शिक्षाशास्त्र / Education

प्रयोजनवाद के शिक्षा का उद्देश्य | शिक्षा में प्रयोजनवाद | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का अर्थ

प्रयोजनवाद के शिक्षा का उद्देश्य | शिक्षा में प्रयोजनवाद | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का अर्थ

प्रयोजनवाद के शिक्षा का उद्देश्य

परम्परागत शिक्षा के सम्बन्ध में प्रो० डीवी ने लिखा है कि परम्परागत शिक्षा का लक्ष्य दूरस्थ भविष्य की तैयारी होता है परन्तु यह अपूर्ण है। इसलिए पुराना सत्य, मूल्य, विश्वास ग्रहण करना आज उपयुक्त नहीं है। वर्तमान जीवन को सामने रख कर शिक्षा का उद्देश्य भी निश्चित किया जाना चाहिए। वर्तमान जीवन का रूप क्या होगा यह अनिश्चित है इसलिए शिक्षा का उद्देश्य भी अनिश्चित होगा या पूर्व निश्चित करना उपयुक्त न होगा। जो परिस्थिति घटती है उसी के अनुकूल शिक्षा का उद्देश्य प्रयोजनवादी रखने के पक्ष में है। फिर भी जो मान्यताएँ हैं उनके अनुसार सामान्यतः नीचे लिखे शिक्षा के उद्देश्य इस विचारधारा के लोगों के द्वारा बताये गये है-

(1) नये मूल्य और आदर्श के निर्माण का उद्देश्य- प्रो० जॉन डीवी जैसे प्रयोजनवादियों का विचार है कि शिक्षा के उद्देश्य एक सुझाव मात्र होते हैं। इस आधार पर कोई निश्चित उद्देश्य न होते हुए भी प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य के द्वारा नये मूल्य और आदर्श का निर्माण करना है।

“प्रयोजनवादी सामाजिक मूल्य को बहुत ऊँचा मानता है।”

इस दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक मूल्यों और आदर्शों का निर्माण करना होता है।

(2) गतिशील और साधन-सम्पन्न मस्तिष्क के विकास का उद्देश्य- मूल्यों और आदर्शो के लिए ऐसे मस्तिष्क की आवश्यकता पड़ती है जो गतिशील (Dynamic) हो अर्थात् समाज में दौड़-धूप तथा क्रिया करने वाला हो तथा साधनों से भरपूर हो। इसके कारण मनुष्य अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में शीघ्र सफल होता है, निर्णय लेने में समर्थ होता है और समाज को कुछ मूल्यवान चीजें देता है। अतः स्पष्ट है कि मनुष्य की शिक्षा का उद्देश्य एक गतिशील और साधन सम्पन्न मस्तिष्क का विकास करना होता है।

(3) सामाजिक कार्य-कुशलता प्राप्ति का उद्देश्य- मनुष्य में शिक्षा के द्वारा जब एक गतिशील, क्रियात्मक एवं निर्माणकर्ता मन का विकास होगा तो उससे उसे सामाजिक कार्यों को पूरा करने की योग्यता और कुशलता प्राप्ति होगी इसलिए निश्चय है कि शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य को समाज में रहकर अपने उत्तरदायित्वों एवं कार्यों को पूरा करने की कुशलता एवं क्षमता प्रदान करना है।

(4) जीवन में उचित निर्देशन देने का उद्देश्य- प्रो० बोड ने लिखा है कि “आज की अमरीकी शिक्षा में मुख्य दोष है एक कार्यक्रम या निर्देशन की भावना का अभाव ।”

इससे स्पष्ट है कि इस दोष को दूर करने के लिए मनुष्यों को शिक्षाकाल में ही व्यवस्थित रूप से कार्य करने का निर्देशन दिया जावे। ऐसी दशा में शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्यों को उचित निर्देशन देना भी होता है जिससे कि सभी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि ठीक तरह से की जावे।

(5) समुचित विकास का उद्देश्य- प्रयोगवादियों ने आदर्शवादियों एवं प्रकृतिवादियों के समान ही यह उद्देश्य स्वीकार किया है। शिक्षा जीवन है, जीवन में विकास स्वाभाविक रूप से होता है परन्तु शिक्षा के द्वारा यह देखना पड़ता है कि विकास ठीक से होवे। यह विकास शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक और सामाजिक रूप में होता है, इससे मानवीय व्यक्तित्व का सम्पूर्णतः उद्घाटन होता है और व्यक्ति अपने समाज में क्रियाशील, गतिशील और उत्पादनशील बनता है। प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री सामाजिक विकास पर अधिक बल देते हैं क्योंकि इससे समाज की व्यवस्था अच्छी तरह होती है और संसार के वातावरण में मनुष्य अपने आपको अच्छी तरह समायोजित कर पाता है। ऐसा विचार प्रो० बटलर का है।

