भारतीय शिक्षा आयोग के सुझाव

भारतीय शिक्षा आयोग के सुझाव | कोठारी आयोग (1964-66) के मुख्य सुझाव

भारतीय शिक्षा आयोग के सुझाव | कोठारी आयोग (1964-66) के मुख्य सुझाव

आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें (संस्तुतियाँ)

(Suggestions and Recommendations of The Commission)

“आयोग” ने शिक्षा के सभी अंगों के विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं और उनके विषय में निम्न सुझाव दिये-

  1. शिक्षा व राष्ट्रीय लक्ष्य

(Education and National Objectives)

“आयोग” का मत है-“शिक्षा में सबसे महत्त्वपूर्ण तथा आवश्यक सुधार यह है कि इसको इस प्रकार परिवर्तित करने का प्रयास किया जाये कि इसका व्यक्तियों के जीवन, आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं से सम्बन्ध स्थापित हो जाये। इस प्रकार, शिक्षा को उस सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों का शक्तिशाली साधन बनाया जाये, जो राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।”

शिक्षा द्वारा उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, “आयोग” ने निम्नांकित “पंचमुखी कार्यक्रम” का विचार प्रकट किया है जिसका विवेचन अग्र प्रकार है-

(1) शिक्षा व उत्पादन (Education and Productivity)- “आयोग” ने शिक्षा द्वारा अत्पादन में वृद्धि करने के लिए निम्नांकित सुझाव दिये है-

(i) विज्ञान को कृषि एवं उत्पादन के कार्यों के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए।

(ii) उच्च शिक्षा में कृषि-शिक्षा एवं प्राविधिक शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए।

(iii) विज्ञान की शिक्षा को विद्यालय शिक्षा एवं विश्वविद्यालय शिक्षा के पाठ्यक्रमों का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।

(iv) माध्यमिक शिक्षा को अधिक से अधिक व्यावसायिक रूप प्रदान किया जाना चाहिए।

(v) कार्य-अनुभव (Work-Experience) को सम्पूर्ण शिक्षा का विशिष्ट अंग बनाया जाना चाहिए।

(2) सामाजिक व राष्ट्रीय एकत्ता (Social and National Integration)-“आयोग’ ने शिक्षा द्वारा सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास करने के विचार से अधोलिखित सुझाव दिये हैं-

(i) शिक्षा के सब स्तरों पर सामाजिक एवं राष्ट्रीय सेवा (Social and National Service) को सब विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए।

(ii) प्रत्येक शिक्षा-संस्था में सामाजिक एवं सामुदायिक सेवा के कार्यक्रमों को आरम्भ किया जाना चाहिए और प्रत्येक छात्र द्वारा इन कार्यक्रमों में उचित ढंग से भाग लिया जाना चाहिए।

(iii) सार्वजनिक शिक्षा के लिए “सामान्य विद्यालय प्रणाली” (Common School System) को राष्ट्रीय लक्ष्य माना जाना चाहिए और इस प्रणाली को 2 वर्ष की अवधि में पूर्ण कर दिया जाना चाहिए।

(iv) सामाजिक एवं राष्ट्रीय सेवा के कार्यक्रमों का आयोजन अध्ययन के विषयों के साथ ही किया जाना चाहिए।

(v) मातृभाषा अर्थात् प्रादेशिक भाषा को सब स्तरों पर शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए और इस कार्यक्रम को 10 वर्ष में पूर्ण कर दिया जाना चाहिए।

(vi) जिन क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाएँ प्रयोग की जाती हैं, उन क्षेत्रों में इन भाषाओं को यथाशीघ्र प्रशासन की भाषाओं के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।

(vii) विश्व की कुछ महत्त्वपूर्ण भाषाओं की शिक्षा देने के लिए कुछ स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए।

(viii) सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना के विकास को विद्यालय-शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना जाना चाहिए।

(ix) प्रत्येक जिले में “श्रम एवं सामाजिक सेवा शिविरों” (Labour and Social Service Camps) की नियमित रूप से व्यवस्था की जानी चाहिए और इनमें प्रत्येक छात्र की उपस्थिति अनिवार्य होनी चाहिए।

(x) सभी पाठ्यक्रमों में नागरिकता, संविधान के सिद्धान्तों एवं लोकतन्त्रीय समाजवादी समाज के स्वरूप को विशेष स्थान दिया जाना चाहिये।

(xi) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता के विकास में सहायता देने के लिए सरकार द्वारा उपयुक्त ‘भाषा-नीति” (Language Policy) का निर्माण किया जाना चाहिए।

(xii) अखिल भारतीय शिक्षा संस्थाओं में अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम रखना चाहिए। किन्तु, कुछ समय के पश्चात् अंग्रेज के स्थान पर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए।

(xiii) रूसी भाषा एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की अन्य भाषाओं के अध्ययन के प्रति विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

(xiv) बी० ए० एवं एम० ए० के स्तरों पर छात्रों को दो भारतीय भाषाओं के अध्ययन की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए।

