, किंतु 1700 और 1800 ई. के बीच जनसंख्या में तीस लाख की वृद्धि हुई। इसके दो मुख्य कारण थे-

(1) खेती और उद्योग-धंधों में तरक्की होने के कारण लोगों को पहले से कुछ अच्छा खाना मिलता था और-

(2) जीवन स्तर उठाने और दवा-दारू को अच्छी व्यवस्था होने से मृत्यु की गति कुछ धीमी पड़ गई थी। उदाहरण के लिए, 18वीं शताब्दी के मध्य में लंदन के एक सूतिका अस्पताल में 42 औरतों में एक और 15 बच्चों में एक मरते थे, किंतु 1800 ई. के लगभग 914 औरतों में एक और 115 बच्चों में एक मरने लगे।

देश में एक तरह से जनसंख्या का पुनर्वितरण हुआ, फलस्वरूप एक ही देश के विभिन्न भागों के महत्व में परिवर्तन हुआ। 18वीं शताब्दी में इंगलैंड का दक्षिणी-पूर्वी हिस्सा सर्वाधिक महत्व का समझा जाता था और स्कॉटलैंड को कोई महत्व नहीं दिया जाता था। किन्तु औद्योगिक क्रांति के कारण इंगलैंड के उत्तरी भाग में कोयले और लोहे के मिलने से वह कपड़े के व्यवसाय का केंद्र बन गया । इसलिए उत्तरी इंगलैंड और स्कॉटलैंड दक्षिणी-पूर्वी इंगलैंड से कहीं अधिक महत्व के बन गए। 18वीं शताब्दी तक हॉलैंड बेल्जियम से अधिक महत्व का था, परंतु 19वीं शताब्दी में कोयले और लोहे की खानें मिलने के कारण बेल्जियम का महत्व काफी बढ़ गया।

कारखाना प्रथा-

औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप कारखानेदारी प्रथा का जन्म हुआ। पहले मजदूर कच्चे माल से अपने घर में ही उत्पाद तैयार करते थे, लेकिन 16वीं से 18वीं शताब्दी के बीच शिल्पियों की पुरानी स्वतंत्रता जाती रही। कच्चा माल उन्हें उद्योगपतियों से मिलता था, केवल औजार उनके अपने थे। औद्योगिक क्रांति ने कारखाना-प्रथा का जन्म देकर उनकी रही-सही स्वतंत्रता भी समाप्त कर दी। अब मजदूर अपने मालिक के मकान पर उनकी देखरेख में बड़े बाजार के लिए माल तैयार करते थे। उनके पास न कच्चा माल रहा और न उनके पास अपने औजार रहे। उनकी कार्यकुशलता का भी पहले जैसा मूल्य नहीं रहा। क्योंकि अब अधिक-से-अधिक काम मशीन द्वारा होता था, अर्थात् कारखाना-प्रथा के कारण मजदूरों को स्वतंत्रता बिल्कुल समाप्त हो गई। उनके पास केवल श्रम-शक्ति रह गई, जिसका दाम मालिकों की इच्छा पर निर्भर करता था।

कारखाना-प्रथा के चलते कारखाने के मालिक और मजदूरों के बीच एक नया रिश्ता उभरा। पहले भी मालिक मजदूर की मेहनत से लाभ उठाते थे, किंतु दोनों के बीच के संबंध में उतनी कटुता नहीं थी। पहले मजदूरों की स्वतंत्रता थी जिससे वह लाभ उठा सकता था। किंतु, अब कारखानों में मजदूरों की दशा द्यनीय हो गई। मालिक के लिए मजदूर और मशीन एक ही समान थे, क्योंकि दोनों से उसे नफा कमाने में सहायता मिलती थी। एक अर्थ में मशीन का महत्व मजदूर से अधिक था; क्योंकि उसके बैठाने में मालिक को खर्च था, जबकि मजदूर रखने या बदलने में कोई अतिरिक्त व्यय नहीं था। ऐसी स्थिति में मजदूरों की सुख-सुविधा पर उद्योगपति कोई ध्यान नहीं देते थे।

