शिक्षाशास्त्र / Education

माध्यमिक शिक्षा आयोग | मुदालियर आयोग के अनुसार शिक्षा के क्या उद्देश्य | माध्यमिक शिक्षा आयोग आयोग के जाँच के विषय

माध्यमिक शिक्षा आयोग | मुदालियर आयोग (1952-53) | मुदालियर आयोग के अनुसार शिक्षा के क्या उद्देश्य | माध्यमिक शिक्षा आयोग आयोग के जाँच के विषय | मुदालियर आयोग के सुझाव एवं संस्तुतियाँ

माध्यमिक शिक्षा (मुदालियर) आयोग, 1952-53

(Secondary Education Commission [Mudaliar] 1952-53)

स्वतंत्र भारत की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों में अत्यंत द्रुत गति से परिवर्तन हो रहे थे। इन परिस्थितियों में समन्वय की स्थापना करने के लिये माध्यमिक शिक्षा का पुनर्गठन करने की आवश्यकता का अनुभव किया गया। इसलिये सन् 1948 में “केन्द्रीय शिक्षा-सलाहकार बोर्ड” (Central Advisory Board of Education) ने भारत सरकार को एक आयोग नियुक्त करने का सुझाव दिया। सन् 1951 में उसने अपने सुझाव को यह कहकर पुनरावृत्ति की कि माध्यमिक शिक्षा एकमार्गीय (Unilateral) है, और उसे ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों के समक्ष उच्च शिक्षा प्राप्त करने अथवा नौकरी खोजने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। अत: माध्यमिक शिक्षा का पुनर्गठन इस प्रकार किया जाना चाहिये कि विद्यार्थी अपनी अभिरुचियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार माध्यमिक शिक्षा से लाभांवित हो सकें।

“बोर्ड” के सुझाव से संतुष्ट होकर, भारत सरकार ने 23 सितम्बर, सन् 1952 को मद्रास-विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा० ए० लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में “माध्यमिक- शिक्षा-आयोग” को नियुक्ति की घोषणा की। अध्यक्ष के नाम पर इस “आयोग” को “मुदालियर कमीशन” भी कहा जाता है।

आयोग के जाँच के विषय

(Terms of Reference of the Commission)

“आयोग” के शब्दों में आयोग के जाँच के विषय थे “भारत की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के सब पक्षों की जाँच करना एवं उनके विषय में रिपोर्ट देना और उसके पुनर्गठन एवं सुधार के सम्बन्ध में सुझाव प्रस्तुत करना।”

आयोग के सुझाव एवं संस्तुतियाँ (सिफारिशें)

(Suggestions or Recommendations of the Commission)

“आयोग’ के प्रतिवेदन में निहित माध्यमिक शिक्षा के महत्त्वपूर्ण अंगों के विषय में उसके विचारों, सुझावों और सिफारिशों का विवरण निम्न प्रकार हैं-

(1) माध्यमिक शिक्षा के दोष (Defects of Secondary Education)– “आयोग” के अनुसार, माध्यमिक शिक्षा के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

(i) माध्यमिक शिक्षा एकपक्षीय है। अत: यह छात्रों को केवल उच्च शिक्षा के लिए तैयार करती है।

(ii) माध्यमिक शिक्षा नीरस, पुस्तकीय, संकुचित एवं रुढिबद्ध है। अतः यह छात्रों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं करती है।

(iii) माध्यमिक शिक्षा छात्रों में नैतिकता, सहयोग, अनुशासन एवं नेतृत्व के गुणों का विकास नहीं करती है। अतः यह उनको उत्तम नागरिक नहीं बनाती है।

(iv) माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम संकीर्ण है। अत: यह छात्रों को अपनी रुचियों और मनोवृत्तियों के अनुसार विषयों का चयन करने का अवसर नहीं देती है।

(v) माध्यमिक शिक्षा छात्रों के चरित्र-निर्माण के प्रति रंचमात्र भी ध्यान नहीं देती है। अत: यह उनमें अनुशासनहीनता की भावना उत्पन्न करती है।