(xv) अंग्रेजी के शिक्षण एवं अध्ययन को विद्यालय स्तर से ही प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

(3) शिक्षा व प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता (Education and Consolidation of Democracy)- “आयोग’ ने शिक्षा द्वारा प्रजातन्त्र को सुदृढ़ बनाने के लिए निम्नांकित सुझाव दिए हैं-

(i) प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों को दो उद्देश्यों को सामने रखकर आयोजित किया जाना चाहिए-

(a) निरक्षरता का उन्मूलन, एवं

(b) व्यक्ति की नागरिक एवं राष्ट्रीय कुशलता और सामान्य सांस्कृतिक स्तर का उन्नयन।

(ii) सब व्यक्तियों में वैज्ञानिक विचार एवं दृष्टिकोण का और सहिष्णुता, पहलकदमी, जन-हित समाज-सेवा, आत्म-निर्भरता एवं आत्म-अनुशासन के गुणों का विकास किया जाना चाहिये।

(iii) 14 वर्ष की आयु तक के बालकों एवं बालिकाओं को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

(iv) धर्म, वर्ण, लिंग, जाति एवं स्थिति का भेदभाव किये बिना सब बालकों एवं बालिकाओं को शिक्षा के समान अवसर दिये जाने चाहिएं।

(4) शिक्षा व आधुनिकीकरण (Education and Modernization)– “आयोग’ ने शिक्षा द्वारा भारत का आधुनिकीकरण करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(i) आधुनिकीकरण करने के लिए शिक्षा को महत्त्वपूर्ण साधन बनाया जाना चाहिए और आधुनिकीकरण की प्रगति एवं शैक्षिक प्रसार की गतियों में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

(ii) शिक्षा के द्वारा छात्रों में स्वतन्त्र विचार, स्वतन्त्र निर्णय एवं स्वतन्त्र अध्ययन की आदतों का निर्माण किया जाना चाहिए।

(iii) आधुनिकीकरण करने के लिए विज्ञान पर आधारित प्रौद्योगिकी (Technology) का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(iv) शिक्षा द्वारा छात्रों में उचित मूल्यों एवं दृष्टिकोणों का विकास किया जाना चाहिए।

(5) सामाजिक, नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का विकास (Development of Social, Moral and Spiritual Values)-“आयोग” ने यह विचार प्रकट किया है कि शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों के सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करके, उनके चरित्र का निर्माण किया जाना चाहिए। इन कार्यों में सफलता प्राप्त करने के लिए, “आयोग” ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(i) प्राथमिक विद्यालयों में इन मूल्यों की शिक्षा रोचक कहानियों द्वारा दी जानी चाहिए।

(ii) सब प्रकार की शिक्षा-संस्थाओं में सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह शिक्षा “विश्वविद्यालय शिक्षा-आयोग” द्वारा दिये गये सुझावों के अनुसार प्रदान की जानी चाहिए।

(iii) माध्यमिक विद्यालयों में इन मूल्यों के सम्बन्ध में अध्यापकों एवं विद्यार्थियों में विचार विनिमय होना चाहिए।

(iv) उपर्युक्त दोनों प्रकार के विद्यालयों के वातावरण को सामजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से सुसज्जित किया जाना चाहिए। इस कार्य का दायित्व सब शिक्षकों एवं अधिकारियों पर रखा जाना चाहिए।

(v) प्रत्येक विश्वविद्यालय में “तुलनात्मक धर्म” (Comparative Religion) नामक विभाग की सृष्टि की जानी चाहिए। इस विभाग द्वारा यह खोज की जानी चाहिए कि इन मूल्यों की प्रभावशाली ढंग से किस प्रकार शिक्षा दी जा सकती है।

2. शिक्षा की संरचना व स्तर

(Educational Structure and Standards)

“आयोग” ने शिक्षा को नवीन संरचना अर्थात् ढाँचे और शिक्षा-स्तरों के उन्नयन के सम्बन्ध में जो विचार अभिव्यक्त किये हैं, हम उनका वर्णन अग्रांकित शीर्षकों के अन्तर्गत कर रहे हैं-

(1) विद्यालय-शिक्षा की नवीन संरचना (New Structure of School Education)- “आयोग” ने विद्यालय शिक्षा के प्रचलित स्वरुप को ध्यान में रखते हुए, इस शिक्षा की नवीन संरचना को इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

(i) 10 वर्ष की सामान्य शिक्षा

(ii) 2 अथवा 3 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा,

(iii) 2 अथवा 3 वर्ष की निम्न माध्यमिक शिक्षा,

(iv) 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा,

(v) 4 अथवा 5 वर्ष की निम्न प्राथमिक शिक्षा,

(vi) 1 से 3 वर्ष की पूर्व-विद्यालय शिक्षा।

(2) संरचना सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Structure)- “आयोग” ने विद्यालय शिक्षा की नवीन संरचना के विषय में निम्न सुझाव दिए हैं-