कारखाना में मशीनों को चलाना आसान कार्य था जिसे औरतें या बच्चे भी कर सकते थे। ऐसी स्थिति में कारखानों में बच्चों को मजदूर के रूप में बहाल किया जाने लगा। अधिक मुनाफा कमाने के लालच में उनसे सतरह-अठारह घंटों तक काम लिया जाता था।

मजदूरों की हालत कारखानों में दयनीय थी। मालिक कम-से-कम मजदूरी देकर अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में मजदूरों का शोषण करते थे। इन कारखानों के अनुशासन भी मजदूरों के लिए कष्टदायक थे। निरीक्षक की कड़ी देखरेख में उसके आज्ञानुसार निश्चित समय पर उन्हे कार्यारंभ करना और बंद करना पड़ता था और मशीन की गति से गति मिलाकर चलना पड़ता था। खिड़की खोल्ने, हाथ-पांव धोने, सीटी बजाने अथवा गंदा रहने पर उन्हे दंडित होना पड़ता था। अधिक-से-अधिक धनार्जन के फिराक में मजदूरों का शोषण शुरू हुआ।

नए कारखानों में अधिकतर साधारण मजदूरों की जरूरत होती थी। कुशल श्रमिकों या कारीगरों की जरूरत कम ही पड़ती थी। अतः कुशल कर्मियों और कारीगरों की स्थिति दयनीय थी। कारखानों की स्थापना से पुराने कारीगरों की रोजी-रोटी छिन गई। औद्योगिक क्रांति के दिनों में इसी वर्ग को सबसे अधिक परेशानी उठानी पड़ी। उस काल के अनुसार कारखानों में मजदूरी कृषि मजदूरों की तुलना में अधिक मिलती थी, लेकिन शहरी जीवन व्यतीत करने के कारण और आय के अन्य स्रोत बंद होने के कारण यह मजदूरी परिवार चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। जो मजदूरी मिलती थी उससे परिवार का खाना-पीना चलाना कठिन था। वैसे इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति की पूर्ववर्ती व्यवस्था में भी मजदूरी की दर कम ही थी। कारखानों में इतना व्यापक यांत्रिक काम होता था कि मालिक महिला तथा बच्चों से काम कराना अधिक पसंद करता था। छह वर्ष की उम्र के बच्चों को भी कारखानों में काम पर लगाया जाता था। ये लोग कम ही मजदूरी लेकर काम किया करते थे तथा वयस्कों की अपेक्षा कुछ कार्यों में अधिक प्रवीण होते थे। अधिकतर वयस्क मजदूर इनसे चिढ़े रहते थे।