(6) सुखी लोकतन्त्रीय जीवन की प्राप्ति का उद्देश्य- शिक्षा राजनैतिक विकास का भी उद्देश्य रखती है ऐसी स्थिति में मानव के सुख-शान्ति को ध्यान में रख कर लोकतन्त्रीय जीवन को प्राप्त करने का प्रयल किया करता है। और शिक्षा का उद्देश्य यह भी है जिसका समर्थन हमें किलपैट्रिक के विचारों में मिलता है। दूसरे शब्दों में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सुखवादी, सामाजिक और लोकतंत्रीय जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाना होता है।

(7) समायोजन की क्षमता प्रदान करने का उद्देश्य- प्रयोजनवादी लोग कहते हैं कि शिक्षा मानव प्राणी को अपनी वर्तमान परिस्थिति के साथ अच्छी तरह समायोजन की क्षमता प्रदान करे। इससे वह स्वयं लाभ उठावे और समाज को लाभ हो। इस कार्य के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के आवेगों, रुचियों, योग्यताओं को पर्यावरण के अनुकूल विकसित करना हो, मार्ग दिखाना हो ।

प्रयोजनवाद के पाश्चात्य समर्थक एवं प्रतिनिधि डीवी ने शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार रखे हैं-जीवन के अनुभवों का लगातार पुनर्निर्माण करना, पर्यावरण के साथ समायोजन करना, गत्यात्मक और अनुकूलन करने वाले मन का विकास करना, आत्मानुभूति करने के योग्य बनाना, सामाजिक कुशलता प्रदान करना, क्रिया और विचार में सन्तुलन तथा ज्ञान का उपयोग करने की क्षमता देना। ये उद्देश्य ऊपर के उद्देश्यों से मिलते-जुलते हैं। भारतीय प्रतिनिधि के रूप में गांधी जी ने शिक्षा के जो उद्देश्य बताये हैं उसमें से हम कुछ उद्देश्यों को प्रयोजनवादी कह सकते हैं-धनोपार्जन का उद्देश्य, स्वतन्त्र विकास एवं मुक्ति का उद्देश्य, पूर्ण विकास का उद्देश्य, दासता से मुक्ति का उद्देश्य तथा सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य । ये उद्देश्य समाज एवं उसके जीवन के परिप्रेक्ष्य में लिए जा सकते हैं। प्रो० डीवी का प्रभाव गांधी जी पर पड़ा था परन्तु उसे उन्होंने भारतीय जीवन एवं संस्कृति के साथ नये ढंग से जोड़ा है अतएव हमें उनके उद्देश्य पूर्णतया प्रयोजनवादी नहीं दिखाई पड़ते।

शिक्षा में प्रयोजनवाद

शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोजनवादी दर्शन का प्रयोग अमरीका में हुआ और बाद में भारत में भी उसका प्रचार हुआ। आज अपने देश की शिक्षा पर प्रयोजनवादी दर्शन का काफी प्रभाव दिखाई देता है और यहाँ तक कि कोठारी कमीशन ने “कार्य-अनुभव” को शिक्षा का आधार बना कर प्रयोजनवादी ढाँचा ही प्रस्तुत किया है। अस्तु, इसके अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षाविधि आदि क्या है उस पर विचार करना जरूरी होता है।

प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का अर्थ-

प्रो० जॉन डीवी और उनके शिष्य तथा सहयोगियों को शिक्षा देने में प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रचार का श्रेय दिया जाता है। इन लोगों ने शिक्षा के अर्थ पर कई दृष्टियों से विचार किया है जिन्हें यहाँ प्रकट किया जा रहा है-

(1) शिक्षा अनुभवों का पुनर्निर्माण और पुनर्संगठन की क्रिया है- प्रो०’ जॉन डीवी ने बताया है कि “शिक्षा अनुभयों के अनवरत पुनर्निर्माण और पुनर्संगठन की प्रक्रिया है।”

जीवन में जो कुछ घटित होता है उससे मनुष्य को अनुभव मिलता है। इन्हीं अनुभवों को वह संचित करता जाता है। इस संचय में वह एक निश्चित क्रम-व्यवस्था रखता है। जिससे कोई लाभ हो जावे। यही क्रिया ‘शिक्षा’ है।

(2) शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है- प्रयोजनवादियों का विचार है कि शिक्षा की प्रक्रिया अकेले नहीं होती है बल्कि समाज में रहकर होती है जिससे समाज के आचार- विचार, परम्परा, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान सभी कुछ समझा और ग्रहण किया जाता है। इससे परिस्थितियों को समझ कर समायोजन करने में सहायता मिलती है तथा आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतएव शिक्षा व्यक्तिगत प्रक्रिया न होकर सामाजिक प्रक्रिया होती है।

(3) शिक्षा मनुष्य के विकास की क्रिया है- शिक्षा निष्पयोजन न होकर सप्रयोजन होती है। समाज के सभी मनुष्यों को शिक्षा का प्रयोजन उनका विकास निजी एवं सामूहिक दोनों तौर से होता है तभी मनुष्य योग्य एवं कुशल बनता है। इस प्रकार शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की प्रक्रिया है जिससे वह सभी सम्भाव्यताओं की पूर्ति करता है।

