अर्थशास्त्र / Economics

भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति | परिवार नियोजन कार्यक्रम और पंचवर्षीय योजनाएं | परिवार नियोजन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपनाए गए उपाय | आपातकाल के दौरान जनसंख्या नीति

भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति | परिवार नियोजन कार्यक्रम और पंचवर्षीय योजनाएं | परिवार नियोजन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपनाए गए उपाय | आपातकाल के दौरान जनसंख्या नीति

जनसंख्या सम्बन्धी नीति (भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति)

(Population Policy)-

भारत में जिस दर से जनसंख्या बढ़ रही है वह आर्थिक विकास में निश्चय ही बाधक है। भारत में इस समय ‘जनसंख्या विस्फोट’ की स्थिति है। इस पर नियन्त्रण पाने के लिए स्पष्ट नीति की आवश्यकता है। जेकब वाइनर (Jacob Viner) का मत है कि “यह बहुत हतोत्साहित होने वाली बात है कि अति जनसंख्या की समस्या के हल के लिए कोई विश्वसनीय उपाय नहीं है। अनेक समाजशास्त्रियों की जन्म नियन्त्रणे में आस्था है और वे केवल इसे ही जनसंख्या की समस्या को हल करने के लिए एक कारगर उपाय मानते हैं। परन्तु यह उपाय उसी अवस्था में सफल होता है जब जनसाधारण की आय का स्तर बहुत ऊँचा हो और शिक्षा का व्यापक प्रसार हो।” भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। भारत में परिवार नियोजन को सफल बनाना आसान नहीं है। एस० चन्द्रशेखर (S. Chandrashekhar) के शब्दों में, “परिवार नियोजन के पक्ष में तर्क देना आसान है लेकिन उसे सफल बनाना कठिन है। अर्थव्यवस्था जितनी पिछड़ी होगी, जन्म निरोध की आवश्यकता उतनी ही अधिक होगी।”

भारत में परिवार नियोजन को सरकारी नीति का अंग माना गया है। निश्चय ही जनसंख्या की समस्या का हल सन्तति निरोध के उपकरणों का उत्पादन बढ़ाकर नहीं हो सकता। इसके लिए लोगों में चेतना की आवश्यकता है। धर्म के आधार पर भारत में परिवार नियोजन का विरोध नहीं है। इसलिए शिक्षा का प्रसार और अनुकूल आर्थिक दशाओं को उत्पन्न कर परिवार नियोजन के लिए अनुकूल वातावरण को तैयार किया जा सकता है। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि में सरकार द्वारा परिवार नियोजन के प्रति जनसाधारण की प्रतिक्रिया जानने के लिए कुछ अध्ययन किये गये थे, जिनसे मालूम हुआ कि भारत में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यद्यपि इसका व्यापक स्तर पर विरोध नहीं है फिर भी अभी आम लोग परिवार को सीमित करने के लिए अधिक प्रेरित नहीं हैं। शहरों में अब भी सामान्यतः तीन बच्चों का होना और ग्रामीण क्षेत्रों में चार बच्चों का होना ठीक समझा जाता है। बच्चों के जन्म के बीच में तीन या चार वर्षों का अन्तर उचित माना जाता है। चार से अधिक बच्चों की माताएं और 35 से अधिक आयु वाली स्त्रियाँ परिवार नियोजन में अधिक रुचि लेती हैं। गांवों में भी यद्यपि परिवार के वृद्ध सदस्य परिवार नियोजन का विरोध नहीं करते, उधर संकोच के कारण युवा दम्पत्ति खुलकर इसमें रुचि नहीं दिखाते। परिवार नियोजन को सबसे अधिक सफलता शिक्षित और सम्पन्न वर्गों में मिलती है। मजदूर तथा किसान वर्ग के लोग कृत्रिम निरोधों को मुफ्त प्राप्त करना चाहते हैं। शहरों में आवास की समस्या सन्तति निरोध के प्रेरकों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। विश्व बैंक के अनुमान से अब भारत में पुनरुत्पादनीय आयु के 35 प्रतिशत दम्पत्तियों तक परिवार नियोजन कार्यक्रम पहुंच गया है।