औद्योगिक प्रसार के शुरू के चरण में व्यवसायिक उतार-चढ़ाव होते रहते थे, थे कारण कब कितने मजदूरों को रोजी मिलेगी, यह अनिश्चित था। जिस दिन काम नही मिलता था, उस दिन मजदूरों को भूखा रहने या आधा खाना को जोखिम उठानी पड़ती थी। जिन कारखानों में अपेक्षाकृत अच्छी मजदूरी दी जाती थी वहां भी कर्मियों की औसत या वास्तविक आय बहुत कम होती थी। कारखानों में काम करने वाले लोग संगठित नहीं थे। वे व्यक्तिगत तौर पर ही मालिक से बात करते थे। मालिक भी कारखाने का सामान खरीदने और इंतजाम करने के फेर में रहता था। कभी-कभी उसे कर्ज भी लेना पड़ता था। ऐसी अवस्था में वह मजदूरों की भलाई की तरफ कम और अपने मुनाफे की ओर अधिक ध्यान रखता था।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नए उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की अवस्था गुलामों से थोड़ी सी अच्छी थी। उन्हें मालिकों की मर्जी पर आश्रित रहना पड़ता था तथा हर तरह के भौतिक एवं मानसिक कष्ट सहने पड़ते थे। काम करने की लंबी अवधि, कम मजदूरी तथा अमानवीय आवासीय व्यवस्था भी मजदूरों की दुरावस्था के लिए जिम्मेवार थी। लेकिन, दूसरे वर्ग के इतिहासकारों का मानना है कि ये सारी बातें संसदीय आयोगों की रिपोर्ट के आधार पर बताई गई है। इन आयोगों में समाज-सुधारकों की प्रमुखता होती थी जो स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर कहते थे। लेकिन, सही बात यह है कि इंगलैंड में आरंभिक दिनों में मजदूरों की स्थिति सचमुच दयनीय थी और उनका मानसिक तथा शारीरिक शोषण होता रहता था, जिसका विरोध करने के लिए भी उनकी जुबान नहीं थी। ग्रामीण मजदूरों की तुलना में इनका जीवन कष्टकर था; क्योंकि ग्रामीण मजदूरों को कम अवधि में काम करना पड़ता था, स्वास्थ्यकर भोजन प्राप्त हो जाता था और रहने के लिए स्वास्थ्यकर आवास भी थे। औद्योगिक मजदूरों को कठिन काम करने के बाद भी मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मजदूरों की स्थिति में औद्योगिक क्रांति से पूर्व और बाद की स्थिति में अंतर था। श्रमिकों को दिनचर्या बहुत नीरस हो गई थी। पहले श्रमिकों के पास कुछ जमीनें हुआ करती थीं जिससे उन्हें अतिरिक्त आय होती थी। लेकिन अब यह संभव नहीं था। इस समाज में मालिक और नौकर का संबंध दूसरी ही तरह का था जिसमें दोनों के एक-दूसरे के प्रति कुछ कर्तव्य थे। परंतु, उद्योगीकरण के पश्चात् पूंजी, औजार, वितरण का अधिकार जोखिम एवं लाभ पूंजीपति के होते थे। उनका आपसी संबंध केवल मजदूरी देने और लेने तक सीमित था। शहरों को नैतिकता भिन्न थी। यहां आवासीय कठिनाइयां कई तरह की अड़चनें डालती थीं। राष्ट्रीय स्तर पर उद्योगीकरण के प्रथम चरण में राष्ट्रीय आय का बड़ा हिस्सा सामान्य उपयोग की वस्तुओं में न लगाकर निवेश में लगाया जा रहा था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक विचारधारा पैदा हुई कि अधिक वेतन देकर देश में ही बाजार का प्रसार किया जाए जिससे आर्थिक विकास भी हो तथा जनता का जीवन-स्तर भी बढ़े। 1788-1850 की अवधि में वास्तविक मजदूरी बढ़ी या नहीं, इस विषय पर विद्वानों में काफी मतभेद है, परंतु लोग मानते हैं कि 1850 ई० के बाद इसमें वृद्धि हुई।

यह सत्य है कि आरंभिक वर्षों में मजदूरों की स्थिति बिगड़ी, लेकिन बाद में उनका संगठन बढ़ा और समाज-सुधारकों ने भी उनके लिए आवाज उठाई। इनमें कुछ प्रयत्न तो श्रमिकों ने स्वयं किया, कुछ मानवतावादी सुधारकों ने किया तथा कुछ सरकार पर डाले गए दबावों के कारण मजदूरों की स्थिति में सुधार संभव हुआ।

उद्योगीकरण का यह मानवीय पक्ष सुधारकों तथा मानवतावादियों की आत्मा को ही नहीं झकझोरता रहा, वरन् कई उद्योगपतियों को भी सुधार के लिए प्रेरित किया। जब उत्तर को सूती मिलों में छह-सात वर्ष के बच्चों से सप्ताह में छह दिन तथा प्रत्येक दिन बारह-चौदह घंटे काम कराए जाने की बात प्रकाश में आई तो अनेक लोगों को एक भारी आघात लगा। इसी के परिणामस्वरूप 1802 ई० में कारखानों में बच्चों को काम पर लगाने पर रोक लगा दी गई, लेकिन इस कानून को लागू करने में दिलाई रही। इसी कारण 1833 ई० तक एक प्रभावी फैक्टरी ऐक्ट’ पारित किया गया। इसके अनुसार सूती मिलों में नौ वर्ष से कम उम्र के बच्चों को नियुक्त करना वर्जित कर दिया गया तथा नौ से बारह वर्ष तक की आयु के बच्चों से सप्ताह में चालीस घंटे से अधिक काम नहीं कराने का प्रावधान किया गया।

