अर्थशास्त्र / Economics

सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का महत्त्व | सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था के गुण | सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के दोष

सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का महत्त्व | सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था के गुण | सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के दोष

सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का महत्त्व

भारतवर्ष जैसे अभावग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिए सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा अर्थव्यवस्था में मूल्य-नियंत्रण, निर्धन और कमजोर वर्ग के उपभोक्ताओं के हित की रक्षा कर सकते हैं। उत्पादकों को उनकी वस्तु को उचित मूल्य दिलवाकर, उत्पादन-विधि पर सजग दृष्टि रखते हुए, उत्पादन बढ़ाकर तथा सुरक्षित भण्डार की व्यवस्था कर, पूर्ति पक्ष को न केवल अल्पकाल के लिए वरन् दीर्घकाल के लिए भी संभाला जा सकता है। इससे उत्पादकों के हित की रक्षा होती है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली ऊँची कीमतों पर मुनाफाखोरों, अभावग्रस्त वस्तुओं की जमाखोरी तथा सट्टेबाजी को भी रोकने की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपाय प्रमाणित होती है। इसके अन्तर्गत मूल्य-सूची, स्टॉक-सूची तथा वितरण रजिस्टर रखना अनिवार्य होता है एवं केवल ऐसे विक्रेता ही लाइसेंसदार हो सकते हैं। सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था की समीक्षा हम उसके निम्नलिखित गुण-दोष का विवेचन के आधार पर भी कर सकते हैं।

सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था के गुण

  1. अभाव एवं आर्थिक संत्रास से रक्षा- अभावग्रस्त वस्तु की अनुपलब्धि से अर्थव्यवस्था में आर्थिक संत्रास बढ़ता है। ऐसी स्थिति में यदि सार्वजनिक वितरण व्यवस्था अपनाकर सुव्यवस्थित ढंग से वस्तु का वितरण किया जाय तो यह संत्रास अंशतः या पूर्णतः समाप्त हो जाता है।
  2. बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण- अभाव की स्थिति में वस्तु तथा सेवाओं की कीमतें तेजी से बढ़ने लगती हैं। इन कीमतों पर भी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था द्वारा नियंत्रण रखा जाता है। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किये जाते हैं :
  • (i) लाइसेंस के आधार पर नियन्त्रित मूल्यों की दुकान खोलकर,
  • (ii) अनिवार्य मूल्य-सूची टंगवाकर तथा
  • (iii) स्टाक सीमा बाँधकर तथा स्टॉक और वितरण रजिस्टर रखवाकर।
  1. कमजोर वर्ग की रक्षा- कमजोर वर्ग तथा अल्प आय वालों के हित की रक्षा होती है साथ ही आय के पुनर्वितरण की दशा में भी यह एक कारगर कदम होता है।
  2. उत्पादकों के हित की रक्षा- मूल्य पर स्थिरीकरण की नीति अपनायी जाती है। जिससे उत्पादकों के मूल्यों में अल्पकालीन भयंकर परिवर्तन के कारण उत्पन्न खतरों से मुक्ति आती है। साथ ही उत्पादन बढ़ाने के लिए भी सरकारी प्रोत्साहन मिलते रहते हैं।
  3. संकटकालीन स्थिति में अपरिहार्य- बाढ़, सूखा, भूकम्प इत्यादि प्राकृतिक प्रकोपों के समय, युद्ध और अतिमात्रा में शरणार्थियों के एकाएक आ जाने पर तथा अन्य संकटकालीन घड़ियों में सर्वजनिक वितरण व्यवस्था द्वारा आवश्यक वस्तुओं का वितरण अनिवार्य हो जाता है।
  4. अल्प विकसित देशों के लिए आवश्यक- अल्प विकसित देशों में जनसंख्या में वृद्धि तथा औद्योगिक और शहरीकरण के विस्तार के कारण तथा कृषि और औद्योगिक कच्चे माल, खनिज पदार्थों, शक्ति तथा ईंधन के साधनों एवं उत्पादनों का माँग की तुलना में अभाव रहता है।
  5. राष्ट्रीय भावना एवं अनुशासन का जन्म- यह ज्ञात होता है कि एक उपभोक्ता अभावग्रस्त क्षेत्र के हित के लिए स्वयं अपना उपभोग कम कर रहा है तथा नियन्त्रित मूल्य ले या दे रहा है अथवा जमाखोरी से दूर है राष्ट्रीय भावना का विकास करता है और अनुशासन की भावना बढ़ती है।

सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के दोष

  1. सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ावा- बाजार-व्यवस्था के विश्वासी अर्थशास्त्रियों का विचार है कि बाजार-व्यवस्था को यदि स्वतन्त्र रूप से काम करने दिया जाय तो सार्वजनिक व्यवस्था की जरूरत ही न पड़े। सरकार की बाजार-विरोधी नीतियों के कारण संकटकालीन अवस्था का जन्म होता है।
  2. नौकरशाही- नौकरशाही और लालफीताशाही के कारण संकट की अवस्था समाप्त होने की जगह बढ़ती है।
  3. प्रायः वितरण-व्यवस्था की योजना त्रुटिपूर्ण होती है- फलस्वरूप उपभोक्ता को उचित समय पर निर्धारित राशन नहीं मिल पाता तथा पर्याप्त समय राशन लेने में लग जाता है।
  4. 4. सार्वजनिक वितरण की वस्तु प्रायः घटिया किस्म की होती है- वितरण व्यवस्था के जिम्मेदार कर्मचारी, वस्तु-गुण सुरक्षा की व्यवस्था नहीं करते साथ ही घटिया किस्म का वितरण करते हैं। जरूरतमन्द उपभोक्ता सन्देह रखने पर भी वस्तुके गुण और नाप-तौल की त्रुटि के विरुद्ध शिकायत नहीं करते और शिकायत करते हैं तो सुनवाई नहीं होती।
  5. भ्रष्टाचार- जमाखोरी तथा तस्करी को प्रोत्साहन मिलता है।
  6. राजनैतिक प्रभाव- राजनैतिक दाँव-पेंच के कारण वितरण-व्यवस्था ठीक प्रकार से संचालित नहीं होती।
  7. वितरण-व्यवस्था में अपव्यय- प्रायः आयात करने, निर्धारित क्षेत्रों तक आवश्यक वस्तुओं को पहुँचाने और वितरित करने की प्रक्रिया में चोरी, छितराना तथा कीड़े-मकोड़े से और भण्डारण की अनुपयुक्त व्यवस्था से वस्तु का अपव्यय होता है।
  8. शहरी क्षेत्रों तक सीमित- यह व्यवस्था अधिकांशतः शहरी क्षेत्रों तक सीमित रही है ग्रामीण क्षेत्रों में इसका अधिक प्रसार नहीं हुआ।
  9. समानान्तर कीमत वृद्धि- समानान्तर बाजार में राशनिंग वाली वस्तुओं की कीमतों में अभूतपूर्ण वृद्धि हुई है।
  10. सरकार पर सहायिकी का भार- इस प्रणाली में मूल्य के रूप में दी गई छूट का वित्तीय भार सरकार पर उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है जो कि सरकार के लिए प्रतिकूल है।