भारत में जनसंख्या नीति

जनसंख्या वृद्धि की अधिकता का निर्णय इस तथ्य से किया जा सकता है कि इसमें 1091-2001 में लगभग 18.3 करोड़ की वृद्धि हुई। 2001 में भारत की जनसंख्या लगभग 102.7 करोड़ हो गई। जनसंख्या वृद्धि की चिन्तनीय दर को देखते हुए यह आवश्यक है कि जनसंख्या वृद्धि की दर को कम करने के लिए ठोस जनसंख्या-नीति अपनाई जाए।

परिवार नियोजन कार्यक्रम और पंचवर्षीय योजनाएं

भारत पहला देश था जिसने 1952 में परिवार नियोजन कार्यक्रम को औपचारिक रूप में स्वीकार किया, परन्तु जनसंख्या वृद्धि पर गंभीर चिन्तन तीसरी योजना में आरंभ हुआ और जनसंख्या वृद्धि की दर को उचित समय-अवधि के अन्दर सीमित करने का निर्णय किया गया। इसके पश्चात् विभिन्न नीति सम्बन्धी प्रलेखों में लक्ष्य निर्धारित किए गए। तालिका में निश्चित लक्ष्य और वास्तविक उपलब्धि का सारांश दिया गया है।

तालिका : जनसंख्या सम्बन्धी लक्ष्य और वास्तविक उपलब्धि

वर्ष रूक्ष जन्मदर का निश्चित लक्ष्य लक्ष्य प्राप्त करने का निर्धारित वर्ष वास्तविक  उपलब्धि
1962

1968

1968

1974

अप्रैल 1976

अप्रैल 1977

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति

(1983)

सातवीं योजना

आठवीं योजना

25

23

23

30

30

25

30

25

31

27

29.1

26.0

1973

1978-79

1978-79

1979

1978-79

1983-84

1983-84

1983-84

1985

1990

1990

1997

34.6

33.3

33.3

33.7

33.3

33.7

33.7

33.7

32.9

29.9

29.9

27.4

स्रोत : योजना आयोग, आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97)

1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति की घोषणा में सन् 2000 तक रूक्ष जन्मदर को 21, मृत्यु दर को 9 और शुद्ध प्रजननदर (Net Reproduction Rate) को 1 तक लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। इसके साथ-साथ शिशु मृत्यु दर को 60 प्रति हजार से कम करने और परिवार नियोजन उपायों का प्रयोग करने वाली दम्पत्तियों का अनुपात 60 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य माना गया। किन्तु हाल ही में की गयी समीक्षा से संकेत मिला कि यह लक्ष्य 2006-11 की अवधि में पूरा हो सकेगा। केवल आठवीं योजना के दौरान 1997 तक रूक्ष जन्मदर को 26 प्रति हजार तक लाने का लक्ष्य लगभग प्राप्त कर लिया गया।

परिवार नियोजन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए गए।

(i) परिवार नियोजन सम्बन्धी जानकारी बढ़ाने के लिए प्रेरणा प्रोग्राम (Motivation Programme)- परिवार नियोजन का संदेश प्रत्येक नगर तथा गांव में फैलाने के लिए जन प्रचार के सभी माध्यमों अर्थात् समाचार-पत्रों, रेडियो, टी०वी०, फिल्मों आदि का विस्तृत रूप में प्रयोग किया गया ताकि परिवार परिसीमन (Family limitation) सम्बन्धी चेतना जगाई जा सके। (ii) ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या के सभी वर्गों को गर्भनिरोधकों का संभरण बढ़ाना। (iii) वन्ध्याकरण या नसबन्दी (Sterilisation) करवाने वाले व्यक्तियों का नकद इनामों के रूप में वित्तीय प्रोत्साहन देना। (iv) पुरुषों एवं स्त्रियों पर वन्ध्यकरण या नसबन्दी का विस्तृत प्रयोग।

भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम में किसी एक उपाय का ही आश्रय नहीं लिया गया बल्कि कैफेटेरिया प्रणाली (Cafeteria system) अपनाई गई जिसके अधीन गर्भनिरोधक के विज्ञान द्वारा स्वीकृत सभी उपायों का प्रयोग किया गया। इनमें मुख्य उपाय थे, वन्थ्यकरण या नसबन्दी, यू0सी0डी0, झिल्ली, मौखिक गोली आदि। इन उपायों के अतिरिक्त कुछ हद तक सरकार शिक्षा और आर्थिक विकास द्वारा जनसंख्या की वृद्धि को सीमित करने के विश्वास रखती थी। जनता के शिक्षा स्तर को ऊंचा करने से जन्म-दर को कम करने हेतु प्रभाव पड़ता है। ऐसा विशेष रूप में स्त्री-जनसंख्या के शिक्षित होने पर होता है। “भारत में किए गए अध्ययनों से इस तथ्य का समर्थन हुआ है कि जनन-दर (Fertility rate) का शिक्षा और आर्थिक विकास से सम्बन्ध है। छोटा परिवार रखने और गर्भनिरोधकों को सफलतापूर्वक अपनाने की प्रेरणा उन वर्गों में सबसे अधिक बलवती है जो शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं।”

आपातकाल के दौरान जनसंख्या नीति

16 अप्रैल, 1976 को सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की। इस नीति का आधार यह था कि जनसंख्या विस्फोट (Population explosion) एक गम्भीर संकट का रूप धारण कर गया है और जनसंख्या को सीमित करना हमारी सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय समस्या है। इस समस्या के समाधान के लिए सीधा प्रहार करना होगा। इस जनसंख्या नीति के मुख्य लक्षण थे।

(i) सरकार के विवाह की न्यूनतम आयु लड़कियों के लिए 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष करने का विधान बनाया।

(ii) चूंकि गरीब वर्गों द्वारा परिवार नियोजन की स्वीकार्यता का मौद्रिक क्षतिपूर्ति (Monetary Compensation) से महत्वपूर्ण सम्बन्ध है, इस जनसंख्या नीति में मई, 1976 से मौद्रिक क्षतिपूर्ति बढ़ा दी गयी।

(iii) जबरन नसबन्दी (Compulsory sterlisation) के प्रश्न पर सरकार का मत था कि वह देशभर के लिए केन्द्रीय अधिनियम द्वारा जबरन नसबन्दी लागू करने का इरादा नहीं रखती किन्तु यदि कोई राज्य सरकार (State Government) यह निर्णय करे कि इसके लिए उपयुक्त समय आ गया है तो वह ऐसा कर सकती है।

राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा के फौरन बाद, सरकार ने देश में आपातकालीन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए जबरन नसबन्दी का महाभियान चलाया। 1976-77 के दौरान, 43 लाख नसबन्दियों के लक्ष्य के विरुद्ध 82 लाख नसबन्दियों की गयीं। जबरन नसबन्दी के प्रोग्राम में यह तेजी एक ओर तो जबरी उपायों और दूसरी ओर प्रोत्साहन की सहायता से लायी गयी। आम जनता ने यह महसूस किया कि प्रशासन का बल जबरन नसबन्दी लागू करने के लिए इस्तेमाल किया गया। चूंकि प्रशासन को लक्ष्य-प्रेरित पद्धति पर कार्य करना पड़ता है, इस कारण प्रशासन द्वारा अपनी शक्ति का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया और बड़े पैमाने पर “नसबन्दी शिविरों” (Vasectomy camps) पर लोगों को जबरदस्ती घेर कर लाया गया।

आपातकाल के पश्चात् जनसंख्या नीति

1977 के आम चुनाव में जबरन नसबन्दी एक मुख्य मुद्दा बन गया। लोगों ने परिवार नियोजन कार्यक्रम में जबरदस्ती और बल-प्रयोग के विरुद्ध अपना रोष व्यक्त किया। इसके फलस्वरूप श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार की भारी पराजय हुई।