पूंजीपतिवर्ग का जन्म और उसका सिद्धान्त-

औद्योगिक क्रांति ने पुराने सामाजिक ढांचे में आमूल परिवर्तन किया। पहले के साधारण व्यापारी अब पूंजीपति बन गए और पहले के स्वतंत्र किसान और शिल्पी आजकल के परतंत्र सर्वहारा बन गए। ये दोनों वर्ग ऐसे थे जिनके बीच न तो कोई सामाजिक संबंध था और न सहानुभूति थी। प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीतिज्ञ डिजरैली ने बताया है कि साधनसंपन्न पूंजीपति अपना धन बढ़ाते चले गए, जबकि गरीबों का जीवन और दुखमय होता चला गया। ऐसी अवस्था में पूंजीपतियों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपना आदर्श स्थापित किया, जबकि सर्वहारा वर्ग ने अपने वर्ग के हित की रक्षा के लिए अपना संगठन बनाया और अपने लिए व्यूह रचना की।

नए धनिकों ने एक नई नीति को प्रतिपादित किया, जिसे ‘स्वतंत्र व्यापार नीति (Laissez Fire) के नाम से जाना जाता है। स्वतंत्र रूप से अपनी अर्थ-नीति चलाने के कारण वे धनी हुए थे, अतएव उन्होनें इस विचार का प्रचार किया कि स्वतंत्रता के द्वारा धन की वृद्धि होती है। उनका कहना था कि सरकार को चाहिए कि वह उद्योग-धंधों पर कोई प्रतिबंध नही लगाए। यदि प्रत्येक व्यक्ति को इच्छानुसार मुनाफा कमाने के लिए छोड़ दिया जाएगा तो उससे उसका ही नहीं, बल्कि सारे समाज का कल्याण होगा। इस सिद्धान्त के तहत सरकार का मजदूरों का वेतन निश्चित करने का प्रयास पूंजीपतियों के स्वाभाविक अधिकार पर आघात था। उनका कहना था कि मजदूर मजदूरी के लिए जितना चाहे काम कर सकता है। सरकार का कार्य पुलिस का है। उसे केवल शांति बनाए रखनी चाहिए और संपत्ति की रक्षा करनी चाहिए। सरकार को उद्योग-धंधों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। इंगलैंड की सरकार आरंभिक दिनों में मजदूरों की सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीन भी रही।

जब कुछ मानववादियों ने मजदूरों की दुरावस्था सुधारने की कोशिश की तो माल्थस जैसे पूंजीपति अर्थशास्त्री ने बताया कि मजदूर वर्ग के लोग इसलिए गरीब नहीं है कि पूंजीपति अधिक मुनाफा कमाते हैं, बल्कि इसलिए कि प्राकृतिक नियम के अनुसार जितने जीविका का साधन बढ़ते हैं उससे अधिक जनसंख्या बढ़ती है। अवएव, मजदूरों के सिर ही दोष यह कहकर मढ़ा गया कि वे अधिक संतान पैदा कर अपनी स्वयं को परेशानी बढ़ाते हैं।

इंगलैंड के पूंजीपति अपने देश में सरकारी हस्तक्षेप को तो नहीं ही चाहते थे, वे विदेशी सरकारों से भी इसकी अपेक्षा करते थे। लेकिन जिन देशों में उद्योग-धंधे शैशवावस्था में थे, वे इसका विरोध करते थे। जर्मनी के अर्थशास्त्री फ्रेडरिक लिस्ट ने एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार बाहर से आने वाले मालु पर खूब चुंगी लगाई जाए ताकि वह घर के माल की प्रतियोगिता न कर सके । जर्मनी और अमेरिका ने इस आर्थिक नीति का अवलंबन कर अपने उद्योग-धंधों को इंगलैंड के औद्योगिक क्रांति से उत्पादित माल की प्रतियोगिता से बचाया।

