भारत में औद्योगिक रुग्णता की समस्या | औद्योगिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ | औद्योगिक रूग्णता के लिए उत्तरदायी घटक या कारण
भारत में औद्योगिक रुग्णता की समस्या | औद्योगिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ | औद्योगिक रूग्णता के लिए उत्तरदायी घटक या कारण | The problem of industrial sickness in India in Hindi | Major problems of industrial sector in Hindi | Factors or causes responsible for industrial sickness in Hindi
भारत में औद्योगिक रुग्णता की समस्या (औद्योगिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ)
औद्योगिक संकटग्रस्त (रूग्णता) से हमारा अर्थ औद्योगिक इकाई की उस दशा से है जबकि वह अपने मजदूरों को मजदूरी, ऋणों पर ब्याज, खरीदारी का भुगतान वैधानिक तत्वों जैसे उत्पादन शुल्क व बिक्री कर को चुकाने में कर्मचारी भविष्य निधि में अंशदान तथा अपने उत्पादन को निर्धारित कीमत पर बेचने में असमर्थ या अयोग्य होती है।
औद्योगिक रूग्णता (संकटग्रस्तता) की समस्या
भारत में औद्योगिक क्षेत्र की समस्याओं में एक प्रमुख समस्या औद्योगिक रूग्णता की समस्या। विगत वर्षों में यह समस्या उत्तरोत्तर विकराल रूप धारण करती जा रही है, जिसका खामियाजा सम्पूर्ण समाज को अनेक रूपों में वहन करना पड़ रहा है। रूग्ण औद्योगिक इकाइयों के निरन्तर वित्तीय प्रवाह से बैंकिंग संसाधनों के दुरूपयोग के साथ-साथ सरकार के व्यय में भी निरन्तर वृद्धि होती है। विगत महीनों में अन्तरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने भी सरकार से इस प्रकार के व्यय समाप्त करने की अपेक्षा की है।
औद्योगिक रूग्णता से आशय-
औद्योगिक रूग्णता से आशय उस अवस्था से है, जिसमें औद्योगिक इकाइयों का घाटा निरन्तर बढ़ता जाता है और वे आर्थिक दृष्टि से गैर-जीवन योग्य बन जाती है। रूग्ण औद्योगिक इकाइयों में श्रम-शक्ति व्यर्थ होती है तथा विनियोग पूंजी गैर- उत्पादक परिसम्पत्तियों में परिवर्तित होने लगती है।
कोई भी औद्योगिक इकाई रूग्ण इकाई मानी जाती है यदि उसे गत वर्ष में रोकड़ हानि हुई है तथा बैंक वित्तीय संस्थाओं के विचार से उसे चालू वर्ष में तथा भावी वर्षों में भी रोकड़ हानि होने की सम्भावना है।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार कोई भी कम्पनी, जिसका शुद्ध धन मूलधन मूल्य का आधा रह गया हो तथा जिसे निरन्तर विगत दो वर्षों से शुद्ध हानि हुई हो और चालू वर्ष में भी हानि होना सुनिश्चित सा हो, रूग्ण इकाई कहलाती है। ऐसी इकाइयों का वित्तीय ढाँचा बिगड़ चुका होता है, जिसके फलस्वरूप वे अपने दायित्वों अथवा ऋणों का समयानुसार भुगतान करने में कठिनाई का अनुभव करती हैं। इन इकाइयों द्वारा निकट भविष्य में भी उत्पादन की दृष्टि से सम-विच्छेद बिन्दु (Break-Even Point) तक पहुँच पाना असम्भव प्रतीत होता है और धीरे- धीरे इनकी समता अंश पूँजी में ह्रास होने लगता है।
भारत में औद्योगिक रूग्णता का आकार-
भारत में औद्योगिक रूग्णता एक चिन्ता का विषय है, क्योंकि विगत वर्षों में औद्योगिक रूग्णता की समस्या का आकार निरन्तर बढ़ता गया है। सूती वस्त्र, पटसन और चीनी जैसे परम्परागगत उद्योगों में एक बड़ी संख्या में रूग्ण इकाइयाँ विद्यमान हैं। इंजीनियरिंग एवं रसायन जैसे गैर परम्परागत उद्योगों की कुछ इकाइयाँ भी रूग्णता की परिधि में सम्मिलित हैं। सीमेण्ट और रबड़-उद्योगों में रूग्णता की समस्या विद्यमान है। इन औद्योगिक इकाइयों की प्रमुख समस्या जीवन-योग्यता की है। कुछ इकाइयाँ इस दृष्टि से जीवन योग्य हैं कि यदि उनको पूंजी व कुशल श्रमिक उपलब्ध करा दिया जाये तो वे कुशलतापूर्वक कार्य कर सकती हैं परन्तु दुर्भाग्यवश इस प्रकार की इकाइयां बहुत ही थोड़ी है। रूगण इकाइयों में अधिकांशतः वे इकाइयाँ हैं, जो या तो जीवन-योग्य नहीं हैं या उनकी जीवन योग्यता अनिश्चित है।