जनता सरकार, जिसने मार्च 1977 में प्रशासन की बागडोर संभाली, ने जनसंख्या की समस्या की गंभीरता को बिल्कुल अनुभव न किया और इस कारण परिवार नियोजन कार्यक्रम को भारी धक्का लगा। परिणामतः 1977-78 में गत वर्ष की 82 लाख नसबन्धियों के विरुद्ध केवल 6.4 लाख नसबन्धियां की गयीं। जनता सरकार द्वारा जुलाई 1977 में घोषित जनसंख्या- नीति में जनसंख्या की समस्या का समाधान करने के लिए स्वैच्छिक नियंत्रणों के प्रयोग पर बल दिया गया। साथ ही इस बात पर जोर दिया गया कि परिवार नियोजन सेवाओं का समन्वय स्वास्थ्य, प्रसूति तथा शिशु कल्याण और पोषाहार के साथ करना चाहिए। नौकरशाही ने भी परिवार नियोजन कार्यक्रम के कार्यान्वयन में ढील दिखाई। यह बात दो तथ्यों से व्यक्त हुई : पहला, नसबन्दी अभियान की गति में कुछ ढील आनी तो अनिवार्य भी थी परन्तु जितना अधिक धक्का इस प्रोग्राम को आपातकाल के बाद लगा, वह न्यायोचित नहीं माना जा सकता।

छठी योजना (1980-85) के अधीन परिवार नियोजन

छठी योजना में परिवार कल्याण प्रोग्राम की समीक्षा से पता चलता है कि वन्ध्याकरण के 240 लाख के लक्ष्य के विरुद्ध वास्तविक रूप में केवल 170 लाख वन्ध्याकरण किए गए। लूप लगाने के 79 लाख लक्ष्य के विरुद्ध केवल 70 लाख लूप लगाए गए। निरोध का प्रयोग करने वालों के 110 लाख व्यक्तियों के लक्ष्य के विरुद्ध केवल 93 लाख व्यक्तियों को 1984-85 तक प्रेरित किया गया।

सातवीं योजना और परिवार कल्याण प्रोग्राम

छठी योजना के लक्ष्यों की पूर्ति न होने की पृष्ठभूमि में सरकार ने इस स्थिति की एक वास्तविक समीक्षा करते हुए अपनी स्वास्थ्य नीति को संशोधित किया ताकि सन् 2000 तक शुद्ध प्रजनन दर (Net reproduction rate) को 1 तक लाने की बजाए सन् 2006 से 2011 की अवधि के बीच यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। सातवीं योजना में सन् 2000 तक जनसंख्या की वृद्धि-दर को 1.2 प्रतिशत तक लाने के लिए जन्म-दर को घटाकर 21 प्रतिशत और शिशु मृत्यु-दर को घटा ककर 60 प्रति हजार करने का लक्ष्य रखा गया। परिवार परिसीमन के लिए दम्पत्ति सुरक्षा-दर को बढ़ाकर सन् 2000 तक 60 प्रतिशत करने का निश्चय किया गया।

परिवार नियोजन और माता एवं बाल स्वास्थ्य विधि समय के साथ सरकार ने यह महसूस किया है कि देश में परिवार नियोजन तभी सफल हो सकता है यदि बाल जीवित-शेष दर (Child survival rate) बढ़ाई जा सके। सातवीं योजना में साफ तौर पर उल्लेख किया गया: “उच्च जन्म-दर और उच्च शिशु-मृत्यु दर के बीच निकट सम्बन्धको मानते हुए, जच्चा- बच्चा स्वास्थ्य कार्यक्रम (Maternity Health Programme) को उच्च प्राथमिकता दी जाएगी।” योजना में फिर उल्लेख किया गया : “दो बच्चों” के मानक को प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है कि देश में शिशु जीवित-शेष दर बढ़ाई जाए। प्रति 1,000 पर 114 की शिशु मृत्यु दर निश्चित ही बहुत अधिक और अस्वीकार्य है। यहां भी भिन्न-भिन्न राज्यों में काफी अन्तर हैं- कुछ राज्यों जैसे केरल ने शिशु मृत्यु-दर कम करने में बढ़िया काम किया जबकि अन्य राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार काफी पीछे हैं। चूंकि आधे से अधिक बच्चों की मृत्यु नवजात अवस्था में हो जाती है, अतः जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य उपचर्या कार्यक्रमों को काफी मजबूत बनाना होगा।”