काफी धन कमाने बाद पूंजीपतियों की लालसा राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में करने की थी। इस लालसा ने इंगलैंड में जनतांत्रिक आंदोलन शुरू कराया, जबकि जर्मनी और इटली जैसे देशों में राष्ट्रीय एकता के लिए आंदोलन चलवाया। इंगलैंड के उद्योगपति राज-शासन पर प्रभाव बढ़ाकर अपने उद्योग को बढ़ाना चाहते थे। अभी भी इंगलैंड में बहुत से ऐसे पूंजीपति थे जिनको मताधिकार प्राप्त नहीं था। औद्योगिक क्रांति के कारण बहुत शहर बने थे, परंतु उनका पार्लियामेंट में प्रतिनिधित्व नहीं था। अतएव 1830 ई० के सुधार आंदोलन में पूंजीपतियों ने प्रमुख भाग लिया और 1832 ई० के अनुसार कानून के अनुसार पूरी राजसत्ता उनके हाथ में आई। उनको इससे संतोष हो गया। वे नहीं चाहते थे कि वोट देने का हक प्रत्येक शहरी मजदूर और देहाती किसान को मिले। पूंजीपतियों के जनतंत्र का स्वरूप सीमित था और उन्हीं की सुख-सुविधा तक सीमित था।

सर्वहारा वर्ग के आदर्श-

औद्योगिक क्रांति ने यदि एक ओर पूंजीपतियों को जन्म दिया तो दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग को भी जन्म दिया। इंगलैंड जैसे औद्योगिक देश में मजदूरों की संख्या सबसे अधिक थी। बहुसंख्यक होने पर भी उनकी अवस्था दयनीय थी। मजदूर माल तैयार करते थे और मालिक उससे मुनाफा कमाने के लिए उन्हें मात्र जीने भर के लिए मजदूरी देते थे। ऐसी अवस्था में मजदूरों की स्थिति दयनीय होती चली गई।

मशीन के आने से प्रेलू उद्योग-धंधे समाप्त हो गए। मामीण इलाकों से लोग आकर कारखानों में काम करने लगे, लेकिन यहां कभी-कभी बेकारी की समस्या भी झेलनी पड़ती थी। इसलिए मजदूरों ने मशीनों को ही अपना असली शत्रु समझा, जिसके कारण उन्होने बड़े पैमाने पर मशीनों को तोड़ना शुरू किया। पूंजीपतियों ने सरकार पर दबाव डलवाकर 1812 ई० में एक कानून बनवाया जिसके अनुसार मशीन तोड़ने वाले को मृत्युदण्ड भुगतना पड़ता।

लेकिन, बाद में मजदूरों ने महसूस किया कि मशीनों को तोड़ने से उनकी स्थिति नहीं सुधर सकती। उनको विश्वास हुआ कि मालिकों के सक्रिय सहानुभूति से भी उन्हें फायदा हो सकता है। इस आशा में कुछ मजदूरों ने अपने मालिकों के यहां अपनी स्थिति सुधारने के लिए निवेदन किया। उन्होंने देखा कि इससे भी कोई फायदा नहीं हो रहा है तो उन्होंने पार्लियामेंट के नाम सैकड़ों दरख्वास्तें दी जिसके परिणामस्वरूप पार्लियामेंट ने मजदूरों की दुरावस्था को सुधारने के लिए कई कानून पास किए।