भारत में रूग्ण इकाइयों की संख्या वृहद् उद्योगों में सबसे कम, मध्यम उद्योगों में वृहद उद्योगों की अपेक्षा अधिक और लघु उद्योगों में सबसे अधिक हैं। प्रारम्भ से लेकर अब तक न केवल रूग्ण इकाइयों की संख्या में ही वृद्धि हो रही है अपितु इन्हें बैंकों द्वारा प्रदत्त बकाया ऋण की मात्रा में भी वृद्धि होती जा रही है। वर्ष 1992 में रूग्ण इकाइयों की संख्या में कुछ कमी दृष्टिगोचर हुई है। सितम्बर, 1992 ई. तक रूग्ण औद्योगिक इकाइयों की संख्या घटकर 2.36 लाख ही रह गई थी, किन्तु इन पर बकाया बैंक ऋण 11,533 करोड़ से बढ़कर 12,586 करोड़ रूपये हो गया था। सितम्बर, 1992 ई. में देश में कुछ 2.36 लाख रूपये इकाइयों में से 2.33 लाख इकाइयाँ जो कि कुल रूग्ण इकाइयों का 98.7% थी, लघु क्षेत्र की थी, किन्तु इन पर बकाया ॠण सभी रुग्ण इकाइयों पर बकाया ॠण सभी रूग्ण इकाइयों पर बकाया ॠण का 26.6% ही था।
31 मार्च, 1998 ई. तक रूग्ण औद्योगिक इकाइयों की संख्या 2.24 लाख थी, जिनमें लघु उद्योग क्षेत्र की 2.21 लाख इकाइयाँ (94.3%) सम्मिलित थीं। इन पर बकाया कुल ऋण 15,682 करोड़ रूपया था (लघु उद्योग क्षेत्र पर 3,887 करोड़ रु. (24.6%) तथा अन्य उद्योगों पर 11,825 करोड़ रूपये (75.4%) था।
औद्योगिक रूग्णता के लिए उत्तरदायी घटक या कारण
भारत में औद्योगिक रूग्णता के लिए उत्तरदायी घटकों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-1. अन्तर्जनित घटक, 2. बहिर्जनित घटक।
- अन्तर्जनित घटक- औद्योगिक रूग्णता के लिए उत्तरदायित्व अन्तर्जनित घटकों के अन्तर्गत- (क) उत्पादन, वितरण एवं कीमतों से सम्बन्धित सरकारी नीति, (ख) योजना में निर्धारित नयी प्राथमिकताओं के अनुसार निवेश-ढाँचे में परिवर्तन, (ग) शक्ति, परिवहन एवं कच्चे माल की स्वल्पता तथा, (घ) बिगड़ते हुए औद्योगिक सम्बन्धों को सम्मिलित किया जा सकता है। इन घटकों का परिणाम ‘औद्योगिक रूग्णता’ होता है तथा इन्हें सरकारी स्तर पर ठीक किया जा सकता है। ‘नियन्त्रित वस्त्र योजना’ ऐसा ही उदाहरण है, जिनके बारे में योजना आयोग नेने लिखा है, “नियन्त्रित वस्त्रोत्पादन के अर्थशास्त्र का अध्ययन दर्शाता है कि वस्त्र की अनेक किस्मों की नियन्त्रित कीमतों से अकेली रूई की लागत अधिक रही है। जनवरी, 1977 ई. में स्वीकृति नियन्त्रित कीमतों में 35 प्रतिशत की वृद्धि के बावजूद, अपूरित लागत की समस्या विद्यमान रही है।” दूसरा उदाहरण कोयला उद्योग है, जिसे राष्ट्रीयकरण से पहले निर्दयी मूल- नियन्त्रणों का समाना करना पड़ा तथा राष्ट्रीयकरण के बाद तीन वर्ष के भीतर की कोयले की कीमतें ढाई गुना बढ़ा दी गयी। सरकार की निष्क्रियता का अन्य उदाहरण उपयुक्त राष्ट्रीय आय एवं मजदूरी नीति’ विकसित करने में विफलता है। सरकार मजदूरी सम्बन्धी विवादों का निपटारा द्विपक्षीय सौदेबाजी पर छोड़ती रही है। इसीलिए रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक, जीवन बीमा निगम तथा दूसरे अधिक लाभ-अर्जक प्रतिष्ठान अपने श्रमिकों को ऊँची मजदूरी देने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऊंची मजदूरी वाले द्वीप-समूह अन्य प्रतिष्ठानों या उद्योगों के श्रमिकों के लिए ईर्ष्या का कारण बन जाते हैं। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप औद्योगिक अशान्ति को बढ़ावा मिलता है, जो रूग्णता का मुख्य कारण है।
(2) बहिर्जनित घटक- औद्योगिक रूग्णता के लिए बहिर्जनित घटकों में (क) दोषपूर्ण प्रबन्ध व्यवस्था, (ख) दोषपूर्ण लाभांश-नीति, (ग) कोषों के साथ की गयी खिलवाड़, (घ) अत्यधिक उर्ध्वस्थ-व्यय, (ङ) मशीनरी एवं साज-सामान के मूल्यहास की व्यवस्था का अभाव तथा (च) मार्ग के गलत अनुमान को सम्मिलित किया जा सकता है।