(4) शिक्षा दो अंगीय प्रक्रिया है- प्रो० डीवी ने शिक्षा प्रक्रिया के (क) मनोवैज्ञानिक तथा (ख) सामाजिक अंग या पक्ष बताता है। मनोवैज्ञानिक अंग में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं, रुचियों और आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है। सामाजिक अंग में सामाजिक कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग लेने की क्षमता, सामर्थ्य आदि पर ध्यान रहता है। प्रयोजनवादी दोनों अंगों के विकास पर ध्यान देते हैं परन्तु अधिक ध्यान सामाजिक अंग के विकास की ओर रहता है।

(5) शिक्षा जनतन्त्रीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया है- शिक्षा के द्वारा मनुष्य में स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृभावना के साथ रहने, काम करने तथा समाज को बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए जिससे कि प्रगति एवं विकास की सम्भावना होती है। इसलिए डीवी जैसे प्रयोजनवादी ने कहा है कि “विद्यालय में सभी छात्रों को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए जिससे उनमें स्वोपक्रम, स्वाधीनता, और साधन-सम्पन्नता के सक्रिय गुणों का विकास हो और दोष दूर रहे तथा जनतन्त्र की असफलताएँ गायब हो जावें ।” अर्थात् अच्छे जनतन्त्रीय समाज का निर्माण हो जावे।

(6) शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं स्वयं जीवन है- प्रो० डीवी और अन्य प्रयोजनवादियों का दृएिकोण जीवन और शिक्षा के प्रति समान है। इनके अनुसार शिक्षा लेकर मनुष्य अपने भविष्य जीवन की तैयारी नहीं करता है बल्कि शिक्षा तो जातीय जीवन का चेतना में भाग लेकर चलती है। जहाँ इस प्रकार का दृएिकोण और व्यवहार होता है वहाँ शिक्षा वास्तविक रूप से जीवन ही होती है। आगे प्रो० डीवी ने कहा है कि “शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है बल्कि स्वयं जीवन है।”

(7) शिक्षा सामाजिक जीवन का भोजन है- शिक्षा की क्रिया को समाज के जीवन में कितना महत्वपूर्ण माना है यह हमें प्रो० जॉन डीवी के शब्दों में मिलता है, “जो भोजन ग्रहण और सन्तानोत्पादन की क्रिया शारीरिक जीवन के लिए कार्य करती है शिक्षा वही कार्य सामाजिक जीवन के लिए करती है।”

जहाँ शिक्षा ऐसी प्रक्रिया होती है वहीं मनुष्य को बल मिलता है और वह समाज की‌ चेतना धारण करता है और उसका पुनर्निर्माण और पुनसंगठन करता है, समाज के कार्यों में स्वयं भाग लेता है तथा जनतांत्रिक व्यवस्था को सफल बनाता है।

(8) शिक्षा दर्शन की प्रयोगशालीय प्रक्रिया है- शिक्षा का क्षेत्र व्यापक और क्रियात्मक होता है जहाँ दर्शन के सभी सिद्धान्तों की प्रयोगात्मक ढंग से जाँच की जाती है और उन्हें उपयोगी घोषित किया जाता है तथा लोग उन्हें प्रत्यक्ष रूप से समझ कर अपनाते हैं। अतएव प्रयोजनवादी विचारक शिक्षा को दर्शन की प्रयोगशाला मानते हैं और शिक्षा की प्रक्रिया को प्रयोगशालीय प्रक्रिया कहते हैं।

ऊपर के विचारों को इस वाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि प्रो० जॉन डीवी के ही विचार समझना चाहिए। सारांश रूप में डीवी ने शिक्षा को अनुभवों के संचय की क्रिया माना है जिससे सामाजिक जीवन का पुनर्निर्माण होता है, व्यक्ति में सामाजिक चेतना आती है, मनुष्य समाज की क्रियाओं में कुशलतापूर्वक भाग लेता है, और फलस्वरूप सफल जनतन्त्र तैयार होता है। शिक्षा इस प्रकार जीवन का दूसरा रूप है।

भारतीय विचारक, जिनका प्रयोजनवाद से सम्बन्ध कहा जा सकता है गांधी जी हैं। गांधी जी में आदर्शवादी दृष्टिकोण भी है और दोनों दृष्टिकोणों को मिलाकर उन्होंने शिक्षा का तात्पर्य उस क्रिया से लिया है जिसमें व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक गुणों का सर्वोत्तम प्रकाशन होता है।

इसके अलावा एक भौतिकवादी की भाँति भी इन्होंने शिक्षा के बारे में कहा है:

“शिक्षा बेरोजगारी से सुरक्षा के एक तरीके के रूप में होनी चाहिए।”

गांधी जी भी प्रो० जॉन डीवी के इस विचार से सहमत पाये जाते हैं कि शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं स्वयं जीवन है। इसका कारण यह है कि गांधी जी ने “बेसिक शिक्षा योजना’ में यह स्पष्ट कहा है कि जीविका और शिक्षा साथ-साथ चले। यही भाव डीवी का भी था कि शिक्षा जीवन की सच्ची परिस्थितियों में क्रियात्मक और उत्पादक ज्ञान के साथ होनी चाहिए। अतएव दोनों के विचार इस सम्बन्ध में लगभग एक समान ही हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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