फैक्टरी कानून तो कई बने, लेकिन उन कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी उसी वर्ग के दंडाधिकारियों पर थी जिस वर्ग के पूंजीपति थे। अतः उन कानूनों को मुस्तैदी से लागू नहीं किया जाता था। वे मालिकों का पक्ष लेते थे और मजदूरों से नफरत करते थे। ऐसी अवस्था में मजदूरों ने राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने को सोचो ताकि वे अपनी अवस्था राजनीतिक दबाव में ठीक करा सकें। अभी तक मजदूरों को मताधिकार नहीं प्राप्त था। उन्होंने अब मताधिकार के लिए आंदोलन चलाया। इंगलैंड में मजदूरों ने चार्टिस्ट आंदोलन को समर्थन दिया। इस आंदोलन की मांगें थीं- (1) प्रत्येक पुरुष को मताधिकार मिले, (2) कॉमंस-सभा के सदस्यों को पारिश्रमिक मिले, (3) उम्मीदवारों के लिए संपत्ति रखने की पाबंदी आवश्यक नहीं हो और (4) बैलट (ballot) के द्वारा गुप्त रूप से वोट दिया जाए जिससे किसी प्रकार का किसी पर दबाव नहीं पड़े। चार्टिस्ट आंदोलन बहुत दिनों तक नहीं चल सका, लेकिन चार्टिस्टों की मांगें 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही मान ली गई।

परंतु, मजदूरों ने महसूस किया कि मात्र मताधिकार मिलने से उनकी दशा में सुधार नहीं हो सकता है। अपने हितों की रक्षा के लिए मजदूरों ने परिश्रमपूर्वक अपने संगठन कायम किए। उन्होंने देखा कि सारे मेहनतकश वर्ग का समान स्वार्थ है, अतएव उन्हें अपना मजबूत देशव्यापी संगठन तैयार करना चाहिए। औद्योगिक क्रांति के कारण शहरों में एक जगह मजदूरों के केंद्रित होने तथा आवागमन की सुविधा मिलने से मजदूरों का देशव्यापी संगठन संभव हो सका। मजदूरों को संगठित नहीं होने देने के उद्देश्य से पूंजीपतियों ने कई कानून पास करवाए, लेकिन 1822 ई० में सारे कानून रद्द कर दिए गए और मजदूरों को आंदोलन करने का हक मिला।

समाजवादी विचारधारा का आगमन-

मजदूरों की दुरावस्था को सुधारने के लिए कुछ सुधारकों ने एक नवीन विचारधारा का प्रतिपादन किया, जिसे समाजवादी विचारधारा कहुते हैं। कुछ विचारकों ने देखा कि जब तक पूंजीवादी व्यवस्था का अंत नहीं होता है और उत्पादन के साधनों पर सारे समाज का अधिकार नहीं होता तब तक दरिद्रता का निराकरण असंभव है। जहां पूंजीवादी व्यक्तिवाद के सिद्धांत पर जोर देते थे, वहीं मजदूरों के समर्थक समाजवाद के सिद्धांत पर जोर देने लगे। कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों की स्थापना की। कार्ल मार्क्स का उद्य यूरोप में तब हुआ जब पूरा यूरोप औद्योगिक क्रांति की बुराइयों से त्रस्त था। मजदूरों की कष्टमय अवस्था का ठीक-ठीक विश्लेषण करने तथा उसका अंत करने के विचार से उसने इतिहास, दर्शन और अर्थशास्त्र का गहरा अध्ययन किया। उसने बताया कि मजदूरों के हिस्से को बचाकर ही पूंजीपति धनी होता है। अतएव, मजदूरों को संगठित होकर उत्पादन के साधनों पर अपना अधिकार कायम करना चाहिए और पुरानी सरकार की जगह नए ढंग की सरकार कायम करनी चाहिए। मार्क्स ने 1847 ई. के ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ में आह्वान किया, “दुनिया के मजदूरों, एक हो। तुम्हें अपनी हथकड़ियों को छोड़कर और कुछ नहीं खोना है।” कार्ल मार्क्स ने बताया कि आंतरिक कमजोरियों के कारण पूंजीवाद का पतन अवश्यंभावी है। अतएव, मजदूरों को संगठित होकर अपनी सरकारी मशीनरी कायम करनी चाहिए और फिर सारे उत्पादन के साधनों पर अधिकार करना चाहिए। कार्ल मार्क्स ने सामाजिक क्रांति का कार्यक्रम उपस्थित कर मजदूरों को संगठित होकर आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया जाय।