समस्या के समाधान हेतु उठाये गये कदम
औद्योगिक रूग्णता में बेरोजगारी बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है। यह पूँजीगत निवेश को फलहीन बना देती है तथा भावी औद्योगिक विकास हेतु प्रतिकूल वातावरण का सृजन करती है। रूग्ण इकाइयों पर बैंक-साख की बकाया राशि इस बात की पुष्टि करती है कि सरकार द्वारा वित्तीय संस्थाओं से इन्हें अधिकाधिक साधन प्रदान करने के लिए कहा जाता है। वित्तीय संस्थाओं की अपार धनराशि, जिसका अन्यत्र लाभदायक उपयोग हो सकती है, फलहीन बन जाती है। अन्ततोगत्वा सरकार को इन इकाइयों की देनदारियों का विशाल भार (जो मुख्यतः दोषपूर्ण प्रबन्ध-व्यवस्था का परिणाम होता है) अपने कन्धों पर होना पड़ता है। रूग्ण इकाइयों के प्रमुख अंशधारी तो गुप्त तरीकों से अपनी पूँजी बचा लेते हैं, किन्तु सामान्य अंशधारियों और श्रमिकों को हानि उठानी पड़ती है। भारत सरीखी चिरकालिक बेरोजगारी एवं अभाव से ग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिए औद्योगिक रूग्णता के परिणाम अधिक घातक सिद्ध होते हैं।
रूग्ण औद्योगिक इकाइयों के पुनर्संस्थापन में सहायता पहुँचाने के लिए भारत सरकार ने अप्रैल, 1971 ई. में ‘औद्योगिक पुनर्निमाण निगम’ की स्थापना की। मार्च, 1985 ई. से इस निगम को ‘औद्योगिक पुनर्निर्माण बैंक’ के रूप में पुनर्गठित किया गया है, जो रूग्ण औद्योगिक इकाइयों के पुनर्निर्माण एवं पुनर्संस्थापन हेतु प्रमुख एजेन्सी के रूप में कार्य कर रहा है। पुनर्संस्थापन का कार्य चयनात्मक दृष्टिकोण पर आधारित है। बैंक द्वारा केवल ऐसी रूग्ण इकाइयों को पुनर्संस्थापना हेतु चुना जाता है, जिनमें जीवन-योग्य बनने की सम्भावना विद्यमान है। बैंक के कार्यों में ऋण प्रदान करने के साथ-साथ रूग्ण इकाइयों की समस्या का विश्लेषण एवं समाधान, प्रबन्ध में सुधार, तकनीकी एवं प्रबन्धकीय निर्देशन तथा दूसरी वित्तीय संस्थाओं से ऋण दिलाना भी सम्मिलित है।
औद्योगिक रुग्णता की समस्या के निराकरण के लिए 1985 ई. में ‘तिवारी समिति’ की सिफारिशों के आधार पर ‘रुग्ण औद्योगिक कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम पारित किया गया, जिसके अन्तर्गत जनवरी, 1987 ई. में एक संवैधानिक संस्था ‘औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड की स्थापना की गयी। बोर्ड रूग्ण औद्योगिक इकाइयों के लिए आवश्यक निवारक, सुधारक एवं उपचारात्मक उपाय निश्चित करता है तथा इन उपायों के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु प्रयास करता है। सरकारी कम्पनियाँ तथा अधिनियम के अन्तर्गत छूट प्राप्त कम्पनियों को छोड़कर अन्य सभी कम्पनियाँ जिनकी बचत योग्यता पूर्णतः नष्ट हो गयी है, इस विधान की परिधि में सम्मिलित होती हैं। इसके अतिरिक्त रूग्णता की समस्या पर प्रभावी कार्रवाई करने के लिए अप्रैल, 1993 ई. में डॉ. ओंकार गोस्वामी की अध्यक्षता में औद्योगिक रूग्णता व कम्पनियों के पुनर्गठन हेतु समिति’ गठित की गयी है। जून, 1996 ई. में गठित संयुक्त मोर्चा सरकार ने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में औद्योगिक रूग्णता का उपचार करने के लिए एक नया कानून बनाने की तथा औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड को पुनर्गठित करने की बात कही है। औद्योगिक तथा वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड के सम्मुख मई, 1987 ई. से लेकर नवम्बर, 1999 ई. तक 4,001 मामले जाँच के लिए प्रस्तुत हुए। इन सन्देशों के अन्तर्गत 3,761 मामले निजी क्षेत्र के तथा 240 मामले केन्द्रीय तथा राज्य के सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों में सम्मिलित थे।
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