सार्वजनिक, वितरण व्यवस्था एवं उपभोक्ता की सार्वभौमिकता

अनियन्त्रित बाजार में जहाँ वस्तु की माँग तथा पूर्ति स्वतन्त्र रूप से कीमत तथा वितरण को निर्धारित करती है, वहाँ उपभोक्ता की सार्वभौमिकता (Consumer’s sovereignty) विशेष रूप से वस्तु की मात्रा, गुण तथा कीमत को प्रभावित करती है। उपभोक्ता की रुचि (Consumers choice) प्रति एक मूल्यवान मत (Vote) का काम करती है। अर्थशास्त्री हायक (Hike) और माइसेस (Mises) के अनुसार, “बाजार पर किसी भी प्रकार का सरकारी नियन्त्रण अनावश्यक है। इन नियन्त्रणों से स्थिति और बिगड़ जाती है। यदि ये न हों तो उपभोक्ता की सार्वभौमिकता उत्पादकों एवं व्यापारियों को नियन्त्रित करने के लिए उत्तम भूमिका का निर्वाह करेगी।”

आधुनिक अर्थशास्त्रियों में एक दूसरा वर्ग है, जो केवल उपभोक्ता की सार्वभौमिकता के महत्त्व को स्वीकार करने में असमर्थ पाता है। एकाधिकार प्रवृत्ति अनियन्त्रित बाजार में पनपती है। मारिस डॉव, प्रो० लाँगे और प्रो० टेलर मूल्य निर्धारण में सरकारी हस्तक्षेप को महत्वपूर्ण मानते हैं। उपभोक्ता की रुचि सर्वदा उचित नहीं होती तथा उस रुचि को व्यवसायी वर्ग अपने अनुकूल परिवर्तित करने की कला में पारंगत होता है, अतः उपभोक्ता की रुचि पर उत्पादन और वितरण को यदि छोड़ दिया जाय तो आर्थिक अशान्ति को रोका नहीं जा सकता।

भारतवर्ष एक अल्पविकसित निर्धन देश है। यहाँ की एक विशाल जनसंख्या अपढ़ तथा मौद्रिक अर्थव्यवस्था से दूर है। केवल 20% शहरी जनसंख्या है।

उपभोक्ता की रुचि 20% के साथ ही अधिक काम कर सकती है। इनमें भी अज्ञानता बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति में उत्पादक एवं विक्रेता इनकी रुचि को ही बदल देंगे। इसके प्रति देश सभी औद्योगिक की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यदि सरकारी हस्तक्षेप न हो तो विदेशी उपयोगिता के हाथों में शिशु उद्योग समाप्त हो जायें, दूसरे ये अधिकतम असम्भव कीमतें रखकर जनता को शोषण कर सकते हैं।

उपभोक्ता की सार्वभौमिकता वास्तव में चेतनशील नागरिकों के लिए एक अधिक शक्ति का परिचय है। यदि नागरिक सचेतन हैं, तो नियंत्रित अर्थव्यवस्था में भी वे अपने आर्थिक अधिकार को कमोबेश लागू कर सके हैं। किन्तु नागरिक रुचि यदि राज्य की नीति के विरुद्ध जा रही होगी तो राज्य नागरिक चेतना की उपेक्षा करेगा। सामान्य स्थिति में जब अभाव की स्थिति वमूल्य एवं उत्पादन नियन्त्रित किये जा रहे हों तब समस्या उपभोक्ता की सार्वभौमिकता की न होकर वस्तु की उपलब्धि एकचित वितरण की होती है। इस अवधि में उपभोक्ता रुचि कार्यरत रह सकती है, क्योंकि उस पर कोई प्रतिरोध नहीं रहता। कठिनाई पर्याप्त पूर्ति की रहती है, जो परिस्थितियों के वशीभूत होती है।

निष्कर्ष

इन गुण-दोषों की समीक्षा करने के उपरान्त यही निष्कर्ष निकलता है कि सार्वजनिक वितरण व्यवस्था संकट की अवस्था तथा अभावग्रस्तता के समय भारतवर्ष जैसे देश के लिए अपरिहार्य है। इसमें सरकारी हस्तक्षेप अवश्य बढ़ता है, किन्तु वह सार्वजनिक हित में रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि व्यवस्था का सुसंचालन किया जाय तथा नैतिकता का विकास करके भ्रष्टाचार को दूर किया जाय।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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