राज्य की शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि-

औद्योगिक क्रांति के कारण युद्ध के सामान भी बड़े पैमाने पर उत्पादित होने लगें। युद्ध के माहौल में सरकार को मनमानी करके अपनी शक्ति बढ़ाने में सफलता मिलती है और ऐसे समय व्यक्ति के अधिकारों को स्थगित कर दिया जाता है। इतना ही नहीं अत्याधुनिक हथियारों के बनने से और राज्य की आमदनी बढ़ने तथा स्थायी सेना और बड़ी पुलिस व्यवस्था रखने से राज्य काफी शक्तिशाली हो गया है। 1848 ई० की क्रांति के पहले अवाम विद्रोह कर शासन पलटने में सफल हो जाती थी, क्योंकि राज्य के पास न अधिक सेना और न पुलिस थी तथा न अच्छे हथियार थे। लेकिन, 1848 ई० की क्रांति के बाद हम पाते हैं कि विभिन्न देशों की सरकारों ने पुलिस और सेना के मदद से जन-आंदोलन को कुचल दिया। राज्य की शक्ति में इस वृद्धि के कारण अब किसी आंदोलन का सफल होना असंभव हो गया है, जब तक कि संबद्ध देश की सेना उस आंदोलन का साथ न दे। 1917 ई० की रूसी क्रांति और 1940 ई० में चीन में सत्ता परिवर्तन सेना की मदद से ही संभव हो सका। 1989 ई० का चीन छात्र आंदोलन इसलिए सफल न हो सका, क्योंकि सेना ने राज्य का साथ दिया था। पाकिस्तान और कुछ अफ्रीकी देशों में बार-बार सत्ता-परिवर्तन सेना की प्रत्यक्ष या परोक्ष मदद से ही संभव हो पाता है।

जनमत तैयार करने के साधनों में वृद्धि-

औद्योगिक क्रांति के कारण बाद में लोगों का जीवन स्तर उठा और लोगों की व्यक्तिगत आय बढ़ी। इसके साथ ही छापाखानों की मौजूदगी और अन्य साधनों के कारण अखबार आसानी से सस्ते दामों पर उपलब्ध होने लगे। रेडियो और सिनेमा के द्वारा भी जनमत तैयार किया जाने लगा। अब लोगों ने महसूस किया कि जनमत तैयार कर सत्ता परिवर्तन किया जा सकता है और इस कार्य में औद्योगिक क्रांति ने कई तरीकों से हाथ बंटाया।

औद्योगिक जीवन तथा बैंकिंग व्यवस्था-

औद्योगिक जीवन में कारखाने स्थापित करने के लिए, कच्चे माल खरीदने के लिए तथा मजदूरों को देने के लिए धन की आवश्यकता थी। इतनी बड़ी राशि की व्यवस्था व्यक्तिगत तौर पर उधार लेकर नहीं की जा सकती थी। ऐसी अवस्था में इंगलैंड में बैंकिंग व्यवस्था में सुधार हुआ। व्यापारियों ने बैंकों के महत्व को समझा और दूर-दराज के इलाकों में भी बैंक खाते खोले गए, ताकि उद्योगपतियों और व्यापारियों को आसानी से पूंजी उपलब्ध कराई जा सके। मुद्रा में भी कितने सुधार लाए गए। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैसे-जैसे इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति अपने चरण बढ़ाती गई, वैसे-वैसे नए पनपते हुए उद्योगों एवं व्यापार के नए क्षेत्रों तक पूंजी पहुंचाने के लिए इंगलैंड की बैंकिंग-प्रणाली भी विकसित होती गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि इंगलैंड की बैंकिंग व्यवस्था यह महान् पूंजी जुटाने का कार्य नहीं करती तो संभवतः औद्योगिक क्रांति सफल न हो पाती।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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