(i) सामान्य शिक्षा आरम्भ करने से पूर्व छात्रों को 1 या 3 वर्ष तक की पूर्व विद्यालय (Pre-School) या पूर्व-प्राथमिक (Pre-Primary) शिक्षा दी जानी चाहिए।

(ii) सामान्य शिक्षा (General Education) की अवधि 10 वर्ष की होनी चाहिए और इसमें प्राथमिक एवं निम्न माध्यमिक शिक्षा को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

(iii) प्राथमिक शिक्षा की अवधि 7 से 8 वर्ष की होनी चाहिए और इसको अग्रलिखित दो भागों में विभाजित किया जाना चाहिए-

(a) 4 या 5 वर्ष की निम्न प्राथमिक शिक्षा (Lower Primary Education) और

(b) 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा (Higher Primary Education) ।

(iv) निम्न माध्यमिक (Lower Secondary) शिक्षा की अवधि 2 या 3 वर्ष की होनी चाहिए।

(v) निम्न माध्यमिक स्तर पर छात्रों को अग्रांकित दो प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए-

(a) 2 या 3 वर्ष की सामान्य शिक्षा, और

(b)1 से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education)।

(vi) उच्चतर माध्यमिक (Higher Secondary) शिक्षा की अवधि 2 या 3 वर्ष की होनी चाहिए।

(vii) उच्चतर माध्यमिक स्तर पर छात्रों को अग्रांकित दो प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए-

(a) 2 वर्ष की सामान्य शिक्षा, और

(b) 1 से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा।

(viii) कक्षा 1 में प्रवेश करने की आयु. साधारणत: 6 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।’

(ix) प्रथम सार्वजनिक बाह्य परीक्षा (First Public External Examination) 10 वर्ष की विद्यालय शिक्षा के पश्चात् होनी चाहिए।

(x) 9वीं कक्षा से पृथक् विद्यालय स्थापित किये जाने की प्रचलित विधि का अन्त कर देना चाहिए।

(xi) 10वीं कक्षा तक छात्रों को किसी विषय में विशिष्टीकरण (Specials- zation) की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

(xii) माध्यमिक विद्यालय केवल अग्रांकित दो प्रकार के होने चाहिएं-(a) हाई-स्कूल और (b) हायर सेकेण्डरी स्कूल। हाई स्कूलों में शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की और हायर सेकेण्डरी स्कूलों में यह अवधि 12 वर्ष की होनी चाहिए।

(3) उच्च शिक्षा की नवीन संरचना (New Structure of Higher Education)- “आयोग” ने उच्च शिक्षा की नवीन संरचना इस प्रकार प्रस्तुत की है-

(i) 2 अथवा 3 वर्ष का अनुसन्धान,

(ii) 2 अथवा 3 वर्ष की द्वितीय डिग्री-कोर्स,

(iii) 3 वर्ष का प्रथम डिग्री कोर्स।

(4) उच्च शिक्षा की संरचना सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Structure of Higher Education)- “आयोग” ने उच्च शिक्षा की नवीन संरचना के विषय में निम्नांकित सुझाव दिए है-

(i) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् प्रथम डिग्री कोर्स की अवधि कम से कम 3 वर्ष की होनी चाहिए।

(ii) कुछ विश्वविद्यालयों में “ग्रेजुएट स्कूलों” (Graduate Schools) की सृष्टि की जानी चाहिए, जिनमें कुछ विशेष विषयों में 3 वर्ष के स्नातकोत्तर (post-Graduate) कोर्स की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(iii) द्वितीय डिग्री कोर्स की अवधि 2 या 3 वर्ष की होनी चाहिए।

(5) स्तरों का उन्नयन (Raising of Standards)- “आयोग” ने शिक्षा के सब स्तरों का उन्नयन करने के लिए अधोलिखित सुझाव दिए हैं-

(i) 10 वर्ष की अवधि में कक्षा 10 के स्तर का इतना उन्नयन कर दिया जाना चाहिए कि वह वर्तमान हायर सेकेण्डरी के स्तर पर पहुँच जाये।

(ii) शिक्षा स्तरों का उन्नयन करने के लिए शिक्षा के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

(iii) 10 वर्ष की विद्यालय शिक्षा में गुणात्मक उन्नति की जानी चाहिए, ताकि इस स्तर पर होने वाले अपव्यय (Wastage) में कमी की जा सके।

(iv) “विद्यालय-संकुलों” (School Complexes) का यथाशीघ्र निर्माण किया जाना चाहिए। एक संकुल में एक माध्यमिक स्कूल और उसके निकटवर्ती सब प्राथमिक स्कूल होने चाहिएं। प्रत्येक संकुल के सब स्कूलों द्वारा सामूहिक रूप से स्तरों के उन्नयन के लिए प्रयत्न किये जाने चाहिएं।

(v) विश्वविद्यालयों की उपाधियों के स्तरों का उन्नयन करने के लिए, इन उपाधियों के पाठ्यक्रमों में अधिक उन्नत विषय-वस्तु को स्थान दिया जाना चाहिए।

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