(vi) शिक्षण-विधियाँ परंपरागत होने के कारण छात्रों को प्रभावित नहीं करती हैं और परीक्षा-प्रणाली उसके ज्ञान की वास्तविक परीक्षा नहीं लेती है।

(vii) माध्यमिक शिक्षा का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। अत: यह छात्रों को व्यावहारिक जीवन का ज्ञान नहीं देती है।

(2) माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Secondary Education)- “आयोग’ ने भारत की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं-

(i) व्यावसायिक कुशलता की उन्नति (Improvement of Vocational Efficiency)- माध्यमिक शिक्षा का पहला उद्देश्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता की उन्नति करना होना चाहिए। अत: माध्यमिक शिक्षा में औद्योगिक एवं व्यावसायिक विषयों को स्थान दिया जाना चाहिये। इन विषयों की शिक्षा से छात्रों और देश दोनों का हित होगा। छात्र अपनी शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् किसी व्यवसाय को स्वतंत्र रूप से ग्रहण कर सकेंगे। अत: उनकी नौकरी खोजने के लिये इधर-उधर नहीं भटकना पड़ेगा। देश का हित यह होगा कि उसे अपने विभिन्न उद्योगों तथा व्यवसायों के लिये प्रशिक्षित व्यक्ति सरलता से मिल जायेंगे।

(ii) नेतृत्व का विकास (Development of Leadership)- माध्यमिक शिक्षा का दूसरा उद्देश्य छात्रों में नेतृत्व ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना होना चाहिए। अत: माध्यमिक शिक्षा का आयोजन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे छात्र सामाजिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, व्यावसायिक और राजनीतिक क्षेत्रों में नेतृत्व का दायित्व ग्रहण कर सकें। प्रजातंत्र तभी सफल हो सकता है, जब इन क्षेत्रों से नेतृत्व का दायित्व ग्रहण करने वाले व्यक्ति उपलब्ध हों।

(iii) जनतंत्रीय नागरिकता का विकास (Development of Democratic Citizenship)- माध्यमिक शिक्षा का तीसरा उद्देश्य छात्रों में जनतंत्रीय नागरिकता का विकास करना होना चाहिये। अत: माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार की जानी चाहिये, जिससे छात्रों में अनुशासन, देश-प्रेम सहयोग, सहिष्णुता, स्पष्ट विचार आदि गुणों का विकास हों। इन गुणों से सम्पन्न होकर छात्र इस देश के योग्य नागरिक बनेगे तथा भारत में धर्म-निरपक्ष गणतंत्र की स्थापना में योगदान देंगे। इसी गणतंत्र की स्थापना करना भारत का उद्देश्य है।

(iv) व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)- माध्यमिक शिक्षा का चौथा और अन्तिम उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होना चाहिये। अत: माध्यमिक शिक्षा का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिये, जिससे छात्रों का साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक विकास हो। इस विकास के फलस्वरूप छात्र अपनी सांस्कृतिक विरासत के महत्त्व को समझ सकेंगे और उसकी वृद्धि में योगदान दे सकेंगे।

(3) माध्यमिक शिक्षा का नवीन संगठित स्वरूप (New Organizational Pattern of Secondary Education)- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के संगठन को देश की नवीन परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त बताकर, उसके पुनर्संगठन पर बल दिया है। इस सम्बन्ध में उसने निम्नांकित सुझाव दिये हैं-

(i) माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष की होनी चाहिये।

(ii) माध्यमिक शिक्षा की अवधि निम्नांकित दो स्तरों में विभक्त की जानी चाहिये।

(a) 3 वर्ष का मिडिल या सीनियर बेसिक स्तर (Middle or Junior Secondary or Senior Basic Stage)

(b) 4 वर्ष का उच्चतर माध्यमिक स्तर (Higher Secondary Stage)।

(iii) डिग्री कोर्स की अवधि 3 वर्ष की कर दी जानी चाहिये।

(iv) माध्यमिक शिक्षा 11 से 17 वर्ष तक की अवस्था के बालकों एवं बालिकाओं के लिए होनी चाहिये।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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