प्रमाण इस बात को सिद्ध करता है कि चीन में 1965-83 के दौरान शिशु मृत्यु-दर भारी मात्रा में घट कर 90 से 38 गयी और बाल मृत्यु दर में भारी एवं प्रशंसनीय उन्नति के परिणामस्वरूप परिवार नियोजन उपायों की स्वीकार्यता के प्रति अनुकूल वातावरण कायम हो गया। परिणामतः जन्म दर जो 1965 में 39 प्रति हजार थी, गिरकर 1983 में 19 प्रति हजार हो गयी। इस प्रकार चीन में जनसंख्या की वृद्धि-दर जो 1965-75 में 2.7 थी कम होकर 1978-83 के दौरान 1.5 हो गयी। सातवीं योजना द्वारा जच्चा-बच्चा प्रोग्राम पर अधिक बल देना अभिनन्दीय था।

सातवीं योजना का दूसरा मुख्य बल जच्चा मृत्यु-दर (Maternal mortality) को कम करना है। सातवीं योजना में यह स्वीकार किया गया : “देहाती इलाकों में आज भी दो-तिहाई से अधिक जच्चाओं की शुश्रूषा अप्रशिक्षित दाइयां करती हैं, अतः इसके लिए उनके प्रशिक्षण को बढ़ावा देने की जरूरत है।”

परिवार नियोजन कार्यक्रमों का क्षेत्र, इसका नया नाम संस्करण कर, परिवार कल्याण कार्यक्रमों के रूप में विस्तृत किया गया ताकि इसमें मातृ तथा बाल-स्वास्थ्य की समस्याओं की ओर ध्यान दिया जा सके। यह एक सही दिशा में कदम था। बच्चों की जीवित-शेष-दर में उन्नति तथा देश में जच्चा-बच्चा सेवाओं में सुधार से ग्राम-क्षेत्रों और विशेषकर निर्धनों में परिवार नियोजन की स्वीकार्यता बढ़ जायेगी।

आठवीं योजना में परिवार नियोजन की रणनीति

दिसम्बर 1991 में राष्ट्रीय विकास परिषद् के सम्मुख पेश किए गए योजना आयोग के प्रालेख “जनसंख्या नियंत्रण-चुनौतियां एवं रणनीतियां’ में उल्लेख किया गया : “जनसंख्या विस्फोट जो हमारे देश के समाजार्थिक विकास के सभी प्रयासों को निष्फल बनाता जा रहा है, यही हमारी सबसे महत्वपूर्ण एकमात्र समस्या है। 1991 की जनगणना से यह बात साफ हो गयी है कि जनसंख्या की वृद्धि-दर में नाममात्र कमी हुई है। 1971-91 के दशक के दौरान 2.2 प्रतिशत से 1971-91 के दशक के दौरान 2.2 प्रतिशत से 1981-91 के दशक में 2.11 प्रतिशत, किन्तु 2 प्रतिशत की वृद्धि दर अभीभी बहुत ऊंची है। यदि जनसंख्या की वृद्धि-दर वर्तमान स्तर पर बनी रहती है, तो इस शताब्दी के अन्त तक हमारी आबादी लगभग 100 करोड़ से बहुत ऊपर जाएगी और सन् 2040 तक यह दुगुनी होकर 170 करोड़ तक पहुंच जाएगी। इतनी बड़ी जनसंख्या का प्रबन्ध वस्तुतः असंभव हो जाएगा और भरसक प्रयास करने के बावजूद इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए जीवन की बुनियादी आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं करायी जा सकेंगी, अतः यह अनिवार्य हो जाता है कि जनसंख्या नियंत्रण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।”

परिवार कल्याण कार्यक्रमों की प्रगति की समीक्षा से पता चलता है कि सन् 2000 तक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति द्वारा निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने संभव हो सकेंगे। चाहे रूक्ष मृत्यु-दर को प्रति हजार तक कम करना और शिशु मृत्युदर को स्वास्थ्य सेवाओं और माता एवं बाल- स्वास्थ्य की देखभाल के कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप कम करके 60 प्रति हजार तक कम करना तो संभव हो सकेगा किन्तु जन्म दर में आवश्यक कमी करके इसे 21 प्रति हजार और परिणामतः जनसंख्या वृद्धिदर को 1.2 प्रतिशत तक कम करना व्यवहार्य प्रतीत नहीं होता।” यदि ये लक्ष्य सन् 2,010 तक भी प्राप्त करने हों, तो भी इसके लिए भारी प्रयास करना होगा जिसका आधार जनसंख्या नियंत्रण पर सम्पूर्ण दृष्टिकोण होना चाहिए जिसमें परिवार नियोजन उपायों के साथ- साथ समाजार्थिक उपाय भी करने होंगे।

अतः आठवीं योजना के अन्त तक रूक्ष जन्म-दर को कम करके 26 प्रति हजार और शिशु मृत्यु-दर को कम करके 70 प्रति हजार करने का लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है। यह एक सन्तोषजनक उपलब्धि है।

तालिका में दिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि चाहे परिवार नियोजन पर कुल व्यय जो छठी योजना (1980-85) के दौरान 1,448 करोड़ रुपये था बढ़कर आठवीं योजना (1992-97) में 6,792) करोड़ रुपये हो गया किन्तु कुल योजना व्यय के अनुपात के रूप में यह नाममात्र 1.3 प्रतिशत से बढ़ कर इस अवधि के दौरान 1.4 प्रतिशत तक पहुंच पाया। इससे यह बात रेखांकित होती है कि जनसंख्या विस्फोट को नियंत्रित करने की बात चाहे जनसंख्या नीति में तो उठायी गयी किन्तु आठवीं योजना के दौरान इसके लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान नहीं की गयी ताकि इसके विभिन्न अंगों को मजबूत बनाया जा सकता। जनसंख्या नीति के सम्बन्ध में सरकार की कथनी और करनी में यह भेद अत्यन्त निराशाजनक है।

नौवीं योजना के दौरान परिवार नियोजन

आठवीं योजना की प्रगति संतोषजनक इसके दौरान रूक्ष जन्मदर 1996 में 27.4 प्रति हजार हो गयी और शिशु मृत्युदर 1996 में 72 प्रति हजार हो गयी। इसके अतिरिक्त दम्पत्ति सुरक्षा दर मार्च 1997 तक 45.4 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गयी।

नौवीं योजना (1997-2000) ने जनसंख्या वृद्धि में योगदान के लिए तीन कारण तत्वों को उत्तरदायी माना है

  1. प्रजनन आयु वर्ग की जनसंख्या का आकार बहुत बड़ा है और इसका जनसंख्या की वृद्धि में योगदान 60 प्रतिशत आंका गया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहां 15-44 आयुवर्ग विवाहित स्त्रियों की संख्या 1961 मे 788 लाख थी, इस संख्या के 1,442 लाख हो जाने का अनुमान है।
  2. गर्भ निरोधकों की आवश्यकता की पूर्ति न हो सकने के परिणामस्वरूप, जनसंख्या की वृद्धि में 20 प्रतिशत योगदान का अनुमान लगाया गया।
  3. उच्च शिशु मृत्युदर के परिणामस्वरूप उच्च अनिच्छित प्रजनन-दर हो जाने से जनसंख्या में 20 प्रतिशत योगदान का अनुमान है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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